िसद्धान्त दर्पण-भूिमका खण्ड िितीय संस्करण -ऄरुण कु मार ईर्ाध्याय www.scribd.com/Arunupadhyay,
[email protected] ििषय सूची १. िितीय संस्करण कह्ळ भूिमका-३-६, १. िसद्धान्त दर्पण के मूल लेखक, २. ओििया ऄनुिाद, ३. िर्त्पमान व्याख्या-र्ृष्ठ ३, ४. व्याख्या कह्ळ कह्ऱठनाआयां-४, ५. िितीय संस्करण-६, ६. बलीयसी के िलमीश्वरे च्छा-७, संस्कृ त के कु छ गिणतीय शब्द-७-९ १. योग-मूल शब्द रूर्-७, २. घटाि-८, ३. गुणा-८, ४.भाग-९. घनमूल-९, िसद्धान्त दर्पण में प्रयुक्त ऄंकों के र्यापय शब्द-९-२८ १. संख्या िचह्न-९, संख्या शब्दों के ऄथप-११, शून्य-१७, ऄनन्त-२०, ऄंक-शब्द-२२, ऄन्य संख्या र्द्धितयां-२९-३४ १. दशमलि र्द्धित, २ कह्ळ र्द्धित-२९, सप्त र्द्धित-३०, ८ कह्ळ र्द्धित-३२, १२ कह्ळ र्द्धित, १५ कह्ळ र्द्धित-३३, ६० कह्ळ र्द्धित-३४, ऄक्षर संख्या-३४-४० ििदेशी िणपमाला, कटर्याह्लद सूत्र-३५, अयपभट र्द्धित-३७, देश-काल कह्ळ मार्-४०-४९ ज्योितष िचित, छन्दो-िििचित-४०, छन्दों के िैह्लदक िनिपचन-४२, छन्दों का िगीकरण तथा रूर्-४३, गायत्री के ििििध रूर्-४५, रािश, आकाइ, भौितक रािश कह्ळ मार् -४६, अधुिनक आकाआयां-४७। सप्त योजन-४९-७३ नर योजन-४९, भू योजन-५०, सौरमण्डल के िीर् (िचत्र)-५१, भ योजन-५५, धाम योजन-५६, ऄहगपण मार् (िचत्र)-५७, १७ ऄहगपण तक र्ृथ्िी, सौर मण्डल (िचत्र)-५८, सौर मण्डल-ििष्णु के र्द, ब्रह्माण्ड (िचत्र)-५९, अकाशगंगा कह्ळ सर्ापकार भुजायें (िचत्र)-६०, सौर मण्डल के क्षेत्र-६०, तार्, तेज, प्रकाश क्षेत्र-६०, २ क्षेत्र, िषट्कार क्षेत्र-६१, सौर योजन-६५, प्रकाश योजन-६६, प्रमाण योजन-६७, िभन्न मार्ों के प्रमाण-६९, जैन िेद सम्बन्ध-७०, सौर मण्डल-७०, महलोक-७१, मार् सारणी-७१, लोक तथा ििश्व-७२-७३। ििश्व िृक्ष-७४-८१ उध्िप-मूल (िचत्र)-७४, ब्रह्माण्ड कह्ळ कण संख्या-७४, ब्रह्माण्ड मनुष्य सम्बन्ध-७५, सहस्र बल्शा-७५, िृक्ष-क्रम-७५, माया के अिरण-७७, सत्य-ऄसत्य-७८, ििश्व प्रितमा मनुष्य-७८, गितशील सम्बन्ध-७८, आसका िचत्र-७९, मनुष्य का ग्रहों से सम्बन्ध-७९, मन आिन्िय-८०। कालमान-८१-१०१ ब्रह्म-कमप-यज्ञ-८२, काल के प्रकार-८३, भागित र्ुराण, स्कन्ध ३, ऄध्याय ११-८४, ऄथिप-काल सूक्त-८५, ितथ्याह्लद तत्त्ि-८६, काल के ९ मान-८६, ब्राह्म-८६, प्राजार्त्य-८८, ह्लदव्य मान-८८, गुरु मान-८९, सौर मान-८९, चान्ि मान1
९०, िर्तर सािन नाक्षत्र मान-९१, २ चक्र से युग -९१, संस्कार युग (गोर्द, ५, १२, १८, १९ िषप के )-९२, मनुष्य युग (६०, १००, १२० िषप के )-९३, र्ह्ऱरितप युग-९३, सहस्र युग-९३, ध्रुि या क्रौञ्च युग-९५, ऄयनाब्द युग-९५, ऄयनाब्द चक्र के २ खण्ड-९६, युग चक्र (सारणी)-९७, ज्योितषीय युग-९९, युग खण्ड-९९, ब्रह्मा अह्लद १०१-१०३ का काल-१०१, २८ ििसष्ठ-१०२, कश्यर् और मन्िन्तर-१०२, २८ व्यास-१०३, किल र्ूिप के राजिंश-१०५-११० सूयप िंश-१०५, चन्ि िंश-१०६, ऄन्य मुख्य िंश-१०८, किल के राजिंश-११०-११५ र्ौरि या चन्ि िंश-११०, सूयपिंश-१११, मगध का बाहपिथ िंश-१११, प्रद्योत िंश, िशशुनाग िंश, नन्दिंश-११२, मौयप िंश-११२, शुंग िंश-११३, कण्ि, अन्ध्र, गुप्त िंश-११४, कश्मीर राजिंश-११५, मालिा राजा११७ ििक्रमाह्लदत्य शािलिाहन का प्रभुत्ि-११७, र्रमार िंश-१२०, चाहमान राजा-१२१, शुक्ल या चालुक्य-१२१, प्रितहार िंश-१२१। नेर्ाल राजिंश-१२२, भारतीय ज्योितष का आितहास-१२३-१३४ मिणजा सभ्यता, स्िायम्भुि मनु, िप्रयव्रत, ईर्त्ानर्ाद-१२३, िैह्लदक सभा-१२४, र्ृथ्िी का मानिचत्र-१२५, अकाश जैसे र्ृथ्िी के लोक-१२६, भारत र्द्म के ७ लोक-१२६, ७ तल-१२७, र्ृथ्िी के ७ िीर्-१२८, मेरु र्िपत-१३०-१३४। भारतीय र्ञ्चाङ्ग-१३४-१४१। स्िायम्भुि मनु काल-१३४, ईनका र्ञ्चाङ्ग िचत्र-१३५, ध्रुि, कश्यर्, काह्सर्त्के य र्ञ्चाङ्ग-१३५, िििस्िान् र्ञ्चाङ्ग१३६, आक्ष्िाकु काल, र्रशुराम र्ञ्चाङ्ग-१३८, किल के र्ञ्चाङ्ग-१३८, भटाब्द, जैन युिधिष्ठर शक-१३८, िशशुनाग काल, नन्द शक-१३९, शूिक, चाहमान, श्रीहषप शक-१४०, ििक्रम संित्-१४०, शािलिाहन शक, कलचुह्ऱर, िलभी भंग१४१ रामायण कह्ळ ितिथयां-१४१ ऄन्य महार्ुरुषों कह्ळ ितिथयां-१४४, िसद्धाथप बुद्ध, गौतम बुद्ध, ििष्णु ऄितार बुद्ध-१४५, शंकराचायप-१४६, कु छ ज्योितिषयों के काल-१४६-१५० अयपभट-१४६, िराहिमिहर-१४७, ब्रह्मगुप्त-१४९-१५०। भारतीय सृिि ििज्ञान-१५०-१५५ अधुिनक सृिि ििज्ञान-१५०, िैह्लदक ििज्ञान-१५२, र्ुरुष िसद्धान्त-१५२, श्री िसद्धान्त-१५३-१५५। यज्ञ िसद्धान्त-१५५ यज्ञ का ऄथप-१५५, र्ाङ्क्त यज्ञ-१५६, प्राकृ ितक यज्ञ-१५७, १८ यज्ञ-१५८, र्दाथों का िमलन-१५८, ऄश्वमेध यज्ञ के रूर्-१५९, िाजर्ेय यज्ञ-१६१, र्ुरुष सूक्त में सृिि क्रम-१६१, र्ाञ्चरात्र दशपन का क्रम-१६१, सांख्य दशपन-१६२।
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िितीय संस्करण कह्ळ भूिमका १. िसद्धान्त दर्पण के मूल लेखक-ओिडशा में खण्डर्िा (र्ूिप र्ुरी िजला, ऄभी नयागढ़ िजला में) के बघेल िंशीय राज र्ह्ऱरिार के श्यामबन्धु ह्ऴसह के र्ुत्र श्री चन्िशेखर ह्ऴसह सामन्त (१८३३-१९०४) ने िैह्लदक युग से अरम्भ कर कमलाकर भट्ट र्यपन्त सभी ज्योितष ग्रन्थों के सारांश रूर् में २५०० संस्कृ त श्लोकों में यह ग्रन्थ िलखा। ईनका र्ह्ऱरिार भरिाज गोत्र का था तथा र्ुरी राजा िारा आनके प्रिर्तामह श्री िैरागी ह्ऴसह को मर्द्पराज तथा भ्रमरिर कह्ळ ईर्ािध िमली थी। िैरागी ह्ऴसह के र्ुत्र नीलाह्लि ह्ऴसह तथा ईनके र्ुत्र नृह्ऴसह तथा नृह्ऴसह के र्ुत्र श्यामबन्धु ह्ऴसह थे। ईनके र्ुत्र श्री चन्िशेखर ह्ऴसह ने र्िण्डत मधुसूदन महार्ात्र से संस्कृ त िशक्षा ग्रहण कह्ळ तथा र्िण्डत अनन्द िमश्र खड्गराय (खिंगा, राज प्रदर्त् ईर्ािध) से गिणत ज्योितष कह्ळ िशक्षा ग्रहण कह्ळ। युिािस्था से ही ईन्होंने ज्योितष कह्ळ र्ुस्तकों का संकलन, ऄध्ययन तथा िेध अरम्भ ह्लकया तथा १८५८ इस्िी में आस ग्रन्थ का लेखन अरम्भ ह्लकया। ३४ िषप के र्ह्ऱरश्रम के बाद यह १८१४ शािलिाहन शक (१८९२ इस्िी) मागपशीषप कृ ष्ण निमी शिनिार को यह र्ूणप हुअ। १८९७ इस्िी में कलकर्त्ा के ६४, कॉलेज स्रीट के आिण्डऄन िडर्ॉिजटरी से प्रकािशत हुअ था। कटक के सरकारी महाििद्यालय (रे िेनशा कॉलेज) में गिणत के प्राध्यार्क श्री योगेश (जोगेश) चन्ि राय ने आसकह्ळ ििस्तृत ऄंग्रेजी भूिमका िलख कर आसका सम्र्ादन ह्लकया। ओिडशा के अठमिल्लक के तत्कालीन राजा श्री महेन्ि देि ने आसकह्ळ प्रशंसा तथा सहायता कह्ळ थी िजसके िलये ग्रन्थकर्त्ाप श्री चन्िशेखर ह्ऴसह सामन्त ने ईन्हें यह र्ुस्तक समह्सर्त कह्ळ थी। लेखक को आस कायप के िलये कटक के ऄंग्रेज किमश्नर कह्ळ ऄनुशंसा से महामहोर्ाध्याय कह्ळ ईर्ािध िमली। र्ाह्ऱरिाह्ऱरक तथा व्यिक्तगत ईर्ािधयां िमलाकर लेखक का र्ूरा नाम महामहोर्ाध्याय सामन्त चन्िशेखर ह्ऴसह छर्ा था। मर्द्पराज तथा भ्रमरिर भी जोिना चािहये था। २. ओििया ऄनुिाद-बाद में ईत्कल ििश्वििद्यालय ने आसकह्ळ टीका का कायप र्िण्डत िीर हनुमान शास्त्री को ह्लदया िजसके िलये ईत्कल ििश्वििद्यालय से ईनको प्रितमास ६००० रुर्ये ह्लदये जाते थे। ईत्कल ििश्वििद्यालय से प्रकाशन का कायप अरम्भ हुअ ही था ह्लक ईन्होंने कटक के धमपग्रन्थ स्टोर से आसे प्रकािशत कर ह्लदया। मुझे के िल यही प्रित िमल र्ायी िजसमें कइ ऄशुिद्धयां थीं। बाद में ईत्कल ििश्वििद्यालय से तथा श्री कान्ूचरण िमश्र कह्ळ ईत्कल सािहत्य संस्था िारा आसकह्ळ प्रितयां प्रकािशत हुईं। र्िण्डत दयािनिध खिीरत्न ने भी एक प्रित प्रकािशत कह्ळ थी, र्र ये कु छ लोगों के व्यिक्तगत संग्रह के ऄितह्ऱरक्त ईर्लब्ध नहीं हैं तथा कोइ आनको देने र्र राजी नहीं है। ३. िर्त्पमान व्याख्या-मैंने १९८१ इस्िी में ईत्कल ििश्वििद्यालय से गिणत कह्ळ स्नातकोर्त्र र्रीक्षा दोनों खण्डों में एक साथ िनजी छात्र के रूर् में दी। ईस समय ओिडशा के राजभिन र्ुस्तकालय में र्िण्डत रामस्िरूर् शमाप िारा सम्र्ाह्लदत तथा िासना, ििज्ञान, िहन्दी भाष्यों से समिन्ित १९६६ में आिण्डयन आं स्टीचूट ऑफ ऐस्रोनोिमकल ऐण्ड संस्कृ त ह्ऱरसचप, २२३९, गुरुिारा रोड, करौलबाग, नइ ह्लदल्ली-५ से प्रकािशत ४ खण्डों कह्ळ र्ुस्तक िमली। ईसे र्ढ़ने र्र ईसकह्ळ सम्र्ूणप भारतीय ज्योितष कह्ळ िैज्ञािनक व्याख्या करने का संकल्र् हुअ। प्रायः २ िषों तक आसके क्रम के ििषय में िचन्तन करता रहा। १९८३ में कह्ऱटहार में अरक्षी ऄधीक्षक का कायप करते समय िहां के एक प्राध्यार्क ने र्ीएचडी थीिसस के िलये मुझसे िसद्धान्त दर्पण के ८ श्लोकों के िहन्दी-ऄंग्रेजी ऄनुिाद का ऄनुरोध ह्लकया। यह र्ुस्तक संस्कृ त श्लोकों में ओििया िलिर् में थी। मेरे संस्कृ त तथा ओििया िलिर् ईभय का ज्ञान होने र्र भी यह कायप कह्ऱठन लगा तथा ज्योितष के कइ र्ाह्ऱरभािषक शब्दों को समझने के बाद मैंने आनका ऄनुिाद ह्लकया। र्र ईनके शोध प्रबन्ध से मैं सहमत नहीं था क्योंह्लक ईसमें कइ कल्र्नायें थीं िजनका कोइ अधार नहीं था। ह्लकन्तु ओिडशा में रहते हुये ओ र्ुस्तक देखने को नहीं िमली िह र्ुस्तक मैंने प्रथम बार कह्ऱटहार में देखी तथा भारतीय ज्योितष कह्ळ व्याख्या का क्रम िमल गया। मैं िजस क्रम में र्ूणप ज्योितष कह्ळ व्याख्या करना चाहता था, िह कायप श्री चन्िशेखर ह्ऴसह र्हले ही कर चुके थे। ईसका ऄनुिाद तथा गिणतीय अधार समझना बाकह्ळ था। ईसके बाद ज्योितष तथा अधुिनक गिणत कह्ळ र्ुस्तकों का संकलन अरम्भ हुअ तथा मैंने १९९२ में आसके ऄनुिद तथा व्याख्या का कायप अरम्भ ह्लकया। ४ ऄध्यायों का ऄनुिाद तथा व्याख्या करने बाद ह्लदल्ली में राष्ट्रर्ित महामिहम डा. शंकरदयाल शमाप के सिचि से भेंट हुइ िजनकह्ळ ज्योितष में रुिच तथा श्रद्धा थी र्र ईसकह्ळ िैज्ञािनकता र्र र्ूणप ििश्वास नहीं था। ईन्होंने मेरी टीका देखने र्र आसे भारत सरकार के मानि संसाधन ििभाग से प्रकाशन के िलये ऄनुदान कराने का अश्वासन ह्लदय। तत्कालीन मन्त्री मा. श्री ऄजुपन ह्ऴसह ने आसमें रुिच ह्लदखाइ। र्र ओििशा के कइ लोगों ने 3
आस र्र अर्िर्त् कह्ळ ह्लक मुझे ज्योितष तथा ओििया संस्कृ ित का कोइ ज्ञान नहीं है। ईनके ििरोध के कारण भारत के ५ ििश्वििद्यालयों को यह समीक्षा के िलये भेजा गया। ईस समय ओिडशा के ह्लकसी ििश्वििद्यालय में ज्योितष कह्ळ र्ढ़ाइ नहीं थी-के िल भारत सरकार के सदािशि ििद्यार्ीठ में था। ऄभी भी के िल िहीं है। ऄतः िह के िल बाहर के ििश्वििद्यालयों को ही भेजा गया। आसमें कह्ऱठनाइ थी ह्लक ऐसा व्यिक्त िमलना कह्ऱठन है िजसे भारतीय ज्योितष तथा अधुिनक गिणत दोनों का ज्ञान हो। आस कायप में र्यापप्त देरी हुइ तथा १९९६ में प्रकाशन का कायप अरम्भ हुअ। यह ओििशा के संस्कृ त राजनीितज्ञों को सहन नहीं हुअ तथा तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री जानकह्ळ िल्लभ र्ट्टनायक तथा ईच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री रं गनाथ िमश्र, सबसे बिे दैिनक र्त्र समाज कह्ळ सम्र्ाह्लदका श्रीमती मनोरमा महार्ात्र अह्लद कह्ळ प्रेरणा से मेरे ििरुद्ध ३ ऄर्रािधक मामले तथा १८ ििभागीय कायपिािहयां अरम्भ हुईं। मुख्य अरोर् था ह्लक ओिडशा कह्ळ संस्कृ ित को समझे िबना मैं ईसका ऄर्मान कर रहा ूं। यह प्रमािणत करने के िलये ह्लक मैं ज्योितष र्ढ़ने या समझने में ऄसमथप ूं, कइ अइ र्ी एस ऄिधकाह्ऱरयों ने मेरे नाम से िििभन्न लोगों के ििरुद्ध र्त्र िलखने अरम्भ ह्लकये-िजससे िही मेरा काम िसद्ध ह्लकया जा सके । अजतक कोइ भी अरोर् प्रमािणत नहीं हुअ र्र कइ मामले अज भी चल रहे हैं। जबतक प्रकाशन का कायप चलता रहा, मुझे मुख्यमन्त्री श्री जानकह्ळ िल्लभ र्ट्टनायक ने सेिा से िनलिम्बत रखा (१-३-१९९६ से ४-१-१९९८) तथा अजतक ईस ऄििध का िेतन नहीं िमला। ईसके बाद मुझे कोइ र्दोन्नित, िेतन-िृिद्ध या नया िेतनमान नहीं िमला क्योंह्लक िसद्धान्त दर्पण कह्ळ व्याख्या से ओििशा संस्कृ ित का ऄर्मान हो रहा है। मैं प्रितह्लदन राज्य र्ुिलस मुख्यालय में जाता था र्र फरार ह्लदखा कर मेरे गांि में कु की-जब्ती के िलये २ बार र्ुिलस दल गया। मेरे र्ह्ऱरिार तथा गांि के व्यिक्तयों को थाना में बुलाकर र्ूछताछ कह्ळ गयी ह्लक मैं कहां फरार ूं। ४. व्याख्या कह्ळ कह्ऱठनाआयां-व्याख्या में कइ कह्ऱठनाआयां हैं(१) भारतीय ज्योितष को ऄिधकांश व्याख्याकारों ने िैज्ञािनक नहीं माना है। स्र्ि ग्रह िनकालने कह्ळ िििध को सबने भाग्यशाली ऄनुमान माना है। आसकह्ळ व्याख्या के बदले सबने यही िलखा है ह्लक भारत में लोगों को सूयप कह्ळ दूरी या ग्रहों कह्ळ दीघपिृर्त्ाकार कक्षा ज्ञात नहीं थी। (२) ब्रह्माण्ड कह्ळ मार् अह्लद को के िल बिी संख्याओं का शौक माना गया है। (३) ग्रह, ईनके र्ात, मन्दोच्च के भगण, दूरी अह्लद कह्ळ गणना या स्रोत के बारे में ह्लकसी ने ििचार नहीं ह्लकया है। (४) र्ृथ्िी र्र ही ९०-९० ऄंश के ऄन्तर के ४ नगरों के ईल्लेख के बाद भी कोइ यह मानने र्र राजी नहीं है ह्लक आसके िलये र्ूरे भूमण्डल के नकशे कह्ळ जरूरत है। आसके िलये नक्षत्र देखना र्िता है, ऄतः आसे नक्शा कहते हैं। (५) अयपभट, ब्रह्मगुप्त अह्लद का काल बहुत र्ीछे कर यह ह्लदखाया गया है ह्लक ज्या-सारणी भी ग्रीक लेखकों कह्ळ नकल है। अजतक ह्लकसी ग्रीक ने ज्या-सारणी या कोइ भी गणना कह्ळ र्ुस्तक नहीं िलखी थी क्योंह्लक यह रोमन ऄंकों में सम्भि नहीं है। सभी ग्रीक-रोमन लेखकों ने भारत का अकार अयताकार िलखा है, जबह्लक भारतीय र्ुराणों में आसे ऄधोमुख ित्रभुज िलखा है जो ईर्त्र में चौिा है। आसके ऄितह्ऱरक्त कइ ऄन्य स्थानों के नाम ईनके नकशे में अकार के अधार र्र हैंलंका (लक्कादीि से मालदीि तक, ईज्जैन के देशान्तर र्र) िमची के समान लम्बा (ओििया, बंगला में लंका = िमची), आण्डोनेिसया को शुण्डा िीर् (एिसया के नकशे में हाथी कह्ळ सूंि के समान), यि िीर्, बािल िीर् (जौ, बालू कण), क्रौञ्च िीर् (ईर्त्र ऄमेह्ऱरका-ईिते हुये र्क्षी के समान), र्ञ्चजन (जार्ान) = ५ िीर्ों का समूह। (६) भारतीय काल गणना तथा आितहास को नि करने के िलये ईन सभी राजाओं को काल्र्िनक करार ह्लदया गया िजन्होंने कोइ शक या सम्ित्सर अरम्भ ह्लकया-र्रशुराम (६१७७ इसा र्ूिप), युिधिष्ठर (१७-१२-३१३९ इसा र्ूिप), शूिक (७५६ इसा र्ूिप), चाहमान (६१२इसा र्ूिप), श्रीहषप (४५६ इसा र्ूिप), ििक्रमाह्लदत्य (५७ इसा र्ूिप), शािलिाहन (७८ इस्िी), कलचुह्ऱर या चेदीश (२१८ इस्िी)। मुगल सम्राट् ऄकबर ने युिधिष्ठर कह्ळ नकल में धमपराज बनने के िलये दीन आलाही अरम्भ ह्लकया तथा ईसकह्ळ ितिथ युिधिष्ठर शक में िनधापह्ऱरत कह्ळ। ििक्रमाह्लदत्य कह्ळ नकल के िलये निरत्न रखे, शंकु 4
िारा ह्लकये गये भू-सिेक्षण का टोडरमल िारा र्ुनरुद्धार कराया तथा ििक्रमाह्लदत्य कह्ळ तरह प्राचीन र्ुस्तकों का सम्र्ादन तथा ऄनुिाद कराया। र्र ऄंग्रेजी शासन अते ही ििक्रमाह्लदत्य काल्र्िनक हो गया। (७) ईच्च र्द र्ाने के िलये सुधाकर िििेदी ने अयपभट का काल ३६० किल से बढ़ाकर ३६०० किल ह्लकया िजससे थीबो साहब प्रसन्न हो गये और ईनके िारा ग्रीक गिणत के ऄनुकरण कह्ळ चचाप चल र्िी। ििक्रमाह्लदत्य काल के िराहिमिहर, ब्रह्मगुप्त का काल ईनकह्ळ मृत्यु के बाद अरम्भ हुये शािलिाहन शक में माना गया। ज्योितष को कालििधान शास्त्र कहा गया है, र्र आसके िारा कालिनधापरण करने के बदले स्ियं ज्योितषी ही शक एिं सम्ित्सर का ऄथप भूल गये हैं तथा ज्योितष से ऄनिभज्ञ व्यिक्तयों का ऄनुसरण करते हैं। (८) हमारी अज कह्ळ सभ्यता र्ुराण, स्मृित ग्रन्थ, जैन सािहत्य, सभी र्िप िनणपय ििक्रमाह्लदत्य के निरत्नों के सािहत्य तथा ईनके ििक्रम संित् र्र अधाह्ऱरत हैं। ऄतः ििक्रमाह्लदत्य तथा ईनके सम्ित् को नि करने के िलये सबसे ऄिधक प्रयत्न हुये। भारत के बाहर भी आसी राजा का सबसे ऄिधक प्रभाि है-इसा मसीह के महार्ुरुष होने का प्रमाण-र्त्र मगध के ज्योितिषयों िारा, भारत में िशक्षा तथा सूली के बाद स्िस्थ होकर भारत में अश्रय, सीह्ऱरया के सेला युद्ध में रोम के जूिलयस सीजर कह्ळ र्राजय तथा बन्दी बनाना (रोमन आसे िमस्र में ६ मास का लुप्त काल मानते हैं), स्ियं जूिलयस सीजर का कै लेण्डर ििक्रम सम्ित् १० के र्ौष मास से समानता के िलये अदेश के ७ ह्लदन बाद शुरु हुअ, ऄरब में आस्लाम र्ूिप का शक ििक्रमाह्लदत्य िारा काबा मिन्दर के र्ुनरुर्द्ार तथा अक्रमणकारी आिथयोिर्या सेना कह्ळ हाथी सेना िारा र्राजय से अरम्भ। ऄतः चन्िगुप्त-२ को नकली ििक्रमाह्लदत्य बनाया गया िजसके बारे में अजतक एक भी िशलालेख या र्ुस्तक नहीं िमली है। (९) ििक्रम सम्ित् को नि करने के िलये र्ञ्चांग सुधार सिमित बनायी गयी। र्र आसके ह्लकसी सदस्य को र्ञ्चांग के बारे में र्ता नहीं था, ऄतः कु छ समय के िलये डा. गोरख प्रसाद को सदस्य बनाया गया र्र ईनके ििचारों से भारतीय र्ञ्चाङ्ग को नि करने में कोइ सहायता नहीं िमली ऄतः ईनको र्ुनः िनकाल ह्लदया गया। ईस ह्ऱरर्ोटप के अरम्भ में ही िबना नाम ह्लदये न्यूगेबायर का मत ईद्धृत ह्लकया है ह्लक २ प्रकार के कै लेण्डर होते हैं-गिणतीय तथा व्यािहाह्ऱरक या सामािजक। र्र सिमित न तो आनका ऄथप समझ र्ायी, न यही समझ र्ायी ह्लक प्रचिलत ििक्रम सम्ित् में क्या दोष है, िजसका सुधार करना है। ऄतः ऄर्ने मन्तव्य के ििर्रीत सिमित ने के िल एक प्रकर का रािष्ट्रय-शक-सम्ित् जारी ह्लकया जो के िल सरकारी र्ञ्चाङ्ग में िलखा जाता है, र्र अज तक ह्लकसी सरकारी र्त्र में या ह्लकसी व्यिक्त िारा आसका प्रयोग नहीं हुअ है। (१०) आन सभी चेिाओं के बािजूद सरकार तथा समाज िारा सभी कायों में ििक्रम सम्ित् का ही व्यिहार हो रहा है। ऄतः एक और कु चक्र चला है ह्लक के िल सौर मत ही शुद्ध है या ओिडशा अह्लद कह्ळ संस्कृ ित के ऄनुरूर् है। र्र आन लोगों को यह र्ता नहीं है ह्लक चन्िमा को िनकाल देने र्र र्ञ्चाङ्ग का क्या ऄथप होगा या जगन्नाथ कह्ळ रथयात्रा कह्ळ ितिथ सौरमास में क्या होगी। आसके ऄितह्ऱरक्त ििना र्ञ्चाङ्ग या ििक्रम सम्ित् समझे ऄयनांश में संशोधन कह्ळ मांग हो रही है। (११) भारतीय ज्योितष कह्ळ हत्या भारत िेिषयों तथा ऄन्ध-भक्तों-दोनों के िारा हो रही है। जब मैंने प्रमाण ह्लदया ह्लक अज के ऄिधकांश गिणत या भौितकह्ळ प्राध्यार्क ग्रहण कह्ळ गणना करने में ऄसमथप हैं, तो नालीकर तथा ईनके सहयोगी रस्तोगी ने कहा ह्लक यज्ञ में बकरे अह्लद कह्ळ बिल देकर यह गणना कह्ळ जाती थी। स्र्ितः आनको न यज्ञ का ऄथप र्ता है न ििज्ञान कह्ळ िििध समझना चाहते हैं। प्रयोग कर आस िििध से कोइ मार् ह्लदखाने का ऄनुरोध करने र्र िे कहते हैं ह्लक यह गाली है। ऊिष र्रम्र्रा के कइ भक्त मानते हैं ह्लक के िल ध्यान िारा ग्रहों कह्ळ दूरी गित अह्लद मार्ी गयी थी। ध्यान तथा समािध के कइ लाभ हैं र्र आससे या र्शु-बिल से छत कह्ळ उंचाइ या २ ह्लकलो चीनी का िजन नहीं मार्ा जा सकता है। (१२) अधुिनक भौितक ििज्ञान में लम्बाइ कह्ळ ८ इकाआयां हैं। आसी प्रकार भारत में ७ योजन, ७ युग तथा ९ कालमान थे। सभी को एक ही मानकर चलने से कइ भ्रम तथा ऄशुिद्धयां हो जाती हैं। आनका ईल्लेख ह्लकसी कह्ळ िनन्दा के िलये नहीं है, िरन् शास्त्र के सटीक ऄथप के िलये र्ाठकों का ध्यान अकृ ि करना है।
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५. िितीय संस्करण-सरकार तथा समाज के सतत् प्रहार के कारण प्रथम संस्करण कह्ळ छर्ाइ में र्ूणप संशोधन नहीं हो र्ाया। कइ संशोधन प्रूफ रीह्ऴडग में करने र्र भी ईसे प्रकाशक या मुिक ने सुधार नहीं ह्लकया। कइ स्थानों र्र श्लोक या ऄथप में त्रुह्ऱटयां रह गयी हैं। प्रथम संस्करण में भी मैंने काफह्ळ ििचार ह्लकया था ह्लक ह्लकस प्रकार व्याख्या िलखी जाय। अधुिनक युग में गिणत कह्ळ र्ुस्तकें के िल ऄंग्रेजी भाषा में ही ईर्लब्ध हैं। संस्कृ त में ह्लकस प्रकार के िचह्नों का प्रयोग र्ाठ्य र्ुस्तकों के िलये होता था, आसका र्ूणप ज्ञान नहीं है। बखशाली स्थान में एक र्ाण्डु िलिर् िमली थी, िजसमें गिणत के िचह्नों का कु छ प्रयोग है। अज के ज्यािमित, बीजगिणत तथा कै लकु लस के कइ िचह्नों का मूल भारतीय गिणत ही है। सभी ित्रकोणिमतीय ऄनुर्ातों के नाम भी भारतीय र्ह्ऱरभाषाओं र्र ही अधाह्ऱरत हैं, जो यथाक्रम ह्लदखाये जायेंगे। ऄतः अधुिनक िचह्नों के प्रयोग में कोइ तार्ककक बाधा नहीं है। दूसरी कह्ऱठनाइ यह है ह्लक भारतीय ज्योितष के िल संस्कृ त के छात्र ही र्ढ़ रहे हैं, जो संस्कृ त माध्यम में र्ढ़ते हैं। आनके िलये सुधाकर िििेदी ने संस्कृ त में चलन कलन तथा चलरािश कलन नाम से २ र्ुस्तकें िलखीं। सम्र्ूणापनन्द संस्कृ त ििश्वििद्यालय के प्राध्यार्क श्री हह्ऱरशंकर र्ाण्डेय जी ने ये र्ुस्तकें िहां से िभजिाईं। काशी िहन्दू ििश्वििद्यालय के प्राध्यार्क श्री सिच्चदानन्द िमश्र ने भी ठोस ज्यािमित अह्लद र्र कु छ र्ुस्तकें िलखीं हैं। र्र ये अधुिनक गिणत कह्ळ कु छ र्ुरानी र्ुस्तकों के संस्कृ त रूर्ान्तर मात्र हैं। के िल आन र्र अिश्रत रहने से यह खतरा है ह्लक हम अधुिनक ज्योितष, भौितक ििज्ञान तथा गिणत कह्ळ िििधयों तथा ईर्लिब्धयों के बारे में जान नहीं र्ायेंगे। बीच का मागप है ह्लक मूल संस्कृ त श्लोकों कह्ळ िहन्दी व्याख्या कह्ळ जाय जो संस्कृ त के िनकटतम है। श्लोकों का ऄथप समझने में भी सुििधा होती है, क्योंह्लक शब्दों के ऄथप संस्कृ त िहन्दी में िही हैं। िहन्दी िाक्यों को सरलता से संस्कृ त में िलखा जा सकता है। आसके साथ गिणत सूत्रों को अधुिनक ऄंग्रेजी िचह्नों में ह्लदया गया है। आनके संस्कृ त रूर्ान्तरों का अश्रय नहीं िलया गया है। प्रथम संस्करण के िल ऄनुसन्धान के ईर्द्ेश्य से था। ईस समय भी मैंने िशक्षण के िलये कु छ ईदाहरण देने कह्ळ योजना रखी थी, र्र सरकार कह्ळ बाधाओं के कारण िह सम्भि नहीं हो सका। िितीय संस्करण में बिी कह्ऱठनाइ यह थी ह्लक ईसकह्ळ कम््यूटर फाआल मेरे र्ास नहीं थी तथा ईस र्ुरानी फाआल को नये प्रकार के सौफ्टिेयर में नहीं र्ढ़ा जा सकता है। आतने ििशाल ग्रन्थ को र्ूरी तरह टाआर् करने का साहस नहीं हो रहा था। मेरी चेिा है ह्लक यह छात्रों तथा ऄनुसन्धानकाह्ऱरयों के िलये ईर्योगी िसद्ध हो। आसके ऄितह्ऱरक्त भारत तथा ििदेशों में आस र्ुस्तक र्र कइ व्यिक्त र्ीएचडी कर चुके हैं। काशी िहन्दू ििश्वििद्यालय के प्राध्यार्कों ने मुझ र्र ििश्वास कर आसे ऄर्ने र्ाठ्यक्रम में महत्त्िर्ूणप स्थान ह्लदया, आसके िलये मैं अभारी ूं। प्राध्यार्क श्री सिच्चदानन्द िमश्र के सतत् ऄनुरोध को टालना सम्भि नहीं था, ऄतः यह काम अरम्भ करना र्िा। बाहर में तकनीकह्ळ ििषयों को छर्ाना बहुत दुष्कर है, ईसका संशोधन और भी कह्ऱठन है। ऄतः मेरे योग्य र्ुत्र इ. श्री रोिहत ईर्ाध्याय ने मुझे कम््यूटर का प्रयोग िसखाया िजससे मैं स्ियं टाआर् कर सकूं । बिे र्ुत्र श्री ऄिभषेक ईर्ाध्याय तथा र्त्नी श्रीमती ित्रर्ुरा ईर्ाध्याय ने भी हर प्रकार कह्ळ सहायता कह्ळ तथा सरकारी, सामािजक तथा र्ाह्ऱरिाह्ऱरक ईर्ेक्षा के बीच हर तरह से प्रोत्सािहत ह्लकया। मैं आनका हृदय से अभारी तथा कृ तज्ञ ूं तथा आनकह्ळ सतत् ईन्नित के िलये प्राथपना करता ूं। यह र्ुस्तक माआक्रोसौफ्ट िडप में एह्ऱरऄल युिनकोड फॉण्ट में िलखी जा रही है िजससे यह सरलता से कम््यूटर में र्ढ़ी जा सके तथा आसकह्ळ प्रित कर आसे ऄन्य स्थान र्र जोिा जा सके । ६. बलीयसी के िलमीश्वरे च्छा-प्रकृ ित के गुणों िारा सभी कायप सम्र्न्न हो रहे हैं, ह्लकन्तु ऄहङ्कार ििमूढ मनुष्य स्ियं को कर्त्ाप मानता है-प्रकृ तेः ह्लक्रयमाणािन गुणैः कमापिण सिपशः। ऄहङ्कारििमूढात्मा कतापहिमित मन्यते॥ (गीता ३/२७) भारतीय शास्त्रों तथा भारत कह्ळ अत्मा र्र अक्रमण तथा अघात देखकर स्ियं कह्ळ अत्मा कह्ळ रक्षा के िलये ऄर्नी प्रकृ ित ही ईसका प्रितकार करने के िलये बाध्य करती है। आन ऄिसरों या र्ह्ऱरिस्थितयों का िनमापण भगिान् िारा हुअ है। मेरे जन्म के १५ िषप र्ूिप १९३८ इस्िी में मेरे िर्ता श्री चन्िशेखर ईर्ाध्याय (१९०५-१९७६ इस्िी) गिणत तथा भौितक ििज्ञान र्ढ़ने कह्ळ चेिा कर रहे थे िजससे िेद कह्ळ ज्योितषीय व्याख्या कह्ळ जा सके । एक तिमल संन्यासी ने कहा ह्लक ये ििषय बाल्यकाल में ही सीखे जा सकते हैं, बाद में नहीं। संन्यासी ने ईनके ऄह्सजत ज्ञान के अधार र्र िैह्लदक कोष िलखने कह्ळ 6
