भारत का प्राचीनतम उपलब्ध सािहित्य वैदिदिक सािहित्य हिैद। वैदिदिक कालीन भारतीय यज्ञ िकया करते थे। यज्ञों के िविशिष्ट फल प्राप्त करने के िलये उन्हिे िनधार्धारिरत समय पर करना आवश्यक था इसिलये वैदिदिककाल से हिी भारतीयों ने वेधों द्वारा सूर्यर्धार और चंद्रमा की ितिस्थितयों से काल का ज्ञान प्राप्त करना शिुर िकया। पंचांग सुधारसिमित की िरपोर्टर्धार मे िदिए गए िववरण के अनुसार ऋग्वेदि काल के आयो ं ने चांद्र सौर वषर्धार गणना पद्धतित का ज्ञान प्राप्त कर िलया था। वे
12
चांद्र मास तथा चांद्र मासों कोर् सौर वषर्धार से
संबद्धत करनेवाले अिधमास कोर् भी जानते थे। िदिन कोर् चंद्रमा के नक्षत्र से व्यक्त करते थे। उन्हिे चंद्रगितयों के ज्ञानोर्पयोर्गी चांद्र रािशिचक्र का ज्ञान था। वषर्धार के िदिनों की संख्या
366 थी,
िजनमे से चांद्र वषर्धार
12 िदिन घटा दिेते थे। िरपोर्टर्धार के अनुसार ऋग्वेदि कालीन आयो ं का समय कम से कम 1,200 वषर्धार ईसा पूर्वर्धार अवश्य हिोर्ना चािहिए। लोर्कमान्य बाल गंगाधर ितलक की ओरायन के अनुसार यहि समय शिक संवत् से लगभग 4000 वषर्धार पहिले ठहिरता हिैद। के िलये
यजुवेदि काल मे भारतीयों ने मासों के
12
नाम मधु
,
माधव
,
शिुक्र
,
शिुिच
,
नमस्
,
नमस्य
,
, ऊर्जर्धार , सहिस, तपस् तथा तपस्य रखे थे। बादि मे यहिी पूर्िणर्धारमा मे चंद्रमा के नक्षत्र के आधार पर चैदत्र, वैदशिाख, ज्येष, आषाढ, भाद्रपदि, आितिश्वन, काितर्धार क, मागर्धार शिीषर्धार , पौष, माघ तथा इष
फाल्गुन हिोर् गए। यजुवेदि मे नक्षत्रों की पूर्री संख्या तथा उनकी अिधष्टात्री दिेवताओं के नाम भी िमलते हिै। यजुवेदि मे ितिथ तथा पक्षों
,
उत्तर तथा दििक्षण अयन और िवषुव िदिन की भी कल्पना हिैद। िवषुव िदिन वहि
हिैद िजस िदिन सूर्यर्धार िवषुवत् तथा क्रांितवृत्त के संपात मे रहिता हिैद। श्री शिंकर बालकृष्ण दिीिक्षत के अनुसार यजुवेदि कािलक आयो ं कोर् गुर
,
शिुक्र तथा राहिु केतु का ज्ञान था। यजुवेदि के रचनाकाल के िवषय मे
िवद्वानों मे मतभेदि हिैद। यिदि हिम पाश्चात्य पक्षपाती
,
कीथ का मत भी ले तोर् यजुवेदि की रचना
600 वषर्धार ईसा पूर्वर्धार हिोर् चुकी थी। इसके पश्चात् वेदिांग ज्योर्ितष का काल आता हिैद, जोर् ई o पूर्o 1,400 वषो ं से लेकर ई o पूर्o 400 वषर्धार तक हिैद। वेदिांग ज्योर्ितष के अनुसार पाँच वषो ं का युग माना गया हिैद, िजसमे 1830 माध्य सावन िदिन, 62 चांद्र
, 1860 संवत्सर, पिरवत्सर, मास
ितिथयाँ तथा इदिावत्सर
,
67
नाक्षत्र मास हिोर्ते हिै। युग के पाँच वषो ं के नाम हिै
