अप्सरा और यक्षिणी वशीकरण कवच: By Hariom Nikhil on Monday, March 10, 2014 at 8:13am The Apsara Magic Yakshini Apsara Vashikaran Kavach
इस नायमका कवच को मक्षऺणी ऩुजा से ऩहरे 1,5 मा 7 फाय जऩ ककमा जाना चाहहए। इस कवच के जऩ से ककसी बी प्रकाय की सुन्दयी साधना भें ववऩयीत ऩरयणाभ प्राप्त नहीॊ होते औय साधना भें जल्द ही ससवि प्राप्त होती हैं। हभ आशा कयते हैं कक जफ बी आऩ कोई बी मक्षऺणी साधना
कयोगें तो इस कवच का जऩ अवश्म कयोगें । इस कवच के जऩ से सभस्त प्रकाय की ससविमाॉ दे ने वारी मक्षऺणी साधक के यनमॊत्रण भे आ जाती हैं औय साधक के सबी भनोयथो को ऩूणण कयती हैं। मक्षऺणी साधना से जुडा मह कवच अऩने आऩ भे दर ण हैं। इस कवच के जऩने से मक्षऺणीमों का ु ब वशीकयण होता हैं। तो क्मा सोच यहे हैं आऩ........................
।। श्री उन्भत्त-बैयव उवाच ।।
श्रण ण ॊ। मक्षऺणी-नायमकानाॊ त,ु सॊऺेऩात ् ससवि-दामकॊ ।। ु ब ृ ु कल्माणण ! भद्-वाक्मॊ, कवचॊ दे व-दर ऻान-भात्रेण दे वसश ! ससविभाप्नोयत यनश्श्चतॊ। मक्षऺणण स्वमभामायत, कवच-ऻान-भात्रत् ।। सवणत्र दर ण ॊ दे वव ! डाभये षु प्रकासशतॊ। ऩठनात ् धायणान्भत्मो, मक्षऺणी-वशभानमेत ् ।। ु ब
ववयनमोग्- ॐ अस्म श्रीमक्षऺणी-कवचस्म श्री गगण ऋवष्, गामत्री छन्द्, श्री अभुकी मक्षऺणी दे वता, साऺात ् ससवि-सभि ृ मथे ऩाठे ववयनमोग्।
ऋष्माहदन्मास्- श्रीगगण ऋषमे नभ् सशयसस, गामत्री छन्दसे नभ् भुखे, श्री ययतवप्रमा मक्षऺणी दे वतामै नभ् हृहद, साऺात ् ससवि-सभि ृ मथे ऩाठे ववयनमोगाम नभ् सवाांगे।
।। भूर ऩाठ ।।
सशयो भे मक्षऺणी ऩात,ु रराटॊ मऺ-कन्मका। भुखॊ श्री धनदा ऩात,ु कणौ भे कुर-नायमका ।।
चऺुषी वयदा ऩात,ु नाससकाॊ बक्त-वत्सरा। केशाग्रॊ वऩॊगरा ऩात,ु धनदा श्रीभहे श्वयी ।।
स्कन्धौ कुरारऩा ऩात,ु गरॊ भे कभरानना। ककयायतनी सदा ऩात,ु बुज-मुग्भॊ जटे श्वयी ।।
ववकृतास्मा सदा ऩात,ु भहा-वज्र-वप्रमा भभ। अस्त्र-हस्ता ऩातु यनत्मॊ, ऩष्ृ ठभुदय-दे शकभ ् ।।
बेरुण्डा भाकयी दे वी, हृदमॊ ऩातु सवणदा। अरॊकायाश्न्वता ऩात,ु यनतम्फ-स्थरॊ दमा ।।
धासभणका गुह्मदे शॊ भे, ऩाद-मुग्भॊ सुयाॊगना।
शून्मागाये सदा ऩात,ु भन्त्र-भाता-स्वरुवऩणी ।।
यनष्करॊका सदा ऩात,ु चाम्फव ु त्मणखरॊ तनॊ।ु प्रान्तये धनदा ऩात,ु यनज-फीज-प्रकासशनी ।।
रक्ष्भी-फीजाश्त्भका ऩातु, खड्ग-हस्ता श्भशानके। शून्मागाये नदी-तीये , भहा-मऺेश-कन्मका।।
ऩातु भाॊ वयदाख्मा भे, सवाांगॊ ऩातु भोहहनी। भहा-सॊकट-भध्मे त,ु सॊग्राभे रयऩु-सञ्चमे ।।
क्रोध-रुऩा सदा ऩातु, भहा-दे व यनषेववका। सवणत्र सवणदा ऩात,ु बवानी कुर-दायमका ।।
इत्मेतत ् कवचॊ दे वव ! भहा-मक्षऺणी-प्रीयतवॊ। अस्मावऩ स्भयणादे व, याजत्वॊ रबतेऽचचयात ्।।
ऩञ्च-वषण-सहस्राणण, श्स्थयो बवयत बू-तरे। वेद-ऻानी सवण-शास्त्र-वेत्ता बवयत यनश्श्चतभ ्। अयण्मे ससविभाप्नोयत, भहा-कवच-ऩाठत्।
मक्षऺणी कुर-ववद्मा च, सभामायत सु-ससिदा।।
अणणभा-रयघभा-प्राश्प्त् सख ु -ससवि-परॊ रबेत ्। ऩहठत्वा धाययमत्वा च, यनजणनेऽयण्मभन्तये ।।
श्स्थत्वा जऩेल्रऺ-भन्त्र सभष्ट-ससविॊ रबेश्न्नसश। बामाण बवयत सा दे वी, भहा-कवच-ऩाठत्।। ग्रहणादे व ससवि् स्मान ्, नात्र कामाण ववचायणा ।।
।। हरय ॐ तत्सत ।।