प्रेरणा दी तथा कहा ह्लक ईनका आिच्छत कायप ईनका र्ुत्र करे गा। िर्ताजी ने कहा ह्लक ईनके र्ुत्र कह्ळ ऐसी कोइ रुिच या ऄध्ययन नहीं है। संन्यासी ने कहा ह्लक १४ िषप बाद जो र्ुत्र ईत्र्न्न होगा िह िेद कह्ळ ज्योितषीय व्याख्या करे गा। मेरा जन्म प्रायः एक चमत्कार था, जब मेरी माता कह्ळ अयु सन्तानोत्र्िर्त् कह्ळ सीमा र्ार कर रही थी। ईससे िर्ताजी को ििश्वास हुअ ह्लक बाकह्ळ चमत्कार ऄथापत् मेरे िारा िेद कह्ळ व्याख्या भी ऄिश्य होगी। जब भी शास्त्र र्ढ़ने में मेरी ऄरुिच होती थी, िर्ताजी आसका ध्यान ह्लदलाते थे ह्लक यह भगिान कह्ळ आच्छा है जो सन्त-िाक्य िारा प्रकट हुइ है, ईसमें मेरा कोइ कर्त्ृपत्त्ि नहीं है। यही िसद्धान्त दर्पण लेखक ने कहा हैयस्येच्छा मे िनज भजनतो दूरमुत्सायप बुिद्धम्, दैिाधीनां गिणत ििर्णौ र्ातयत्याततायाम्। संख्यातीतानुगत र्िततोद्धार कारुण्य िसन्धुः, सस्याच्छे तः शरण चरणः िसन्धुजा प्राणबन्धुः॥ (िसद्धान्त दर्पण १५/७१) र्रम ििधाता ने जैसे अजतक मुझे िेद कायप में िनयोिजत ह्लकया है, अशा है ह्लक बाकह्ळ कायप भी िे िबना त्रुह्ऱट के सम्र्न्न करायेंगे तथा आसके िारा भारत कह्ळ सनातन िैह्लदक र्रम्र्रा तथा ज्योितष कह्ळ रक्षा होती रहेगी। यह कायप छात्रों तथा ऄनुसन्धान के िलये ईर्ादेय हो, यह प्राथपना है। कटक, ओिडशा, १७-११-२०१२, कन्या संक्रािन्त
ऄरुण कु मार ईर्ाध्याय
संस्कृ त के कु छ गिणतीय शब्द १. योग-मूल शब्द रूर्(१) ऄस्, सम् ईर्सगप के साथ-समस्त, समास, समािसत। (२) आ-सम्बिन्धत करना, िमलाना या जोिना। ऄनु ईर्सगप-ऄिन्ित। ईर्-ईर्ेत। सम-समिन्ित, समिेत, समेत। सह-सिहत। (३) कल-जोिना, एकत्र करना। सम् ईर्सगप-संकलन, संकिलत। (४) िक्षर् (फें कना या जोिना), िक्षर्, िक्षप्त, िक्षप्तम्, िक्षप्त्िा, िक्षर्ेत,् िक्ष्यते, िक्ष्यन्ते, क्षेर्, क्षे्यम्, क्षे्यम्, क्षे्या, र्ह्ऱरिक्ष्य, र्ह्ऱरिक्ष्यन्ते, प्रिक्षर्ेत्, प्रिक्षप्त, प्रिक्ष्य, प्रिक्ष्यते, प्रिक्ष्यन्ते, प्रक्षेर्, िििनिक्षर्ेत्, संक्षेर्। (५) िच (बढ़ना)-ईर्चय, ईर्िचत, ईर्चीयन्ते, ईर्चीयमान। (६) दा (देना)-दात्िा, दातव्य, दीयते, दीयन्ते, देय, देया। (७) िर्ण्ड (िमलाना)-िर्िण्डत, संिर्ण्य। (८) प्रे (जोिना, जुिना, िमलना या िमलाना)-सम्र्कप । (९) िमश्र (िमलाना, जोिना)-िमिश्रत, सिम्मश्र। (१०) िृध् (बढ़ना) िधपत,े िििधपत,े िृिद्ध। (११) यु (एक करना, जोिना या िमलाना)-युत, युित, संयुत, संयुित। (१२) युज् (जोिना)-िनयोज्य, युक्त, युिक्त, युक्त्या, योग, योजियतव्यम्, योजयेत,् योिजत, योज्यम्, योज्य, योज्यते, योज्यन्ते, योज्य, िििनयोज्य, संयुक्त, संयोग, संयोिजत, संयोज्य, संयोज्यमान।
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(१३) ऄन्य शब्द-ऄिधक, अढ्या (ििहीना का ििर्रीत), एकह्ळकृ त, कल्र् (योग), धन (योग), ईदय (योग)। २. घटाि(१) ऄस् (फें कना, छोिना)-ऄर्ास्य। (२) आ (छोिना)-ऄर्ाय। (३) उन (कम करना)-उन, उनकम्। (४) ऊ (छोिना)-ऊण। (५) िक्ष (नि होना, कम होना)-क्षय। (६) ग्रह (छीनना)-प्रगृह्य। (७) िच (कम करना)-ऄर्चय, ऄर्चयात्मक, ऄिचीयते, ऄर्चीयन्ते। (८) त्यज (छोिना)-त्यक्त्िा, त्यजेत्, त्यजन्ते। (९) िन (लेना) ऄर्नयन, ऄर्नयेत्, ऄर्नीते, ऄर्नीय, ऄर्नीयते, ऄर्नीयन्ते, समर्नीय। (१) र्त् (िगरना)-िनर्ाितत, िनर्ात्य, र्ितत, र्ातियत्िा, र्ाितत, र्ात्यते। (११) युज् (जोिना)-िियोग, िियुिक्त। (१२) रह् (छोिना)-रिहत, ििरिहत। (१३) िृ (खोलना)-िििर, िििरकम्। (१४) िृज् (बाहर करना)-िह्सजत, िििह्सजत। (१५) िशष् (बाकह्ळ रखना)-ऄििशि, ऄिशेष, िििशि, िििशष्यते, ििशेष, ििशेषण, ििशेिषत, ििशेष्यते, िशि, िशष्यते, शेष, शेषयेत्। (१६) शुध् (धोना, साफ करना)-र्ह्ऱरशुद्ध, र्ह्ऱरशोध्य, प्रििशुद्ध, प्रिोशोधयेत्, प्रििशोध्य, ििशुद्ध, ििशोधयेत्, िोशोध्यन्ते, ििशोध्या, शुद्धम्, शुद्ध, शुिद्ध, शुद्ध,े शुद्धयित, शुद्धयिन्त, शुद्धय े ेत्, शोिधत, शोधनम्, शोधनीयम्, शोधियत्िा, शोधयेत, शोध्यम्, शोध्य, शोध्यते, शोध्या, संशुिद्ध, संशुद्ध। (१७) िश्लष् (ऄलग करना)-ऄिििशि, िििशि, ििश्लेष, ििश्लेिषत। (१८) हा (घटाना, कम करना)-र्ह्ऱरहीन, ििहीन, िहत्िा, हीन। (१९) ह्रस् (कम होना)-ह्रास। (२०) ऄन्य शब्द-ऄग्र (शेष), ऄन्तर। ३. गुणा(१) ऄस् (दुहराना)-ऄभ्यस्त, ऄभ्यस्य, समभ्यस्त, समभ्यस्य। (२) क्षुद ् (कु चलना, मारना)-क्षुण्ण, संक्षुण्ण। (३) गुण् (गुणा करना)-गुण, गुणक, गुणकार, गुणना, गुणियत्िा, गुणयेत,् गुिणत, गुण्या, गुण्यात्, संगुण, संगुण्य, संगुणय्य, संगुिणत, संगुणा। (४) ताड् (र्ीटना)-ऄिभतािडत, तािित। (५) िृत् (बार बार करना)-ईितपना।
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(६) हन् (िध करना, मारना)-ऄिभिनघ्न, ऄिभहत, ऄिभहत्य, अहत, अहत्य, अहन्यात्, घात, घ्न, िनहत, प्रिणघ्न, प्रिणहत्य, ििसंहित, संहित, संहत्य, संहन्यात्, समाहत, हत, हतम्, हत्िा, हत, िहत्िा। ४.भाग(१) खण्ड (तोिना) खण्यात्। (२) िछद् (काटना, तोिकर ऄलग करना, बांटना)-िछत्िा, िछद्यते, िछन्द्यात्, छे द्य, छे द, संछेद। (३) भज् (बांटना, भाग करना)-प्रििभजेत्, भक्त, भक्ते , भक्तव्या, भक्त्िा, भजन, भिजत, भजेत्, भाग, भागहार, भागे ह्रते, भाजयेत, भािजत, भाज्य, भाज्या, ििभक्त, ििभजेत्, ििभजेत, ििभज्य, ििभज्यते, ििभािजत, ििभाजयेत्। (४) भञ्ज् (फािना, टु किों में तोिना)-भंक्त्िा। (५) िृत् (ऄर्ने साथ) ऄर्ितपन। (६) हृ (छीनना)-ऄर्हृत, अहरे त्, ईद्धृत, ईर्ाहर, ििहृत, संहृत्यम्, संहृत, संहृता, समद्धृत, हरतु, हरे त, हतपव्या, हृत, हृित, हृते, हृत्िा, िह्रयते, िह्रयमाण। ५. िगप-कृ ित, याि, िगप, िह्सगतम्, िगपणा। ६. िगपमल ू -ििगतमूल, र्द, मूल, िगपमूल। ७. घन-घन, ित्रगत, िृन्द, सदृश, त्रयाभ्यास। ८. घनमूल-घनमूल, ित्रगतमूल। िसद्धान्त दर्पण में प्रयुक्त ऄंकों के र्यापय शब्द ज्योितष ग्रन्थों में तथा िेद में ऄंक िलखने कह्ळ ४ र्द्धितयां व्यिहार कह्ळ गयी हैं(१) संख्या िचह्नों िारा। (२) संख्यात्मक शब्दों िारा। (३) िणप-माला ऄक्षरों िारा-आसमें २ र्द्धितयां हैं(क) कटर्याह्लद-क से य सभी िगों के िणप १-९, ०। आनका दशमलि र्द्धित से प्रयोग। (ख) अयपभट र्द्धित-क से म तक २५ ऄंक, य से ह तक ३०-१००, स्िर िणों िारा १००-१०० गुणे ऄंक। (४) संख्या के प्रतीकात्मक शब्द। १. संख्या िचह्न-ये दशमलि र्द्धित में िलखे जाते हैं। प्रथम स्थान में १ से ९ तक ऄंक होते हैं, के िल स्थान ह्लदखाने के िलये शून्य (०) का प्रयोग होता है। प्रथम स्थान आकाइ का है, ईससे बायें दूसरे स्थान र्र जो संख्या है ईसका मान १० गुणा, ईससे बायें तीसरे स्थान कह्ळ संख्या १०० गुणा तथा आसी क्रम से ऄंकों का मान १०-१०- गुणा बढ़ता जाता है। ऄंक-१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ०। आनके नाम हैं-एक, िि, ित्र, चतुः, र्ञ्च, षट् , सप्त, ऄि, नि, शून्य। संख्या २५४३= ३ + ४x१०+ ५x१००+ २x१००० २०४५= २+ ४x१०+ ० + २x १००० प्रथम १००० संख्याओं का ईदाहरण-१०० ऄंक तक कह्ळ संख्या०, १, २, ३,
४, ५, ६, ७,
८, ९
१०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९ २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, २९ 9
३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९ ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४९ ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५, ५६, ५७, ५८, ५९ ६०, ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८, ६९ ७०, ७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८, ७९ ८०, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८, ८९ ९०, ९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९६, ९७, ९८, ९९ तीन ऄंकों कह्ळ संख्यायें१००, १०१, १०२, १०३, १०४, १०५, १०६, १०७, १०८, १०९ ......
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१९०, १९१, १९२, १९३, १९४, १९५, १९६, १९७, १९८, १९९ ......
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९९०, ९९१, ९९२, ९९३, ९९४, ९९५, ९९६, ९९७, ९९८, ९९९ ईसके बाद १००० से संख्यायें अरम्भ होंगी। ९९९९ के बाद ५ ऄंक कह्ळ स्ंख्या १०,००० से अरम्भ होंगी तथा ९९,९९९ तक जायेंगी। आऄस प्रकार बिी से बिी कोइ भी संख्या िलखी जा सकती है। बायीं ह्लदशा में जैसे १०-१० गुणा मान बढ़ता है, ईसी प्रकार आकाइ से दािहनी तरफ क्रमशः १०िां भाग होता जाता है। आकाइ िचह्न के बाद एक ििन्दु देते हैं िजसे दशमलि कहते हैं। १०-१० का ऄनुर्ात होने से यह दशमलि र्द्धित कही जाती है। जैसे २.१३ = २+ १/१०+३/१०० िसद्धान्ततः आस र्द्धित में बिी से बिी तथा छोटी से छोटी संख्या िलखी जा सकती है। आस िििध में जोि तथा गुणन सरल है। भाग या िगपमूल अह्लद कह्ळ गणना करना ऄन्य र्द्धितयों में सम्भि नहीं है। १ से १८ ऄंक तक कह्ळ संख्याओं के नाम प्रचिलत हैं जो क्रमशः १०-१० गुणा बिे हैं। एक (१), दश (१०), शत (१००), सहस्र (१०००), ऄयुत (१०,०००), लक्ष (१००,०००), प्रयुत (१०६), कोह्ऱट (१०७), ऄबुपद (१०८), ऄब्ज (१०९), खिप (१०१०), िनखिप (१०११), महार्द्म (१०१२), शङ्कु (१०१३), जलिध (१०१४), ऄन्त्य (१०१५), मध्य (१०१६), र्राद्धप (१०१७)। कु छ ईद्धरण-निो निो भिित जायमानः (ऊक् १०/८५/१९) निम् से सृिि अरम्भ होती है। नि ऄंक के बाद ऄगले स्थान कह्ळ संख्या अरम्भ होती है। स्थानात् स्थानं दशगुणमेकस्माद् गण्यते ििज। ततोऽिादशमे भागे र्राद्धपमिभधीयते। (ििष्णु र्ुराण ६/३/४) एकं दश शतं चैि सहस्रायुतलक्षकम्॥ प्रयुतं कोह्ऱटसंज्ञां चाबुपदमब्जं च खिपकम्। िनखिं च महार्द्मं शङ्कु जपलिधरे ि च॥ ऄन्त्यं मध्यं र्राद्धं च संज्ञा दशगुणोर्त्राः। क्रमादुत्क्रमतो िािर् योगः कायोऽन्तरं तथा॥ (बृहन्नारदीय र्ुराण २/५४/१२-१४) एकदशशतसहस्रायुतलक्षप्रयुतकोटयः क्रमशः। ऄबुपदमब्जं खिपिनखिपमहार्द्मशङ्किस्तस्मात्॥ जलिधश्चान्त्यं मध्यं र्राद्धपिमित दशगुणोर्त्राः संज्ञाः। संख्यायाः स्थानानां व्यिहाराथंकृताः र्ूिवः॥ (लीलािती, र्ह्ऱरभाषा १०-१२) ऄयुतं प्रयुतं चैि शङ्कुं र्द्मं तथाबुपदम्। खिं शंखं िनखिं च महार्द्मं च कोटयः॥ मध्यं चैि र्राद्धं च सर्रं चात्र र्ण्यताम्। (महाभारत, सभा र्िप ६५/३-४) 10
यदधपमायुषस्तस्य र्राद्धपमिभधीयते। (श्रीमद् भागित महार्ुराण ३/११/३३) र्राद्धपििगुणं यर्त्ु प्राकृ तस्स लयो ििज। (ििष्णु र्ुराण ६/३/४) लौह्लकके िैह्लदके िािर् तथा सामियके ऽिर् यः। व्यार्ारस्तत्र सिपत्र संख्यानमुर्युज्यते॥९॥ बहुिभह्सिप्रलार्ैः ह्शक त्रैलोक्ये सचराचरे । यित्किञ्चद् िस्तु तत्सिं गिणतेन ििना न िह॥१६॥ (महािीराचायप, गिणत सार संग्रह १/९,१६) एकं दश शतं च सहस्र त्ियुतिनयुते तथा प्रयुतम्। कोट्डबुपदं च िृन्दं स्थानात् स्थानं दशगुणं स्यात्। (अयपभट-१, अयपभटीय २/२) एकं दश च शतं चाथ सहस्रमयुतं क्रमात्। िनयुतं प्रयुतं कोह्ऱटरबुपदं िृन्दम्यथ॥५॥ खिो िनखिपश्च महार्द्मः शङ्कु श्च िाह्ऱरिधः। ऄन्त्यं मध्यं र्राद्धं च संख्या दशगुणोर्त्राः॥६॥ (शङ्करिमपन,् सित्नमाला, १/५-६) आमा म ऄग्न आिका धेनिः सन्तु-एका च दश च, दश च शतं च, सतं च सहस्रं च, सहस्रं चायुतं चायुतं च िनयुतं च, प्रयुतं च, ऄबुपदं च, न्यबुपदं च, समुिश्च मध्यं चान्तश्च र्राद्धपश्चैता मे ऄग्न आिका धेनिः सन्त्िमुत्रा मुिष्मिँल्लोके । (िाजसनेिय यजुिेद १७/२) ऄथाजुपनो गणको महामात्रो बोिधसत्त्िमेिमाह-जानीषे त्िं कु मार कोह्ऱटशतोर्त्रां नाम गणनािििधम्? अह-जानाम्यहम्। अह-कथं र्ुनः कोह्ऱटशतोर्त्रा गणना गितरनुप्रिेिव्या? बोिधसत्त्ि अह-शतमयुतानां िनयुतं नामोच्यते। शतं िनयुतानां कङ्कारं नामोच्यते। शतं कङ्काराणां िििरं नामोच्यते। शतं िििराणां ऄक्षोभ्यं नामोच्यते। शतमक्षोभ्याणां िििाहं नामोच्यते। शतं िििाहानां ईत्सङ्गं नामोच्यते। शतमुत्सङ्गानां बहुलं नामोच्यते। शतं बहुलानां नागबलं नामोच्यते। शतं नागबलानां ितह्ऱटलम्भं नामोच्यते। शतं ितह्ऱटलम्भानां व्यिस्थानप्रज्ञिप्तनापमोच्यते। शतं व्यिस्थानप्रज्ञप्तीनां हेतुिहलं नामोच्यते। शतं हेतुिहलानां करूनापमोच्यते। शतं करूणां हेित्ििन्ियं नामोच्यते। शतं हेित्ििन्ियाणां समाप्तलम्भं नामोच्यते। शतं समाप्तलम्भानां गणनागितनापमोच्यते। शतं गणनागतीनां िनरिद्यं नामोच्यते। शतं िनरिद्यानां मुिाबलं नामोच्यते। शतं मुिाबलानां सिपबलं नामोच्यते। शतं सिपबलानां ििसंज्ञागितनापमोच्यते। शतं ििसंज्ञागतीनां सिपसंज्ञा नामोच्यते। शतं सिपसंज्ञानां ििभूतङ्गमा नामोच्यते। शतं ििभूतङ्गमानां तल्लक्षणं नामोच्यते। (लिलतििस्तर १६८-६९) संख्या शब्दों के ऄथप-१,२,३,....९, १०, २०, ....९०, १००, १००० अह्लद संख्याओं के शब्द ऄित प्राचीन काल से व्यिहार में हैं। ईनकह्ळ धारणा के ऄनुसार आन शब्दों के ऄथप हैं। प्राचीन व्याकरण तथा िनरुक्त के अधार र्र आनके ऄथप ह्लदये जाते हैं। िनरुक्त में शब्दों कह्ळ िैज्ञािनक र्ह्ऱरभाषा के अधार ऄर्र व्युत्र्िर्त् है। एक (१)-आण गतौ (र्ािणिन धातु र्ाठ २/३८).ऄ+आ+क् = आता = चला या र्हुंचा हुअ। १-१ कर ही िगनती अगे बढ़ती है, या यहां से आसकह्ळ गित का अरम्भ होता है। आता ऄंग्रेजी में आट् (It) हो गया है। (िनरुक्त ३/१०) िि (२) आसका मूल है िि = ििकल्र्। ऄंग्रेजी में िि का बाआ (Bi) हो गया है जो ग्रीक, ऄंग्रेजी का ईर्सगप है। आसका िििचन रूर् िौ का मूल शब्द है िुततर, ऄथापत् ऄिधक तेज चलनेिाला। यह एक से अगे बढ़ जाता है, ऄगली संख्या है। ित्र (३) िि में २ कह्ळ तुलना है, ित्र में कइ से तुलना है। यह तीणपतम है ऄथापत् १, २ दोनों को र्ार ह्लकया है। तीणपतम ही संक्षेर् में ित्र हो गया है। ग्रीक ईर्सगप ित्र (Tri) का भी िही ऄथप है। यह ऄंग्रेजी में थ्री (Three) हो गया है। चतुर् (४)-चत्िारः = च + त्िरा (तेज). यह ३ से भी तेज है। िेदों का ििभाजन त्रयी है, ििभाजन के बाद मूल ऄथिप भी बचा रहता है (मुण्डकोर्िनषद् १/१/१-५), ऄतः त्रयी का ऄथप ४ िेद हैं। आसका प्रतीक र्लास है िजसकह्ळ शाखा से ३ र्र्त्े िनकलते हैं। सामान्य त्रयी मनुष्यों से यह ऄिधक है ऄतः चतुर का ऄथप बुिद्धमान् भी है। िहब्रू/ग्रीक में भी यह क्वाड्री
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(Quadri) = क्वा + (िड्र) ित्र = ित्र से ऄिधक। आससे क्वाटप (Quart, चतुथप = १/४ भाग), क्वाटपर (Quarter, चतुरस्क, ४ दीिाल से िघरा कमरा) बने हैं। र्ञ्च (५)-यह र्ृक्त = जुिा हुअ से बना है। हथेली में ५ ऄंगुली सदा जुिी रहती हैं। ५ महाभूतों से ििश्व बना है। समान ऄथप का शब्द है र्ंिक्त = र्च् + िक्तन् । मूल धातु है-र्चष् या र्च् र्ाके (१/७२२)-िमलाकर र्काना, र्िच (र्ञ्च्) व्यक्तह्ळकरणे (१/१०५), र्िच (र्ञ्च्) ििस्तार िचने-फै लाना, र्सारना। र्ञ्च का ग्रीक में र्ेण्टा (Penta) हो गया है। स्र्शप व्यञ्जनों में ५िं िगप र्-िगप है। िहन्दी, बंगला, ओििया में र् िणप तथा ५ ऄंक का िचह्न एक जैसा है। षट् (६)-िनरुक्त ४/२७) के ऄनुसार यह सहित (= सहन करना, दबाना) से बना है। िषप को भी संित्सर आसिलये कहते हैं ह्लक आसमें ६ ऊतुयें एक साथ रहती हैं (सम्िसिन्त ऊतिः यिस्मन् स सम्ित्सरः-तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/८/३/३, शतर्थ ब्राह्मण १/२/५/१२ अह्लद)। य-िगप का ६िां िणप ष है । षि का िसक्स (Six) या हेक्सा (Hexa) ईर्सगप हो गया है, ऄरबी/र्ारसी में स का ह हो जाता है। सप्त (७)-िनरुक्त (३/२६) में आसके २ मूल ह्लदये हुये हैं। सर् समिाये (र्ािणिन धातुर्ाठ १/२८४)=र्ूरा समझना, िमलकर रहना। सप्त = संयुक्त। ऄन्य धातु है सृ्लृ गतौ (१/७०९) या सृ गतौ (१/६६९)। सर्पण = िखसकना, िखसकते हुये चलने के कारण सर्प कहा जाता है। सर्पित (=चलता है) में रे फ लुप्त होने से सिप्त = घोिा। ७ प्रकार के ऄश्व या िाहक मरुत् हैं, या सूयप कह्ळ ७ ह्लकरणें हैं, ऄतः सप्त =७। आससे ग्रीक ईर्सगप से्ट (Sept) तथा ऄंग्रेजी शब्द सेिेन (seven) बना है। ऄि (८) यह ऄशूङ् (ऄश्) व्याप्तौ संघाते च (५/१८) से बना है। आसी प्रकार का ऄथप िसु का है। िसु = िस् + ई = जो जीिित रहता है या व्याप्त है। ८ िसु िशि के भौितक रूर् हैं, ऄतः ईनको ऄिमूह्सर्त् कहा गया है। गित या िायु रूर् में ११ रुि तथा तेज रूर् में १२ अह्लदत्य ईनके रूर् हैं। ज्योितष र्ुस्तकों में प्रायः ८ के िलये िसु शब्द का प्रयोग है। अज भी रूसी भाषा में ८ को िसु कहते हैं। ऄि से औक्ट (Oct) ईर्सगप तथा ऄंग्रेजी का एट (Eight) हुअ है। नि (९)-मूल धातु है णु या नु स्तुतौ (२/२७) = प्रशंसा या स्तुित करना। आसी से नूतन (नया) बना है-क्षणे क्षणे यन्नितामुर्ैित तदेि रूर्ं रमणीयतायाः। नि शब्द का ऄथप नया तथा ९ स्ंख्या दोनों है। ९ ऄंक के बाद ऄंक क्रम समाप्त हो जाता है तथा नया स्थान को ० से िलखते हैं, जहां ऄन्य ऄंक क्रम से अते हैं। ऄथिा निम अयाम रन्ध्र (छे द, कमी) है िजसके कारण नयी सृिि होती है-निो निो भिित जायमानः (ऊक् १०/८५/१९)। ऄतः नि का ऄथप नया, ९ हुये। िनरुक्त (३/१०) के ऄनुसार नि आन शब्दों का संिक्षप्त रूर् है-न + ि (-ननीया) = ऄिनिच्छत, या न + ऄि(-अप्त) = ऄप्राप्त। निम अयाम में रन्ध्र के भी यही २ ऄथप हैं-कमी, ऄिनिच्छत। आससे ऄंग्रेजी में नानो (Nano) ईर्सगप तथा नाआन (Nine) बने हैं। दश (१०)-िनरुक्त (३/१०) में २ व्युत्र्िर्त्यां हैं। दसु ईर्क्षये (४/१०३) = नि होना या नि करना। ऄंक र्द्धित का यहीं ऄन्त होता है तथा ऄंक का नया स्थान शुरु होता है।। फारसी में भी दस्त (क्षय) के २ ऄथप हैं-मुख से भोजन बाहर िनकलना (िमन ह्लक्रया या र्दाथप), हाथ (उर्री शरीर से िनकला, या कायप बाहर िनकलना)। दस्त का कायप दस्तकारी है। ऄन्य मूल धातु है-दृिशर् (दृश्) प्रेक्षणे (१/७१४)=देखना। संसार १० रूर्ों में देखा जाता है या दस ह्लदशाओं में देखते हैं, ऄतः दश, दशा (िस्थित) ह्लदशा, सभी १० हैं। ह्ऴिशित (२०)-िनरुक्त (३/१०) के ऄनुसार ह्ऴिशित = िि+दश+िक्तन् = २ दश। भास के ऄिभषेक नाटक, नारद स्मृित (ह्लदव्य प्रकरण) तथा र्ुराणों में ह्ऴिशत् शब्द का भी प्रयोग है। ऄंग्रेजी में भी ट्िेण्टी (Twenty) का ऄथप है टू +टेन (two ten) ।