अनुवत्सर तथा इद्ववत्सर
1
:
इसके अनुसार ितिथ तथा चांद्र
नक्षत्र की गणना हिोर्ती थी। इसके अनुसार मासों के माध्य सावन िदिनों की गणना भी की गई हिैद। वेदिांग ज्याितष मे जोर् हिमे महित्वपूर्णर्धार बात िमलती हिैद वहि युग की कल्पना
,
िजसमे सूर्यर्धार और चंद्रमा के प्रत्यक्ष
वेधों के आधार पर मध्यम गित ज्ञात करके इष्ट ितिथ आिदि िनकाली गई हिैद। आगे आनेवाले िसद्धतांत ज्योर्ितष के ग्रंथों मे इसी प्रणाली कोर् अपनाकर मध्यम ग्रहि िनकाले गए हिै। वेदिांग ज्योर्ितष और िसद्धतांत ज्योर्ितष काल के भीतर कोर्ई ज्योर्ितष काल के भीतर कोर्ई ज्योर्ितष गणना का ग्रंथ उपलब्ध नहिीं हिोर्ता। िकंतु इस बीच के सािहित्य मे ऐसे प्रमाण िमलते हिै िजनसे यहि स्पष्ट हिैद िक ज्योर्ितष के ज्ञान मे वृिद्धत अवश्य हिोर्ती रहिी हिैद की ितिस्थित
,
ग्रहियुित
,
,
उदिाहिरण के िलये
,
महिाभारत मे कई स्थानों पर ग्रहिों
ग्रहियुद्धत आिदि का वणर्धार न हिैद। इससे इतना स्पष्ट हिैद िक महिाभारत के समय मे
भारतवासी ग्रहिों के वेध तथा उनकी ितिस्थित से पिरिचत थे। िसद्धतांत ज्योर्ितष प्रणाली से िलखा हिु आ प्रथम पौरष ग्रंथ आयर्धार भट प्रथम की आयर्धार भटीयम्
421)
हिैद। तत्पश्चात् बराहििमिहिर
िजसमे पेतामहि
,
वािसष
,
रोर्मक
,
(शिक संo 427)
:
द्वारा संपािदित िसद्धतांतपंिचका हिैद
,
िकंतु इनके िनमार्धारणकाल का कोर्ई िनदिेशि नहिीं हिैद।
भारतीय ज्योर्ितष ग्रंथकारों ने इन्हिे अपौरषेय माना हिैद। आधुिनक िवद्वानों ने अनुमानों से
इनके कालों कोर् िनकाला हिैद
,
और ये परस्पर िभन्न हिै। इतना िनितिश्चत हिैद िक ये वेदिांग ज्योर्ितष तथा
बराहििमिहिर के समय के भीतर प्रचिलत हिोर् चुके थे। इसके बादि िलखे गए िसद्धतांतग्रंथों मे मुख्य हिै
:
(शिक संo 520) का ब्रह्मिसद्धतांत, लल्ल (शिक संo 560) का िशिष्यधीवृिद्धतदि, श्रीपित (शिक संo 961) का िसद्धतांतशिेखर, भास्कराचायर्धार (शिक संo ब्रह्मगुप्त
,
पुिलशि तथा सूर्यर्धारिसद्धतांतों का संग्रहि हिैद। इससे यहि तोर् पता चलता हिैद
िक बराहििमिहिर से पूर्वर्धार ये िसद्धतांतग्रंथ प्रचिलत थे सामान्यत
(शिक संo
1036) का िसद्धतांत िशिरोर्मिण, गणेशि (1420 शिक संo) कमलाकर भट्ट (शिक संo 1530) का िसद्धतांत-तत्व-िववेक। गिणत ज्योर्ितष के ग्रंथों के दिोर् वगीकरण हिै
:
का ग्रहिलाघव तथा
िसद्धतांतग्रंथ तथा करणग्रंथ। िसद्धतांतग्रंथ युगािदि अथवा
कल्पािदि पद्धतित से तथा करणग्रंथ िकसी शिक के आरंभ की गणनापद्धतित से िलखे गए हिै। गिणत ज्योर्ितष
, दिेशि तथा काल, सूर्यर्धार और चंद्रगहिण, ग्रहियुित, ग्रहिच्छाया, सूर्यर्धार सांिनध्य से ग्रहिों का उदियास्त, चंद्रमा की श्रृंगोर्न्नित, पातिववेचन तथा वेधयंत्रों का िववेचन। ग्रंथों के मुख्य प्रितपाद्य िवषय हिैद
:
मध्यम ग्रहिों की गणना
,
स्पष्ट ग्रहिों की गणना
,
िदिक्
360 मान ली जाती हिैद। इसका 360 वाँ भाग एक अंशि, का 60 वाँ भाग एक कला, कला का 60 वाँ भाग एक िवकला, एक िवकला का 60 वाँ भाग एक प्रितिवकला हिोर्ता हिैद। 30 अंशि की एक रािशि हिोर्ती हिैद। ग्रहिों की गणना के िलये क्रांितवृत्त के, िजसमे सूर्यर्धार भ्रमण करता िदिखलाई दिेता हिैद, 12 भाग माने जाते हिै। इन भागों कोर् मेष, वृष आिदि रािशियों के नाम से पुकारा जाता हिैद। ग्रहि की ितिस्थित बतलाने के िलये मेषािदि से लेकर ग्रहि के रािशि , अंग, कला, तथा िवकला बता िदिए जाते हिै। यहि ग्रहि का भोर्गांशि हिोर्ता हिैद। िसद्धतांत ग्रंथों मे प्राय: एक वृत्तचतुथार्थांशि (90 चाप) के 24 भाग करके उसकी ज्याएँ तथा कोर्िटज्याएँ िनकाली रहिती हिैद। इनका मान कलात्मक रहिता हिैद। 90 के चाप की ज्या वृहिद्वृत्त का अधर्धार व्यास हिोर्ती हिैद, िजसे ित्रज्या कहिते हिै। इसकोर् िनम्निलिखत सूर्त्र से िनकालते हिै : पूर्रे वृत्त की पिरिध
पिरिध
= (३९२७ /
इस प्रकार ित्रज्या का मान
१२५०
)x
3438
व्यास कला हिैद
आधुिनक प्रणाली की तरहि अधर्धार ज्या हिैद। वस्तुत
:
,
जोर् वास्तिवक मान के आसन्न हिैद। चाप की ज्या
वतर्धार मान ित्रकोर्णािमितक िनष्पित्तयों का िवकास
भारतीय प्रणाली के आधार पर हिु आ हिैद और आयर्धार भट कोर् इसका आिवष्कतार्धार माना जाता हिैद। यिदि िकन्हिीं दिोर् िभन्न आकार के वृत्तों के ित्रकोर्णिमतीय मानों की तुलना करना अपेिक्षत हिोर्ता हिैद
,
तोर् वृहिदि् वृत्त की
ित्रज्या तथा अभीष्ट वृत्त की िनष्पित्त के आधार पर अभीष्ट वृत्त की पिरिध अंशिों मे िनकाली जाती हिैद। इस प्रकार मंदि और शिीघ्र पिरिधयों मे यद्यिप नवीन क्रम से अंशिों की संख्या
360
हिी हिैद
,
तथािप
िसद्धतांतग्रंथों मे िलखी हिु ई न्यूर्न संख्याएँ केवल तुलनात्मक गणना के िलये हिै।
(लंकोर्दियासन्न) के एक उदिय से दिसूर् रे उदिय तक एक मध्यम सावन िदिन हिोर्ता हिैद। यहि वतर्धार मान कािलक अंग्रेजी के 'िसिवल डे' (civil day) जैदसा हिैद। एक सावन िदिन मे 60 घटी; 1 घटी 24 िमिनट साठ पल; 1 पल 24 सेकेड 60 िवपल तथा 2 1/2 िवपल 1 सेकेड हिोर्ते हिै। सूर्यर्धार के िकसी ितिस्थर िबंदि ु (नक्षत्र) के सापेक्ष पृथ्वी की पिरक्रमा के काल कोर् सौर वषर्धार कहिते हिै। यहि ितिस्थर िबंदि ु मेषािदि िवषुवदि् वृत्त मे एक समगित से चलनेवाले मध्यम सूर्यर्धार