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ह्ऴत्रशत् या ह्ऴत्रशित (३०) आसी प्रकार ह्ऴत्रशत् = ित्र + दश+ िक्तन् = ३ x १०। ह्ऴत्रशित का प्रयोग भी है-र्ञ्चतन्त्र (५/४१, ५/५३), भरिाज का ििमान शास्त्र (र्ृष्ठ ७४), िराह गृह्य सूत्र (६/२९) अह्लद। ऄंग्रेजी में भी थटी (Thirty) का ऄथप है थ्री टेन (3x10) । चत्िाह्वरशत् या चत्िाह्वरशित (४०) =४ x १०। दूसरा शब्द ऄंग्रज े ी में फोटी (Forty) हो गया है। र्ञ्चाशत् (५०)-र्ञ्च + दश = ५ x १०। ऄंग्रेजी में फाआि टेन = ह्लफफ्टी (Fifty)। षिि (६०) =षट् +दश+ित = ६ दश िारा। ऄंग्रेजी रूर् िसक्स्टी (Sixty) प्रायः समान है। सप्तित (७०)- सप्तित + सप्त + दश + ित = ७ दश िारा। ऄंग्रेजी में भी सेिेन्टी (70) = सेिेन टेन (7x10)। ऄशीित (८०)-ऄि कह्ळ तरह आसका मूल भी है-ऄशूङ् (ऄश्) व्याप्तौ संघाते च = व्यािप्त या संहित। आसी से ऄश या ऄशन = भोजन बने हैं। िेद में ऄशन का ऄथप भोजन, ऄशीित का ऄथप ऄन्न है िजसका भोजन ह्लकया जाय। साशनानशने ऄिभ (र्ुरुषसूक्त, ऊग्िेद १०/९०/४, िाजसनेिय यजुः ३१/४, तैिर्त्रीय अरण्यक ३/१२/२) ऄन्नमशीितः (शतर्थ ब्राह्मण ८/५/२/१७) या ऄन्नमशीतयः (शतर्थ ब्राह्मण ९/१/१२१) ऄशीित छन्द ऄन्न कह्ळ मार् है। अधुिनक भौितक ििज्ञान में भी दृश्य जगत कह्ळ कु ल कण संख्या का ऄनुमान १०८६ है। ऄशीित = ऄि + (दश) + ित= ८ दश। यह ऄंग्रेजी में एटी (Eighty) हो गया है। निित (९०)-निित = नि + (दश) + ित = ९ दश। यह ऄंग्रेजी में नाआण्टी (Ninty) हो गया है। शत (१००)- िनरुक्त (३/१०) के ऄनुसार दश + दश (१० x १०) के २ बीच के ऄक्षर लेने से शद = शत हो गया है। सूयप का तेज १०० योजन (१०० सूयप व्यास) कह्ळ दूरी र्र शान्त हो जाता है, या मनुष्य भी १०० िषप के बाद शान्त (मृत) हो जाता है। शान्त से शत हुअ है। एषा िा यज्ञस्य मात्रा यच्छतम्। (ताण्य महाब्राह्मण २०/१५/१२)-मनुष्य का यज्ञ (जीिन) १०० िषप चलता है, आन्ि १०० िषप राज्य करने कॆ कारण शतक्रतु हैं। तद्यदेतिँ शतशीषापणिँ रुिमेतेनाशमयंस्तस्माच्छतशीषपरुिशमनीयिँ शतशीषपरुिशमनीयिँ ह िै तच्छतरुह्लियिमत्याचक्षते र्रोऽक्षम्। (शतर्थ ब्राह्मण ९/१/१/७) ऄंग्रेजी में शान्त = हण्ड = हण्डर (Hunder) या हण्ड्रेड (Hundred)। सहस्र (१०००)-आसका ऄथप है सह + स्र = साथ चलना। प्रायः १००० व्यिक्त एकसाथ रहते हैं (गांि या नगर के मुहल्ले में १ से १० हजार तक), या सेना में १००० लोग साथ रहते या चलते हैं। अह्लद काल से सेना कह्ळ आकाइ में १००० व्यिक्त साथ रहते थे, मुगलों ने ५ या १० हजार के मनसब ह्लदये थे। महाराष्ट्र का हजारे या ऄसम का हजाह्ऱरका ईर्ािध का यही ऄथप है। ह्लकसी भी व्यिक्त को प्रायः १००० लोग ही जानते हैं। आन सभी ऄथों में सहस्र का ऄथप १००० है। फारसी में सहस्र का हस्र हो गया है िजसका ऄथप प्रभाि या र्ह्ऱरणाम है। आससे िहन्दी में हजार हुअ है। सेना कह्ळ व्यिस्था करने िालों को हजारी, हजारे (महाराष्ट्र) या हजाह्ऱरका (ऄसम) कहा जाता था। सूयप का तेज १००० व्यास तक होता है िजसे सहस्राक्ष क्षेत्र कहा गया है। र्र आसका कु छ प्रभाि ईससे बहुत दूर तक भी है, िह ब्रह्माण्ड (अकाशगंगा) के छोर र्र भी ििन्दु मात्र दीखता है, ऄतः सहस्र का ऄथप ऄनन्त भी है। गीक में हजार (िमह्ऱरऄड) तक ही िगनती थी ऄतः ऄनन्त को भी िमह्ऱरऄड) ही कहते थे। ह्लकसी संख्या का ऄनुमान भी हम प्रायः ३ दशमलि ऄंक तक करते हैं, ऄथापत् १००० में एक कह्ळ शुिद्ध रखते हैं। बिी संख्या जैसे देश का बजट भी हजार से कम रुर्यों में नहीं िलखा जाता। ऄतः सहस्र का ऄथप ’प्रायः’ भी होता है। र्ुरुरिा का शासनकाल ५६ िषप था, ईसे प्रायः ६० िषप (षिि सहस्र िषप) कहा गया है। शासनकाल कह्ळ एक और िििध है िजसे ऄंक कहा जाता है, िजसका अज भी ओिडशा के र्ञ्चाङ्गों में व्यिहार होता है। राजा के ऄिभषेक के बाद जब भािर्द शुक्ल िादशी अती है ईसे शून्य मानकर िहां से िगनती अरम्भ करते हैं, ऄतः आस ह्लदन को शून्य (सुिनया) कहते हैं। ईसके अद के िषों में १, २, अह्लद ऄंक होते हैं। आस ह्लदन िामन ने बिल से लेकर ित्रलोकह्ळ का राज्य आन्ि को ह्लदया था। 13
आससे र्ूिप आन्ि राज्य-शून्य थे, ईसके बाद ऄशून्य हुये। एक िििध में सभी ऄंक िगनते हैं, ऄन्य िििध में ०, ६ से ऄन्त होने िाले ऄंक छोि देते हैं। ऄतः र्ुरुरिा का ५६ िषप का राजत्ि ६४ िषप भी िलखा जा सकता है जो कु छ ऄन्य र्ुराणों में है। लक्ष (१०५)-मूल धातु है लक्ष दशपनाङ्कयोः (१०/५, अत्मने र्दी १०/१६४) = देखना, िचह्न देना, व्याख्या, ह्लदखाना अह्लद। ऄतः सभी दृश्य सम्र्िर्त् लक्ष्मी तथा ऄदृश्य ििमला (िबना मल का) हैश्रीश्च ते लक्ष्मीश्च र्त्न्यौ (ईर्त्रनारायण सूक्त, िाज. यजु. ३१/२२) । हमारे देखने कह्ळ सीमा ऄर्ने अकार का प्रायः १०० हजार भाग होता है, ऄतः आस संख्या को लक्ष कहते हैं। मनुष्य से अरम्भ कर ७ छोटे ििश्व क्रमशः १-१ लक्ष भाग छोटे हैंिालाग्रशतसाहस्रं तस्य भागस्य भािगनः। तस्य भागस्य भागाद्धं तत्क्षये तु िनरञ्जनम्॥ (ध्यानििन्दु ईर्िनषद्, ५) मनुष्य से प्रायः लक्ष भाग का कोष (Cell) है जो जीि-ििज्ञान के िलये ििश्व है। ईसका लक्ष भाग र्रमाणु है जो रसायन शास्त्र या क्वाण्टम मेकािनक्स के िलये ििश्व है। र्ुनः ईसका लक्ष भाग र्रमाणु कह्ळ नािभ है जो न्यूिक्लयर ह्लफिजक्स के िलये ििश्व है। ईसका लक्ष भाग जगत् या ३ प्रकार के कण हैं-चर (हलके , Lepton), स्थाणु (भारी, Baryon), ऄनुर्ूिपशः (दो कणों को जोिने िाले, Meson ) । ईसका लक्ष भाग देि-ऄसुर हैं िजनमें के िल देि से ही सृिि होती है, जो ४ में १ र्ाद है। ईससे छोटे िर्तर, ऊिष हैं िजसका अकार १०-३५ मीटर है जो सबसे छोटी मार् है। यह भौितक ििज्ञान मे ्लांक दूरी कही जाती है। कोह्ऱट (१०७)-कोह्ऱट का ऄथप सीमा है, धनुष का छोर या छोर तक का कोण है। भारत भूिम कह्ळ दिक्षणी सीमा धनुष्कोह्ऱट है। मनुष्यके िलये ििश्व कह्ळ सीमा र्ृथ्िी ग्रह है िजसका अकार हमारे अकार का १०७ गुणा है ऄतः १०७ को कोह्ऱट कहते हैं। र्ृथ्िी कह्ळ सीमा सौरमण्डल ईससे १०७ गुणा है। सौर मण्डल रूर्ी र्ृथ्िी (ईसके गुरुत्िाकषपण मे घूमने िाले िर्ण्डो) कह्ळ सीमा ब्रह्माण्ड ईससे १०७ गुणा है। ब्रह्माण्ड सबसे बिी रचना या काश्यर्ी र्ृथ्िी है िजसकह्ळ सीमा र्ूणप ििश्व है जो आसी क्रम में १०७ गुणा होगा। रििचन्िमसोयापिन् मयूखैरिभास्यते। स समुि सह्ऱरत् शैला र्ृिथिी तािती स्मृता॥३॥ याित् प्रमाणा र्ृिथिी ििस्तार र्ह्ऱरमण्डलात्। नभस्ताित् प्रमाणं िै व्यास मण्डलतो ििज॥४॥ (ििष्णु र्ुराण २/७/३-४) सूय-प चन्ि का प्रकाश जहां तक है ईसे र्ृथ्िी कहा जाता है तथा ईन सभी में समुि, नदी, र्िपत कहे जाते हैं। र्ृथ्िी ग्रह में तीनों हैं। सौर मण्डल में यूरेनस तक कह्ळ ग्रह कक्षा से जो क्षेत्र बनते हैं िे िीर् हैं तथा ईनके बीच के क्षेत्र समुि हैं। यह लोक भाग है िजसकह्ळ सीमा को लोकालोक र्िपत कहा जाता है। ईसके बाद १०० कोह्ऱट योजन (योजन = र्ृथ्िी व्यास का १००० भाग) व्यास क्षेत्र नेर्चून कक्षा तक है। ब्रह्माण्ड में भी ईसका के न्िीय थाली अकार का घूमने िाला क्षेत्र अकाशगंगा (नदी) कहते हैं। (मनुष्य तुलना से) र्ृथ्िी का जो अकार (व्यास, र्ह्ऱरिध) है, (हर) र्ृथ्िी के िलये ईसका अकाश ईतना ही बिा है। ऄथापत्, मनुष्य से अरम्भ कर र्ृथ्िी, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड तथा ििश्व क्रमशः १०७ गुणा बिे हैं। ऄबुद प (१०८) ऄब्ज (१०९)-िनरुक्त (३/१०) में आसकह्ळ उत्र्िर्त् ऄम्बुद = ऄबुपद कही है। ऄरण तथा ऄम्बु-दोनों का ऄथप जल है। (शतर्थ ब्राह्मण १२/३/२/५-६) के ऄनुसार १ मुूर्त्प में लोमगर्त्प (कोिषका, ऄबुपद) कह्ळ संख्या प्रायः १०८ तथा स्िेदायन (स्िेद या जल कह्ळ गित) १०९ है। अजकल िहन्दी में ऄबुपद (ऄरब) का ऄथप १०९ (१०० कोह्ऱट) होता है। ऄब्ज का र्यापय िृन्द है िजसका एक ऄथप जल-ििन्दु है। र्ुरुषोऽयं लोक सिम्मत आत्युिाच भगिान् र्ुनिपसुः अत्रेयः, यािन्तो िह लोके मूह्सतमन्तो भािििशेषास्तािन्तः र्ुरुषे, यािन्तः र्ुरुषे तािन्तो लोके ॥ (चरक संिहता, शारीरस्थानम् ५/२) = र्ुरुष तथा लोक कह्ळ मार् एक ही है। लोक (ििश्व) में िजतने भाि-ििशेष हैं ईतने ही र्ुरुष में हैं।
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एभ्यो लोमगर्त्ेभ्य उध्िापिन ज्योतींष्यान्। तद्यािन ज्योतींिषः एतािन तािन नक्षत्रािण। यािन्त्येतािन नक्षत्रािण तािन्तो लोमगर्त्ापः। (शतर्थ ब्राह्मण १०/४/४/२) = आन लोमगर्त्ों से उर्र में ज्योित (ज्योितष्) हैं। िजतनी ज्योित हैं ईतने ही नक्षत्र हैं। िजतने नक्षत्र हैं ईतने ही लोमगर्त्प हैं। शरीर में लोम (रोम) का गर्त्प (अधार) कोिषका हैं। अकाश में ३ प्रकार के नक्षत्र हैं-(१) सौर मण्डल कह्ळ नक्षत्र कक्षा (सूयप िसद्धान्त १२/८०) के ऄनुसार यह र्ृथ्िी (या र्ृथ्िी से दीखती सूय)प कक्षा का ६० गुणा है िजसके बाद बालिखल्य अह्लद हैं। र्र यह दीखते नहीं हैं। भिेद ् भकक्षा तीक्ष्णांशोभ्रपमणं षिितािडतम्। सिोर्ह्ऱरिाद् भ्रमित योजनैस्तैभपमण्डलम्॥८०॥ दीखने िाले (ज्योित) २ प्रकार के नक्षत्र हैं-(२) ब्रह्माण्ड (अकाशगंगा) में तारा, (३) सम्र्ूणप ििश्व में ब्रह्माण्ड। ये दोनों ििन्दु मात्र दीखते हैं। आनकह्ळ संख्या ईतनी ही है िजतनी शरीर में लोमगर्त्प या िषप में लोमगर्त्प (मुूर्त्प का १०७ भाग) हैं। र्ुरुषो िै सम्ित्सरः॥१॥ दश िै सहस्राण्यिौ च शतािन सम्ित्सरस्य मुूर्त्ापः। यािन्तो मुूर्त्ापस्ताििन्त र्ञ्चदशकृ त्िः िक्षप्रािण। याििन्त िक्षप्रािण, ताििन्त र्ञ्चदशकृ त्िः एतहीिण। यािन्त्येतहीिण ताििन्त र्ञ्चदशकृ त्ि आदानीिन। यािन्तीदानीिन तािन्तः र्ञ्चदशकृ त्िः प्राणाः। यािन्तः प्राणाः तािन्तो ऽनाः। यािन्तोऽनाः तािन्तो िनमेषाः। यािन्तो िनमेषाः तािन्तो लोमगर्त्ापः। यािन्तो लोमगर्त्ापः ताििन्त स्िेदायनािन। याििन्त स्िेदायनािन, तािन्त एते स्तोकाः िषपिन्त॥५॥ एतद्ध स्म िै तद् िििान् अह िाकप िलः। सािपभौमं मेघं िषपन्त िेदाहम्। ऄस्य िषपस्य स्तोकिमित॥६॥ ((शतर्थ ब्राह्मण १२/३/२/५-६) = १ िषप में १०,८०० मुूर्त्प हैं। १ मुूर्त्प ह्लदिस (१२ घण्टा) का ३० िां भाग है। मुूर्त्प के क्रमशः १५-१५ भाग करने र्रिक्षप्र, एतह्सह, आदानी, प्राण, ऄन (ऄक्तन), िनमेष, लोमगर्त्प, स्िेदायन-होते है। िजतने स्िेदायन हैं ईतने ही स्तोक (जलििन्दु) हैं। यह भारी िषाप में जलििन्दु कह्ळ संख्या है। स्िेद या जल-ििन्दु का ऄयन (गित) ईतनी दूरी तक हैं िजतना प्रकाश आस काल में चलता है (प्रायः २७० मीटर)। हिा में िगरते समय ईतनी दूरी तक आनका अकार बना रहता है। ऄतः १ मुूर्त्प =१५७ लोमगर्त्प =१.७१ x १०८ (ऄबुपद) = १०८ स्िेदायन=२.५६ x १०९ (ऄब्ज या िृन्द) खिप (१०१०) िनखिप (१०११)-उर्र के ईद्धरण के ऄनुसार अकाश में ब्रह्माण्ड या ब्रह्माण्ड में तारा संख्या १०८०० x १०७ है, िजतने िषप में लोमगर्त्प हैं। ह्लकन्तु यह र्ुरुष के रूर् हैं जो भूिम से १० गुणा होता हैसहस्रशीषाप र्ुरुषः सहस्राक्षः सहस्रर्ात्। स भूह्ऴम ििश्वतो िृत्त्िाऽत्यिर्त्ष्ठर्द्शाङ्गुलम्॥ (र्ुरुष सूक्त १) ऄतः भूिम (ब्रह्माण्ड) में तारा संख्या आसका दशम भाग १०११ है। खिप का ऄथप चूणप या कण रूर् है। ििश्व के िलये ब्रह्माण्ड एक कण है, ब्रह्माण्ड के िलये तारा कण है। महार्द्म (१०१२)-र्ृथ्िी र्द्म है, सबसे बिी र्ृथ्िी ब्रह्माण्ड महा-र्द्म है, आसमें १०१२ लोमगर्त्प हैं, ऄतः यह संख्या महार्द्म है। शङ्कु (१०१३)-शङ्कु के कइ ऄथप हैं- र्ृथ्िी र्र ऄक्षांश, ह्लदशा, समय या सूयप क्रािन्त कह्ळ मार् के िलये १२ ऄंगुल का स्तम्भ खिा करते हैं िजसे शङ्कु कहते हैं (ित्रप्रश्नािधकार)। आसका अकार शीषप र्र ििन्दु मात्र है तथा यह नीचे िृर्त्ाकार में चौिा होता गया है। चौिा अधार स्ियं िस्थर रह सकता है, िृर्त्ाकार होने र्र यह समान रूर् से िनर्कर्द्ि ििन्दु के सभी ह्लदशा में होगा। आस स्तम्भ का अकार शङ्कु कहलाता है। ग्रहों कह्ळ गित िजस कक्षा में है िह िृर्त् या दीघपिृर्त् है, जो शङ्कु को समतल िारा काटने से बनते हैं। ब्रह्माण्ड के न्ि के चारों तरफ तारा कक्षा भी शङ्कु -छे द कक्षा (िृर्त्ीय) में हैं। आसी कक्षा ने आनको धारण ह्लकया है, ऄतः शङ्कु िारा ििश्व का धारण हुअ है। सबसे बिा शङ्कु स्ियं ब्रह्माण्ड है, जो कू मप चक्र (ब्रह्माण्ड से १० गुणा बिा-अभामण्डल) के अधार र्र घूम रहा है। आसका अकार र्ृथ्िी कह्ळ तुलना में १०१३ गुणा है। शङ्कु या 15
शङ्ख का ऄथप िृर्त्ीय गित भी है। आसी से शक्वरी शब्द बना है-ब्रह्माण्ड के र्रे ऄन्धकार या राित्र है, शक्वरी = राित्र। शक्वरी का ऄथप सकने िाला, समथप है-यह क्षेत्र ब्रह्माण्ड कह्ळ रचना करने में समथप है। आसका अकार ऄहगपण मार् में शक्वरी छन्द में मार्ा जाता है िजसमें १४ x ४ = ५६ ऄक्षर होते हैं। ५६ ऄहगपण = र्ृथ्िी २५३ (५६-३)। कू मप चक्र का भी यही ऄथप है-यह करने में समथप है। आस क्षेत्र जैसे अकार िाला जीि भी कू मप (कछु अ) है। यह ह्लकरण का क्षेत्र होने से आसे ब्रह्मिैिर्त्प र्ुराण, प्रकृ ित खण्ड, ऄध्याय ३ में गोलोक कहा गया है। ब्रह्मिैितप र्ुराण, प्रकृ ित खण्ड, ऄध्याय ३-ऄथाण्डं तु जलेऽितिद्याििै ब्रह्मणो ियः॥१॥ तन्मध्ये िशशुरेकश्च शतकोह्ऱटरििप्रभः॥२॥ स्थूलात्स्थूलतमः सोऽिर् नाम्ना देिो महाििराट् ॥४॥ तत उध्िे च िैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बिहरे ि सः॥९॥ तदूध्िे गोलकश्चैि र्ञ्चाशत् कोह्ऱटयोजनात्॥१०॥िनत्यौ गोलोक िैकुण्ठौसत्यौ शश्वदकृ ित्रमौ॥१६॥ शतर्थ ब्राह्मण (७/५/१/५)-स यत्कू मो नामा एतिै रूर्ं कृ त्िा प्रजार्ितः प्रजा ऄसृजत, यदसृजत ऄकरोत्-तद् यद् ऄकरोत् तस्मात् कू मपः॥ नरर्ित जयचयाप, स्िरोदय (कू मप-चक्र)-मानेन तस्य कू मपस्य कथयािम प्रयत्नतः। शङ्कोः शतसहस्रािण योजनािन िर्ुः िस्थतम्॥ ताण्य महाब्राह्मण (११/१०) शङ्कु भित्यह्नो धृत्यै यिा ऄधृतं शङ्कु ना तर्द्ाधार॥११॥ तद् (शङ्कु साम) ईसीदिन्त आयिमत्यमाहुः॥१२॥ ऐतरे य ब्राह्मण (५/७)-यह्लदमान् लोकान् प्रजार्ितः सृष्ट्िेदं सिपमशक्नोद् तद् शक्वरीणां शक्वरीत्िम्॥ जलिध (१०१४)-ब्रह्माण्ड में तारा गणों के बीच खाली अकाश में ििरल र्दाथप का ििस्तार िाः या िाह्ऱर कहा गया है, क्योंह्लक आसने सभी का धारण ह्लकया है (ऄिाप्नोित का संक्षेर् ऄर्् या अर््)। यह िाह्ऱर का क्षेत्र होने से आसके देिता िरुण हैं। यदिृणोत् तस्माद् िाः (जलम्)-शतर्थब्राह्मण (६/१/१/९) अिभिाप ऄहिमदं सिपमा्स्यिस यह्लददं ह्लकञ्चेित तस्माद् अर्ोऽभिन्, तदर्ामत्िम् अप्नोित िै स सिापन् कामान्। (गोर्थ ब्राह्मण र्ूिप १/२) यच्च िृत्त्िा ऽितष्ठन् तद् िरणो ऄभित् तं िा एतं िरणं सन्तं िरुण आित अचक्षते र्रोऽक्षेण। (गोर्थ ब्राह्मण र्ूिप १/७) आस ऄर््-मण्डल का ििस्तार र्ृथ्िी कह्ळ तुलना में १०१४ है, ऄतः १०१४ = जलिध। जलिध का ऄथप सागर है, १०१४ एक सामान्य सागर में जलििन्दुओं कह्ळ संख्या है। कै िस्र्यन सागर (सबसे बिी झील) का अकार ५००० िगप ह्लक.मी. ले सकते हैं, औसत गहराइ १ह्लक.मी.। एक जल ििन्दु का अयतन १/३० घन सेण्टीमीटर है, आससे गणना कह्ळ जा सकती है। अकाश का िाह्ऱर-क्षेत्र (ब्रह्माण्ड) सौर र्ृथ्िी से १०७ गुणा है, जो र्ृथ्िी ग्रह का १०७ गुणा है। ऄतः जलिध को जैन ज्योितष में कोिाकोिी (कोह्ऱट का िगप) या सागरोर्म कहा गया है। समुिाय त्िा िाताय स्िाहा (िाज. यजु. ३८/७)-ऄयं िै समुदो योऽयं (िायुः) र्ितऽएतस्माद् िै समुिात् सिे देिाः सिापिण भूतािन समुिििन्त। (शतर्थ ब्राह्मण १४/२/२/२) मनश्छन्दः... समुिश्छन्दः (िाज. यजु. १५/४)-मनो िै समुिश्छन्दः। (शतर्थ ब्राह्मण ८/५/२/४) ऄन्त्य (१०१५), मध्य (१०१६), र्राद्धप (१०१७)-जलिध (१०१४) कह्ळ सीमा (ऄन्त) १०१५ है, ऄतः यह ऄन्त्य है। मध्य (१०१६) ऄन्त्य तथा र्राद्धप के बीच (मध्य) में अता है। र्ृथ्िी-व्यास का १००० भाग लेने र्र १ योजन है, ऄतः यह अकाश का सहस्र-दल र्द्म है। आस योजन में ब्रह्माण्ड का अकार १०१७ है, यह सबसे बिी रचना र्रमेष्ठी कह्ळ मार् है, ऄतः आसे र्रा या र्राद्धप कहते हैं। िैह्लदक मार् में र्ृथ्िी र्ह्ऱरिध का अधा ऄंश (७२० भाग) = ५५.५ ह्लक.मी. १ योजन है। आस
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मार् से ब्रह्माण्ड कह्ळ कक्षा र्रा (१०१७) योजन का अधा है, ऄतः आसे र्राद्धप योजन कहते हैं। यह मार् िेद में ईषा के सन्दभप में है। ईषा सूयप से ३० धाम अगे चलती है। भारत में १५० का सन्ध्या-काल मानते हैं। यह सभी ऄक्षांशों के िलये ऄलगऄलग है, र्र ििषुि रे खा के िलये आसका मान िस्थर होगा जो धाम योजन या १/२ ऄंश का चार् होगा। सदृशीरद्य सदृशीह्ऱरदु श्वो दीघं सचन्ते िरुणस्य धाम । ऄनिद्याह्ऴस्त्रशतं योजनान्येकैका क्रतुं र्ह्ऱरयिन्त सद्यः ॥ (ऊक् , १/१२३/८) आस मार् में र्रम गुहा (र्रमेष्ठी, ब्रह्माण्ड) कह्ळ मार् र्रा (१०१७) योजन का अधा हैऊतं िर्बन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रिििौ र्रमे र्राधे । छायातर्ौ ब्रह्मििदो िदिन्त र्ञ्चाग्नयो ये च ित्रणािचके ताः ॥ (कठोर्िनषद् १/३/१) संयक्त ु शब्द-दश के बाद १०० तक कह्ळ संख्यायें संयुक्त होती हैं। इकाइ तथा दहाइ (१० गुिणत) संख्या शब्दों को जोि कर। ये हैंएकादश (११), िादश (१२), त्रयोदश (१३), चतुदश प (१४), र्ञ्चदश (१५), षोडश (१६), सप्तदश ९१७), ऄिादश (१८), उनह्ऴिश (१९) = ह्ऴिशित से उन ऄथापत् १ कम। उन का ऄंग्रेजी में िन (one) हो गया है। ह्ऴिशित (२०), एकह्ऴिशित (२१), िाह्ऴिशित (२२), त्रयोह्ऴिशित (२३), चतुर्विशित (२४), र्ञ्चह्ऴिशित (२५), षह्ऴड्िशित (२६), सप्तह्ऴिशित (२७), ऄिाह्ऴिशित (२८), उनह्ऴत्रशत् या उनह्ऴत्रशित (३० से १ कम २९), ह्ऴत्रशत् या ह्ऴत्रशित (३०), एकह्ऴत्रशत् (३१), िाह्ऴत्रशत् (३२), त्रयह्ऴस्त्रशत् (३३), चतुह्ऴस्त्रशत् (३४), र्ञ्चह्ऴत्रशत् (३५), षह्ऴट्त्रशत् (३६,) सप्तह्ऴत्रशत् (३७), ऄिाह्ऴत्रशत् (३८) निह्ऴत्रशत् (३०+९) या उनचत्िाह्वरशत् (४०-१) या एकोनचत्िाह्वरशत् (३९), चत्िाह्वरशत् (४०) एकचत्िाह्वरशत् (४१), िा- या ििचत्िाह्वरशत् (४२), त्रयश्चत्िाह्वरशत् (४३), चतुश्चत्िाह्वरशत् (४४) , र्ञ्चचत्िाह्वरशत् (४५), षट्चत्िाह्वरशत् (४६), सप्तचत्िाह्वरशत् (४७), ऄिचत्िाह्वरशत् (४८), निचत्िाह्वरशत् (४०+९), या उनर्ञ्चाशत्, एकोनर्ञ्चाशत् (५०-१), र्ञ्चाशत् (५०), एकर्ञ्चाशत् (५१), िा- या ििर्ञ्चाशत् (५२), त्रयः- या ित्र-र्ञ्चाशत् (५३), चतुःर्ञ्चाशत् (५४), र्ञ्चर्ञ्चाशत् (५५), षट्र्ञ्चाशत् (५६), सप्तर्ञ्चाशत् (५७), ऄिर्ञ्चाशत् (५८), निर्ञ्चाशत् (५०+९) या एकोनषििः, उनषििः (६०-१) एकषििः (६१), िा- या िि-षििः (६२), त्रयः- या ित्र-षििः (६३), चतुःषििः(६४), र्ञ्चषििः (६५), षट्षििः (६६), सप्तषििः (६७), ऄि् - या ऄिा-षििः (६८), निषििः (६०+९) या एकोनसप्तितः, उनसप्तितः (७०-१), एकसप्तित (७१), िि (िा)सप्तित (७२), त्रयः (ित्र)सप्तित (७३), चतुस्सप्तित (७४), र्ञ्चसप्तित (७५), षट्सप्तित (७६), सप्तसप्तित (७७), ऄि (ऄिा)सप्तित (७८), निसप्तित (७०+९) या एकोनाशीित, उनाशीितः (८०-१), एकाशीित (८१), द्व्याशीित (८२), त्र्याशीित (८३), चतुरशीित (८४), र्ञ्चाशीित (८५), षडशीित (८६), सप्ताशीित (८७), ऄिाशीित (८८), निाशीित (८०+९), या एकोननिित, उननिित (९०-१), निित (९०), एकनिित (९१), िि (िा) निित (९२), त्रयो (ित्र) निित (९३), चतुनपिित (९४), र्ञ्चनिित (९५), षण्णिित (९६), सप्तनिित (९७), ऄिा (ऄि) निित (९८), निनिित (९०+९), या एकोनशतम्, उनशतम् (१००-१), शतम् (१००)। शून्य-शून्य के कइ ऄथप या प्रकार हैं-(१) ह्लकसी संख्या को ईसी से घटाया जाय तो शून्य होता है, जैसे २-२=०, ५-५ =०। (२) सीमात्मक मान-ह्लकसी भाग ह्लक्रया में भाजक को क्रमशः बढ़ाया जाय तो फल छोटा होता जाता है। िह बहुत बिा हो जाय, तो फल शून्य जैसा हो जाता है। आसका ििर्रीत ऄनन्त है। भाजक छोटा होते-होते शून्य के िनकट र्हुंचे, तो फल बिे से बिा ह्लकया जा सकता है, जो ऄनन्त कहा जाता है। शून्य या ऄनन्त से भाग देने का कोइ ऄथप नहीं होता, यह सीमात्मक मान ही होता है। (Limit x tends to infinity of 1/x =0), (१/क शून्य के िनकट यह्लद क ऄनन्त के िनकट)
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या,
(Limit x tends to zero of 1/x =
), (१/क ऄनन्त के िनकट यह्लद क शून्य के िनकट)
यहां ऄनन्त ( ) का ऄथप है ह्लकसी भी बिी संख्या से बिा। शून्य का ऄथप है ह्लकसी भी छोटी संख्या से छोटा। ऄणोरणीयान् महतो महीयान्, अत्मास्य जन्तोह्सनिहतो गुहायाम्। तमक्रतुः र्श्यित िीतशोको, धातु प्रसादान्मिहमानमात्मनः॥ (कठोर्िनषद् १/२/२०, नारद र्ह्ऱरव्राजक ईर्िनषद् ९/१३, शरभ ईर्िनषद् १९, नारायण ईर्िनषद् १/३) ऄथापत् अत्मा सूक्ष्म से सूक्ष्म (शून्य) तथा बिे से बिा (ऄनन्त) है। ऄिणष्ठो िाङ्गेऽङ्गे समानयित। (मैत्रायणी ईर्िनषद् २/६) ऄणीयान् ह्यतकप मणुप्रमाणात्। (कठोर्िनषद् १/२/८) ऄणीयान् ब्रीहेिाप यिािा। (छान्दोग्य ईर्िनषद् ३/१४/३) = ब्रीिह (धान्य) या यि (जौ) से भी छोटा। जब मनुष्यों के बीच कह्ळ दूरी बहुत कम हो जाती है तो ईसे जिरे (यि) या भीरी (ब्रीिह) कहते हैं )भोजर्ुरी में) । ऄणु कोटर ििस्तीणे त्रैलोक्यं च जगद् भिेत्। (तेजििन्दु ईर्िनषद् ६/८७) ऄणोरणीयानहमेि तित्। (कै िल्य ईर्िनषद् २०) ऄणोरणीयांसमनुस्मरे द्यं (गीता ८/९) ऄणोर्यणिं ध्यात्िा (मैत्रायणी ईर्िनषद् ६/३८) लीलािती (भास्कराचायप-२) ने भी शून्य तथा ऄनन्त िारा भाग का ऄथप िलखा हैयोगे खं क्षेर्समं िगापदौ खं भािजतो रािशः। खहरः स्यात्खगुणः खं खगुणिश्चन्त्यश्च शेषििधौ॥ शून्ये गुणके जाते खं हारश्चेत् र्ुनस्तदा रािशः। ऄििकृ त एि ज्ञेयस्तथैि खेनोिनतश्च युतः॥ ऄथापत,् क - क =०, क
० = क, ०
क = क, ०
(क) = ०, ० ० = ०, ०
क = ०।
सीमात्मक मान कह्ळ भी र्ह्ऱरभाषा भास्कराचायप के बीज गिणत में हैऄिस्मन् ििकारः खहरे न राशाििर् प्रिििेष्ििर् िनःसृतेषु। बहुष्ििर् स्याल्लयसृििकालेऽनन्तेऽच्युते भूतगणेषु यित्॥ = शून्य भाजक िाले िभन्न संख्या कह्ळ प्रकृ ित िििचत्र है तथा र्रमात्मा जैसी है। प्रलय के समय ऄनन्त जीि ईसमें लीन होते हैं तथा सृिि काल में ऄनन्त जीि प्रकट होते हैं, र्र िह ज्यों का त्यों बना रहता है। आसी प्रकार शून्य भाजक िाले िभन्न में ह्लकतनी भी बिी संख्या जोिी जाय या ईससे घटाइ जाय, ईसका मान नहीं बदलता। महाभारत, शािन्त र्िप, ऄध्याय ३०५ में भी र्ुरुष (ब्रह्म) को िनस्तत्त्ि या शून्य तत्त्ि माना हैऄव्यक्तं क्षेत्रिमयुक्तं तथा सत्त्िं तथेश्वरः। ऄनीश्वरमतत्त्िं च तत्त्िं तत् र्ञ्चह्ऴिशकम्॥४१॥ तत्त्िािन च चतुर्विशत् र्ह्ऱरसंख्याय तत्त्ितः। संख्याः सह प्रकृ त्या तु िनस्तत्त्िः र्ञ्चह्ऴिशकः॥४३॥ (३) शून्य २ ऄथों में संख्या है-आससे गणना अरम्भ होती है, आसके बाद क्रमशः १, २, .. अह्लद अते हैं। यह दशमलि या ऄन्य र्द्धित में ऄंकों का स्थान ह्लदखाता है, जहां कोइ संख्या नहीं हो। (४) अकाश के शून्य-शब्द का मूल ॎ है, जहां यह भी नहीं है, िह व्योम (िि + ओम) है। ऄतः व्योम शून्य का र्यापय है। आसके कइ स्तर हैं, सबसे ईच्च स्तर का र्रम व्योम है। गौरी िाक् का ििभाजन होते होते जब ईसके सहस्र या ऄनन्त भाग (र्द) हो जाते हैं िह र्रम व्योम हैगौरीह्सममाय सिललािन तक्षित एकर्दी ििर्दी सा चतुह्र्दी। ऄिार्दी निर्दी बभूिुषी सहस्राक्षरा र्रमे व्योमन्॥ (ऊक् १/१६४/४१, ऄथिप ९/१०/२१, १३/१/४१, तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/४/६/११) आयं िेह्लदः र्रो ऄन्तः र्ृिथव्या ऄयं यज्ञो भुिनस्य नािभः। ऄयं सोमो िृष्णो ऄश्वस्य रे तो ब्रह्मायं िािः र्रमं व्योम॥ (ऊक् १/१६४/३५) 18