हिैद। ईसा के पाँचवे शितक के आसन्न तक यहि िबंदि ु कांितवृत्त तथा िवषुवत् के संपात मे था। अब यहि उस स्थान से लगभग
23
पितिश्चम हिट गया हिैद
,
िजसे अयनांशि कहिते हिै। अयनगित िविभन्न ग्रंथों मे एक
1 कला मानी गई हिैद। वतर्धारमान सूर्क्ष्म अयनगित 50.2 िवकला हिैद। िसद्धतांतग्रथों का वषर्धार मान 365 िदिo 15 घ o 31 प o 31 िवo 24 प्रित िवo हिैद। यहि वास्तव मान से 8।34।37 पलािदि अिधक हिैद। इतने समय मे सूर्यर्धार की गित 8.27 हिोर्ती हिैद। इस प्रकार हिमारे वषर्धार मान के कारण हिी अयनगित की अिधक सी नहिीं हिैद। यहि लगभग प्रित वषर्धार
कल्पना हिैद। वषो ं की गणना के िलये सौर वषर्धार का प्रयोर्ग िकया जाता हिैद। मासगणना के िलये चांद्र मासों का। सूर्यर्धार और चंद्रमा जब राश्यािदि मे समान हिोर्ते हिै तब वहि अमांतकाल तथा जब
6
रािशि के अंतर पर
हिोर्ते हिै तब वहि पूर्िणर्धार मांतकाल कहिलाता हिैद। एक अमांत से दिस ूर् रे अमांत तक एक चांद्र मास हिोर्ता हिैद
,
िकंतु शितर्धार यहि हिैद िक उस समय मे सूर्यर्धार एक रािशि से दिस ूर् री रािशि मे अवश्य आ जाय। िजस चांद्र मास मे सूर्यर्धार की संक्रांित नहिीं पड़ती वहि अिधमास कहिलाता हिैद। ऐसे वषर्धार मे
12
के स्थान पर
13
मास
हिोर् जाते हिै। इसी प्रकार यिदि िकसी चांद्र मास मे दिोर् संक्रांितयाँ पड़ जायँ तोर् एक मास का क्षय हिोर् जाएगा। इस प्रकार मापों के चांद्र रहिने पर भी यहि प्रणाली सौर प्रणाली से संबद्धत हिैद। चांद्र िदिन की इकाई कोर् ितिथ कहिते हिै। यहि सूर्यर्धार और चंद्र के अंतर के संबद्धत हिैद
1
12 वे भाग के बराबर हिोर्ती हिैद। हिमारे धािमर्धारक िदिन ितिथयों से
चंद्रमा िजस नक्षत्र मे रहिता हिैद उसे चांद्र नक्षत्र कहिते हिै। अित प्राचीन काल मे वार के स्थान
पर चांद्र नक्षत्रों का प्रयोर्ग हिोर्ता था। काल के बड़े मानों कोर् व्यक्त करने के िलये युग प्रणाली अपनाई जाती हिैद। वहि इस प्रकार हिैद कृतयुग द्वापर त्रेता
:
(सत्ययुग) 17,28,000
12,96,000
8, 64,000
किल
4,32,000
योर्ग महिायुग कल्प
वषर्धार
वषर्धार वषर्धार
43,20,000
1000
महिायुग
वषर्धार
वषर्धार
4,32,00,00,000
सूर्यर्धार िसद्धतांत मे बताए आँ कड़ों के अनुसार किलयुग का आरंभ पूर्
o
समान
कोर् हिु आ था। युग से अहिगर्धार ण
,
(िदिनसमूर्हिों)
17
की गणना प्रणाली
वषर्धार
फरवरी
,
, 3102 ई o
जूर्िलयन डे नंबर के िदिनों के
भूर्त और भिवष्य की सभी ितिथयों की गणना मे सहिायक हिोर् सकती हिैद।
ग्रहि की मेषािदि के सापेक्ष पृथ्वी की पिरक्रमा कोर् एक भगण कहिते हिै। िसद्धतांतग्रथों मे युग
,
या कल्पग्रहिों
,
के मध्य भगण िदिए रहिते हिै। युग या कल्प के मध्य सावन िदिनों की संख्या भी दिी रहिती हिैद। यिदि युग या कल्प के प्रारंभ मे ग्रहि मेषािदि मे हिों तोर् बीच के िदिन
(अहिगर्धारण)
ज्ञात हिोर्ने से मध्यम ग्रहि कोर् त्रैदरािशिक से
िनकाला जा सकता हिैद। भगण की पिरभाषा के अनुसार बुध और शिुक्र की मध्यम गित सूर्यर्धार के समान हिी मानी गई हिैद। उनकी वास्तिवक गित के तुल्य उनकी शिीघ्रोर्च्च गित मानी गई हिैद। ये ग्रहि रेखादिेशि उज्जियनी
,
,
के याम्योर्त्तर के आते हिै
,
अथार्धारत्
िजन्हिे दिेशिांतर तथा चर संस्कारों से अपने स्थान के मयम
सयोदियासन्नकािलक बनाया जाता हिैद। स्पष्ट सूर्यर्धार और चंद्रमा की स्पष्ट गित िजस समय सबसे कम हिोर् उस समय के स्पष्ट सूर्यर्धार और चंद्रमा का िजतना भाग हिोर्गा उसे उनके मंदिोर्च्च का भोर्ग समझना चािहिए। स्पष्ट रिव चंद्र और मध्यम रिव चंद्र के अंतर कोर् मंदिफल कहिते हिै। मंदिोर्च्च से
180
की दिरूर् ी पर मंदिनीच हिोर्गा। मंदिोर्च्च से छहि रािशि तक
स्पष्ट सूर्यर्धार चंद्र मध्यम सूर्यर्धार चंद्र से पीछे रहिते हिै। इसिलये मंदि फल ऋण हिोर्ता हिैद। मंदिोर्च्च से मध्यम ग्रहि के अंतर की मंदिकेद्र संज्ञा हिैद। मंदिोर्च्च से
3
रािशि के अंतर पर मंदिफल परमािधर्धार क हिोर्ता हिैद। उसे मंदिांत्य
फल कहिते हिै। मंदिनीच से मंदिोर्च्च तक स्पष्ट ग्रहि मध्यम ग्रहि से आगे रहिता हिैद
, अत:
मंदिफल धन हिोर्ता
हिैद। मंदिस्पष्ट रिव चंद्र के मंदिफल कोर् ज्ञात करने के िलये दिोर् प्रकार के क्षेत्रों की कल्पना हिैद
,
िजन्हिे भंिग
कहिते हिै। पहिली का नाम प्रितवृत्त भंिग हिैद। भूर् कोर् केद्र मानकर एक ित्रज्या के व्यासाधर्धार से वृत्त खींचा
,
वहि कक्षावृत्त हिु आ। इसके ऊर्ध्वार्धारधरव्यास पर मंदि अत्यफल की ज्या के तुल्य काटकर उस केद्र से एक ित्रज्या व्यास से वृत्त खींचा वहि मंदिप्रितवृत्त हिोर्गा। मध्यम ग्रहि कोर् मंदिप्रितवृत्त मे चलता कितिल्पत िकया। यिदि कक्षा वृत्त मे भी मंदिकेद्र के तुल्य चाप काटे तोर् वहिाँ कक्षावृत्त का मध्यम ग्रहि हिोर्गा। भूर्केद्र से प्रितवृत्त ितिस्थत ग्रहि तक खींची गई रेखा कक्षावृत्त मे जहिॉ लगे वहि मंदिस्पष्ट ग्रहि हिोर्गा। कक्षावृत्त के मध्यम और मंदिस्पष्ट ग्रहि का अंतर मंदिफल हिोर्गा। नीचोर्च्च भंिग के िलये कक्षावृत्त पर ितिस्थत मध्यम ग्रहि से