कोइ भी शून्य र्ूरी तरह शून्य नहीं है, ईसमें कोइ न कोइ र्दाथप ऄिश्य है। र्ृथ्िी र्र ठोस सतह कह्ळ तुलना में िायुमण्डल शून्य है, र्र ईसमें अन्धी, तूफान, िषाप अह्लद होते रहते हैं। िायुमण्डल के र्रे ऄिधक शून्य है, र्र ईसमें भी सूयप के कण प्रिाह (सौर िायु) के कारण तूफान अते रहते हैं िजनसे रे िडओ संचार में बाधा होती है। यह ऄन्तह्ऱरक्ष का अधा शून्य है, जो कभी कभी ऄशान्त होता है, ऄतः ऄन्तह्ऱरक्ष कह्ळ शािन्त कह्ळ कामना करते हैं, व्योम कह्ळ नहीं। व्योम का शून्य ऄथप में प्रयोग होता है, ऄन्तह्ऱरक्ष का कभी नहीं। सौर िायु भागित अह्लद र्ुराणों के ऄनुसार ईसके ३००० व्यास दूरी र्यपन्त है, ईसके बाद अकाश रसतम या सौरमण्डल का सबसे शून्य क्षेत्र हो जाता है िजसे रथन्तर साम कहा गया हैयोजनानां सहस्रािण भास्करस्य रथो नि। इषादण्डस्तथैिास्य ििगुणो मुिनसर्त्म॥ (ििष्णु र्ुराण २/८/२) इषे त्िा उज्जे त्िा िायिस्थ (िाज. यजु. १/१) इषा िायिस्थ उजाप है (सौर मण्डल में सौर िायु), ईसका क्षेत्र इषा-दण्ड १८००० योजन र्ह्ऱरिध ऄथापत् ३००० योजन ित्रज्या का है। रसतमं ह िै तद् रथन्तरम् आित अचक्षते र्रोऽक्षम्। (शतर्थ ब्राह्मण ९/१/२/३६) यह सौर मण्डल का रसतम क्षेत्र है, र्ूरे ििश्व का जो मूल है िह र्ूणप रस ही हैऄसिा आदमग्र असीत्। ततो िै सदजायत।तदात्मानिँ स्ियमकु रुत। तस्मात् तत् सुकृतमुच्यत आित। यद् िै तत् सुकृतं रसो िै सः। रसं ह्येिाय लब्ध्िाऽऽनन्दी भिित॥ (तैिर्त्रीय ईर्िनषद् २/७/२) यहां कर्त्ाप, ह्लक्रया, ईर्ादान, िनह्समत र्दाथप सभी एक ब्रह्म ही हैं, ऄतः यह िनमापण सुकृत कहा गया है। सौर मण्डल के बाहर ईससे ऄिधक बिा शून्य है, िजसमें मद्य (wine) का समुि है, यह िरुण का क्षेत्र है, ऄतः मद्य को िारुणी कहते हैंयस्य त्री र्ूणाप मधुना र्दान्यक्षीयमाणा स्िधया मदिन्त। य ई ित्रधातु र्ृिथिीमुतद्यामेको दाधार भुिनािन ििश्वा॥(ऊक् १/१५४/४) = सौर उजाप के ३ रूर् (दिध = ठोस, मधु = सौर िायु, घृत = िस्थर तेज) मधु हैं, ईनका ईर्योग मधु-ििद्या है। िह मद्य के समुि से िघरा है। सौर क्षेत्र िमत्र है, ईसके बाहर का क्षेत्र िरुण है िजसमें िारुणी (मद्य) भरा है। आसका र्ता अधुिनक ििज्ञान िारा १९८० में चला। (1) F H C Crick, Simon & Schuster, New York, 1982. (2) Evolution From Space-F Hoyle and Chandra Wickramasinghe. (3) Intelligent Universe-F. Hoyle, Michael Joseph, London 1983. (4) Astronomical Journal-975 (196-99). तदस्य िप्रयमिस र्ाथो ऄश्यां नरो यत्र देि यिो मदिन्त। ईरुक्रमस्य स िह बन्धुह्ऱरत्था ििष्णोः र्दे र्रमे मध्ि ईत्सः॥५॥ ता िां िास्तून्युश्मिस गमध्यै यत्र गािो भूह्ऱरशृङ्गा ऄयासः। ऄत्राह तदुरुगायस्य िृष्णः र्रमं र्दमि भाित भूह्ऱर॥६॥ ििष्णु (सूय)प का र्रम र्द ब्रह्माण्ड है िजसकह्ळ सीमा र्र सूयप ििन्दुमात्र दीखता है (सूयप िसद्धान्त १२/८०) । आसके तेज से भूह्ऱरशृङ्ग गौ बनती हैं (भूह्ऱर = ऄितह्ऱरक्त, शृङ्ग = बाहर िनकला हुअ) ब्रह्माण्ड के बाहर आसके चारो तरफ आसका अभामण्डल है जो आसका दस गुणा है। आसे कू मप-चक्र या गोलोक कहा गया है। आसके बाद र्ूणप ऄन्धकार है। ईससे भी र्रे र्रम ब्रह्म या र्रम शून्य है। ब्रह्मिैितप र्ुराण, प्रकृ ित खण्ड, ऄध्याय ३-ऄथाण्डं तु जलेऽितिद्याििै ब्रह्मणो ियः॥१॥ तन्मध्ये िशशुरेकश्च शतकोह्ऱटरििप्रभः॥२॥ स्थूलात्स्थूलतमः सोऽिर् नाम्ना देिो महाििराट् ॥४॥ तत उध्िे च िैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बिहरे ि सः॥९॥ तदूध्िे गोलकश्चैि र्ञ्चाशत् कोह्ऱटयोजनात्॥१०॥िनत्यौ गोलोक िैकुण्ठौसत्यौ शश्वदकृ ित्रमौ॥१६॥ 19
िेद में आसे कू मप कहा है क्योंह्लक यह कायप करता हैस यत्कू मो नामा एतिै रूर्ं कृ त्िा प्रजार्ितः प्रजा ऄसृजत, यदसृजत ऄकरोत्-तद् यद् ऄकरोत् तस्मात् कू मपः॥-शतर्थ ब्राह्मण (७/५/१/५) आस कू मप चक्र का अकार १०१३ (शङ्कु ) १०५ =१०१८ योजन हैनरर्ित जयचयाप, स्िरोदय (कू मप-चक्र)-मानेन तस्य कू मपस्य कथयािम प्रयत्नतः। शङ्कोः शतसहस्रािण योजनािन िर्ुः िस्थतम्॥ ताण्य महाब्राह्मण (११/१०) - शङ्कु भित्यह्नो धृत्यै यिा ऄधृतं शङ्कु ना तर्द्ाधार॥११॥ तद् (शङ्कु साम) ईसीदिन्त आयिमत्यमाहुः॥१२॥ ऐतरे य ब्राह्मण (५/७)-यह्लदमान् लोकान् प्रजार्ितः सृष्ट्िेदं सिपमशक्नोद् तद् शक्वरीणां शक्वरीत्िम्॥ कह्ऴिर्ुराणमनुशािसतारं ऄणोरणीयांसमनुस्मरे द्यः। सिपस्य धातारमिचन्त्यरूर्माह्लदत्यिणं तमसःर्रस्तात्। (गीता ८/९) ज्योितषामिर् तज्ज्योितः तमसः र्रमुच्यते। (गीता १३/१७) आन सभी प्रकार के शून्यों का साक्षी र्रम ब्रह्म है जो स्त्री या र्ुरुष दोनों रूर्ों में हैशून्यानां शून्यसािक्षणी (देव्यथिपशीषप, २४) ऄनन्त-सिपप्रथम भरिाज ऊिष को आन्ि ने कहा था-ऄनन्ता िै िेदाः। ऄनन्त के बहुिचन प्रयोग से स्र्ि है ह्लक ऄनन्त कइ प्रकार के हैं। भरिाज ने ३ अयु तक िेदों का ऄध्ययन ह्लकया तथा ऄित िृद्ध जीणप-शीणप ऄिस्था में चतुथप अयु के िलये आन्ि से प्राथपना कह्ळ। आन्ि ने र्ूछा ह्लक आस चतुथप अयु का क्या करोगे? भरिाज ने कहा ह्लक ब्रह्मचयप र्ूिपक िेद का ऄध्ययन करूंगा। आन्ि ने ईनको ३ ििशाल र्िपत ह्लदखाये तथा ईनसे १-१ मुट्ठी धूिल लेकर कहा ह्लक ऄभी तक तुम्हारा ३ िेदों (र्िपत) का ऄध्ययन आतना ही है, क्योंह्लक िेद ३ प्रकार के ऄनन्त हैंभरिाजो ह िै ित्रिभरायुह्सभब्रपह्मचय्यपमुिास। तं ह जीह्सण स्थििरं शयानं आन्ि ईर्ब्रज्य ईिाच। भरिाज! यर्त्े चतुथपमायुदद्य प ां, ह्लकमेनेन कु य्याप आित? ब्रह्मचय्यपमेिैनेन चरे यिमित होिाच। तं ह त्रीन् िगह्ऱररूर्ानििज्ञातािनि दशपयाञ्चकार। तेषां हैकैकस्मान्
मुििमाददे।
स
होिाच,
भरिाजेत्यमन्त्र्य।
िेदा
िा
एते
।
“ऄनन्ता
िै
िेदाः”
।
एतिा
एतैिस्त्रिभरायुह्सभरन्ििोचथाः। ऄथ त आतरदनूक्तमेि । (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/१०/११) कै ण्टर िसद्धान्त-र्हले अधुिनक गिणत में ऄनन्त के प्रकार समझ लें। कै ण्टर के सेट-िथओह्ऱर (समुच्चय-िसद्धान्त) में कइ प्रकार के ऄनन्त का िणपन है। सबसे छोटा ऄनन्त िगना जा सकता है। िगनने का ऄथप है ह्लक हम िस्तुओं को ह्लकसी क्रम में रखें तथा ईनको प्राकृ ितक संख्याओं से एक-एक कर िमलाते जांय। आन संख्याओं का क्रम भी ऄनन्त है। के िल युग्म (२ से ििभािजत होने िाली) या के िल िगप संख्यायें भी आसी प्रकार ऄनन्त हैं क्योंह्लक प्रत्येक प्राकृ ितक संख्या के िलये आनमें से एक संख्या है१, २, ३, ४, ५ -- ऄनन्त तक २, ४, ६, ८, १० ---ऄनन्त तक १, ४, ९, १६, २५--ऄनन्त तक सभी िभन्न ऄंक भी आसी प्रकार का ऄनन्त है, क्योंह्लक ईनको एक िििध से क्रम में सजा कर एक-एक प्राकृ ितक संख्या (Natural number) से िमलाया जा सकता है। र्हली र्ंिक्त में भाज्य १ रहेगा, ईसके नीचे भाजक क्रमशः १, २, ३, ४, ५... िलखते जायेंगे। दूसरी र्ंिक्त में भाज्य २ रहेगा, ईसके नीचे भाजक क्रमशः १, २, ३, ४, ५... होंगे। आसी प्रकार नीचे 20
कह्ळ र्ंिक्तयों के भाज्य क्रमशः ३, ४, ५ .. अह्लद होंगे। सबसे र्हले प्रथम र्ंिक्त में १/१ िगनेंग,े ह्लफर दूसरे ऄंक को उर्र से नीचे ितरछे िगनेगे। आसके बाद कह्ळ ितरछी र्ंिक्त नीचे से उर्र होगी जैसा नीचे के िचत्र में ह्लदखाया गया है। आस प्रकार सभी िभन्न संख्याओं को भी िगना जा सकता है। यहां िगनने का क्रम है-१/१, १/२, २/१, ३/१, २/२, १/३, १/४, २/३, ३/२, ४/१, ... अह्लद।
१ १ १ १ १ १ २ ३ ४ ५ २ २ २ २ २ १ २ ३ ४ ५ ३ ३ ३ ३ ३ १ २ ३ ४ ५ ४ ४ ४ ४ ४ १ २ ३ ४ ५ ५ ५ ५ ५ ५ १ २ ३ ४ ५
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कै ण्टर ने यह ह्लदखाया ह्लक ० तथा १ के बीच कह्ळ सभी संख्याओं को आस प्रकार नहीं िगना जा सकता है। कोइ भी क्रम
क्यों नहीं बनायें, हम ०, १ के बीच एक ऐसी संख्या खोज सकते हैं जो आस क्रम में नहीं हो। आस क्रम कह्ळ र्हली संख्या का र्हला ऄंक लें। यह्लद दशमलि का ऄन्त हो तो शून्य होगा, तब नयी संख्या के प्रथम दशमलि स्थान में ९, लें ऄन्यथा ० लें। दूसरे स्थान कह्ळ संख्या में दूसरे ऄंक को बदल कर ऄन्य ऄंक लें। आसी प्रकार तीसरी संख्या का तीसरा ऄंक बदल दें। आस प्रकार हमें ऐसी संख्या िमलती है, जो हमारे िनधापह्ऱरत क्रम में नहीं है। ऄतः ०,१ के बीच कह्ळ दशमलि संख्यायें ही प्राकृ ितक संख्याओं से ऄिधक हैं। सभी दशमलि संख्यायें ह्लकसी रे खा के ििन्दुओं के बराबर स्तर के ऄनन्त हैं। ये व्यक्त या िास्तििक संख्या (Real number) हैं। आसके ििर्रीत ऊणात्मक संख्याओं का िगपमूल काल्र्िनक या ऄव्यक्त (Imaginary number) संख्या होगी, क्योंह्लक सभी धन या ऊण संख्या का िगप धनात्मक ही होता है। व्यक्त तथा ऄव्यक्त को िमलाकर बनी संख्या िमश्र (Complex number) है। यह एक समतल क्षेत्र के ििन्दुओं के बराबर है। कै ण्टर ने यह भी ह्लदखाया ह्लक व्यक्त संख्या का समुच्चय (Real number set) प्राकृ ितक संख्याओं के सभी ऄंश-समुच्चय (sub-set) कह्ळ िगनती के बराबर है-ईसमें कोइ संख्या ले सकते हैं या छोि सकते हैं ऄतः सभी ऄंश-समुच्चय कह्ळ िगनती व्यक्त संख्या कह्ळ िगनती के बराबर है। यह्लद प्राकृ ितक संख्याओं कह्ळ िगनती N0 है तो व्यक्त संख्याओं कह्ळ िगनती N1 = व्यक्त संख्याओं के सभी ऄंश-समुच्चयों कह्ळ संख्या और भी बिे प्रकार का ऄनन्त होगा- N2 =
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भारतीय र्ह्ऱरभाषा-जैन लेखक िीरसेन ने िीर-धिला में ३x३ = ९ प्रकार के ऄनन्त बताये हैं-संख्यात, ऄसंख्यात, ऄनन्त-सभी के ३-३ िगप हैं (देखें-लक्ष्मीचन्द जैन कह्ळ ताओ औफ जैन साआन्सेज, र्ह्ऱरिशि-२) ििष्णु-सहस्रनाम में ऄनन्त ऄथप के कइ नाम हैं-ऄनन्त (६५९, ८८६), ऄनन्तिजत (३०७), ऄनन्तरूर् (९३२), ऄनन्तश्री (९३३), ऄनन्तात्मा (५१८), ऄिनरुद्ध (१८५, ६३८), ऄिनदेश्यिर्ु (१७७, ६५६), ऄनेकमूह्सर्त् (७२१), ऄर्ांिनिध (३२३), ऄव्यय (१३, ९००), ऄप्रमेय (४६), ऄप्रमेयात्मा (२४८), ऄमानी (७४७), ऄिमतििक्रम (५१६, ६४१), ऄमेयात्मा (१०२, १७९), ऄम्भोिनिध (५१७), ऄसंख्येय (२४७), ऄसिम्मत (१०८), िनिधः ऄव्ययः (३०), नैकः (७२६), नैककमपकृत् (४६९), नैकजः (८९०), नैकमायः (३०२), नैकरूर्ः (२७१), नैकशृङ्गः (७६३), नैकात्मा (४६८), र्रमात्मा (११), र्रमेष्ठी (४१९), र्रह्सधः (३८९), र्ह्ऱरग्रहः (४२०), र्यपििस्थतः (९३१), र्ूरणः (६८५), बृहत् (८३६), ब्रह्म (६६३, ६६४), ब्रह्मिििधपनः (६६५), ब्रह्मण्य (६६९), ब्राह्मी (६६८), महत् (८४१), महह्सध (३५०), महाक्रमः (६७१), 21
महािनिध (८०६), महामायः (१७०), महाहपः (५२२), ििश्वम् (१), सिपः (२५)। आसके ऄितह्ऱरक्त कइ ऄन्य शब्दों के ऄथप भी ऄनन्त हैं-सहस्र (१०००, ऄनन्त), िीर (सीमा, बहादुर, फारसी में ऄकबर, िजसकह्ळ सीमा नहीं है)। शंकराचायप ने २ स्थानों र्र ऄनन्त के २ ऄथप ह्लकये हैं-क्रमांक ६५९ र्र िलखा हैव्यािर्त्िािन्नत्यत्िात् सिापत्मत्िात् देशतः कालतो िस्तुतश्चार्ह्ऱरिच्छन्नः, ऄनन्तः सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तैिर्त्रीय ईर्िनषद् २/१) आित श्रुतेः। गन्धिाप्सरसः िसद्धाः ह्लकन्नरोरगचारणाः। नान्तं गुणानां गच्छिन्त तेनानन्तोऽयमव्ययः। (२/५/२४) आित ििष्णुर्ुराण िचनािा ऄनन्तः। क्रमांक ८८६ र्र िलखा है-िनत्यत्िात् सिपगतत्िात् देशकालर्ह्ऱरच्छे दाभािात् ऄनन्तः शेषरूर्ो िा। दोनों स्थानों र्र ये ऄथप हैं- सनातन (काल में ऄनन्त), सिप-व्यार्ी (स्थान में ऄनन्त), सब कह्ळ अत्मा (ऄनन्त जीि), देशकाल में ऄसीिमत, ३ प्रकार के सत्य (नाम-रूर्-कमप या देश-काल-ह्लदक् )। प्रथम स्थान र्र आसके र्ूिप के शब्द हैं-ऄिनदेश्यिर्ु (मार् के र्रे शरीर), ििष्णु (िजसके भीतर सभी हैं)। दूसरे स्थान र्र आसके साथ हैं-हुतभुक्, भोक्ता (ऄनन्त भोग या कायप)। ऄसंख्येय का ऄथप है, िजसे प्राकृ ितक संख्या िारा नहीं िगना जा सके । ऄप्रमेय का ऄथप है- ह्लकसी भी बीजगिणतीय समीकरण िारा र्ह्ऱरभािषत नहीं हो। ऄम्भोिनिध (समुि) ३ अयाम के ििन्दुओं कह्ळ संख्या है जो गणना के ऄनन्त का तीसरा घात है। नैकः का ऄथप है एक से अरम्भ संख्याओं िारा नहीं िगना जा सके । कात्यायन शुल्ब सूत्र के ऄनुसार ऄनन्त ह्लकसी भी प्रमाण (मार्, या गिणतीय सूत्र) से बिा हैऄर्ह्ऱरिमतं प्रमाणद् भूयः। (कात्यायन शुल्ब सूत्र १/२३) िैह्लदक प्रयोग-तुलसीदास ने रामचह्ऱरतमानस मंगलाचरण में दो प्रकार कॆ ऄनन्तों का भाि िलखा है-िणों तथा ईनसे बने शब्द िाक्य अह्लद िगने जा सकते हैं। यह गणेश है, िजसकह्ळ गणना कह्ळ जा सके । ईनके ऄथप, तथा भाि ईससे बिे स्तर के ऄनन्त हैं। यह रस या सागर के ििदुओं के समान है, ऄतः रस-िती या सरस्िती है। आसकह्ळ मार् छन्द से होती है र्र आसे िगना नहीं जा सकता-िणापनामथपसङ्घानां रसानां छन्दसामिर्। मङ्गलानां च कर्त्ापरौ िन्दे िाणी ििनायकौ॥ िेद भी ३ प्रकार के ऄनन्त हैं-ऊग्िेद मूह्सर्त् रूर् में प्राकृ ितक संख्याओं िारा िगना जा सकता है, गणनीय ऄनन्त है। यजुिेद में ह्लक्रया या गित है, िह रे खा के ििदुओं के समान व्यक्त संख्याओं का ऄनन्त है। सामिेद मिहमा है जो ३ अयाम के अकाश में है िह व्यक्त संख्याओं का घात ३ है। ऄथिप िेद ब्रह्म या र्ूणप रूर् में ऄर्ह्ऱरमेय है, जो ह्लकसी भी गिणत िारा र्ह्ऱरभािषत नहीं हो सकता है-ऊग्भ्यो जातां सिपशो मूह्सर्त्माहुः, सिाप गितयापजुषी हैि शश्वत्। सिं तेजं सामरू्यं ह शश्वत्, सिं हेदं ब्रह्मणा हैि सृिम्॥ (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/१२/८/१) इशािास्योर्िनषद् में भी ३ प्रकार के ऄनन्त का भाि है-स र्यपगात् शुक्रं ऄकायं ऄव्रणं ऄस्नाििरं शुद्धं ऄर्ार्ििद्धम्। कििमपनीषी र्ह्ऱरभूः स्ियम्भूः याथातथ्यतो ऄथापन् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥८॥ स = ब्रह्म (यत् तत् र्दमनुर्त्मम्-ििष्णु सहस्रनाम), यह ऄर्ह्ऱरमेय ऄनन्त है। ईसकह्ळ र्रा-िाक् कइ प्रकार से सीमाबद्ध (र्यपगात्) होकर व्यक्त शब्द बनते हैं-यह गणनीय ऄनन्त है। ईसका ऄथप या भाि गणनीय नहीं है। िेद- ऊक् , यजु, साम, ऄथिप िाक् -िैखरी, मध्यमा, र्श्यन्ती, र्रा ऄनन्त-संख्येय, ऄसंख्येय, ऄर्ह्ऱरिमत, ऄज्ञेय शब्द-िाक् , ऄथप, भाि, ब्रह्म। 22
ऄंक-शब्द-कइ शब्द िििभन्न संख्याओं के द्योतक हैं। आनकह्ळ सूची तथा संिक्षप्त व्याख्या दी जाती है(१) शून्य-खाली अकाश शून्य है। ० के योग या गुणन से कोइ ऄन्तर नहीं होता ऄतः आसे र्ूणप भी कहा जाता हैर्ूणपमदः र्ूरिण्मदं र्ूणापत् र्ूणपमुदच्यते। र्ूणपस्य र्ूणम प ादाय र्ूणपमि े ाििशष्यते॥ (इशािास्योर्िनषद्, शािन्तर्ाठ) र्ूणप या अकाश के र्यापय शब्द शून्य के िलये िलखे जाते हैं-ऄभ्र, ऄम्बर, अकाश, ख, गगन, नब, िियत्, ििहायस्, नाक, व्योम। शून्य, ििन्दु, र्ूणप। ऄन्तह्ऱरक्ष शून्य नहीं है, क्योंह्लक आसमें ऄशािन्त होती है िजसकह्ळ शािन्त कामना कह्ळ जाती है-द्यौः शािन्तः, ऄन्तह्ऱरक्षं शािन्तः ... (यजु ३६/१७) (२) १-एक, र्ृथ्िी तथा चन्ि के र्यापयिाची। सूयप भी १ है र्र आऄसका प्रभाि १२ अह्लदत्यों के रूर्में दीखता है ऄतः सूयप का ऄथप १२ है। र्ृथ्िी-धरा, धह्ऱरत्री, धह्ऱरणी, र्ृथ्िी, क्ष्मा, िक्षित, भू, भूिम, ऄचला, िसुधा, िसुमती, कु , ऄििन, मेह्लदनी, मही, ईिी, रसा, रत्नगभाप अह्लद। चन्ि-चन्िमा, चन्ि, िहमांशु, शिश, शशांक, शशधर, आन्दु, िनशार्ित, िनशाकर, िनशानाथ, क्षर्ाकर, रजनीकर, रजनीश, नक्षत्रेश, ईिुर्, शीतह्लकरण, सुधामयूख, ििजराज, ओषधीश, ऄब्ज. जैिाित्रक, सोम, ग्लौ, मृगाङ्क, कलािनिध, ििधु। ऄन्य-रूर्, एक। (३) २-िि तथा आन शब्दों के र्यापय-ऄिश्वनीकु मार (जुििां), ऄिश्व, नासत्य, दस्र, अिश्वनेयौ, ईभौ (दोनों), जोिा ऄथप में-युग्म, युगल, यामल, यम. िे, ईभौ, िमथुन, िन्ि। युग का ऄथप युगल भी होता है, र्र आसका ऄथप ४ युग होते हैं, ऄतः ४ ऄथप में युग शब्द है। हाथ २ हैं, आसके र्यापय-बाू (बाहु एकिचन रूर् है), हस्त, भुज, दोः। दोः तथा भुजा का प्रयोग ९०० ऄंश के िृर्त् र्ाद में कोण के िलये भी होता है। अंख-नेत्र, ऄिक्ष, नयन, दृग,् दृिि, लोचन, चक्षु। र्ंख-र्क्ष (चान्ि मास का ऄधप भाग भी), र्तत्र, िर्च्छ। (४) ३-ित्र तथा आन शब्दों के र्यापयराम-३ ििख्यात राम थे-र्रशुराम, रामचन्ि, बलराम। ऄिग्न- ३ प्रकार कह्ळ ऄिग्न हैं-गाहपर्त्य, अहिनीय, दिक्षणािग्न। ३ ऄिग्नयों के िलये ३ िेद हैं-मूह्सर्त् के िलये ऊग्, गित के िलये यजु, मिहमा या प्रभाि के िलये साम। ह्लकन्तु त्रयी का ऄथप ४ िेद होते हैं-१ मूल ऄथिप + ३ शाखा ऊग्, यजुः, साम। र्यापय शब्द हैं-ििह्न, ज्िाला, िशिख, हुताशन, र्ािक, ऄनल, दहन, हव्यिाहन, जातिेद, कृ र्ीटयः अह्लद। गुण-ये ३ हैं-सत्त्ि, रज, तम। लोक-ये ३ हैं-भूिम, ऄन्तह्ऱरक्ष, स्िगप। र्ुर-अकाश में िहरण्य, रजत, लौह र्ुर हैं-सूय,प चन्ि, र्ृथ्िी (के न्िीय भाग लोहे का है) । आनके जैसे तारक ऄसुर ने ३ र्ुर बनाये थे जो अकाश में ईिते थे (स्र्ेस स्टेशन)-ईनके नाम भी िहरण्य, रजत, लौह थे, िजनको मनु्ष्य रूर् िशि ने युद्ध में नि ह्लकया था। दिक्षण ऄमेह्ऱरका (र्ुष्कर िीर्, रसातल) मॆ भी ये ३ र्ुर हैं-ब्राजील (ग्रीक भाषा में लौह), ऄगेण्टाआना (ऄजेण्टम = रजत), दिक्षणी ध्रुि -िहरण्य। ििक्रम-अकाश में सूयप िामन है ईसका र्ूरा प्रभाि क्षेत्र अह्लदत्य है। सूयप रूर्ी िामन ििष्णु के ३ ििक्रम हैं-तार् क्षेत्र १०० योजन तक (यहां सूयप का व्यास योजन है), तेज क्षेत्र १००० योजन तक, प्रकाश क्षेत्र १ लक्ष योजन तक। राजा कह्ळ ४ 23
नीितयां हैं-साम, दाम, दण्ड, भेद। आसमें बल िारा क्र्िल दण्ड ह्लदया जा सकता है। बाकह्ळ तीन छल हैं-आस ित्रििक्रम से िहन्दी में ितकिम हुअ है। (५) ४-चतुर् तथा िेद, समुि, िणप, कृ त के र्यापयिेद मुण्डकोर्िनषद् (१/१-५) के ऄनुसार ब्रह्मा ने ऄर्ने ज्येष्ठ र्ुत्र ऄथिाप को ब्रह्म ििद्या र्ढ़ाइ जो सभी ििद्याओं कह्ळ प्रितष्ठा है। ऄथिप के २ ऄथप हैं-ऄ+थिप, जो ऄर्ह्ऱरिह्सतत ब्रह्म है, ऄथ + ऄिप-िजसका अरम्भ ऄिप (ऄरब) में हुअ। िहां आसकह्ळ प्रथम र्ंिक्त-ये ित्रषप्ता र्ह्ऱरयिन्त ििश्वाः-अज भी ७८६ (ित्र-सप्त = ३७) के रूर् में प्रचिलत है। बाद में आसकह्ळ ३ और शाखायें हुईं-ऊक् , यजुः, साम, ह्लकन्तु मूल ऄथिप भी बना रहा। आसका प्रतीक र्लास कह्ळ टहनी है िजससे ३ र्र्त्े िनकलने के बाद टहनी भी बची रहती है। र्लास दण्ड ब्रह्मा या िेद के प्रतीक के रूर् में िेदारम्भ संस्कार में प्रयुक्त होता है। ऄतः त्रयी का ऄथप ४ िेद हैं, १ मूल + ३ शाखा। आसके सभी र्यापय ४ ऄंक का िनदेश करते हैं-श्रुित, िेद। समुि-र्ुराणों में ७ महािीर् तथा ७ समुिों का िणपन है। ह्लकन्तु अकाश के ४ समुि हैं, जो खाली जैसे स्थान में ििरल र्दाथों का प्रसार है। सौरमण्डल, ब्रह्माण्ड, तथा ब्रह्माण्डों के बीच का खाली स्थान क्रमशः ऄणपि, सरस्िान्, नभस्िान् समुि है। र्ूरे ििश्व का मूल रूर् रस है, िजसका समुि नार (नर से ईत्र्न्न) है। आसी के ऄनुरूर् र्ृथ्िी र्र भी ४ प्रकार के समुि हैं जो ४ प्रकार के र्दाथों का फै लाि हैं-भूगभप, भूमण्डल, जल-मण्डल, िायु-मण्डल। आसमें प्रथम समुि भूगभप का मन्थन कर रत्न िनकले थे। जल समुि भी मुख्य भू-खण्ड जम्बू िीर् (एिसया, यूरोर्) के ४ ह्लदशाओं में हैं-ईर्त्र ध्रुि समुि, प्रशान्त, ऄतलान्तक (ऄतल के बाद का तल), िहन्द महासागर (कु माह्ऱरका खण्ड) हैं। समुि के र्यापयिाची हैं-समुि, ऄिब्ध, ऄकू र्ार, ऄणपि, ऄम्भोिनिध, जलिध, ऄम्भोिध, ईदिध, सागर, र्योिध अह्लद। कृ त-आसका ऄथप सत्य युग है िजसमें सभी ४ खण्ड हैं। किल, िार्र, त्रेता में क्रमशः १, २, ३ खण्ड हैं। िणप-आसका ऄथप रं ग, ऄक्षर, जाित हैं-सभी के ४-४ िगप हैं। ऄतः िणप =४। (६) ५-र्ञ्च तथा बाण, िायु, भूत, आिन्िय, र्ाण्डि अह्लद के र्यापय हैं जो सभी ५-५ हैं। कामदेि के ५ बाण हैं-ऄरििन्दमशोकं च चूतं च निमिल्लका। नीलोत्र्लं च र्ञ्चैते र्ञ्चबाणस्य सायकाः॥ ईन्मादनस्तार्नश्च शोषणः स्तम्भनस्तथा। सम्मोहनश्च कामस्य र्ञ्च बाणाः प्रकह्ळह्सर्त्ताः॥ बाण के र्यापय हैं-आषु, बाण, अशुग, िििशख, मागपण, शर, सायक, िचत्रर्ुङ्ख, र्ित्रण अह्लद। प्राण भी ५ हैं-प्राण, ऄर्ान, समान, ईदान, व्यान (ऄमरकोष १/१/६३) भूत या महाभूत ५ हैं-भूिम, जल, ऄिग्न, िायु, अकाश। ऄक्ष या आिन्िय-कमप तथा ज्ञान कह्ळ ५-५ आिन्ियां हैं। ज्ञानेिन्िय - -- -- --
अंख, कान, नाक, जीभ, त्िचा
तन्मात्रा या ईनके ििषय-रूर्, शब्द, गन्ध, रस, स्र्शप। कमेिन्िय-िाणी, हाथ, र्ैर, ईर्स्थ, गुदा। आनके कमप-बोलना, र्किना, चलना, मूत्रत्याग, मलत्याग। र्ाण्डि (र्ाण्डु र्ुत्र) ५ थे-युिधिष्ठर, भीम, ऄजुपन, नकु ल, सहदेि। (७) ६-षट् तथा रस, ऄंग, ऊतु, तकप , दशपन के र्यापय। ६ रस-मधुर, लिण, ऄम्ल, ितक्त, कषाय, क्षार। ६ ऄंग (िेद के )-ज्योितष, छन्द, िनरुक्त, व्याकरण, िशक्षा, कल्र्। ६ ऊतु-िसन्त, ग्रीष्म, िषाप, हेमन्त, िशिशर, शीत। 24
६ तकप (िैशेिषक दशपन)-िव्य, गुण, कमप, सामान्य, ििशेष, समिाय। ६ दशपन (िेद के ईर्ांग)-सांख्य, योग, न्याय, िैशेिषक, मीमांसा, िेदान्त। (८) ७-सप्त तथा र्िपत, ऊिष, स्िर (संगीत), घोिा के र्यापय। प्रत्येक महािीर् ७-७ र्िपतों से िषों में बंटा है। प्रत्येक िषप िषाप का एक क्षेत्र है। िषप-ििभाजक र्िपत िषप-र्िपत कहलाते हैं। आनके र्यापय ७ संख्या का िनदेश करते हैं-ऄग, ऄचल, ऄह्लि, िक्षितधर, भूधर, भूभृत्, क्ष्माधर, क्ष्माभृत्, िगह्ऱर, नग, र्िपत, महीभृत्, िशलोच्चय, शैल अह्लद। ऊिष ७ प्रकार के हैं-अकाश में ७ तारों का समूह, ज्ञानप्रिर्त्पक ७ ऊिष, गोत्र-प्रिर्त्पक ७ ऊिष, ७ स्रिा ऊिष, प्राण (२ ऄसत्+ ५ सत्), दश अयामी ििश्व का सप्तम अयाम, मनुष्य से छोटे सातिें स्तर का ििश्व जो १०-३५ भाग छोटा है। ऊिष के र्यापय हैं-ऊिष, मुिन, तार्स, यित। ऄश्व-ऄश्व का मूल ऄथप है चलाने िाली शिक्त। शिक्त का मूल स्रोत सूयप ह्लकरण है। सामान्यतः सूयप ह्लकरण के सात रं ग ७ घोिे कहे जाते हैं। र्र ये ७ ऄश्व ७ ग्रहों िारा सूयप ह्लकरणों में र्ह्ऱरितपन हैं, िजनकह्ळ चचाप यजुिेद (१५/१५-१९, १७/५८, १८/४०) में है तथा कू मप र्ुराण (खण्ड १, ४३/२-८) िायु र्ुराण (५३/४४-५०), मत्स्य र्ुराण २२६/२९-३३) में है। बुध, शुक्र, र्ृथ्िी-चन्ि, मंगल, गुरु, शिन, नक्षत्र-से प्रभािित नािी (ह्लकरण) हैं-ििश्वकमाप, ििश्वव्यचा (ििश्वश्रिा), सुषुम्ना, संयद् िसु, ऄिापग् िसु, स्िर, हह्ऱरके श। र्ृथ्िी कह्ळ सतह र्र ७ ऄक्षांश िृर्त् हैं, ००, ईर्त्र तथा दिक्षण में १२०, २००, २४० के ऄक्षांश। आनसे ६ िीिथयां बनतीं हैं३ ईर्त्र, ३ दिक्षण में। सूयप ईर्त्रायण तथा दिक्षणायन मागप में आन िीिथयों में १-१ मास रहता है (ऄथिप िेद ८/११/९२०, ऊक् १०/१३०/४, िायु र्ुराण ऄध्याय ५२, ब्रह्माण्ड र्ुराण, र्ूिप ऄध्याय २२, ििष्णु र्ुराण ऄंश २, ऄध्याय ८-१० अह्लद)। यही िणपन आिथओिर्ऄन बाआिबल के आनोक कह्ळ र्ुस्तक में है-ऄध्याय ४। समुिी िायु से जहाज चलते हैं, िषाप, तूफान अह्लद अते हैं, ऄतः ये भी ऄश्व हैं। ७ िीिथयों में ये ७ प्रकार के हैं। ६ िीिथयों के ईर्त्र में यह मन्द हो जाते हैं, आस क्षेत्र में भिाश्व िषप है (जार्ान, कोह्ऱरया)। गािी खींचनेिाला मुख्य र्शु भी ऄश्व है। ऄश्व गािी कह्ळ शिक्त कह्ळ मार् थी जैसे अजकल हौसपर्ािर है-आसी ऄथप में रथ कह्ळ शिक्त १००० ऄश्व कह्ळ कही गयी है। ७ प्रकार के ऄश्व होने के कारण आसको सिप्त भी कहा जाता है। ऄश्व के र्यापय-ऄश्व, तुरग, तुरंग, घोटक, िािज, हय, सैन्धि, सिप्त, अह्लद। संगीत के ७ स्िर-षड्ज, ऊषभ, गान्धार, मध्यम, र्ञ्चम, धैित, िनषाद। ऄतः स्िर = ७। (९) ८-ऄि तथा हाथी, सर्प, िसु के र्यापय। हाथी-संस्कृ त में गज शब्द के २ ऄथप हैं-हाथी तथा मार्-दण्ड। फारसी में भी गज का ऄथप है-प्रायः १ मीटर कह्ळ मार्। ऄंग्रेजी में यह गज (gauge) िलखते हैं र्र गेज र्ढ़ते हैं। योजन के मार्दण्ड के रूर् में ८ गज हैं-(१) र्ृथ्िी के व्यास का १००० (या १६००) भाग, (२) ३२००० ऄंगल ु , (३) सौर मण्डल के िलये सूयप व्यास, (४-७) सौर मण्डल से बिे लोकों महः, जनः, तर्ः, सत्यः के िलये सूयप व्यास का क्रमशः ५००, ५००२, ५००३, ५००४ गुणा, (८) १ त्रुह्ऱट समय (१/३३७५० सेकण्ड) में प्रकाश कह्ळ गित। र्ृथ्िी कह्ळ सतह के ८ महािीर्ों (ऄण्टाकप ह्ऱटका = ऄनन्त) को ८ बिी चट्टानों ने धारण ह्लकया है िजनको गज कहलाते हैं। िस्थर भूिम अधार को भी गज-र्ृष्ठ कहा गया है। हाथी के र्यापय हैं-गज, मतंग, कुं जर, हिस्त, आभ अह्लद। िशि के ऄिग्न रूर् में ८ रूर् हैं जो िसु कहलाते हैं। िायु के ११ रूर् रुि तथा तेज के १२ रूर् अह्लदत्य हैं। ऄतः िसु = ८. रूसी भाषा में ऄभी भी िसु = ८।
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मार्दण्ड या महािीर्ीय चट्टानों कह्ळ सीमा भी ८ हैं, आनको सर्प कहते हैं। १० अयामी ििश्व में यह ८िां अयाम है। आसके र्यापय हैं-सर्प, नाग, र्न्नग, ऄिह, भुजंग, िृत्र अह्लद। िसिद्ध भी ८ हैं-ऄिणमा (बहुत छॊटा होना), मिहमा (बहुत बिा होना), गह्ऱरमा (बहुत भारी होना), लिघमा (हल्का होना), प्रािप्त (कहीं भी र्हुंचना), प्राकाम्य (कोइ भी िस्तु प्राप्त करना), इिशत्ि (िनयन्त्रण करना), ििशत्ि (िश में करना)। ऄतः िसिद्ध = ८। (१०) ९-नि तथा आन ऄथों के शब्दनन्द-महाभारत युग में नीचे से ९िें स्तर का ऄिधकारी नन्द होता था, दशम राजा है (महार्ुरुष ऄच्युतानन्द का हह्ऱरिंश र्ुराण)। अधुिनक भाषा में सरकार के सिचि या मन्त्री नन्द हैं। ऄतः रामायण में सेक्रेटेह्ऱरयट को निन्दग्राम कहते थे जहां शासन चलाने के िलये भरत को रहना र्िता था। महाभारत से १५०० िषप बाद नन्द िंश में ९ राजा थे, महार्द्मनन्द तथा ईसके ८ र्ुत्र। ऄतः नन्द =९। ९ प्रकार कह्ळ सम्र्िर्त् या खजाना भी हैर्द्मोऽिस्त्रयां महार्द्मः शङ्खो मकर कच्छर्ौ। मुकुन्द कु न्द नीलाश्च खिपश्च िनधयो नि॥ (शब्दाणपि) कु छ व्यिक्तयों के ऄनुसार संस्कृ त में ऄंकों के िचह्न भी आनके ऄनुसार ही हैं। सम्र्िर्त् के र्यापय ९ के िलये प्रयुक्त हैं-िनिध, शेििध। गौ भी धन कह्ळ मार् है, र्हले राजा लोग १०००० या लक्ष गौ दान देते थे। सबसे बिी मुिा गौ (स्िणप) थी, मध्यम धेनु (रजत), तथा छोटी मुिा िनष्क (िनके ल, र्ंजाबी में िनक्का= छोटा)। ऄतः सम्र्िर्त् रूर् में गौ =९। ऄंक भी ९ हैं (१ से ९), ऄतः ऄंक =९। ग्रह ९ हैं, ऄतः आसके र्यापय ९ का िनदेश करते हैं-ग्रह, नभश्चर, खेचर, खेट अह्लद। (११) १० के िलये दश या ह्लदशा के र्यापय िलखते हैं-ह्लदशा, अशा, काष्ठा, ककु भ, ह्लदक् । र्ंिक्त छन्द के प्रित र्ाद में १० ऄक्षर हैं, ऄतः र्ंिक्त =१०। (१२) ११ के िलये एकादश या रुि के र्यापिाची िलखते हैं-रुि, भि, िशि, महेश्वर अह्लद। (१३) १२ को िादश या सूयप के र्यापय िलखते हैं-रिि, अह्लदत्य, सूय,प ह्लदनकर, आन, ितग्मांशु, भास्कर, ह्लदनमिण, ऄकप , मार्त्पण्ड, िििस्िान्, तरिण, ह्लदिाकर अह्लद। मास भी १२ हैं। (१४) १३ को त्रयोदश या ििश्व िलखते हैं। १३ ििश्व के ििषय में कइ कल्र्नायें हैं-ििश्वेदेि १३ हैं (ऄमरकोष में के िल १० के नाम हैं), र्ािणिन के गणर्ाठ में सिप शब्द कह्ळ सूची में यह १३िां शब्द है-र्र यह संयोग मात्र है। ऄसल कारण है ह्लक िास्ति में ििश्व १३ हैं-मनुष्य से बिे र्ृथ्िी, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड, स्ियम्भू मण्डल-क्रमशः कोह्ऱट गुणा बिे हैं। आसके ऄितह्ऱरक्त र्ृथ्िी के चारों तरफ चन्ि कक्षा का गोल चन्ि-मण्डल भी ििश्व है। मनुष्य ६ठा ििश्व है। मनुष्य से छोटे ७ ििश्व क्रमशः १-१ लक्ष भाग छोटे हैं-किलल, जीि, कु ण्डिलनी, ३ प्रकार के जगत् कण (चर, स्थाणु, ऄनुर्ूि)प , देि-दानि (के िल ३३ देिों से सृिि, ९९ ऄसुरों से नहीं), िर्तर, ऊिष। १३ ििश्वों के ऄिधष्ठाता िशि (ििश्वनाथ) हैं, ऄतः कृ ष्ण र्क्ष कह्ळ १३ ितिथ बीतने र्र िशिराित्र होती है। (िशि शान्त रूर् या ऄन्धकार है, रुि ईग्र या तीव्र रूर् है)। रििचन्िमसोयापिन्मयूखैरिभास्यते। स समुि सह्ऱरच्छैला र्ृिथिी तािती स्मृता ।३। याित्प्रमाणा र्ृिथिी ििस्तार र्ह्ऱरमण्डलात् । नभस्ताित्प्रमाणं िै व्यास मण्डलतो ििज ।४। (ििष्णु र्ुराण, २/७/३, ४)
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सूय-प चन्ि से प्रकािशत क्षेत्र को र्ृथ्िी कहते हैं तथा ईनमें नदी, समुि, र्िपत का िणपन होता है। र्ृथ्िी ग्रह में नदी-समुिर्िपत तीनों हैं। सौर मण्डल में र्ृथ्िी के चारों तरफ ग्रह-कक्षाओं से बना क्षेत्र िीर् हैं, ईनके बीच समुि हैं। लोक भाग कह्ळ सीमा (५० कोह्ऱट योजन व्यास) को लोकालोक र्िपत कहते हैं-ईसके बाद ऄलोक (ऄन्धकार भाग) है। सबसे बिी र्ृथ्िी ब्रह्माण्ड है िजसका के न्िीय चक्राकार भाग अकाश-गंगा (नदी) कहते हैं। हर र्ृथ्िी से ईसका अकाश ईतना ही बिा है, िजतना मनुष्य से र्ृथ्िी। (१) किलल-सिप धातुं कलनीकृ तः, ऄव्यक्त ििग्रहः (तस्मात् किलल) चरक संिहता, शरीरस्थान (४/९) गभप में किलल सभी धातुओं का संग्रह करता है, ऄतः किलल है। िालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये ििश्वं देिं जातरूर्ं िरे ण्यं (ऄथिपिशर ईर्िनषद् ५) ऄनाद्यनन्तं किललस्य मध्ये ििश्वस्य स्रिारमनेकरूर्म् । ििश्वस्यैकं र्ह्ऱरिेिितारं ज्ञात्िा देिं मुच्यते सिप र्ाशैः ॥ (श्वेताश्वतर ईर्िनषद्, ५/१३) किलल भी एक ििश्व है जो र्ह्ऱरिेिित (िघरा हुअ) है। यह र्ूणप तथा िनयिन्त्रत है। (२) िालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भािगनः। तस्य भागस्य भागाधं तत्क्षये तु िनरञ्जनम् ॥ (ध्यानििन्दु ईर्िनषद्, ४) मनुष्य से छोटा प्रथम ििश्व किलल लक्ष भाग छोटा है, ईसी ऄनुर्ात में ६ और छोटे ििश्व हैं। सबसे छोटा िनरञ्जन है जो ह्लकसी भी ऄञ्जन (यन्त्र) से नहीं दीखता। (३) ऊिषभ्यः िर्तरो जाताः िर्तॄभ्यो देि दानिाः । देिेभ्यश्च जगत्सिं चरं स्थाण्िनुर्ूिपशः॥ (मनुस्मृित, ३/२०१) ऊिष से िर्तर, िर्तर से देि-दानि हुये। के िल देि (३३) से सृिि हुइ (९९ दानिों से नहीं)। ईनसे ३ प्रकार के जगत् (गितशील कण) हुये-चर (Lepton), स्थाणु (Baryon), ऄनुर्ि ू प (Meson)। (४) िालाग्र शत भागस्य शतधा किल्र्तस्य च ॥ भागो जीिः स ििज्ञेयः स चानन्त्याय कल्र्ते ॥ (श्वेताश्वतर ईर्िनषद्, ५/९) िालाग्र (माआक्रोन १०-६ मीटर) के १०० भाग कर ईसके भी १००िें कह्ळ कल्र्ना करे । यह जीि का अकार (१०-१० मीटर) है जो ह्लकसी भी कल्र् (रासायिनक ह्लक्रया) में नि नहीं होता। (५) षट्चक्र िनरूर्ण, ७-एतस्या मध्यदेशे ििलसित र्रमाऽर्ूिाप िनिापण शिक्तः कोट्डाह्लदत्य प्रकाशां ित्रभुिन-जननी कोह्ऱटभागैकरूर्ा । के शाग्राितगुह्या िनरििध ििलसत .. ।९। ऄत्रास्ते िशशु-सूयपकला चन्िस्य षोडशी शुद्धा नीरज सूक्ष्मतन्तु शतधा भागैक रूर्ा र्रा ।७। मूल नािी िालाग्र का १०७ भाग है, कु ण्डिलनी ईसका १०० भाग है जो र्रमाणु कह्ळ नािभ १०-१५ मीटर के बराबर है। (६) ऄसिा ऽआदमग्र ऽअसीत् । तदाहः – ह्शक तदासीह्लदित । ऊषयो िाि तेऽग्रेऽसदासीत् । तदाहुः-के ते ऊषय आित । ते यत्र्ुराऽऽस्मात् सिपस्माह्लददिमच्छन्तः श्रमेण तर्साह्ऱरषन्-तस्मादृषयः (शतर्थ ब्राह्मण, ६/१/१/१) अरम्भ में ऄसत् (ऄदृश्य) ही था, ईससे सत् कह्ळ सृिि हुइ। यह ऄसत् ऊिष थे िजन्होंने श्रम, तर् से खींचा, ऄतः ऊिष (रस्सी) हैं। (१५) १४ के िलये चतुदश प तथा आन शब्दों के र्यापयमनु-ब्रह्मा के प्रत्येक ह्लदन में १४ मनु हैं-काहो मनिो ढः (अयपभटीय १/५) = क (ब्रह्मा) के ऄहः (ह्लदन) में मनु ढ =१४ हैं। ऄथिा मन कह्ळ १४ िृिर्त्यां हैं-७ िजह्िा ग्रहण (लेलायमान) तथा ७ िनकालने कह्ळ (ऄह्सच= ऄंगारा) हैंऄिग्निजह्िा मनिः सूरचक्षसो ििश्वेनो देिा ऄिसा गमिन्नह। (ऊग्िेद १/९८/७, यजुिेद २५/२०) काली कराली च मनोजिा च सुलोिहता या च सुधूम्रिणाप। 27
स्फु िलिङ्गनी ििश्वरुची च देिी लेलायमाना आित सप्त िजह्िाः॥ (मुण्डकोर्िनषद् १/२/४) सप्तप्राणाः प्रभििन्त तस्मात् सप्ताह्सचषः सिमधः सप्त होमाः। सप्त आमे लोका येषु चरिन्त प्राणाः गुहाशया िनिहताः सप्त सप्त॥ (मुण्डक ईर्िनषद् २/१८) आन्ि- प्रित मनु ऄििध में एक आन्ि होता है, ऄतः आसके र्यापयिाची भी १४ के द्योतक हैं। ज्योितषीय मन्िन्तर में १-१ सभ्यता होती है ईसका संचालक आन्ि है या अकाश में १४ प्रकार के तेज का ििह्लकरण है। देिों का प्रभुत्त्ि १० युगों या ३६०० िषों तक था। ईसमें १४ प्रमुख आन्ि थे िजन्होंने प्रायः १००-१०० िषप राज्य ह्लकया तथा शतक्रतु (१०० िषप के १०० यज्ञ) कहलाते थेसख्यमासीत् र्रं तेषां देिानामसुरैः सह। युगाख्या दश सम्र्ूणाप ह्यासीद् ऄव्याहतं जगत्॥६९॥ दैत्यसंस्थिमदं सिपमासीद् दशयुगं ह्लकल। ऄसर्र्त्ु ततः शुक्रो राष्ट्रं दशयुगं र्ुनः॥९३॥ (ब्रह्माण्ड र्ुराण २-३/७२) युगाख्या दश सम्र्ूणाप देिानामक्रम्य मूद्धिप न। तािन्तमेि कालं िै ब्रह्मा राज्यमभाषत॥ (िायु र्ुराण ९८/५१) आन्ि असीत् सीरर्ितः (हल चलाने िाला, िषप चक्र में कृ िष) शतक्रतुः॥ (तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/४/८/७) आन्ि के र्यापय-आन्ि, शक्र, मघिा, सुरेश, सुत्रामा (ईसके क्षेत्र में सुमात्रा िीर्), िज्री, िासि, अखण्डल, र्ुरन्दर, र्ाकशासन, िृद्धश्रिा अह्लद। १३ ििश्वों के िलये १४ भुिन (जीिन के प्रकार) हैं- १-१ प्रित ििश्व के िलये, १ सबके िलये समान। ऄतः भुिन =१४। समुि मन्थन में १४ रत्न िनकले थे, ऄतः रत्न =१४। (१६) १५ को र्ञ्चदश या ितिथ (र्क्ष में १५ ितिथ) िलखते हैं। (१७) १६ को षोडश या कला (चन्ि कह्ळ कला या प्रकािशत भाग, १ शून्य ऄमािास्या में तथा १-१५ तक कह्ळ शुक्ल ितिथयों में) है, ह्लदन िलखते हैं। चन्िमा राजा है, आसी प्रकार राजा या आसके र्यापय भी १६ ऄथप में िलखे जाते हैं-भूर्, नृर् अह्लद। (१८) १७ को सप्तदश या ये शब्द िलखते हैंऄत्यिि-ऄिि = ८x२ = १६ ऄक्षर प्रित र्ाद में। आसका ऄगला छन्द ऄत्यिि है िजसके प्रित र्ाद में १७ ऄक्षर हैं। ऄतः ऄत्यिि =१७। मेघ-हमारे उर्र मेघ अकाश का एक क्षेत्र घेर लेता है। आसी प्रकार ह्लकसी िचह्न का ठ्र्ा लगा कर ह्लकसी सतह र्र १७ प्रकार कह्ळ िचित (design, city) कह्ळ जा सकती है। आसे अधुिनक बीजगिणत में समतल िचित िनयम (Plane Crystallography theorem, e.g. in Modern Algebra by Michel Artin, page 175) कहा जाता है। मेघ के र्यापयों का प्रयोग १७ ऄंक के िलये शतानन्द ने भास्िती में ह्लकया है- मेघ, ऄम्बुद, जलद, घन (र्ूरा ढंकने िाला), िाह्ऱरद अह्लद। र्ुरुष कह्ळ भी १७ प्रकार कह्ळ िचित होती है ऄतः र्ुरुष को भी १७ कहा गया है-गोर्थ ब्राह्मण ईर्त्र २/१३, ५/८, तैिर्त्रीय ब्राह्मण १/३/३/२, ऐतरे य ब्राह्मण ८/४) (१९) १८ को ऄिादश या धृित िलखते हैं। धृित छन्द के प्रित चरण में १८ ऄक्षर हैं। (२०) १९ को एकोनह्ऴिशित या ऄितधृित (धृित = १८ से १ ऄिधक) िलखते हैं। (२१) २० को ह्ऴिशित, कृ ित (प्रित र्ाद में २० ऄक्षर), नख (हाथ र्ैर में कु ल २० नख), ऄंगुिल अह्लद िलखते हैं। (२३) २१ को एकह्ऴिशित, प्रकृ ित (छन्द के प्रित र्ाद में २१ ऄक्षर), मूच्छपना (संगीत के ३ ग्रामों में प्रित के ७-७ स्िर) िलखते हैं। (२४) २४ को चतुर्विशित, िजन, िसद्ध (जैन धमप के २४ तीथंकर) िलखते हैं। 28
(२५) २५ को र्ञ्चह्ऴिशित, तत्त्ि (सांख्य दशपन के २५ तत्त्ि) िलखते हैं। (२६) २७ को सप्तह्ऴिशित तथा नक्षत्रों के र्यापय िलखते हैं (२७ नक्षत्र हैं)-नक्षत्र, भ, ऊक्ष, तारक। (२७) ३२ को िाह्ऴत्रशत् तथा दन्त (मनुष्य के ३२ दांत) के र्यापय िलखते हैं-दन्त, दशन, रद। (२८) ४८-संस्कार ४८ हैं-िनत्य, शोधन, ईन्नित के १६-१६। (२९) ४९-तान (संगीत के सुर ७ स्िर x ७ = ४९), या मरुत् (७x७ = ४९) । ऄन्य संख्या र्द्धितयां (१) दशमलि र्द्धित-मुख्यतः आसी र्द्धित में संख्या िलखी जाती है, िजसमें ऄंक का मान बायीं तरफ के स्थानों में क्रमशः १०-१० गुणा बढ़ता है तथा दशमलि के दािहनी तरफ १/१० भाग होता जाता है। आसका मुख्य कारण यह बताया जाता है ह्लक मनुष्य के हाथों में १० ऄंगुली हैं। ऄंग्रेजी में िडिजट (digit) का ऄथप ऄंगल ु ी तथा ऄंक दोनों हैं। दशमलि र्द्धित में संख्याओं को २ या ५ के गुणकों से भाग देने र्र कु छ दशमलि स्थानों के बाद भगफल र्ूणप हो जायेगा क्योंह्लक १० = २ x ५। ७ कह्ळ र्द्धित में ७ के ऄितह्ऱरक्त ऄन्य ह्लकसी भी संख्या से भाग देने र्र भागफल समाप्त नहीं होगा, यह क्रमागत रूर् से अता रहेगा, िजसे अिर्त्ी संख्या कहते हैं। ८ कह्ळ र्द्धित में के िल २ के गुणकों से भाग देने र्र भागफल र्ूणप होगा क्योंह्लक ८ = २ x २ x २। ९ कह्ळ र्द्धित में के िल ३ के गुणक से भागफल र्ूणप होगा। १२ कह्ळ र्द्धित में २,३ के गुणकों से भागफल र्ूणप होगा, र्र आसमें १०, तथा ११ संख्याओं के िलये २ ऄितह्ऱरक्त िचह्न चािहये। ऄतः १० कह्ळ र्द्धित सबसे सुििधाजनक है। आसके ऄन्य कारण या ईर्योग हैं ह्लक िेद में ििश्व के १० अयामों का िणपन है। (२) २ कह्ळ र्द्धित-अधुिनक युग में बूिलयन ऄल्जब्रा में १८४० से आस र्द्धित का ईर्योग हो रहा है तथा अज के कम््यूटर आसी र्द्धित में काम करते हैं। ििद्युत् धारा को िाल्ि िारा रोका या छोिा जा सकता है। धारा का ऄथप १, बन्द होने का ऄथप शून्य। आसी प्रकार ििद्युत् या चुम्बकह्ळय अिेश १, ईसका ऄभाि ० है। आसमें के िल २ ऄंक हैं १,० तथा आनका मान संख्या में बायीं तरफ २-२ गुणा बढ़ता जाता है। जैसे दशमलि का १० आस र्द्धित में १०१० है, िजसका ऄथप है १x २३ + ० x २२+१x २ + ०= ८+२+० =१०। अकाशीय मार्ों के िलये िेद में आस र्द्धित का व्यिहार है िजसमें र्ृथ्िी को मार्दण्ड मानकर ईससे बिे २-२ गुणे क्षेत्रों को ऄहः कहते हैं। र्ृथ्िी के भीतर ३ क्षेत्र हैं, ऄतः र्ृथ्िी कह्ळ मार् ३ ऄहः या ऄहगपण (ऄहः कह्ळ संख्या), ईससे २ गुणा क्षेत्र ४ ऄहगपण, ४ गुणा बिा क्षेत्र ५ ऄहगपण अह्लद हैं। यह्लद र्ृथ्िी कह्ळ ित्रज्या त है, तो क संख्या के ऄहः क्षेत्र या धाम कह्ळ ित्रज्या ध = त x २ (क-३) । आसके ईदाहरण हैंह्ऴत्रशद्धाम िि राजित िाक् र्तङ्गाय धीयते। प्रित िस्र्त्ोरहद्युिभः॥ (ऊक् १०/१८९/३) हम र्तङ्ग (सूय)प कह्ळ िाक् (प्रभाि क्षेत्र) ३० धाम तक मार्ते (समझते) हैं, जहां तक आसका प्रकाश (राजते) ऄिधक (िि) है (अकाशगंगा कह्ळ तुलना में) । द्यु (ऄकाश) कह्ळ प्रित ििस्त (बस्ती, क्षेत्र) कह्ळ मार् ऄहः (गण = िगनती) में है। ऄहिव िियत् छन्दः। (यजु.१५/५)-शतर्थ ब्राह्मण (८/५/२/५) = यजुिेद (१५/५) में िलिखत- ऄहः िियत् (अकाश) का छन्द (मार्) है। ऄहिव ििष्णुक्रमाः। (शतर्थ ब्राह्मण ६/७/४/१२) = ऄहः ििष्णु (सूय)प के क्रम (र्द, तेज क्षेत्र) कह्ळ मार् हैं। कइ स्थानों र्र ऄहः के प्रयोग हैं-ऊक् िेद में (१/१३२/२,३), (१/३२/३), (२/११/५), (१/१०३/२), (५/२९/३), (३/३२/११), (४/१९/२), (६/३०/४), (४/२८/३) अह्लद तथा ऄन्य िेदों में। ...िाह्ऴत्रशतं िै देिरथाह्न्यन्ययं लोकस्तं समन्तं र्ृिथिी ििस्ताित्र्येित तां समन्तं र्ृिथिीं ििस्ताित्समुिः र्येित..... (बृहदारण्यक ईर्िनषद् ३/३/२) 29
= देि-रथ का लोक ३२ ऄहर् का है। ईसके चारों तरफ ३३ ऄहर् कह्ळ र्ृथ्िी (सूयप से प्रकािशत क्षेत्र, दूसरी र्ृथ्िी) है, जो आसके २ गुणे अकार का है। ईसके चारों तरफ ३४ िां ऄहर् र्ुनः आसका २ गुणा है, जो समुि (ब्रह्माण्ड के खाली स्थान का ििरल र्दाथप) है। ऄतः प्रत्येक ऄहर् िर्छले का २ गुणा है। अकाश के िलये र्ृथ्िी को ही मार्दण्ड कहा गया हैमा छन्दः तत् र्ृिथिी, ऄिग्नदेिता .. (मैत्रायणी संिहता, २/१४/९३, काठक संिहता, ३९/३९) ऄस्तभ्नाद् द्यामसुरो ििश्विेदा ऄिममीत िह्ऱरमाणः र्ृिथव्याः। (ऊक् ८/४२/१, िा. यजु. ४/३०, तैिर्त्रीय संिहता १/२/८/१) = ऄसुर (िरुण) ििश्व को जानता है, ईसने र्ृथ्िी के मार्दण्ड से आसे मार्ा। यस्य भूिमः प्रमा ऄन्तह्ऱरक्षमुतोदरम्। (ऄथिप १०/७/३२) = िजसकह्ळ भूिम मार् है तथा ऄन्तह्ऱरक्ष बाहरी (ईत्) अकाश (ईदर) है। मा छन्दः तत् र्ृिथिी, ऄिग्नदेिता। (अर्स्तम्ब श्रौत सूत्र १६/२८/१) मा छन्द (मार्) है, यह र्ृिथिी है, आसका देिता ऄिग्न है। र्ृिथव्यािममे लोकाः (र्ृिथिी, ऄन्तह्ऱरक्ष, द्यौ) प्रितिष्ठताः॥ (जैिमनीय ईर्िनषद् ब्राह्मण १/१०/२) र्ृिथिी में ये ३ लोक हैं (र्ृिथिी, ऄन्तह्ऱरक्ष, अकाश) । तस्या एतत् र्ह्ऱरिमतम् रूर्ं यदन्तिेह्लदः (भूिर्ण्डः) । ऄथैष भूमाऽर्ह्ऱरिमतो यो बिहिेह्लदः (महार्ृिथिी)-ऐतरे य ब्राह्मण ८/५) भूिम का सीिमत रूर् ऄन्तिेह्लद (िनमापण का स्थान = िेह्लद) है। ऄर्ह्ऱरिमत बाहरी िेह्लद महार्ृिथिी है। आस र्द्धित में सौर मण्डल कह्ळ मार् ३३ ऄहगपण है, िजसमें ३ क्षेत्र र्ृथ्िी के भीतर हैं तथा ३० बाहर हैं। ऄतः सौरमण्डल का अकार र्ृथ्िी का २३० है। प्रित क्षेत्र र्ूिपिती क्षेत्र का २ गुणा है, आनको धाम कहते हैं। हर धाम का प्राण १ देिता है। ऄतः ३३ धामों में ३३ देिता हैं। ििश्व के िनमापण का मूल स्रोत अनन्द था, िनह्समत र्दाथप िजतना सघन है, अनन्द ईतना ही कम होगा। सौर मण्डल में र्ृथ्िी सबसे सघन है, जहां अनन्द सबसे कम है। ईसके बाद क्रमशः २ गुणे बिे धामों में अनन्द क्रमशः १०० गुणा ऄिधक होता जाता हैसैषाऽऽनन्दस्य मीमांसा भिित। युिा स्यात् साधु युिाध्यार्क अिशिो ििघिो बिलष्ठस्तस्येयं र्ृिथिी सिाप ििर्त्स्य र्ूणाप स्यात्। स एको मनुष्य अनन्दः। ते ये शतं मानुषा अनन्दाः। स एको मनुष्यगन्धिापणामानन्दः। .... ते ये शतं मनुष्यगन्धिापणामानन्दाः। स एको देिगन्धिापणामानन्दः। .... ते ये शतं देिगन्धिापणामानन्दाः। स एकः िर्तॄणां िचरलोकलोकानामानन्दः। .... ते ये शतं िर्तॄणां िचरलोकलोकानामानन्दाः। स एक अजानजानां देिानामानन्दः। .... ते ये शतं अजानजानां देिानामानन्दाः। स एकः कमपदेिानामानन्दः। .... ते ये शतं कमपदेिानामानन्दाः। स एको देिानामानन्दः। .... ते ये शतं देिानामानन्दाः। स एक आन्िस्यानन्दः। .... ते ये शतिमन्िस्यानन्दाः। स एको बृहस्र्तेरानन्दः। .... ते ये शतं बृहस्र्तेरानन्दाः। स एकः प्रजार्तेरानन्दः। .... ते ये शतं प्रजार्तेरानन्दाः। स एको ब्रह्मण अनन्दः। (तैिर्त्रीय ईर्िनषद् २/८) यह लोकों के अनन्द कह्ळ मार् है जो र्ृथ्िी के मनुष्य लोक से आन लोकों में क्रमशः १००-१०० गुणा बढ़ती जाती है-मनुष्यगन्धिप, देि-गन्धिप, िर्तर-लोक, अजानज देि, कमपदेि, देि, आन्ि, बृहस्र्ित, प्रजार्ित, ब्रह्मा। (३) सप्त र्द्धित-एक सीमा में बद्ध र्दाथप या ईजाप ऄिग्न है, ईसमें ७ प्रकार र्दाथप ग्रहण होते हैं, जो आसकह्ळ ग्राहक िजह्िा हैं30
काली कराली च मनोजिा च सुलोिहता या च सुधूम्रिणाप। स्फु िलिङ्गनी ििश्वरुची च देिी, लेलायमाना आित सप्त िजह्िाः॥ (मुण्डक ईर्िनषद् १/२/४) आनसे ७-७ प्राण, ऄह्सच (बाहर िनकलने िाले ऄंगारे -यह भी िजह्िा हैं), ७ सिमधा (जलािन, िनमापण-सामग्री), ७ होम (ईर्भोग), ७ लोक, ७-७ प्रकार के गुहाशय हैं िजनमें ये ७ प्राण चलते हैंसप्तप्राणाः प्रभििन्त तस्मात् सप्ताह्सचषः सिमधः सप्त होमाः। सप्त आमे लोका येषु चरिन्त प्राणाः गुहाशया िनिहताः सप्त सप्त॥ (मुण्डक ईर्िनषद् २/१८) प्रित रथ को ७ प्रकार से ये प्राण जोिते हैं, िजसे ७ नामों का एक ऄश्व चलाता है। रथ का चक्र ३ नािभ का है, जो ऄजर तथा ऄमर है, ईसी के िारा भुिनों का धारण हुअ हैसप्त युञ्जिन्त रथमेकचक्रमेको ऄश्वो िहित सप्तनामा। ित्रनािभचक्रमजरमनिं यत्रेमा ििश्वाभुिनािन तस्थुः॥ (ऊक् १/१६४/२) श्व = अगामी कल, जो कल नहीं रहेगा, िह ऄश्व है। काल सदा बदलता है, ऄतः यह ऄश्व है, िजसके ७ नाम या प्रकार हैं। प्रित गित या काल चक्र कह्ळ ३ नािभ (के न्ि) हैं, िजनके िारा ििश्वों का धारण हुअ है (भू, भुिः, स्िः, या िर्ण्ड, गित, मिहमा)। ७ प्रकार से रथ का योजन होता है, ऄतः ७ प्रकार के योजन (लम्बाइ कह्ळ मार्) तथा ७ युग (काल-चक्र) हैं। आमं रथमिध ये सप्त तस्थुः सप्तचक्रं सप्तिहन्त्यश्वाः। सप्तस्िसारो ऄिभ सं निन्ते यत्र गिां िनिहता सप्त सप्त॥ (ऊक् १/१६४/३) आस रथ के ७ ऄिधष्ठान, ७ चक्र हैं, ७ ऄश्व आसे िहन करते हैं। आसमें ७ गौ (ह्लकरण प्रसार) हैं िजनके ७ प्रकार के तेज क्षेत्र (स्िसा = बहन) हैं। ७ स्तर कह्ळ गौ = ७ स्तर के यज्ञ या िनमापण। ७ प्रकार के लोक अह्लद होने के कारण ७-७ ििभाजन कह्ळ भी लम्बाइ कह्ळ आकाआयां होतीं थीं िजनका बौद्ध ग्रन्थ लिलत ििस्तर में िणपन है। यह के िल बौद्धों के िलये नहीं था-एक समाज में एक ही प्रकार कह्ळ मार् व्यिस्था चल सकती है। ७ र्रमाणु रज = १ रे णु ७ रे णु = १ त्रुह्ऱट ७ त्रुह्ऱट = १ िातायन रज ७ िातायन रज = १ शश रज ७ शश रज = १ ऐदक रज ७ ऐदक रज = १ गो-रज ७ गो-रज = १ िलक्षा रज ७ िलक्षा रज = १ सषपर् ७ सषपर् = १ यि ७ यि = १ ऄंगुिल-र्िप १२ ऄंगुिल-र्िप = १ िितिस्त (िबर्त्ा, हथेली का ििस्तार) २ िितिस्त = १ हस्त (१ हाथ = १८ आं च = ४५ सेण्टीमीटर) १ ऄंगुिल र्िप = ४५/२४ = १.८७५ से.मी. १ र्रमाणु रज = १.८७५ x ७-१० = ०.६५ x १०-८ से.मी. अधुिनक मार् में र्रमाणु को १०-८ से.मी (१ ऐंग्स्रम) आकाइ में मार्ते हैं।