,
मंदिांत्यफलज्या तुल्य व्यासाधर्धार से एक वृत्त खींच लेते हिै
िजसे मंदिपिरिध वृत्त कहिते हिै। कक्षावृत्त के केद्र
से मध्यम ग्रहि से जाती हिु ई रेखा जहिाँ मंदिपिरिधवृत्त मे लगे उसे मंदिोर्च्च मानकर िदिशिा मे
,
,
मंदि पिरिध मे िवपरीत
केद्र के तुल्य अंशिों पर ग्रहि की कल्पना की जाती हिैद। ग्रहि से भूर्केद्र कोर् िमलानेवाली रेखा
(मंदिकणर्धार)
िजस स्थान पर कक्षावृत्त कोर् काटे वहिाँ मंदिस्पष्ट ग्रहि हिोर्गा। इस प्रकार मंदिस्पष्ट िकए गए सूर्यर्धार
,
और चंद्र हिमे उन स्थानों पर िदिखलाई दिेते हिै
क्योंिक उनका भ्रमण हिमे पृथ्वीकेद्र के सापेक्ष िदिखलाई
पड़ता हिैद। शिेष ग्रहिों के िलये भी मंदिफल िनकालने की वैदसी हिी कल्पना हिैद। उनका मंदिोर्च्च स्पष्ट ग्रहि से िवलोर्मरीित द्वारा मंदिस्पष्ट का ज्ञान करके ज्ञात करते हिै। ये मंदिस्पष्ट ग्रहि दृश्य नहिीं हिोर्ते
,
क्योंिक पृथ्वी
उनके भ्रमण का केद्र नहिीं हिैद। ऊर्पर के िववेचन से स्पष्ट हिैद िक मंदिस्पष्ट ग्रहि अपनी कक्षा मे घूर्मते ग्रहि का भोर्ग
(longitude)
हिोर्ता हिैद। अतएव भूर्दृश्य बनाने के िलये पाँच ग्रहिों के िलये शिीघ्र
फल की कल्पना की गई हिैद। मंगल
, बुध, गुर,
शिुक्र
,
तथा शििन कोर् स्पष्ट करने के िलये शिीघ्रफल की कल्पना हिैद। इसके िलये
भी मंदि प्रितवृत्त तथा मंदिनीचोर्च्च जैदसी भंिगयों की कल्पना की जाती हिैद
,
िजसके िलये मंदि के स्थान पर
शिीघ्र शिब्दि रख िदिया जाता हिैद। अंतग्रर्धारहिों के िलये वास्तिवक मध्यमग्रहिों कोर् हिी शिीघ्रोर्च्च कहिते हिै। उनके
(maxium elongation) कोर् परमशिीघ्रफल, परमशिीघ्रफल की ज्या कोर् शिीघ्रांत्य फलज्या कहिते हिै। ग्रहि (मध्यमरिव) और माध्य अिधकतम रिवग्रहिांतर कोर्ण
शिीघ्रोर्च्च का अंतर शिीघ्रकेद्र हिोर्ता हिैद। इसमे मंदिफल के िलये बनाई गई भंिगयों की तरहि भंिगयाँ बनाकर शिीघ्रफल िनकाला जाता हिैद। इस प्रकार के संस्कार से ग्रहि का इष्ट रिवग्रहिांतर कोर्ण करके ग्रहि की ितिस्थित ज्ञात हिोर् जाती हिैद। बिहिग्रर्धारहिों के िलये रिवकेिद्रक परमलंबन की परमशिीघ्रफल तथा रिव कोर् शिीघ्रोर्च्च मानकर शिीघ्रफल ज्ञात िकया जाता हिैद। शिीघ्रफल के संस्कार की िविध आचायो ं ने इस प्रकार िनद्धतार्धारिरत की हिैद िक उपलब्ध ग्रहि का भोर्ग यथाथर्धार आ सके। ग्रहिों की कक्षाएँ चंद्र
, बुध,
शिुक्र
इनका केद्र पृथ्वी माना गया हिैद कितिल्पत िकया हिैद
,
1
, रिव,
भौम
, गुर,
शििन के क्रम से उत्तरोर्त्तर पृथ्वी से दिरूर् हिै।