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(४) ८ कह्ळ र्द्धित- ज्योितष में छोटी आकाआयों के िलये प्रायः आसी र्द्धित का व्यिहार होता है। ईदाहरण के िलयेजालान्तरगे भानौ यदणुतरं दशपनं रजो याित। तद् ििन्द्यात् र्रमाणुं प्रथमं तिद्ध प्रमाणानाम्॥१॥ र्रमाणु रजो िालाग्र िलक्ष यूकं यिोऽङ्गुलं चेित। ऄिगुणािन यथोर्त्रमङ्गुलमेकं भिित संख्या॥२॥ (िराहिमिहर, बृहत् संिहता ५८/१-२) ८ ऄणु = १ रज (धूिल कण) (श्रीर्ित के ऄनुसार ८ त्रसरे णु = १ रे णु या रज) ८ रज = १ िालाग्र (के श का ऄग्र भाग या नोक) ८ िालाग्र = १ िलक्षा (खसखस का दाना) ८ िलक्षा = १ यूक (जोंक) ८ यूक = १ यि ८ यि = १ ऄंगल ु िटेश्वर ने भी यही मान ह्लदये हैंरिेगृपहान्तःिस्थतरिश्मतो ये प्रकाशमायान्त्यणिोऽििभस्तैः। कचाग्रमिौ खलु तािन िलक्षा, तािभश्च यूकाऽििभरे ि मुक्ता॥१॥ यिोऽियूकोऽङ्गुलमििभस्तैरथाङ्गुलिादशिभह्सितिस्तः। िितिस्तयुग्मेन करः करै िाप चतुह्सभरे का नृसहस्रमुक्तः॥२॥ क्रोशस्तु तैयोजनमिसंख्यैस्तैव्योमिृर्त्ं कथयिन्त सन्तः। खव्योमर्ूणपतुपनगेषुखािक्ष, ग्रहािब्धभूभृत्सुखर्क्षचन्िैः॥३॥ (िटेश्वर िसद्धान्त, १/७/१-३) ऄंगल ु से बिे मार् हैं१२ ऄङ्गुल = १ िितिस्त २ िितिस्त = १ कर (हस्त) ४ हस्त = १ नृ (र्ुरुष) हाथ उर्र ईठाये हुये। १००० नृ = १ क्रोश (कोस) ८ क्रोश = १ योजन १,२४, ७४, ७२, ०५, ७६, ००० योजन = अकाश कक्षा। ऄतः आस मान में त्रसरे णु = १ ऄंगल ु x ८-६ = १.४३ x १०-५ सें.मी. जैन ज्योितष कह्ळ र्ुस्तक ितलोय र्न्नित (त्रैलोक्य प्रज्ञिप्त) मेंऄसंख्यात र्रमाणु = १ ऄिसन्नासन्न स्कन्ध ८ ऄिसन्नासन्न स्कन्ध = १ सन्नासन्न स्कन्ध ८ सन्नासन्न स्कन्ध = १ त्रुटरे णु ८ त्रुटरे णु = १ त्रसरे णु ८ त्रसरे णु = १ रथरे णु ८ रथरे णु = १ ईर्त्मभोगभूिम बालाग्र ८ ईर्त्मभोगभूिम बालाग्र = १ मध्यमभोगभूिम बालाग्र ८ मध्यमभोगभूिम बालाग्र = १ जघन्यभोगभूिम बालाग्र ८ जघन्यभोगभूिम बालाग्र = १ कमपभूिम बालाग्र ८ कमपभूिम बालाग्र = १ िलक्षा (खसखस का दाना) 32
८ िलक्षा = १ यूक (जोंक) ८ यूक = १ यि (जौ का दाना मोटाइ) ८ यि = १ ऄंगल ु ६ ऄंगल ु = १ र्ाद (र्ैर का र्ंजा) २ र्ाद = १ िितिस्त २ िितिस्त = १ १ हस्त यहां, १ त्रसरे णु = १ ऄंगुल x ८-९ = २.७ x १०-८ सें.मी. १ ऄिसन्नासन्न स्कन्ध = १ ऄंगल ु x ८-१२ = ५.२ x १०-११ सें.मी. (५) १२ कह्ळ र्द्धित-फल बेचने के िलये या कागज कह्ळ िगनती के िलये आनका व्यिहार होता है। १ दजपन = १२ आकाइ। भारत में १२ रािश = १ चक्र, १२ मास = १ िषप, १२ िृहस्र्ित िषप अह्लद हैं। (६) १५ कह्ळ र्द्धित- िििान् बाकप िल ने समय कह्ळ छोटी आकाआयों के िलये आसका प्रयोग शतर्थ ब्राह्मण में ह्लकया हैएभ्यो लोमगर्त्ेभ्य उध्िापिन ज्योतींष्यान्। तद्यािन ज्योतींिषः एतािन तािन नक्षत्रािण। यािन्त्येतािन नक्षत्रािण तािन्तो लोमगर्त्ापः। (शतर्थ ब्राह्मण १०/४/४/२) = आन लोमगर्त्ों से उर्र ज्योित (तारा) हैं। िजतने ज्योित हैं, ईतने नक्षत्र हैं। िजतने नक्षत्र हैं ईतने लोमगर्त्प हैं। र्ुरुषो िै सम्ित्सरः॥१॥ दश िै सहस्राण्यिौ च शतािन सम्ित्सरस्य मुूर्त्ापः। यािन्तो मुूर्त्ापस्ताििन्त र्ञ्चदशकृ त्िः िक्षप्रािण। याििन्त िक्षप्रािण, ताििन्त र्ञ्चदशकृ त्िः एतहीिण। यािन्त्येतहीिण ताििन्त र्ञ्चदशकृ त्ि आदानीिन। यािन्तीदानीिन तािन्तः र्ञ्चदशकृ त्िः प्राणाः। यािन्तः प्राणाः तािन्तो ऽनाः। यािन्तोऽनाः तािन्तो िनमेषाः। यािन्तो िनमेषाः तािन्तो लोमगर्त्ापः। यािन्तो लोमगर्त्ापः ताििन्त स्िेदायनािन। याििन्त स्िेदायनािन, तािन्त एते स्तोकाः िषपिन्त॥५॥ एतद्ध स्म िै तिििानाह बाकप िलः। सािपभौमं मेघं िषपन्तिेदाहम्। ऄस्य िषपस्य स्तोकिमित॥।६॥ (शतर्थ ब्राह्मण १२/३/२/५-६) र्ुरुष संित्सर (के समान) है। १ संित्सर में १०,८०० मुूर्त्प हैं। १ मुूर्त्प = १५ िक्षप्र, १ िक्षप्र = १५ एतह्सह, १ एतह्सह = १५ आदानी, १ आदानी = १५ प्राण, १ प्राण = १५ ऄक्तन (ऄन), १ ऄक्तन = १५ िनमेष, १ िनमेष = १५ लोमगर्त्प, १ लोमगर्त्प = १५ स्िेदायन। िजतने लोमगर्त्प हैं ईतने ही स्तोक (जल ििन्दु) बरसते हैं। िििान् बाकप िल ने यह कहा-मैं सािपभौम (सभी प्रकार के ) मेघ जानता ूं। सभी मेघों में आतने ही स्तोक हैं। अकाश में िनमापण का मूल र्दाथप अर्् (जल) है जो फै ला हुअ है। ईससे िनह्समत सीमाबद्ध र्दाथप भूिम है। बीच का िनमापणाधीन र्दाथप मेघ (जल, र्िन के बीच का र्दाथप) या िराह (मेघ, या १ र्शु जो जल, भूिम दोनों र्र चलता है) । १ मुूर्त्प = ४८ िमनट। १ िक्षप्र = ३.२ िमनट। १ एतह्सह = १२.८ सेकण्ड। १ आदानी = ०.८५ सेकण्ड। १ प्राण = ०.०५६ सेकण्ड। १ ऄक्तन = ०.००४ सेकण्ड। १ िनमेष = ०.०००२ सेकण्ड। १ लोमगर्त्प = सेकण्ड का ५९३२६.२ भाग। १ स्िेदायन = सेकण्ड का ८८९८९२.६ भाग। १ िषप में लोमगर्त्प = १०८०० x १५-७ = १.८४५ x १०१२ (शरीर कह्ळ कोष संख्या) र्ुरुष ििश्व का १० गुणा है-ऄत्यिर्त्ष्ठर्द्शाङ्गुलम् (र्ुरुष सूक्त १)। ऄतः प्रायः १०११ तारा ब्रह्माण्ड में या ििश्व में १०११ ब्रह्माण्ड हैं। १ स्िेदायन समय में प्रकाश ३ x १०८ मीटर/ ८८९८९२.६ = ३३७ मीटर चलेगा। िषाप कह्ळ बून्दें आतनी ही दूरी तक िगरती हैं, या ऄर्ना अकार बनाये रखती हैं। ईसके बाद िे हिा में टू ट जाती हैं या ऄन्य से िमल जाती हैं।
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(७) ६० कह्ळ र्द्धित- प्रायः यह सुमेह्ऱरयन र्द्धित कही जाती है, ह्लकन्तु भारत के सभी प्राचीन ज्योितष ग्रन्थों में आसका प्रयोग कोण तथा समय कह्ळ आकाआयों के िलये होता है जो र्रस्र्र सम्बिन्धत हैं। १ िषप में प्रायः ३६० ह्लदन हैं (चान्ि िषप में ३५४ ह्लदन, या सौर िषप में ३६५.२५ ह्लदन)। आसे ३०-३० ह्लदनों के १२ मासों में ििभािजत ह्लकया गया है। १ ह्लदन को ६०६० से ििभािजत कर काल कह्ळ छोटी आकाआयां बनती हैं। आसी के समान िृर्त् में ३६०० ऄंश, तथा ऄंश के ६०-६० भाग होते हैं। प्रतत्र्रा षििगुणा िह तत्र्रा, िििलिप्तका सैिसमो तथा कला। सैिं लिस्तह्ऴत्त्रशदाहितभपिेद ् रािशः स मातापण्ड गुणो भमण्डलम्॥ (शङ्कर िमपन,् सित्नमाला २/४) ६० प्रतत्र्र = १ तत्र्र ६० तत्र्र = १ िििलिप्तका (िििलप्ता, ििकला) ६० िििलिप्तका = १ िलिप्तका ६० िलिप्तका = १ लि (भाग, ऄंश) ३० ऄंश = १ रािश १२ रािश = १ चक्र या िृर्त्। गुिपक्षरं ििघह्ऱटका घह्ऱटका ह्लदनं च, र्ूिापिण षििगुिणतािन िनजोर्त्रािण। ह्ऴत्रशद् गुणं ह्लदिसमत्र च माससंज्ञः, मासो ह्लदिाकर गुणः खलु सािनाब्दः॥ (शङ्कर िमपन,् सित्नमाला २/१) ६० गुिपक्षर = १ ििघह्ऱटका ६० ििघह्ऱटका = १ घह्ऱटका ६० घह्ऱटका = १ ह्लदन ३० ह्लदन = १ मास १२ मास = १ िषप ६० कह्ळ र्द्धित का ईर्योग के िल कोण तथा समय कह्ळ मार् के िलये है। संख्या िलखने के िलये ६० िचह्नों का प्रयोग करना र्िेगा, जो बहुत कह्ऱठन है। आसका सम्बन्ध ६० िषप के गुरु-िषप चक्र से भी है, िजसमें गुरु के ५ तथा शिन कह्ळ २ र्ह्ऱरक्रमा होती है। िेद में आसे ऄिङ्गरा िषप कहा गया है। अह्लदत्याश्च ह िा अिङ्गरसश्च स्िगे लोके स्र्धपन्त-ियं र्ूिे एष्यामो ियिमित॥ ते हाऽऽह्लदत्याः र्ूिे स्िगं लोकं जग्मुः, र्श्चेिािङ्गरसः, षष्ट्डां िा िषेषु। (ऐतरे य ब्राह्मण १८/३/१७) = अह्लदत्य तथा ऄिङ्गरा स्िगप र्हले र्हुंचने के िलये स्र्धाप कर रहे थे। कहा ह्लक हम र्हले र्हुंचेंगे। िे अह्लदत्य र्हले र्हुंच गये, र्ीछे अिङ्गरस ६० िषों में। (बृहस्र्ित को ऄिङ्गरा का र्ुत्र या अिङ्गरस कहते हैं) अह्लदत्याश्चािङ्गरसश्च सुिगे लोके ऽस्र्धपन्त ... त अह्लदत्या एतं र्ञ्च होतारमर्श्यन्। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/२/३/५) = अह्लदत्य तथा ऄिङ्गरा र्हले स्िगप र्हुंचने के िलये र्रस्र्र स्र्धाप कर रहे थे। ईन अह्लदत्यों ने ५ होता देखा। (प्रित अह्लदत्य ने ५ होता या िषप र्ार ह्लकया। िषप में ििश्व का ईर्भोग होता है, ऄतः आसे होता कहते हैं। अह्लदत्य १२ हैं।) अह्लदत्य x ५ होता = १२ x ५ = ६० िषप। ऄक्षर संख्या
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१. ििदेशी िणपमाला-कु छ कायों के िलये भारत में प्राचीन ऄरबी िणपमाला का भी प्रयोग होता था। प्राचीन िमस्र में भी ग्रहों के नाम ईनकह्ळ दूरी के ऄनुसार थे, जो भारतीय संस्कृ त िणपमाला के कटर्याह्लद सूत्र के ऄनुसार थे (बाद में िणपन) । अज भी चन्ि के िलये माहताब (िेद में मासकृ त् = मास या माह बनाने िाला) शब्द प्रचिलत है। माहताब = ५८६३ (कटर्याह्लद सूत्र में) = ५८६३ ५५.५ ह्लक.मी. (१ धाम योजन ििषुि र्ह्ऱरिध ४०,००० ह्लक,मी. का १/२ ऄंश है) । प्राचीन ऄरबी के संख्या-सूचक िणों का िणपन मुस्तफ़ा खान मर्द्ाह के ईदू-प िहन्दी कोष (िहन्दी संस्थान, लखनउ) में ऄबज़द शीषपक में हैऄरबी सूत्र
(ऄब्ज़द)
(हव्िज़)
(हुिर्त्)
ऄरबी िणप ऄ ब ज़ द ह ि ज़ हु तो ये संख्या १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० रोमन िणप क्रम a b c d h I j ऄरबी सूत्र
(कलमन)
(सऄफ़स)
ऄरबी िणप क ल म न स ऄ फ़ स संख्या २० ३० ४० ५० ६० ७० ८० ९० रोमन िणप क्रम (k l m n) ऄरबी सूत्र
(क़ु रशत)
ऄरबी िणप क़ु र संख्या
श
(सखज़) त
ष
ख
(जज्जग) ज़
ज
ज्ज
ग
(१००,२००,३००,४००) (५००,६००,७००) (८००,९००,१०००)
रोमन िणप क्रम (q r s t) …. (x y z) आससे स्र्ि है ह्लक रोमन िणपमाला (ऄंग्रेजी में प्रयुक्त) के कइ िणप आस संख्या सूत्र के क्रम में हैं। ऄरबी, ग्रीक के प्रथम २ िणप थे ऄिलफ़, बे (ऄल्फा, बीटा), ऄतः िणपमाला को ऄल्फाबेट (Alphabet) कहते हैं। बौद्ध र्ीठों में छात्र र्रस्र्र को ऄबुस (ऄ,ब,ज़) कहते थे, जो बराबरी का द्योतक है। आसी के जैसा ऄंग्रेजी मॆं कहते हैं - एबीसी जानना (knowing abc )। ३ से कम के िल दो से सम्बोधन ऄबे (ऄिलफ़, बे) िनरादर सूचक है। बौद्ध र्ीठ में गुरु को कलाम कहते थे, क्योंह्लक कलमन दहाइ संख्याओं का द्योतक है। बुद्ध के २ गुरु थे-भेरुण्ड कलाम (गोरखर्ुर के िनकट) अराद कलाम (अरा का िसद्ध)। र्ैगम्बर मुहम्मद साहब को भी कलाम कहते थे, कु रान का मूलमन्त्र भी कलमा कहते हैं। िलखने का साधन कलम है। (२) कटर्याह्लद सूत्र--आसमें ऄंकों का क्रम क, ट, र्, य-आन ४ िणों से अह्लद होता है, ऄतः आसे कटर्याह्लद सूत्र कहते हैं। ऄंक सूचक िणप आस सारणी में हैं१
२
३
४
५
६
७
८
९
०
क
ख
ग
घ
ङ
च
छ
ज
झ
ञ
ट
ठ
ड
ढ
ण
त
थ
द
ध
न
र्
फ
ब
भ
म
य
र
ल
ि
श
ष
स
ह
ळ
आस र्द्धित के कइ श्लोक हैं-नञािचश्च शून्यािन संख्याः कटर्यादयः। िमश्रे तूर्ान्त हल् संख्या न च िचन्त्यो हलः स्िरः॥ (शङ्करिमपन्-सित्नमाला, ३/४)
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= न्, ञ तथा ऄके ले स्िर (िबना व्य्ञ्जन से संयुक्त) शून्य (०) हैं। क, ट, र्, य से अरम्भ होने िाले व्यञ्जन क्रम से ऄंक ( १, २, ... ९) सूिचत करते हैं। संयुक्त ऄक्षर में ऄिन्तम िणप ही िगना जाता है। व्यञ्जन के साथ के स्िर कह्ळ कोइ संख्या नहीं है। (ऄंकों को दािहने से बायें कह्ळ तरफ िलखते हैं) कटर्यिगपभिैह्ऱरह िर्ण्डान्त्यरक्षरै रङ्काः। ने ञे शून्यं ज्ञेय,ं तथा स्िरे के िले किथते॥ (ऄज्ञात) = १० ऄंक क, ट, र्, य से अरम्भ होने िाले िणों से सूिचत होते हैं। संयुक्त ऄक्षरों में ऄिन्तम िणप िलये जाते हैं। न, ञ तथा ऄके ला स्िर शून्य होता है। रूर्ात् कटर्यर्ूिाप िणाप िणपक्रमाद् भिन्त्यङ्काः। ञनौ शून्यं प्रथमाथे अ छे दे ऐ तृतीयाथे॥२॥ (अयपभट िितीय-महािसद्धान्त, १/२) = क, ट, र्, य से अरम्भ होने िाले व्यञ्जन १ (रूर्) से अरम्भ होने िाले ऄंक क्रम से सूिचत करते हैं। न, ञ = शून्य। संख्या सूत्रों को ऄलग करने के िलये ईनके ऄन्त में अ, ऐ स्िर रखते हैं (बहुिचन में)। ऄङ्कानां िामतो गितः= ऄंक िाम ह्लदशा में िलखे जाते हैं। (िाम स्थानों के मान क्रमशः १०-१० गुणा होते हैं) िैह्लदक ईदाहरण-कइ लोगों ने ऊग्िेद में ज्योितिषयों जैसे दीघपतमा के सूक्तों (ऄस्यिामीय, ऊग्िेद १/१६४/८ अह्लद) का ऄथप कटर्याह्लद सूत्र से ह्लकया है, र्र आसमें कइ कल्र्नायें हैं। िेद में र्राद्धप तक कह्ळ संख्याओं का स्र्ि ईल्लेख है तथा कइ स्थानों र्र संख्या सूचक शब्दों का भी प्रयोग है। यह कहना कह्ऱठन है ह्लक ३ र्द्धितयों में ह्लकस र्द्धित में संख्या िलखी है। के रल कह्ळ र्ुस्तकों में कटर्याह्लद र्द्धित का बहुत प्रयोग है। िररुिच के चन्ि-िाक्य आसी र्द्धित में हैं, जो २४८ ह्लदनों के चक्र में चन्ि कह्ळ िस्थित ऄंश-कला में बताते हैं। आनका ििस्तार ििकला तक संगमग्राम के माधि (१३ िीं सदी) ने ह्लकया था। माधि का सबसे ििख्यात सूत्र र्ह्ऱरिध/व्यास (π) का ३१ दशमलि ऄंकों तक मान हैगोर्ीभाग्यमधुव्रातशृङ्गशोदिधसंिधग । ३ १ ४ १ ५ ९२६५ ३ ५ ८ ९ ७ ३ खलजीिितखातािगलहालारसन्धर ॥ २ ३ ८ ४६ २ ६ ४ ३३८ ३ २७९२ π = ३.१४१५९२६५३५८९७९३ २३८४६२६४३३८३२७९२ ( दशमलि के ३१ स्थानों तक) आस श्लोक के २ शािब्दक ऄथप(१) कृ ष्णर्क्षे - गोर्ीभाग्य = गोर्ीनां गोर्स्त्रीणां भाग्य। मधुव्रात = मधुदैत्यस्य व्याध नाशक। शृङ्गशो दिधसिन्धग = शृङ्गेण शृङ्गेण कृ तेनािभषेकेन दिधसह्ऴन्ध प्राप्त दिधिलप्त। ऄथिा, मधुव्रातशृङ्गश = क्षीरसमूहिशखरे शेते आित। ईदिधसिन्धग = समुिमन्थनकाले कू मापत्मनोदह्ऴध प्राप्त। खलजीिितखात = खलानां जीिितािन खातािन येन , खलजीिितेभ्यः खिनत्रिमिेित िा। गलहालारसन्धर = गले हालारसं यस्य तं सर्ं कािलयं धरतीित। ऄि = रक्ष। =भगिान् कृ ष्ण हमारी रक्षा करें , जो गोिर्यों के भाग्य हैं, मधु दैत्य के नाशक हैं तथा शृङ्गों (िसर र्र) दिध का ऄिभषेक करते हैं, या क्षीर समुि के उर्र शयन करते हैं, समुि-मन्थन काल में स्ियं को कू मप रूर् में प्रकट ह्लकया, खल जीििका िाले व्यिक्तयों के नाशक (खात या गड्ढा बनाने िाले), गलें में हालारस िाले कािलय नाग को धरते हैं। (२) िशिर्क्षे - गोर्ीभाग्य = गो्या जगििक्षकाया ईमाया भाग्य। मधुव्रातशृङ्गश = मधु क्षीरं तस्य व्रातस्समूहः तत्सिन्नभे धिले शृङ्गे कै लासिशखरे शेते आित मधुव्रातशृङ्गश। ईदिधसिन्धग = समुिमन्थनकाले। तत्रैि मोिहन्या मोिहतो ऽयमभिह्लदित प्रिसद्धम्। खलजीिितखात = खलानां जीिितािन खातािन येन , खलजीिितेभ्यः खिनत्रिमिेित िा। गलहालारसन्धर = गले हालारसं धारयतीित गलहालारसन्धर। ऄथिा, गलिस्थतििषे रसं स्नेहं धारयतीित। ऄत एि न 36
तत्त्यक्तमद्याििध। ऄथिा, गलहालान्सर्ापन् रसेन धारयतीित। ऄि = रक्ष । भगिान् िशि हमारी रक्षा करें जो जगत् (गो) रिक्षका (र्ी) ईमा के भाग्य (र्ित) हैं, मधुर दुग्ध के व्रात (समूह) समान ईज्ज्िल कै लास िशखर र्र हैं, समुि-मन्थन काल में मोिहनी िारा मोिहत हुये, खल व्यिक्तयों के नाशक हैं, गले में ििष को स्नेह से धारण करते हैं (समुि-मन्थन के बाद ऄबतक नहीं छोिा है) या गले में सर्ों कह्ळ माला है। नीलकण्ठ सोमयाजी ने ऄर्ने तन्त्र-संग्रह में ग्रन्थ के अरम्भ तथा समािप्त का काल ििष्णु-स्तुित िारा ह्लकया है जो कटर्याह्लद र्द्धित में किलयुग अरम्भ से ऄहगपण हैंहे ििष्णो िनिहतं कृ त्स्नं जगत् त्िय्येि कारणे। ज्योितषां ज्योितषे तस्मै नमो नारायणाय ते॥(१/१) गोलः कालः ह्लक्रया चेित द्योत्यतेऽत्र मया स्फु टम्। लक्ष्मीशिनिहतध्यानैह्ऱरिं सिं िह लभ्यते॥ (८/३९-४०) ये २ किल ऄहगपण हैं १६,८०,५४८ तथा १६,८०,५५३- जो किल िषप ४६०१, मीन २६ तथा िषप ४६०२, मेष १ हैंदोनों १५०० इस्िी के हैं। िसद्धान्त दर्पण, श्लोक १८ में तथा स्ियं कह्ळ टीका में ऄर्नी जन्मितिथ आसी र्द्धित में दी है-त्यजाम्यज्ञतां तकव ः = १६,६०,१८१ किल ऄहगपण ऄथापत् १४४४ आस्िी में। चन्ििाक्य के रचियता िररुिच कह्ळ जन्म तथा िनधन ितिथ ईनके र्ुत्र मेळर्त्ोळ ऄिग्नहोत्री ने दी है-यज्ञस्थानम् सुरक्ष्यं (१२,७०,७०१) तथा र्ुरुधीः समाश्रयः (१२,५७,९२१) जो ३४३ तथा ३७८ आस्िी में हैं। सूयपदेि यज्िन् ने मुञ्जाल के लघुमानस कह्ळ टीका में ऄर्ना जन्म िषप ििश्वेश (१११३) िलखा है, यहां ििश्व =१३, इश या रुि =११। गोििन्द भट्ट कह्ळ जन्मितिथ रक्षेद ् गोििन्दम् ऄकप ः (१५,८४,३६२) १२३७ आस्िी तथा िनधन ितिथ कािलन्दीिप्रयतुिः (१६,१२,८९१) १२९५ आस्िी है। ऄच्युत िर्शाराटी का िनधन ििद्यात्मा स्िरसर्पत् (१७,२४,५१४) या १६२१ आस्िी में हुअ। र्ुतुमन सोमयािज कह्ळ करण-र्द्धित का समािप्त ह्लदन है-गिणतमेतद् सम्यक् (१७,६५,६५३) ऄथापत् १७३२ आस्िी है। (३) अयपभट र्द्धित-अयपभट-१ ने १८ ऄंक तक कह्ळ संख्याओं के िलये २ िनयम ह्लकये(क) संस्कृ त के ९ मूल स्िरों से २-२ स्थानों का िनदेश ह्लकया। यहां माहेश्वर सूत्र के ऄनुसार ह्रस्ि तथा दीघप को एक ही मानते हैंऄआईण्। ऊलृक्। एओङ् । ऐऔच्।... माहेश्वर सूत्र व्याकरण तथा तन्त्र दोनों का अधार है तथा सृिि क्रम के ऄनुरूर् है। सामान्यतः देिनागरी िलिर् में ह्रस्ि तथा दीघप दोनों स्िर िलखे जाते हैंऄ, अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ॠ, लृ, लॄ, ए, ऐ, ओ, औ, ऄं, ऄः। (ख) १ से लेकर ९९ तक द् ऄंकों कह्ळ संख्या व्यञ्जन िणों से िलखी जाती है-। १ से २५ तक के ऄंक िगापक्षरों से िलखे जाते हैं-ये २५ स्र्शप िणप हैं जो ५ िगों में हैं, प्रित िगप में ५-५ िणप हैंक, ख, ग, घ, ङ, १, २, ३, ४, ५, च, छ, ज, झ, ञ, ६, ७, ८, ९, १० ट, ठ, ड, ढ, ण, ११, १२, १३, १४, १५ त, थ, द, ध, न, १६, १७, १८, १९, २०, र्, फ, ब, भ, म, २१, २२, २३, २४, २५ ३० से ९० तक दहाइ के ऄंक िगप के बाद िाले ऄक्षरों (ऄिगप) य से स तक से िलखते हैं। आनमें प्रथम ४ िणप ऄन्तःस्थ तथा बाकह्ळ उष्म हैं। १०० को ह िलखा जा सकता है37
य,
र,
ल, ि,
श, ष, स,
ह
३०, ४०, ५०, ६०, ७०, ८०, ९०, १०० दोनों िनयम एक ही श्लोक में ह्लदये हैंिगापक्षरािण िगेऽिगेऽिगापकाक्षरािण कात् ङमो यः। खििनिके स्िरा नि िगेऽिगे निान्त्य िगे िा॥२॥ िगप ऄक्षर (क से म) िगप स्थानों (१० के युग्म घात) में िलखते हैं। ऄिगप ऄक्षर (य से ह) ऄिगप स्थान (१० के ऄयुग्म घात) में िलखते हैं। प्रथम ऄिगप िणप य = ङ+म = ५+२५ = ३०। ९ स्िरों में प्रत्येक २-२ शून्य या स्थानों का िनदेश करता है, जो बायीं तरफ १०-१० गुणा मान के होते हैं। आसमें िगप ऄक्षर १० के युग्म घात के स्थान र्र तथा ऄिगप ऄक्षर ऄयुग्म घात के स्थान र्र अते हैं। २ व्यञ्जन िलखने र्र ईनका योग होता है। व्यञ्जन के साथ स्िर िलखने र्र ईनका गुणन होता है। व्यञ्जन + व्यञ्जन = योग व्यञ्जन + स्िर = गुणन िगप
क् १
ख् २
ग् ३
घ् ४
ङ् ५
च् ६
छ् ७
ज् ८
झ्
ञ्
ट्
ठ्
ड्
ढ्
ण्
त्
९
१० ११ १२ १३ १४ १५ १६
थ् द् ध् न् र्् फ् ब् भ् म् १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ ऄिगप य् र् ल् ि् श् ष् स् ह् ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० स्िर िगप
ऄ
आ ई ऊ लृ ए ऐ ओ औ २ ४ ६ ८ १० १२ १४ १० १० १०१६ १००=१ १० १० १० १० १०
ऄिगप १०१
१०३ १०५ १०७ १०९ १०११ १०१३ १०१५ १०१७
ईदाहरण-अयपभटीय में ग्रहों के युग (४३,२९,००० िषप) भगण (र्ह्ऱरक्रमा) अह्लद सभी आसी र्द्धित में हैंयुगरििभगणाः ख्युघ,ृ शिश चयिगियङु शुछृलृ, कु िङ्शबुणलृखृ प्राक् । शिन ढु िङ्िध्ि, गुरु िखच्युभ, कु ज भिद्लख्नुखृ, भृगुबुधसौराः॥३॥ चन्िोच्च जुपिष्खध, बुध सुगुिशथृन, भृगु जषिबखुछृ, शेषाकापः। बुह्लफनच र्ातििलोमा, बुधाह्व्यजाधोदयाञ्च लङ्कायाम्॥४॥ (अयपभटीय १/३-४) = १ युग मे र्ूिप ह्लदशा र्ह्ऱरक्रमा में सूयप के चक्र (भगण) हैं ४३,२०,०००, चन्ि के ५,७७,५३,३३६, र्ृथ्िी के १,५८, २२,३७,५००, शिन के १,४६,५६४, गुरु के ३,६४,२२४, मंगल के २२,९६, ८२४, बुध, शुक्र के सूयप के समान, चन्ि ईच्च के ४,८८,२१९ हैं। बुध शीघ्रोच्च के भगण १,७९,३७,०२०, शुक्र शीघ्रोच्च ७०, २२,३८८ तथा ऄन्य ग्रहों के शीघ्रोच्च सूयप
38
भगण के समान हैं। चन्ि र्ात के भगण ििर्रीत ह्लदशा में (र्िश्चम) २,३२,२२६ हैं। ये भगण मेष रािश के अरम्भ ििन्दु से बुधिार को अरम्भ हुये जब लङ्का में सूयोदय हो रहा था (आस युग किल का अरम्भ हुअ) व्याख्या-सूयप भगण -ख्युघृ = ४३,२०,००० स्िर शून्य युग्म
ऊ ० ०
ई ०
आ ० ०
ऄ ० ०
-- --
-- --
०
व्यञ्जन
घ
य+ख
मान
४
३०+२
० ०
० ०
= ४३२०००० या ४३,२०,००० ऄथिा ख्युघृ = (ख् x ई) + (य् x ई) + (घ् x ऊ) = (२ x१०४) + (३ x १०५) + (४ x १०६) =४३,२०,००० चन्ि भगण -चयिगियङु शुछृलृ =५,७७,५३,३३६ स्िर शून्य युग्म
ऊ ० ०
ई ०
व्यञ्जन
ल+छ
श+ङ
मान
५०+७
७०+५ ३०+३ ३०+६
०
आ ० ०
ऄ ० ०
य+ग
य+च
= ५,७७,५३,३३६ युग-भगण ऄथिा, चयिगियङु शुछृलृ = (च् x ऄ) + (य् x ऄ) + (ग् x आ) + (य् x आ) + (ङ् x ई) + (श् x ई) + (छ् x ऊ) + (ल् x ऊ) = (६ x १००) + (३ x १०१) + (३ x १०२) + (३ x १०३) + (५ x १०४) + (७ x १०५) + (७ x १०६) + (५ x १०७) = ५,७७,५३,३३६ युग-भगण कु छ र्ुराने ईदाहरण-माहेश्वर सूत्र में अयपभट र्द्धित से डमरू को ढक्का कहा गया है, क्यों ह्लक यह १४ बार बजा था तथा ढ = १४ िां व्यञ्जन िणपनृत्यािसाने नटराजराजः ननाद ढक्कां नि-र्ञ्चिारम्। ईद्धतुप कामः सनकाह्लद िसद्धानेतििमशे िशिसूत्रजालम्॥ आसी प्रकार नक्षत्रों के नाम २४ (भ) हैं, ३ (फाल्गुनी, अषाढ़, भािर्द) के र्ूिप-ईर्त्र भाग होने के कारण २७ नक्षत्र हैं। ऄतः, भ = नक्षत्र या २७। भू = प्रकृ ित के २४ तत्त्िों से बना ििश्व। २५िां (म) तत्त्ि र्ुरुष िमलाने र्र यह भूिम होता है। अयपभट र्द्धित में, ल = ५०, ह = १००, यद्यिर् ह का व्यिहार नहीं होता, क्योंह्लक आसमें ३ ऄंक हैं। ऄतः रोमन ऄंकों में भी ल (L) =५०, ह (H) = १००। ऄंग्रेजी में भी ह (Hundred) का ऄथप है १००। महाभारत को जय (कटर्याह्लद में १८) कहते हैं क्योंह्लक आसके १८ र्िप हैं तथा युद्ध १८ ह्लदन चला था। आसका मूल के न्ि गीता में भी १८ ऄध्याय हैं तथा िस्थतप्रज्ञ कह्ळ व्याख्या भी १८ श्लोकों में है। र्ुराण तथा ििद्या कह्ळ शाखा भी १८ हैं। घ = ४, यह ४ प्रकार के र्ुरुषाथप का सूचक है (धमप, ऄथप, काम, मोक्ष) । यह र्ुरुषाथप नहीं करना ऄघ = र्ार्। आस र्ार् से बचनेिाला ऄनघ है, जो ऄजुपन के सम्बोधन के िलये गीता में ३ बार (३/३, १४/६, १५/२०) व्यिहार हुअ है, जब भगिान् ने ईनको कर्त्पव्य कह्ळ याद ह्लदलायी है। शब्द के ४ र्द होते हैं ऄतः आसे िाक् (ि = ४) कहा गया है। आसके ३ र्द मिस्तष्क के भीतर हैं ऄतः आसे गौ (ग = ३) या गौरी िाक् कहते हैं तथा मिस्तष्क भी गुहा हैचत्िाह्ऱर िाक् र्ह्ऱरिमता र्दािन तािन ििदुब्रापह्मणा ये मनीिषणः। 39
गुहा त्रीिण िनिहता नेङ्गयिन्त तुरीया िाचो मनुष्या िदिन्त॥ (ऊक् १/१६४/४५) देश-काल कह्ळ मार् १. गिणत ज्योितष कह्ळ र्ुस्तकों में एक ऄध्याय होता है-ित्रप्रश्नािधकार। आसमें ह्लकसी स्थान के ऄक्षांश, देशान्तर तथा िहां र्र ईर्त्र ह्लदशा का िनधापरण ह्लकया जाता है। देशान्तर का सम्बन्ध समय से है, र्ृथ्िी का ३६०० ऄंश ऄक्ष-भ्रमण २४ घण्टों में होता है, ऄथापत् १० ऄंश = ४ िमनट। ऄतः आसे देश-काल-ह्लदग् कह्ळ मार् कहा जा सकता है। यह के िल र्ृथ्िी कह्ळ सतह र्र है, ज्योितष अकाश में भी र्हले ऄर्ेक्षाकृ त िस्थर तारों में र्ृथ्िी के सूयप -र्ह्ऱरभ्रमण का र्थ िनधापह्ऱरत करता है, ह्लफर ईससे लम्ब ह्लदशा में क्रािन्त कह्ळ मार् करता है। ग्रह, नक्षत्रों कह्ळ दूरी, गित तथा लोकों कह्ळ मार् अह्लद कह्ळ गणना कर ऄन्ततः सृिि रहस्य बताता है। ऄतः ज्योितष र्ृथ्िी तथा अकाश में लोकों तथा ग्रहों का स्थान कक्षा अह्लद बताता है, या देश-काल-ह्लदक् कह्ळ मार् करता है। यह िचित (प्रारूर्, नकशा) है, ऄतः ज्योितष को िचित कहा है है। मार् कह्ळ मूल आकाआयां छन्द कही जाती हैं। छन्द कह्ळ सामान्य र्ह्ऱरभाषा है ह्लक यह िाक् का र्ह्ऱरमाण है। र्र यह अकाश कह्ळ भी मार् है, िजसका गुण शब्द होता है। अकाश प्रथम महाभूत है, िजससे ऄन्य ४ क्रमशः ईत्र्न्न होते हैं-ऄतः यह सभी महाभूतों या ईनकह्ळ तन्मात्रा कह्ळ मार् का साधन है। तन्मात्रा ही मूल मार् है ऄतः आसे तन्मात्रा कहते हैं। ५ तन्मात्राओं के िलये भौितक ििज्ञान में मार् कह्ळ ५ मूल आकाआयां हैं-लम्बाइ, मात्रा, समय, अकाश का गुण, ििद्युत् (अिेश) । आनके ऄनुरूर् ५ मा-छन्द हैं। आसके बाद गायत्री सप्तक के ७ छन्द हैं िजनमें प्रित र्ाद ६ से १२ ऄक्षर हैं। सभी िेदों में कहा है ह्लक गायत्री से लोकों कह्ळ मार् होती है। गायत्री के ४ र्ादों में ६ x ४ = २४ ऄक्षर हैं, मनुष्य के अकार से र्ृथ्िी, सौर-मण्डल, ब्रह्माण्ड, ििश्व का अकार क्रमशः १०७ = २२४ गुणा बिा है। २ के अधार र्र २४ घात, ऄथापत् गायत्री से लोकों कह्ळ मार् है। गायत्री सप्तक में ित्रिु र्् (११ x ४ = ४४ ऄक्षर) महलोक तथा जगती (१२ x ४ = ४८ ऄक्षर) कह्ळ मार् हैं। ऄितछन्द ऄित-जगती से ऄितधृित तक छन्द हैं िजनमें प्रित र्ाद १३ से १९ तक ऄक्षर हैं। ये ब्रह्माण्ड (अकाशगंगा) से बिी रचनाओं कह्ळ मार् हैं। कृ ित छन्दों में प्रित र्ाद २०-२६ तक ऄक्षर हैं, ये र्दाथप-मात्रा कह्ळ मार् हैं। प्रथम छन्द में २० x ४ = ८० ऄक्षर हैं। ८० को ऄशीित कहते हैं जो भोग या भोजन ऄथप में है। आसे ऄन्न कह्ळ मार् कहा गया है। मूल आकाआयों के िमलन से ऄन्य आकाआयां बनती हैं। आकाआयों का आसमें ियन होता है ऄतः आसे ियः छन्द कहते हैं। ियः का ऄथप र्क्षी भी है, प्रथम छन्द मूधापियः होने के कारण आसे छन्द रूर्ी गरुि भी कहते हैं। मूधाप ियः = र्िक्षयों में शीषप या गरुि। २. ईद्धरण-ज्योितष िचित, छन्दो-िििचित(१) (क) िशक्षा कल्र्ो व्याकरणं िनरुक्तं ज्योितषां िचितः। छन्दोिििचितह्ऱरत्येष षडङ्गो िेद ईच्यते॥ (ऄज्ञात) (ख) छन्दः र्ादौ तु िेदस्य हस्तौ कल्र्ोऽथ र्ठ्यते। ज्योितषामयनं चक्षुह्सनरुक्तं श्रोत्रमुच्यते॥१॥ िशक्षा घ्राणं तु िेदस्य मुखं व्याकरणम् स्मृतम्। तस्मात्साङ्गमधीत्यैि ब्रह्मलोके महीयते॥२॥ (र्ािणनीय िशक्षा ४१,४२) (ग) िशक्षा कल्र्ो व्याकरणं िनरुक्तं छन्दोिििचित ज्योितषिमित चाङ्गािन । (कौह्ऱटल्य ऄथपशास्त्र १/२/१) यहां सम्भितः ज्योितषिचित है। (घ) एििममे सिेिेदा िनह्समताः सकल्र्ाः सरहस्याः, सब्राह्मणाः, सोर्िनषत्काः, सेितहासाः, सान्िाख्यानाः, सर्ुराणाः, सस्िराः, ससंस्काराः, सिनरुक्ताः, सानुशासनाः, सानुमाजपनाः, सिाकोिाक्याः। (गोर्थ ब्राह्मण, र्ूिप २/९) (ङ) एिं िा ऄरे ऽस्य महतोभूतस्य िनःश्विसतमेतत् यत् ऊग्िेदो, यजुिेदः, सामिेदोऽथिापिङ्गरसः, आितहासः, र्ुराणं, ििद्याः, ईर्िनषदः, श्लोकाः, सूत्रािण, ऄनुव्याख्यानािन, व्याख्यानािन। ऄस्यैिैतािन िनःश्विसतािन। (बृहदारण्यक ईर्िनषद् २/४/१०) (च) िे ििद्ये िेह्लदतव्ये आित ह स्म यत् ब्रह्मििदो िदिन्त, र्रा चैि ऄर्रा च॥४॥ तत्रार्रा ऊग्िेदो, यज्र्िेदः, सामिेदोऽथिपिेदः, िशक्षा, कल्र्ो व्याकरणं िनरुक्तं छन्दो ज्योितषिमित॥५॥ (मुण्डकोर्िनषद् १/१/४,५)
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(छ) छन्दो िििचित शब्द के प्रयोग र्ािणनीय गणर्ाठ (४/३७३), चान्ि गणर्ाठ (३/१/४५), जैनेन्ि गणर्ाठ (३/१/१३६), सरस्िती कण्ठाभरण (४/३/१८९) तथा गणरत्न महोदिध (५/३/४४) में भी है। िनदान सूत्र कह्ळ भूिमका में भीयाः षट् िर्ङ्गल नागाद्यैः छन्दोिििचतयः कृ ताः। ऄथ भगिान् छन्दोिििचितकारः र्तञ्जिलः॥ (िनदान सूत्र, हृषीके श व्याख्या कह्ळ भूिमका) (२) ियः अह्लद शब्दों के तात्र्यप अिरणिाद में हैं। नासदीय सूक्त के अधार र्र र्िण्डत मधुसूदन ओझा ने दश िादों कह्ळ व्याख्या कह्ळ थी, जो सृिि िनमापण के १० िैकिल्र्क िसद्धान्त हैं। अिरण िाद का ईल्लेख आस सूक्त में हैनासदासीन्नो सदासीर्त्दानीं नासीिजो नो व्योमार्रो यत्। ह्लकमािरीिः कु ह कस्य शमपन्नम्भः ह्लकमासीद् गहनं गभीरम्॥ (ऊग्िेद, शौनक संिहता १०/१२८/१) आसके बाद के ६ और मन्त्र िमला कर यह नासदीय सूक्त कहा जाता है। यहां अिरीिः से अिरणिाद का ईल्लेख है। यहां ऄन्य िाद हैं-सत्-ऄसत् िाद, रजोिाद, व्योमिाद, ऄर्रिाद, ऄम्भोिाद। िय =ियन ह्लक्रया, अयु, र्क्षी अह्लद। ियुन = ह्लकसी क्रम में ियन कह्ळ गयी िस्तु। ियोनाध= िनह्समत िस्तु कह्ळ सीमा। आसकह्ळ व्याख्या ओझा जी कह्ळ र्ुस्तक अिरणव्द में है, जो जोधर्ुर ििश्वििद्यालय से प्रकािशत है। ईन्हीं कह्ळ ऄन्य र्ुस्तकों में भी िय अह्लद का िणपन है-दशिाद रहस्य, ब्रह्मििनय, छन्द समीक्षा अह्लद में भी है। िय का मूल धातु है-िी गित-व्यािप्त-प्रजन-कािन्त-ऄसन-खादनेषु (र्ािणिन धातु र्ाठ २/४१) िी + ऄसुन् = ियस् िनघण्टु (२/७/७) में ियः ऄन्न का नाम है। देिराज यज्िा के ऄनुसार कारक भेद से सभी प्रकार के ऄथप हैं-धन, ऄन्न, बाल्य अह्लद ऄिस्था, िषप, जीिन, खग, जाित और यौिन हैिये धनेऽन्ने बाल्यादौ ित्सरो जीििते खगे। जातौ च यौिने चैि सान्तं क्लीबमुदाहृतम्॥ (िाङ्मयाणपि ५०६१) सायण ने ऄन्न-ऄश्व सम्बन्ध से आसका ऄथप रज्जु-रिश्म-िल्गा तथा बहुिचन (ििः, िी, ियः) मानकर िेर्त्ारः, मरुत् अह्लद ऄथप ह्लकये हैं। ियन ह्लक्रया से बने िस्त्र कह्ळ तरह ऄियिों का र्रस्र्र सम्बन्ध भी िय है। ईस में भी प्राण शिक्त का प्रयोग होता है, ऄतः िय, ियुन, ियोनाध-सभी प्राण हैंप्राणो िै देिा ियोनाधाः। प्राणैहीदं सिं ियुनं नद्धम्। ऄथो छन्दांिस िै देिाः ियोनाधाः। छन्दोिभहीदं सिं ियुनं नद्धम्। (शतर्थ ब्राह्मण ८/२/२/८) देिािीदेिान् हििषा यजास्यग्ने बृहद् यजमाने ियोधाः॥ (ऊक् ३/२९/८) प्राणो िै ियः। (ऐतरे य ब्राह्मण १/२८) ह्लदव्यं सुर्णं ियसा बृहन्तम्। (िाजसनेयी सं. १८/५१) ह्लदव्यो िा ऽएष (ऄिग्नः) सुर्णो ियसो बृहन् धूमेन (ियः = धूमः) (शतर्थ ब्राह्मण ९/४/४/३) श्येनो िै ियसां क्षेिर्ष्ठः। (षह्ऴड्िश ब्राह्मण ३/८) िनऊपतेिाप एतन्मुखं यद् ियांिस यत् शकु नयः। (ऐतरे य ब्राह्मण २/१५) िय से सम्बिन्धत १९ प्रकार के छन्द हैं, जो मूधापियः से अरम्भ होने के कारण मूधापियः या गरुड छन्द कहे जाते हैं। ये िाजसनेिय संिहता, ऄध्याय १४ में हैंमूधाप ियः प्रजार्ितश्छन्दः क्षत्रं ियो मयन्दं छन्दो िििम्भो ियोऽिधर्ितश्छन्दो ििश्वकमाप ियः र्रमेष्ठी छन्दो िस्तो ियो िििलं छन्दो िृिष्णिपयो ििशालं छन्दः र्ुरुषो ियस्तन्िं छन्दो व्याघ्रो ियो ऽनाधृिं छन्दः ह्ऴसहो ियश्छह्लदछन्दः षष्ठिाड्ियो बृहती छन्द ईक्षा ियः ककु र्् छन्दः॥९॥ ऄनड्िान्ियः र्िङ्क्तश्छन्दो धेनुिपयो जगती छन्दस्त्र्यिििपयिस्त्रिु र्् छन्दो ह्लदत्यिाड्ियो ििराट् छन्दः र्ञ्चािििपयो गायत्री छन्द िस्त्रित्सो िय ईिष्णक् छन्द स्तुयपिाड्ियोऽनुिुर्् छन्दो लोकं ता आन्िम्॥१०॥ (िाजसनेयी सं. १४) र्शिो िै ियांिस। (शतर्थ ब्राह्मण ९/३/३/७), र्शिो िै ियस्या आिका । (तैिर्त्रीय संिहता ५/३/१/३) ियो िै िामदेव्य साम। (जैिमनीय ईर्िनषद् ब्राह्मण १/१३९), प्राणा िाि देिानां िामं-िननीयं-िसु असीत्। (जैिमनीय ईर्िनषद् ब्राह्मण १/१४२)
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तक्षान् िर्तृभ्यामृभिो युिद् ियः। (ऊक् १/१११/१), अनो यज्ञाय तक्षत ऊभुमद् ियः। (ऊक् १/१११/२), बृहदस्मै िय आन्िो दधाित। (ऊक् १/१२५/२), ऄमी च ििश्वे ऄमृतास अ ियो हव्य देिेष्िाियः। (ऊक् १/१२७/८), ऄथा दधाते बृहदुक्थं ियः ईर्स्तुत्यं बृहद् ियः। (ऊक् १/१३६/२), गमन्न आन्िः संख्या ियश्च। (ऊक् १/१७८/२), ईर्याम गृहीतोऽिस आन्िाय त्िा बृहिते ियस्ित ईक्थाव्यं गृह्रािम। (यजु ७/२२) आन्धानस्त्िा शतं िह मा द्युमन्तं सिमधीमिह। ियस्िन्तो ियस्कृ तं सहस्िन्तः सहस्कृ तम्॥ (यजु ३/१८) ियांिस तद् व्याकरणं िििचत्रं, मनुमपनीषा मनुजो िनिासः॥ (भागित र्ुराण २/१/३६) ियुन-देिराज यज्िा मत से- ऄज गित क्षेर्णयोः (र्ािणिन धातुर्ाठ १/१३९) + औणाह्लदक ईनन् प्रत्यय। यास्क मत िी धातु से, िय कह्ळ तरह। आसके ऄथप हैं प्राण, धूम, ऄन्न, िीयप, र्शु अह्लद। िनघण्टु में प्रशस्य (३/८/१०) सायण (ऊक् १/९२/६) में प्रािणयों का ज्ञान, (१/१४४/५) में प्रज्ञान, ऄनुष्ठान ििषय, (२/१९/८) में मागप तथा (३/५/६) में ज्ञातव्य र्दाथप ऄथप करते हैं। ियोनाध = मयापदा, तथा िामम् = िय के साथ ियुन का प्रयोगका मयापदा ियुनाकद्ध िाममच्छा गमेम रधिो न िाजम्। कदा न देिीरमृतस्य र्त्नीः सूरो िणेन ततनन्नुषासः॥ (ऊक् ४/५/१३) ियोनाध या नाध-ियः + णह् बन्धने (र्ािणिन ४/५५)। ण का ह छान्दस प्रयोग है। जो िय को बान्धता है, िह ियोनाध है। यजुिेद (१४/७) में ५ बार ियोनाध का प्रयोग है। िहां आसका ऄथप है सीमा भाि ईत्र्न्न करने िाले देि। (३) छन्दों के िैह्लदक िनिपचन कइ स्थानों र्र हैं(१) यश्छनोिभश्छन्नः तस्मात् छन्दािँिस व्याचक्षते। (दैित ब्राह्मण ३/१९) छन्दांिस छादयतीित िा। (दैित ब्राह्मण ३/३०) (२) तद् यद् एनान् छन्दांिस मृत्योः र्ा्मनोऽच्छादयिँ स्तच्छन्दसां छन्दत्िम्, (एनान् = देिान्) जैिमनीय ईर्िनषद् ब्राह्मण १/२८४) (३) तािन ऄस्मा (ऄस्मै = प्रजार्तये) ऄच्छादयिँस्तािन यद् ऄस्मा ऄच्छदयन् तस्मात् छन्दांिस। (शतर्थ ब्राह्मण ८/५/२/१) (४) देिाः ऄसुरान् हत्िा मृत्योः ऄिबभयुः, ते छन्दांिस ऄर्श्यन्, तािन प्रििशन्, तेभ्यः यद् यद् ऄच्छदयन् तेन अत्मनम् ऄच्छादयन्त तत् छन्दसां छन्दस्त्िम्। (मैत्रायणी ब्राह्मण ३/४/७) (५) यत् छन्दोिभश्छन्नः तस्माच्छन्दांिस आत्याचक्षते। (ऐतरे य अरण्यक २/१/६) (६) ते छन्दोिभः अत्मानं छादियत्िा ईर्यान् तत् छन्दसां छन्दस्त्िम्। (तैिर्त्रीय संिहता ५/६/६/१) मधुसूदन ओझा-ब्रह्म समन्िय, ऄव्यय ऄनुिाक् यतो िस्तु व्यििच्छिर्त्श्छन्द अयतनं च तत्। देश अयाम ििस्तरौ ह्लदक्कालौ छन्दिस स्फु टाः॥३८३॥ ऄक्षरोर्ािध िशतोऽििच्छन्नं भिदव्ययम्। प्रत्यक्षं भिितश्छन्दश्छन्दोिभश्छन्दनं च तत्॥३८४॥ प्राणानाममृतानां तत् छन्दनं प्राणतोऽन्यतः॥३८५॥ भागित र्ुराण में ही छन्दों के सभी िनिपचन िमल जायेंगे(१) छन्दांिस ऄनन्तस्य िशरः गृणिन्त (२/१/३१) (२) िाचां बह्िे मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्तधातिः। (२/७/११) (३) छन्दः सुर्णवः ऊषयो ििििक्ते । (३/५/४०) (४) छन्दांिस यस्य त्ििच बह्सह रोम (३/१३/३५) (५) ताक्ष्येण स्तोत्र िािजना। (४/७/१९) (६) गरुडो भगिान् स्तोत्र स्तोमछन्दोमयः। (६/८/२९) (७) यत्र हयाः छन्दोनामा सप्त (८/३/३१) (८) छन्दोमयं यदजयाह्सर्त षोडशारं संसार चक्रम्। (७/९/२१-२२) (९) खेभ्यमयं छन्दांिस ऊषयः। (८/३/३९) (१०) छन्दोमयो देि ऊिषः र्ुराणः (८/७/३०) र्ुराणः = र्ुरे गितशील प्राणाः। (११) छन्दांिस साक्षात् तत्र सप्त धातिः त्रयीमयात्मन्। (८/७/२८) (१२) यस्य छन्दोमयो ब्रह्मदेहः अिर्नं ििभो (१०/८०/४५) 42
(१३) यद्यसौ छन्दसां लोकं अरोक्ष्यन् ब्रह्मिििर्म्। (११/१७/३१) िायु र्ुराण, ऄध्याय ५२, ब्रह्माण्ड र्ुराण (र्ूिप २२), ििष्णु र्ुराण (२/८-१०) भी देखें। िैह्लदक प्रयोग-(१) छन्दांिस िै ब्रजो गोस्थानः। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/२/९/१) (२) ऄन्नं िाि र्शिः तान्यस्मा (प्रजार्तये) ऄच्छदयिँस्तािन यदस्मा ऄच्छदयिँस्तस्माच्छन्दांिस। (शतर्थ ब्राह्मण ८/५/२/१) (३) प्रजार्तेिाप एतान्यङ्गािन यच्छन्दांिस। (ऐतरे य ब्राह्मण २/१८) (४) िश्रयो छन्दो न स्मयते ििभाती। (ऊक् १/९२/६) (५) छन्दांिस िा ऄस्य (ऄग्नेः) सप्त धाम िप्रयािण (माध्यिन्दन संिहता १७/७९) ऄस्य व्याख्या शतर्थ ब्राह्मणे (८/२/३/४४) (६) ऄग्नेिव िप्रया तनू छन्दांिस। (तैिर्त्रीय संिहता ५/२/१) (७) छन्दांिस जिज्ञरे तस्मात् (र्ुरुष सूक्त ७) यदक्षर र्ह्ऱरमाणं तच्छन्दः। (ऊक् सिापनुक्रमणी २/६) छन्दोऽक्षरसंख्यािच्छे दकमुच्यते (ऄथिप िेद, बृहत् सिापनुक्रमणी १) ऄक्षरे ण िममते सप्तिाणीः (ऊक् १/१६४/२४) छन्दों का िगीकरण तथा रूर् ऄिग्न कह्ळ ७ िजह्िा के कारण ७ लोक, ७ ऄह्सच, ७ स्िर अह्लद हैं। सबकह्ळ मार् ७ छन्दों से है। संगीत के ३ सप्तकों कह्ळ तरह आसमें भी ३ सप्तक हैं। ईसके र्ूिप मार्दण्ड के अधार रूर् ५ मा छन्द हैं। हर छन्द में ४ र्द हैं, प्रितर्द ऄक्षरों कह्ळ संख्या १५, ६-१२, १३-१९, २०-२६ है। प्राग् गायत्री र्ञ्चक-ग्रन्थों के ऄनुसार नाम भेदर्ादाक्षर कु ल ऄक्षर ऊक् प्राितशाख्य ईर्िनदान सूत्र(नारद शास्त्र) िनदान सूत्र १ ४ मा ईक्ता कृ ित २ ८ प्रमा ऄत्युक्ता प्रकृ ित ३ १२ प्रितमा मध्या संकृित ४ १६ ईर्मा प्रितष्ठा ऄिभकृ ित ५ २० समा सुप्रितष्ठा अकृ ित प्रथम सप्तक-बृहती छन्द र्ादाक्षर ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ कु ल ऄक्षर २४ २८ ३२ ३६ ४० ४४ ४८ छन्द गायत्री ईिष्णक् ऄनुिुर्् बृहती र्ंिक्त ित्रिु र्् जगती िितीय सप्तक-ऄित छन्द र्ादाक्षर १३ १४ १५ १६ १७ कु ल ऄक्षर ५२ ५६ ६० ६४ ६८ छन्द ऄितजगती शक्वरी ऄितशक्वरी ऄिि ऄत्यिि तृतीय सप्तक-कृ ित छन्दर्ादाक्षर २० २१ २२ २३ २४ कु ल ऄक्षर ८० ८४ ८८ ९२ ९६ छन्द(िर्ङ्गल) कृ ित प्रकृ ित अकृ ित ििकृ ित संकृित िनदान सूत्र िसन्धु सिलल ऄम्भस् गगन ऄणपि
तैिर्त्रीय ब्राह्मण(३/३/१) मा प्रमा प्रितमा ऄस्रीिि ििराट्
१८ ७२ धृित
१९ ७६ ऄितधृित
२५ १०० ऄिभकृ ित अर्ः
२६ १०४ ईत्कृ ित समुि
छन्द कह्ळ ऄक्षर संख्या में ४-४ का ऄन्तर होने से २ ऄक्षर से कम से लेकर २ ऄक्षार् ऄिधक तक िही छन्द माना जाता है। २ ऄक्षर कम -ििराट् , १ ऄक्षर कम -िनचृद् (िलच्चि)। १ ऄक्षर ऄिधक -भूह्ऱरक् (भूयसी दिक्षणा-१०० से १ ऄिधक १०१), २ ऄक्षर ऄिधक-स्िराट् । ये मुख्य भेद अषी कहलाते हैं। आसके ऄितह्ऱरक्त ७ ऄन्य प्रकार के िगप हैं िजनका कारण स्र्ि नहीं है।
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छन्द दैिी असुरी गायत्री १ १५ ईिष्णक् २ १४ ऄनुिुर्् ३ १३ बृहती ४ १२ र्ंिक्त ५ ११ ित्रिु र्् ६ १० जगती ७ ९ आनमें बृहती छन्दों तक के छन्द ऄितजगती दैिी ८ असुरी ८ प्राजार्त्या ३६ अषी ५२
प्राजार्त्या अषी याजुषी साम्नी अची ब्राह्मी ८ २४ ६ १२ १८ ३६ १२ २८ ७ १४ २१ ४२ १६ ३२ ८ १६ २४ ४८ २० ३६ ९ १८ २७ ५४ २४ ४० १० २० ३० ६० २८ ४४ ११ २२ ३३ ६६ ३२ ४८ १२ २४ ३६ ७२ ही िगप हैं। ह्लकन्तु र्तञ्जिल के िनदान सूत्र के ऄनुसार ऄितछन्दों के भी ४ प्रकार के िगप हैं। शक्वरी ऄितशक्वरी ऄिि ऄत्यिि धृित ऄितधृित ९ १० ११ १२ १३ १४ ७ ६ ५ ४ ३ २ ४० ४४ ४८ ५२ ५६ ६० ५६ ६० ६४ ६८ ७२ ७६
छन्दों के रूर्छन्द रूर् देिता
मा र्ृिथिी ऄिग्न
प्रमा ऄन्तह्ऱरक्ष िायु
प्रितमा द्यौ सूयप
ऄस्रीिि ह्लदशा सोम
गायत्री ऄजा बृहस्र्ित
ित्रिु र्् िहरण्य आन्ि
जगती गौ प्रजार्ित
ऄनुिुर्् अयु िमत्र
ईिष्णक् चक्षु र्ूषा
ििराट् ऄश्व िरुण
बृहती कृ िष र्जपन्य
र्ंिक्त र्ुरुष र्रमेष्ठी
मा छन्दः प्रमा छन्दः प्रितमा छन्दो ऄस्रीियश्छन्दः र्िङ्क्तश्छन्द ईिष्णक् छन्दो बृहती छन्दो ऽनुिुर्् छन्दो ििराट् छन्दो गायत्री छन्दिस्त्रिु र्् छन्दो जगती छन्दः॥१८॥ र्ृिथिी छन्दो ऽन्तह्ऱरक्षं छन्दो द्यौश्छन्दः समाश्छन्दो नक्षत्रािण छन्दो िाक् छन्दो मनश्छन्दः कृ िषश्छन्दो िहरण्यं छन्दो गौश्छन्दो ऽजाश्छन्दो ऽश्वश्छन्दः॥१९॥ ऄिग्नदेिता िातो देिता सूयो देिता चन्िमा देिता िसिो देिता रुिा देिता ऽऽह्लदत्या देिता मरुतो देिताििश्वेदेिा देिता बृहस्र्ितदेितेन्िो देिता िरुणो देिता॥२०॥(िाजसनेयी सं. १४) मा छन्दः तत् र्ृिथिी, ऄिग्नदेबता, तेन छन्दसा तेन ब्रह्मणा तया देितया ऄिङ्गरस्िद् ध्रुिासीद्। प्रमाअ छन्दः, तदन्तह्ऱरक्षम्, िायुदेिता। प्रितमा छन्दः, तद् द्यौः, सूयो देिता। ऄस्रीिीश्छन्दः, तद् िहरण्यम्, आन्िो देिता। जगती छन्दः, तद् गौः, प्रजार्ितदेिता। ऄनुिुर्् छन्दः, तदायुः, िमत्रो देिता। उिष्णक् छन्दः, तच्चक्षुः, र्ूषा देिता। ििराट् छन्दः, तद् ऄश्वः, िरुण देिता। बृहती छन्दः, तत् कृ िषः, र्जपन्यो देिता। र्ंिक्तश्छन्दः, तत् र्ुरुषः र्रमेष्ठी देिता। (मैत्रायणी संिहता २/१४/९३-९७, काठक संिहता ३९/३९-४०) प्राग्-गायत्री र्ञ्चक मार् का अधार है। एक ऄथप है ह्लक सांख्य दशपन के ऄनुसार ५ तन्मात्रायें हैं ऄथापत् ५ मूल आकाआयों से यािन्त्रक ििश्व कह्ळ मार् हो सकती है। िितीय ऄथप है ह्लक मार् कह्ळ मूल आकाइ मा या र्ृिथिी है। ईससे बिी आकाइ प्रमा है। प्रमा का ईदाहरण जैन ज्योितष में िमलता है। ५०० योजन को प्रमाण योजन कहा गया है। भागित-ििष्णु र्ुराणों में आसी प्रमाण योजन में ऄन्तह्ऱरक्ष लोकों कह्ळ मार् है। प्रितमा सूक्ष्म रूर् है और छोटी आकाआयां हैं। ऄस्रीिि मूल आकाआयों के संयोग से बनी आकाआयां हैं। तृतीय ऄथप है ह्लक मा लम्बाइ कह्ळ मार्, प्रमा गित (िायु) या समय मार्, प्रितमा ईजाप (द्यौ, सूय)प या र्दाथप कह्ळ मार्, ऄस्रीिि ििद्युत्-चुम्बकह्ळय गुणों तथा र्रस्र्र सम्बन्ध कह्ळ मार् है। बृहती छन्द गायत्री ईिष्णक् ऄथप ब्रह्मिचपस अयु
ऄनुिुर्् बृहती र्ंिक्त ित्रिु र्् जगती ििराट् स्िगप श्री श्री, यश यज्ञ आिन्िय, िीयप र्शु
तेजो िै ब्रह्मिचपसं गायत्री (ऐतरे य ब्राह्मण १/५, ताण्य महाब्राह्मण १६/१४/५, १६/१६/६), र्ांक्तो िै यज्ञः (तैिर्त्रीय संिहता ५/२/३/६, मैत्रायणी संिहता १/४/९), अयुिाप उिष्णक् (ऐतरे य ब्राह्मण १/५), श्रीिव यशश्छन्दसां बृहती (ताण्य महाब्राह्मण, ऐतरे य ब्राह्मण १/५), ऄन्नं िै ििराट् यस्यैिेह स भूियष्ठ-मन्नं भिित। ओजो िा आिन्ियं िीयं ित्रिु र््। (ऐतरे य 44
ब्राह्मण १/५), गायत्रो िह ब्राह्मणः। (तैिर्त्रीय संिहता ५/१/४/५), त्रैिुभो राजन्यः। (तैिर्त्रीय संिहता ५/१/४/५, जैिमनीय ब्राह्मण ईर्िनषद् २/१/२०), इिन्ियं िीयं ित्रिु र्् (जैिमनीय ब्राह्मण १/१३२, ३/२०६), जागता िै र्शिः (तैिर्त्रीय संिहता २/५/१०/२, ऐतरे य ब्राह्मण १/५), िीयं जगती (जैिमनीय ब्राह्मण १/३०९, ३/२०६), ब्रह्म गायत्री क्षत्रं ित्रिु र्् (शतर्थ ब्राह्मण १/३/५/७), गायत्रं िा ऄग्नेश्छन्दः (शतर्थ ब्राह्मण १/३/५/४) गायत्रीमेिाग्नये िसुभ्यः, त्रैिुभिमन्िाय रुिेभ्यः, जगती ििश्वेभ्यो देिेभ्य अह्लदत्येभ्यः। (ऐतरे य अरण्यक ३/९/१-सायण क्रम), गायत्री िै ब्राह्मणः त्रैिुभो राजन्यः जागतो िै िैश्यः। (जैिमनीय ब्राह्मण २/१०२) ऄन्न को अयतन (अयु) कहा गया है। गायत्री क्षेत्र (६ ऄक्षर प्रित र्ाद) का अयतन धृित-ऄितधृित (१८-१९ ऄक्षर = ३ गुणा घात) होंगे। यह र्ृिथिी को मार्दण्ड मानकर २ के घातों में मार् करने से होगा। कृ ित कणों कह्ळ मार् है। लोकों कह्ळ मार् मुख्यतः गायत्री, ित्रिु र््, जगती छन्दों में है। सौरमण्डल के भीतर गायत्री, ईिष्णक् , ऄनुिुर्् िििभन्न क्षेत्रों कह्ळ मार् हैं। ऄितछन्दों को अयतन कहा गया है। छन्द गायत्री ित्रिु र्् जगती र्दाथप अग्नेय ऐन्ि ििश्वेदेि िणप ब्राह्मण क्षित्रय िैश्य र्दाथप रूर् ओषिध िात अर्ः ऄग्नेगापयत्र्यभित् सयुग्िोिष्णहया सििता सम्बभूि। ऄनुिुभा सोमईक्थैमपहस्िान् बृहस्र्तेबृपहती िाचमाित्॥४॥ ििराण् िमत्रािरुणयोरिभश्रीह्ऱरन्िस्य ित्रिु िबह भगो ऄह्नः। ििश्वान् देिान् जगत्या िििेश तेन चाक्लृप्त ऊषयो मनुष्याः॥५॥ (ऊक् १०/१३०/४-५) कतमे एते देिा आित, छन्दांसीित ब्रूयात् गायत्रीं ित्रिु र्् जगतीिमित। (तैिर्त्रीय संिहता २/६/९/३-४) त्रीिण िै छन्दांिस यज्ञं िहिन्त गायत्री ित्रिु र्् जगती। (जैिमनीय ब्राह्मण १/१२०) गायत्रं छन्दोऽनुप्रजायस्ि, त्रैिुभं जागतम् आत्येताििन्त िै छन्दांिस। (काठक संिहता २६/७) िाक् सुर्णी छन्दांिस सौर्णापिन गायत्री ित्रिु र्् जगती। (मैत्रायणी संिहता ३/७/३) ऄितछन्द समुर्दधाित, ऄितच्छन्दा िै सिापिण छन्दांिस, सिेिभरे िैनं छन्दोिभिश्चनुते। िष्मप ई िा एषां छन्दसां यदितछन्द समुर्दधाित िष्मविेनं समानानां करोित। (तैिर्त्रीय संिहता ५/३/८/९) ऄितछन्दो िै छन्दसामायतनम् (गोर्थ ब्राह्मण र्ूिप ५/४) ऄित िा एषा ऄन्यािन छन्दांिस यदितच्छन्दाः। (ताण्य महाब्राह्मण ५/२/११), एषा िै सिापिण छन्दांिस यदितच्छन्दाः। (शतर्थ ब्राह्मण ३/३/२/११), शरीराण्यितच्छन्दाः (जैिमनीय ब्राह्मण २/५८) छन्दसां िै यो रसोऽत्यक्षरत् सोऽितच्छन्द समः यत्यक्षरत्। तदितच्छन्दसोऽितच्छन्दत्स्िम्। (ऐतरे य ब्राह्मण ४/३) ऄनेक प्रकार के कृ ित छन्दों का िणपन महह्सष ििश्वदेि ने माध्यिन्दन संिहता (१४/९,१०,१२) में ह्लकया है। ईनमें समुि छन्द कह्ळ व्याख्या है-ऄनन्तािन िा ऄहोरात्रािण ऄनन्ताः िसकताः एिमुहास्यैता ऄहोरात्रैः सम्र्न्ना ऄन्यूना ऄनितह्ऱरक्ता ईर्िहता भििन्त। ऄथ कस्मात् समुह्लियं छन्दः आित? ऄनन्तो िै समुिः ऄनन्ता िह िसकताः, तस्मात् समुह्लियं छन्दः। (शतर्थ ब्राह्मण ७/२/३/३९) गायत्री के ििििध रूर्-(१) िैश्वानर ऄिग्न-शरीर का अकार ित्रर्ाद गायत्री के ८ ऄक्षरों के ऄनुसार ८ प्रादेश = ८ x १०.५ = ८४ ऄंगल ु है। (२) र्ाह्सथि गायत्री-ऄर्् के क्रमशः ८ रूर्ान्तर हैं-१. ऄर््, २. फे न, ३. उषः (क्षार), ४. िसकता (बालू), ५. शकप रा (रे त), ६. ऄश्मा (र्त्थर), ७. ऄयः (लौह), ८. िहरण्य (सुिणप) 45