यद्यिप ग्रहिों के साधन के िलये प्रत्येक कक्षा का अधर्धार व्यास ित्रज्यातुल्य
तथािप उनकी अंत्यफलज्या िभन्न हिोर्ने के कारण उनकी दिरूर् ी िविभन्न प्रकार की आती
हिैद। शिीघ्रांत्यफलज्याओं और ित्रज्याओं की ग्रहिकक्षाव्यासाधर्थां और रिवकक्षाव्यासाधर्धार से तुलना करने पर
, शिुक्र, मंगल, बृहिस्पित तथा शििन की कक्षाओं के व्यासाधर्धार पृथ्वी से रिव की दिरूर् ी के सापेक्ष . 3694, .7278, .1.5139, .5.1429 तथा बुध
9.2308 आते हिै। आधुिनक सूर्क्ष्म मान .3871, .7233, 1.5237, 5.2028 तथा 9.5288 हिै। ग्रहिकक्षा और क्रांितवृत्त के संपात कोर् पात कहिते हिै। ग्रहि के भ्रमणमागर्धार कोर् िवमंडल कहिते हिै। क्रांितवृत्त तथा िवमंडल के बीच के कोर्ण कोर् परमिवक्षेप कहिते हिै। इनके मान भूर्केिद्रक ज्ञात िकए गए हिै। तमोर्ग्रहि राहिु केतु सदिा चंद्रमा के पातों पर कितिल्पत िकए जाते हिै। पात की गित िवलोर्म हिोर्ती हिैद। ग्रहिणािधकारों मे सूर्यर्धार तथा चंद्र के ग्रहिणों का गिणत हिैद। चंद्रमा का ग्रहिण भूर्छाया मे प्रिवष्ट हिोर्ने से तथा सूर्यर्धारग्रहिण चंद्रमा द्वारा सूर्यर्धार के ढके जाने से माना गया हिैद। सूर्यर्धारग्रहिण मे लंबन के कारण भूर्केद्रीय चंद्र तथा हिमे िदिखाई दिेनेवोर्ल चंद्र मे बहिु त अंतर आ जाता हिैद। अत
:
इसके िलये लंबन का ज्ञान िकया जाता हिैद।
चंद्रश्रृंगोर्न्नित मे चंद्रमा की कलाओं कोर् ज्ञात िकया जाता हिैद। ग्रहिच्छायािधकार मे ग्रहिों के उदियास्त काल तथा इष्टकाल मे वेध की िविध और पातािधकार मे सूर्यर्धार और चंद्रमा के क्रांितसाम्य का िवचार िकया जाता
180° के समय क्रांितसाम्य हिोर्ने पर, व्यितपात तथा एक अयन िभन्न गोर्लाधर्धार मे हिोर्ने पर वहिी योर्ग 360° हिैद। िभन्न अयन तथा एक गोर्लाधर्धार मे हिोर्ने पर
,
सायन िरवचंद्र के योर्ग
के
तुल्य हिोर् तोर् क्रांितसाम्य मे वैदधृित हिोर्ती हिैद। ये दिोर्नों शिुभ कायो ं के िलये विजर्धार त हिै। ग्रहियुित मे ग्रहिों के अित सािन्नध्य की ितिस्थितयों का
(युद्धत समागम का)
गिणत हिैद। भग्रहियुित मे नक्षत्रों के िनयामक िदिए गए हिै।
भारतीय ज्योर्ितष प्रणाली से बनाए ितिथपत्र कोर् पंचांग कहिते हिै। पंचांग के पाँच अंग हिै नक्षत्र
,
योर्ग तथा करण। पंचांग मे इनके अितिरक्त दिैदिनक
,
दिैदिनक लगनस्पष्ट
,
:
ग्रहिचार
ितिथ
,
, वार,
ग्रहिों के
सूर्यर्धारसािन्नध्य से उदिय और अस्त और चंद्रोर्दियास्त िदिए रहिते हिै। इनके अितिरक्त इनमे िविवध मुहिूतर्धार तथा धािमर्धार क पवर्धार िदिए रहिते हिैद