(३) अह्लदत्य गायत्री-अह्लदत्य के ४ युग्म-िमत्र-िरुण, भग-ऄंश, धाता-ऄयपमा, सििता-िििस्िान्। (४) द्यौ गायत्री-द्यु लोक के ३ र्ाद-ज्योित, गौ, अयु-सभी ऄिाक्षर हैं। (५) सिापित्मका गायत्री-ऄिग्न के ८ रूर्-र्ृिथिी, ऄर््, ऄिग्न, िायु, ििद्युत्, सोम, रिि, अत्मा। (६) लोक गायत्री- ७ अरण्य र्शु, ७ ग्राम्य र्शु, ५ ईििज्ज, ५ जीि = कु ल २४ ऄंग। चतुष्र्ाद गायत्री के ऄनुसार िाक् , भू, शरीर, हृदय-ये ह्लकसी भी िर्ण्ड के ४ र्ाद हैं। (७) संित्सर-२४ र्क्ष गायत्री के २४ ऄक्षर हैं। र्ृिथिी, ऄन्तह्ऱरक्ष, द्यु-कह्ळ ८-८ ह्लदशायें भी गायत्री हैं। (८) लोक-मनुष्य से बिे मण्डल-र्ृिथिी, सौरमण्डल, ब्रह्माण्ड, स्ियम्भू-क्रमशः कोह्ऱट (१०७) ऄथापत् २२४ (गायत्री) गुणा बिे हैं। ऄिग्निव गायत्री (शतर्थ ब्राह्मण ३/४/१/१९, ६/६/२/७)। आन्ििस्त्रिु र्् (शतर्थ ब्राह्मण ६/६/२/७) अह्लदत्या जगती सम्भरन् (जैिमनीय ब्राह्मण ईर्िनषद् १/१८/६)गायत्रो िै ब्राह्मणः त्रैिुभो िै राजन्यः जागतो िै िैश्यः। (ऐतरे य ब्राह्मण१/२८) त्रीिण छन्दांिस कियो िियेितरे , र्ुरुरूर्ं दशपनं ििश्वचक्षणम्। अर्ो िाता ओषधयस्तान्येकिस्मन् भुिन ऄह्सर्तािन॥ (ऄथिप संिहता १८/१/१७) ऄयमिग्नः िैश्वानरः योऽयम् ऄन्तः र्ुरुषे ... (शतर्थ ब्राह्मण १४/८/१०/१) स च सः िैश्वानरः, आमे स लोकाः, आयमेि र्ृिथिी ििश्वम्, ऄिग्नः नरः ऄन्तह्ऱरक्षमेि ििश्वं, िायुः नरः, द्यौरे ि ििश्वम् अह्लदत्यः नरः। (शतर्थ ब्राह्मण ९/३/१/३) प्रादेशमात्रं हीम अत्मनोऽिभ प्राणाः। (कौषीतह्लक ब्राह्मण ईर्िनषद् २/२) गायत्री िा आयं र्ृिथिी। (शतर्थ ब्राह्मण ४/३/४/९) तद् यद् ऄसृज्यत ऄक्षरत् तत् यद् ऄक्षरत् तस्मादक्षरम्, यदिकृ त्िः ऄक्षरत् सैि ऄिाक्षरा गायत्री ऄभित्। (शतर्थ ब्राह्मण ४/३/४/१७) ऄिौ र्ुत्रासो ऄह्लदतेये जातास्तन्िं र्ह्ऱर देिा ईर् प्रैत् सप्तिभः र्रा मार्त्ापण्ड मास्यत्। (ऊक् १०/२/८) ताननुक्रिमष्यामो िमत्रश्च िरुणश्च, धाताचायपमा च, ऄंशश्च भगश्च, िििस्िानाह्लदत्यश्च। (तैिर्त्रीय अरण्यक १/१३/३) ज्योितगौरायुह्ऱरित त्र्यहो भिित, आयं िाि ज्योित, ऄन्तह्ऱरक्षं गौः, ऄसौ अयुः। (तैिर्त्रीय संिहता ७/३/६/३) ऄिग्नश्च र्ृिथिी च िायुश्चान्तह्ऱरक्षं चाह्लदत्याश्च, द्यौश्च चन्िमाश्च नक्षत्रािण चैते िसिः। (शतर्थ ब्राह्मण ११/६/३/६) लोक गायत्री-ििििधानीह भूतािन चरािण स्थािरािण च। चराणां ित्रििधा योिनः ऄण्ड स्िेद जरायुजाः॥१०॥ जरायुजानां प्रिरा मानिाः र्शिश्च ये॥११॥ नाना रूर् धरा राजिँस्तेषां भेदाश्चतुदश प । िेदोक्ताः र्ृिथिीर्ाल येषु यज्ञाः प्रितिष्ठताः॥१२॥ ईििज्जाः स्थािराः प्रोक्ताः तेषां र्ञ्चैि जातयः॥१४॥ तेषां ह्ऴिसितरे कोना महाभूतेषु र्ञ्चक। चतुर्विशितरुह्लर्द्िा गायत्री लोकसम्मता॥१५॥ (महाभारत, भीष्म र्िप, ऄध्याय ४) चतुर्विशित गायत्र्या ऄक्षरािण, चतुर्विशित संित्सरस्याधपमासाः॥ (काठक संिहता १०/७) रािश-ह्लकसी घटना, िस्तु या अकृ ित के गुण को रािश कहा जाता है। ििशेष रूर् से ईनके र्ह्ऱरभािषत या मार् योग्य गुण हैं। जैसे र्दाथप कह्ळ मात्रा या ििद्युत् अिेश रािश हैं। चन्िमा कह्ळ मात्रा या प्रोटोन के अिेश कह्ळ मार् रािश कह्ळ मार् है। भौितक रािश िह रािश है िजसे ििज्ञान और यािन्त्रकह्ळ के गिणतीय समीकरणों में व्यिहार ह्लकया जाता है। आकाइ िह भौितक रािश है जो व्यिहार में र्ह्ऱरभािषत तथा स्िीकृ त है, तथा ईसकह्ळ तुलना िारा ईसी प्रकार कह्ळ ऄन्य भौितक रािशयों कह्ळ मार् होती है। भौितक रािश कह्ळ मार् एक संख्या तथा आकाइ का गुणनफल है। यह संख्या ईसका सांिख्यक मान है जो आकाइ के व्यिहार र्र िनभपर है। जैसे ह्लकसी मनुष्य कह्ळ ईं चाइ १.६७ मीटर, १६७ सेण्टीमीटर, ५ फु ट ६ आं च, या १ गज २.५ फु ट है। मूल आकाइ तथा व्युत्र्न्न आकाइ-यािन्त्रकह्ळ में ३ प्रकार कह्ळ रािशयों के मार् िारा सभी आकाआयां मार्ी जा सकती हैं। व्यिहार में लम्बाइ, मात्रा, समय कह्ळ आकाआयों को मूल आकाइ मानना सुििधाजनक है, बाकह्ळ आकाआयां आनके िििभन्न घातों 46
के गुणनफल हैं। १९०१ में िजयोगी ने प्रमािणत ह्लकया ह्लक आनके साथ एक ििद्युतीय आकाइ (जैसे ििद्युत् अिेश=कू लम्ब, Coulumb धारा-ऄिम्र्यर Ampier, या प्रितरोध-ओम Ohm) िमलाकर सभी ििद्युत्-चुम्बकह्ळय आकाआयों कह्ळ भी मार् कह्ळ जा सकती है। आसके ऄितह्ऱरक्त ििद्युत् तथा चुम्बकह्ळय गुणों का र्रस्र्र सम्बन्ध ह्लदखाने के िलये अकाश के मूलभूत गुण से सम्बिन्धत एक आकाइ ली जाती है-जैसे प्रकाश कह्ळ गित, अकाश का माध्यम गुण अह्लद। ऄतः सांख्य दशपन के ५ तन्मात्राओं (तत् = िह, मात्रा = मार्) के समान ५ मूल आकाआयां र्यापप्त होती हैं। व्यिहार में ऄनेक प्रकार कह्ळ आकाआयों का प्रयोग होता है(१) प्रामािणक मार्दण्ड सब जगह सब समय सुलभ और स्थायी हो। (२) मार् कह्ळ र्द्धित सुलभ और सूक्ष्म हो। (३) ऄलग प्रकार के प्रयोगों के िलये ऄलग र्ह्ऱरभाषा और मार्दण्ड। (४) सहज तुलना के िलये छोटी संख्या का प्रयोग हो..... अह्लद। ऄतः व्यिहार में ऄन्तारािष्ट्रय संस्था (SI) ने ७ मूल और २ ऄितह्ऱरक्त आकाआयां स्िीकृ त कह्ळ हैंलम्बाइ-मीटर, मात्रा-ह्लकलोग्राम, समय-सेकण्ड, ििद्युत् धारा-ऄम्र्ीयर, तार्क्रम-के िल्िन या सेिल्सयस, र्दाथप कह्ळ मार्मोल (ऄणु कण) । ऄितह्ऱरक्त-कोण-रे िडयन, अकाश कोन-स्टेरेिडयन। मार् कह्ळ आकाआयों के बिे और छोटे मानों के िलये हजार के ऄनुर्ात में १०-२४ से १०२४ तक के ईर्सगप प्रयुक्त होते हैं। आनके नाम तथा ऄंग्रेजी संकेत ह्लदये जा रहे हैं। Factor-Prefix-Symbol Factor-Prefix-Symbol 1024 yotta- Yयोटा
10-24 yocto- y योक्टो
1021 zetta- Z ज़ेटा
10-21 zepto- z ज़े्टो
1018 exa- E एक्सा
10-18 atto- a ऄट्टो
1015 peta- P र्ेटा 1012 tera- T टेरा
10-15 femto- f फे म्टो 10-12 pico- p िर्को
109 giga- G गीगा
10-9 nano- n नानो
106 mega- M मेगा
10-6 micro- μमाआक्रो(म्यू)
103 kilo- k ह्लकलो
10-3 milli- m िमली
102 hecto- h हेक्टो
10-2 centi- c सेण्टी
101 deka- da डेका
10-1 deci- d डेसी
मार् के ऄनुसार मा छन्दों का िगीकरण कइ प्रकार से हो सकता है(१) मा-सांिख्यक मार्। प्रमा-मानदण्ड, आकाइ। प्रितमा-िस्तु कह्ळ मार्। ऄस्रीिय-मार् के िलये प्रयोग। (२) मा = मात्रा, प्रमा = समय, प्रितमा = लम्बाइ, ऄस्रीिय = ििद्युतीय आकाइ, ह्लदशा। (३) मा-मूल आकाइ। प्रमा-ईर्सगप सिहत बिा या छोटा मार्दण्ड। प्रितमा-मार्दण्ड। ऄस्रीिय-िििभन्न मूल आकाआयों कॆ गुणन। अधुिनक आकाआयां भारतीय ज्योितष कह्ळ आकाआयों को समझने के र्हले अधुिनक युग कह्ळ आकाआयां समझना जरूरी है। ििज्ञान कह्ळ मार् र्द्धितयों तथा ज्ञान के ििकास से आनका सम्बन्ध है।
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लम्बाइ कह्ळ अधुिनक आकाआयां-(१) जब र्ृथ्िी कह्ळ सही मार् नहीं हुयी थी तब मनुष्य शरीर कह्ळ मार् ही सुििधाजनक आकाइ थी। मनुष्य के र्द या र्द-त्राण (जूता, युतः-यह शरीर से युत होता है, च्र्ल चर्लता से िनकल जाता है) कह्ळ मार् को फु ट (Foot = र्ैर) कहा गया। १ फु ट (Foot, Feet plural) = १२ आञ्च (३०.४८ सेण्टीमीटर)। ३ फु ट = १ गज (yard)। गज का ऄथप हाथी या मार्दण्ड दोनों होता है। २ गज = फै दम (ऄर्ने शरीर से मार्ना, Fathom) आसे भारत में र्ुरुष (र्ोरसा) कहा गया है जो हाथ उर्र करने र्र सामान्य मनुष्य कह्ळ ईच्चता होती है। २२० गज = फलांग (Furlong) मनुष्य तेजी से (फरापटा = sprint) आतनी दूरी तय कर सकता है। ८ फलांग = १ मील (१.६०८ ह्लकलोमीटर) (२) सामुह्लिक मील-र्ृथ्िी कह्ळ ध्रुिीय र्ह्ऱरिध का १ कला कोण ऄथापत् ३६० x ६० भाग = १८५२ मीटर या ६०७६.११५ फह्ळट। ऄक्षांश देशान्तर कह्ळ सही िििध जानने के बाद आस आकाइ का प्रयोग हुअ-आसके िलये कोण तथा समय कह्ळ सूक्ष्म मार् अिश्यक है। यह समुिी यात्रा में मार् के िलये ईर्योगी है। (३) मीटर कह्ळ ४ र्ह्ऱरभाषायें-१ सेकण्ड के ऄद्धप-चक्र िाले दोलक (र्ेण्डु लम, ) कह्ळ लम्बाइ। यह र्ृथ्िी के अकषपण के साथ बदलता है, तथा सेकण्ड कह्ळ सही मार् र्र िनभपर है। दूसरी र्ह्ऱरभाषा दी गयी-र्ृथ्िी कह्ळ ध्रुिीय र्ह्ऱरिध-र्ाद का कोह्ऱट भाग। बाद में ऄिधक सूक्ष्म गणना से र्ता लगा ह्लक यह मार्दण्ड आस र्ह्ऱरभाषा से १/५ िमलीमीटर छोटा है, र्र आसका प्रयोग अरम्भ हो गया था, ऄतः आसी को १८८९ आस्िी में मीटर मान िलया गया। ह्लकसी भी धातु छि कह्ळ लम्बाइ तार्क्रम के ऄनुसार घटती बढ़ती है, ऄतः १९२७ में ्लैह्ऱटनम-आरीिडयम िमश्रधातु कह्ळ छि बनायी गयी, िजसकह्ळ लम्बाइ में तार्क्रम के कारण बहुत कम र्ह्ऱरितपन होता है। आस धातु कह्ळ छि र्र ०० तार्क्रम र्र २ िचह्न ह्लदये गये िजनके बीच कह्ळ दूरी को मीटर कहा गया। जब प्रकाश के तरं ग दैर्घयप कह्ळ सूक्ष्म मार् होने लगी, तब १९६० में ह्लक्र्टन के ८६ भारिाले ऄणु के २-र्ी १) से (५-डी-५) िस्थितयों के बीच आलेक्रन के स्थानान्तर से ईत्र्न्न प्रकाश के तरं ग दैर्घयप का १६,५०,७८३.७३ गुणा को मीटर कहा गया। बाद में प्रकाश कह्ळ शून्य में गित कह्ळ मार् भी मीटर तक शुद्ध होने लगी तथा र्रमाणु घिी से समय कह्ळ भी ईतनी सूक्ष्म मार् सम्भि हुयी िजससे १ मीटर में प्रकाश गित के समय कह्ळ मार् हो सके तो प्रकाश गित िारा आसकह्ळ र्ह्ऱरभाषा दी गयी। १९८३ से मीटर कह्ळ र्ह्ऱरभाषा है शून्य अकाश में सेकण्ड के २९,९७,९२,४५८ भाग में प्रकाश िारा तय कह्ळ गयी दूरी। (४) ज्योितषीय आकाइ-सूयप के न्ि से र्ृथ्िी के न्ि कह्ळ मध्यम दूरी = ऄ = १.४९६ x १०११ मीटर। आस दूरी िारा िजतनी दूरी र्र १ सेकण्ड का कोण बनता है, ईसे र्रसेक कहते हैं। १ र्रसेक = ३.०८५६ x १०१६ मीटर। बिे मार् के िलये ह्लकलो (१०३) तथा मेगा (१०६) र्रसेक का प्रयोग होता है। १ िषप (ऊतु िषप = Tropical year) में प्रकाश िारा तय कह्ळ गयी दूरी को प्रकाश िषप (Light year, Ly) कहा जाता है। १ प्रकाश िषप = ९.४६०५ x १०१५ मीटर। १ र्रसेक = ३.२६ प्रकाश िषप। समय कह्ळ मार्-ज्योितष में सदा मध्यम सौर ह्लदन को समय कह्ळ आकाइ माना गया है। आस में २४ घण्टा, १ घण्टा में ६० िमनट, तथा १ िमनट में ६० सेकण्ड होते हैं। ऄथापत् १ मध्यम सौर ह्लदन का ८६४०० भाग को १ सेकण्ड कहते हैं। ह्लकसी भी स्थान र्र सूयप के ईच्चतम स्थान से र्ुनः ईस स्थान र्र अने का समय सौर ह्लदन है। भारत में प्रायः सूयोदय से अगामी सूयोदय तक का काल सौर ह्लदन कहलाता है। र्ृथ्िी कह्ळ कक्षा तथा घूणपन में दीघप ऄििध के कइ ऄिनयिमत र्ह्ऱरितपन होते हैं, तथा घूणन प धीमा हो रहा है। ऄतः १९०० इस्िी के सौर िषप को प्रामािणक माना गया। ऄणु के िनम्न कक्षा स्तरों के प्रकास कम्र्न कह्ळ सूक्ष्म मार् होने र्र १९६७ में समय कह्ळ नयी र्ह्ऱरभाषा बनी ह्लक १ सेकण्ड = सीिजयम-१३३ भार र्रमाणु के िनम्न स्तरों के बीच आलेक्रन र्ह्ऱरितपन से ईत्र्न्न प्रकाश के कम्र्न काल का ९,१९,२६,३१,७७० गुणा काल है। सीिजयम-१३३ का ही र्रमाणु घिियों में प्रयोग होता है। भौितक ििज्ञान कह्ळ मार् र्द्धित के िलये प्रामािणक र्ुस्तकें हैं48
(१) रे सिनक, हािलडे का - Fundamentals of physics- Asian Books (२) University physics- Sears, Zemansky (३) NIST (national Institute of Science and Technology) USA के प्रकाशन SP-330, Sp-811 िेब साआट - users.aol.com/jack proot/met/index. html. सप्त योजन ऊग्िेद के ऄस्यिामीय सूक्त में ’सप्त युञ्जिन्त’ का प्रयोग हैसप्तयुञ्जिन्त रथमेकचक्रमेको ऄश्वो िहित सप्तनामा। ित्रनािभचक्रमजरमनिं यत्रेमा ििश्वा भुिनािन तस्थुः। (ऊक् १/१६४/२) ईसी सूक्त में तथा ऄन्य कइ स्थानों र्र ७ छन्दों िारा िाक् (शब्द या शब्द िारा व्याप्त अकाश) कह्ळ मार् का ईल्लेख है। युज् या युिजर् (योग ऄथप में-र्ािणिन धातुर्ाठ ७/७) से आस शब्द कह्ळ ब्युत्र्िर्त् है। कमपिण कृ त्यल्युटो (३/३/११३) से युिजर् + ल्युट् = योजन (जोिना) । ह्लकसी र्दाथप या अकाश के ििस्तार को मार्दण्ड से जोि कर मार्ते हैं, या प्रकाश गित से तुलना कर मार्ते हैं, ऄतः योजन कहा जाता है। युग भी आसी धातु से बना है-युज् + घञ् =युग। ऄन्य रूर् युग्म या युगर्त् का ऄथप २ है, युग के ४ र्ादों के ऄनुसार युग शब्द ज्योितष में ४ ऄथप में िलखा जाता है। ७ प्रकार के योजनों के समान ७ प्रकार के युग भी हैं, यह २ काल-चक्रों का समन्िय है। ९ प्रकार के कालमानों से ७ प्रकार के युग होंगे। ऄभी ७ प्रकार के योजन का िगीकरण ह्लदया जाता है। व्यिहार के ईर्द्ेश्य के िलये ७ प्रकार के योजन होंगे। र्र एक ही देश में एक ही समय २ प्रकार के योजन या ह्लकसी भी ऄन्य मार् का व्यिहार नहीं हो सकता है। आससे व्यार्ार या कोइ भी काम नहीं चल सकता। ऄतः योजन, भार अह्लद कह्ळ िहन्दू, िैह्लदक, जैन या बौद्ध आकाआयों में िगीकरण भ्रामक है। (१) नर योजन-गिणत ज्योितष के व्याख्याकारों ने २ प्रकार के योजनों कह्ळ चचाप कह्ळ है-अयपभट योजन तथा भास्कर या िसद्धान्त योजन। अयपभटीय में फृ थ्िी का व्यास १०५० योजन तथा भास्कर-२ के िसद्धान्त िशरोमिण या सूयप िसद्धान्त में १६०० योजन माना गया है। ऄथापत् योजन र्ृथ्िी व्यास का ईतना भाग है। लेखक के नाम र्र योजन का यह िगीकरण भ्रामक है क्योंह्लक एक ही लेखक भास्कराचायप-२ ने ऄर्ने २ ग्रन्थों में २ प्रकार का योजन व्यिहार ह्लकया है। िसद्धान्त िशरोमिण में ५००० योजन कह्ळ र्ह्ऱरिध या १५८१ योजन व्यास र्ृथ्िी का माना गया है। र्ृथ्िी व्यास (ििषुि) = १२७५६.८० ह्लक.मी. = सूयप िसद्धान्त का १६०० योजन (सूयप िसद्धान्त, प्रथम ऄध्याय, महािीर प्रसाद का ििज्ञान भाष्य देख सकते हैं) र्ृथ्िी को सहस्र-दल र्द्म (र्द्म = र्द रखने का अधार, अकाश में सृिि का ऄिन्तम क्रम) कहा गया है। प्रत्येक दल (व्यास का भाग) १ योजन है, ऄतः यह बहु-योजन ििस्तृत कहा गया हैतिस्मन् िहरण्मये र्द्मे बहु योजन ििस्तृते। सिप तेजो गुणमये र्ाह्सथिैलपक्षणैिृपते। तच्च र्द्म र्ुराभूतं र्ृिथिी रूर्मुर्त्मम्। नारायण समुद्भूतं प्रिदिन्त महषपयः॥ (र्द्मर्ुराण, सृिि खण्ड ४०/२-३) त्िामग्ने र्ुष्करादध्यथिाप िनरमन्थत। मूर्ध्नो ििश्वस्य िाधतः। तमुत्िा दध्यङ् ऊिष र्ुत्र इधे ऄथिपणः। िृत्रहणं र्ुरन्दरम्॥ (ऊक् ६/१६/१३-१४) = अकाश में ऄिग्न = ऄिग्र (स्रिा ब्रह्म) या सघन सृिि रूर् है। ििस्तृत र्दाथप जल है, ईससे िनगपत अकार युक्त िर्ण्ड र्ुष्कर है, जैसे जल से कमल िनकलता है। दध्यङ् (दिध के समान ठोस) ऄथिाप र्ृथ्िी है जो मानि सृिि का अधार (ऄथिाप) है। यह तथ्य बताने िाले ऊिष को भी दध्यङ् कहा गया तथा ईनके र्ुत्र ऄथिाप थे। ऄलग-ऄलग िृर्त् (सीमाओं) के भीतर र्ुरों कह्ळ रचना है, ऄथिा िृत्र ऄसुर के र्ुरों को आन्ि ने नि ह्लकया। 49
ऄतः, सूयप िसद्धान्त योजन = १२७५६.१८ /१६०० = ७.९७२७ ह्लक.मी. भास्कराचायप ने ५००० ह्लक.मी. र्ह्ऱरिध के िलये १५८१ (१५९१ होना चािहये) योजन व्यास िलया है। लीलािती, प्रथम ऄध्याय में ३२,००० हाथ का योजन कहा गया है। यह मनुष्य के काम अने िाला योजन है, आसके अधार र्र खेत, जमीन कह्ळ मार्-जोख कह्ळ जाती है। आसका मूल अधार ऄंगुल ऄर्ह्ऱरभािषत है। २४ ऄंगल ु का हाथ अजकल ४५ सें.मी. का माना जाता है। ऄतः १ ऄंगल ु = ४५/२४ = १.८७५ सें.मी.। आससे छोटी आकाइ िालाग्र (के श) कह्ळ मोटाइ) िा व्यिहार है तथा सबसे छोटे दृश्यकण को त्रसरे णु कहा गया है। मानक्रम में सबसे छोटा मान र्रमाणु कहा गया है, ऄथिा र्रमाणु कह्ळ मार् के िलये प्रयुक्त मान को भी र्रमाणु कहा है। िराहिमिहर कह्ळ बृहत् संिहता (५७/२) के ऄनुसार८ र्रमाणु = १ रज (मानसार के ऄनुसार रथरे ण)ु ८ रज = १ िालाग्र, ८ िालाग्र = १ िलक्षा, ८ िलक्षा = १ यि, ८ यि (मानसार में ४) = १ ऄंगुल, २४ ऄंगल ु = १ हस्त (१८ आं च) । ऄतः, िालाग्र = १.८७५/८४ = ४.५७८ x १०-४ सें.मी. या ४.५७८ माआक्रोन। र्रमाणु = ४.५७८ x १०-४ /८२ सें.मी. = ७.१५३ १०-६ सें.मी.। श्रीर्ित (गिणत ितलक, िसद्धान्त शेखर) के ऄनुसार यह िास्ति में सूयप प्रकाश में दीखने िाले धूिल कणों का अकार है। यह त्रसरे णु है, िजसमें अयुिेद के ऄनुसार ६० ऄणु हैं। ऄतः ऄणु का अकार = १.२ x १०-७ सें.मी. लिलतििस्तर के ऄनुसार, र्रमानु रज = १ ऄंगुल x ७-१० = ०.६ x १०-८ सें.मी, जो हाआड्रोजन र्रमाणु कह्ळ ित्रज्या है। ितलोय र्न्नित का त्रसरे णु = १ ऄंगल ु x ८-९ = १.४ x १०-८ सें.मी.। जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों कह्ळ आकाआयां सज्जन ह्ऴसह िलश्क कह्ळ र्ुस्तक जैन ऐस्रोनौमी-ऄह्ऱरहन्त प्रकाशन, र्ंजाबी बाग या मोतीलाल बनारसी दास, ह्लदल्ली से ईर्लब्ध। एक ही ब्रह्म का अकार बताने के िलये ऄंगष्ठ ु का व्यिहार है। र्ुरुष सूक्त में र्ुरुष-ऄंगल ु के ऄितह्ऱरक्त भूिम (र्ृथ्िी, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड अह्लद मण्डलों) कह्ळ मार् को भी ऄंगल ु कहा गया हैसहस्रशीषाप र्ुरुषः सहसाक्षः सहस्रर्ात्। स भूह्ऴम ििश्वतो िृत्िात्यिर्त्ष्ठर्द्शाङ्गुलम्॥ (ऊग्िेद १०/१९०/१) भूिम = भू (क से २४िां ऄक्षर, २४ भाग या प्रकृ ित के २४ तत्त्ि) + िम (२५ िां ऄक्षर, २५िां भाग या सांख्य का र्ुरुष तत्त्ि)। र्ृथ्िी के प्रसंग में भू या र्ृथ्िी कह्ळ ित्रज्या का २४ भाग करने र्र १ भाग िायु-मण्डल कह्ळ ईं चाइ होगी। र्ुरुष के सहस्र शीषप होने र्र २-२००० अंख, र्ैर होंगे। ऄंगल ु मार् में यह िायुमण्डल सिहत र्ृथ्िी कह्ळ र्ह्ऱरिध होगी। ऄतः, भू-र्ह्ऱरिध = २४/२५ x १००० x २००० x २००० ऄंगल ु = २४/२५ x १/९६ ४ x १०९ दण्ड (१ दण्ड = ९६ ऄंगुल, हाथ उर्र करने र्र मनुष्य कह्ळ ईं चाइ) = ४ x १०७ (४ कोह्ऱट) दण्ड। मीटर कह्ळ मूल र्ह्ऱरभाषा के ऄनुसार र्ृथ्िी कह्ळ ध्रुिीय र्ह्ऱरिध भी ४ कोह्ऱट मीटर है। ऄतः यहां दण्ड = मीटर। (२) भू योजन- र्ृथ्िी कह्ळ मार् के िलये नौह्ऱटकल मील कह्ळ तरह र्ृथ्िी के व्यास या र्ह्ऱरिध के खण्डों के ऄनुसार योजन का मान है-सूयप िसद्धान्त (१/५९) व्यास = १६०० योजन। र्ञ्चिसद्धािन्तका (१/१८) र्ह्ऱरिध = ३२०० योजन। 50
अयपभटीय (१/१०) तथा लल्ल का िशष्यधीिृिद्धद तन्त्र (१/४३) -व्यास =१०५० योजन। िसद्धान्त िशरोमिण, गोलाध्याय, भुिनकोष ५२- व्यास = १५८१ + १/२४ योजन, र्ह्ऱरिध = ४९६७ योजन। र्ुराणों में प्रूथ्िी को सहस्र-दल-र्द्म कहा गया है, ऄथापत् योजन कह्ळ र्ह्ऱरभाषा है र्ृथ्िी व्यास का १००० भाग। िायुमण्डल िमलाने र्र यह अयपभट के समान होगा। आसमें १ योजन = १२.७५६२८ ह्लक.मी.। भागित र्ुराण, र्ञ्चम स्कन्ध में यूरेनस तक कह्ळ ग्रह कक्षा को ५० कोह्ऱट योजन ििस्तार (व्यास) कह्ळ चक्राकार र्ृिथिी कहा गया है। आसके मण्डलों का ििस्तार १००० योजनों में आस प्रकार हैक्रम ित्रज्या चौिाइ १.
५०
५०
नाम जम्बूिीर्
क्रम ित्रज्या चौिाइ
नाम
१०. ६,१५० १,६०० क्षीरसागर
२. १५०
१०० लिणसमुि
११. ९,३५० ३,२०० शकिीर्
३. ३५०
२०० ्लक्ष िीर्
१२. १२,५५० ३,२०० दिधसमुि
४. ५५०
२०० आक्षुरससागर
१३. १५,७५० ३,२०० मानसोर्त्र र्िपत
५. ९५०
४०० शाल्मली िीर्
१४. १८,९५० ३,२०० र्ुष्कर िीर्
६. १,३५०
४०० मद्य समुि
१५. २५,३५० ६,४०० मधुरजल समुि
७. २,१५०
८०० कु श िीर्
१६. ४१,१०० १५,७५० जनस्थान
८. २,९५०
८०० घृतसमुि
१७. १,२५,००० ८३,९०० िहरण्य िषप
९. ४,५५० १,६०० क्रौञ्च िीर्
१८. २,५०,००० १,२५,०० अलोक िषप
51
आसमें जम्बू िीर् र्ृथ्िी का अकषपण क्षेत्र है, िजसमें प्रायः ३०,००० योजन ित्रज्या कह्ळ कक्षा में चन्िमा है। (औसत दूरी ३,८४,००० ह्लक.मी.) । जम्बू िीर् का ऄक्ष (र्ृथ्िी का घूणपन ऄक्ष) ही अकाश में १ लाख योजन का मेरु र्िपत है। यह िहमालय जैसा भौितक र्िपत नहीं है, ऄतः आन दोनों को गीता के ििभूित-योग िणपन में ऄलग-ऄलग श्रेणी माना गया है। (िसूनां र्ािकश्चािस्म मेरुः िशखह्ऱरणामहम्, १०/२३, यज्ञानां जर्यज्ञोऽिस्म स्थािराणां िहमालयः, १०/२५) । जम्बूिीर् के बाद कु ष िीर् को िराह क्षेत्र कहा गया िजसकह्ळ ित्रज्या र्ृथ्िी कह्ळ ४००० गुणी (र्ृथ्िी-शुक्र कक्षाओं के ऄन्तर का ६०% भाग) है। आस क्षेत्र के फै ले र्दाथप के घनीभूत होने से र्ृथ्िी कह्ळ ईत्र्िर्त् हुइ है। मूल क्षेत्र जल है, िनह्समत िर्ण्ड र्ृथ्िी है, तथा बीच का र्दाथप मेघ (जल+िायु) या िराह (जल-स्थल का जीि) है। ऄन्य बाहरी क्षेत्र ग्रह-कक्षाओं से बने हैं जैसा र्ृथ्िी से दीखता है। यह िलयाकार दीखेगा, िजसकह्ळ भीतरी ित्रज्या = सूयप (र्ृथ्िी) कक्षा कह्ळ ित्रज्या तथा ईस ग्रहकक्षा कह्ळ ित्रज्या का ऄन्तर होगा। यहां ग्रह कक्षाओं को र्ूणप िृर्त् माना गया है। िलय कह्ळ बाहरी ित्रज्या र्ृथ्िी तथा ईस ग्रह के कक्षाओं कह्ळ ित्रज्या का योग होगा। आस कारण र्ुराणों में सभी िीर् िलयाकार कहे गये हैं, जो र्ृथ्िी सतह र्र नहीं हैं। र्ृथ्िी अह्लद ठोस ग्रहों को दिध कहा गया है। ऄतः सूयप का र्ह्ऱरभ्रमण क्षेत्र दिध समुि कहा गया है। १ योजन = ८.५७५ मील मानकर िीर् िलयों का अकार र्ुराण तथा अधुिनक मानों से (३१०१ इ.र्ू. के िलये) आस प्रकार होंगे (१००० योजनों में) -
52
संख्या-ग्रह-ििन्दु
ित्रज्या
िीर् ित्रज्या ऄशुिद्ध% क्षेत्र नाम
१. बुध िनकट
५,९७६.०
६,१५०
२.९
क्षीरसागर
२. बुध दूर
१५,७०१.१ १५,७५०
०.३ मानसोर्त्र र्िपत
३. शुक्र िनकट
२,८५१.०
२,९५०
३.५ घृतसागर
४. शुक्र दूर
१८,८१३.०
१८,९५०
०.७ र्ुष्कर िीर्
५. मंगल िनकट
४,०९०.०
४,५५०
११.२ क्रौञ्च िीर्
६. मंगल दूर
२५,७३६,५
२५,३५०
-१.५ जल समुि
७. गुरु िनकट
४३,४२२.८
४१,१००
-५.३
८. शिन दूर
१,२१,५९९.६ १,२५,००० २.८ िहरण्य िषप
९. सूयप मध्यम
१०,८४०.४
१०,९५०
१.० दिध समुि का मध्य
१०. िसह्ऱरस* िनकट १६,३१२.८
१५,७५०
-३.४ मानसोर्त्र र्िपत
११. िसह्ऱरस* दूर
४१,१००
-३.७ जनस्थान
४२,६८३.२
१२. यूरेनस दूर २,२९,८११.० २,५०,०००
जनस्थान
८.८ अलोकिषप
* िसह्ऱरस-मंगल तथा बृहस्र्ित के बीच ऄिान्तर ग्रहों में मुख्य है। ईसकह्ळ कक्षा का अकार २००० इ. कह्ळ गणना के अधार र्र है। ये गणनायें स्िायम्भुि मनु के र्ुत्र िप्रयव्रत (प्रायः २९,००० इसा र्ूिप) िारा कह्ळ गयीं थीं। र्रमेष्ठी में २ प्रकार के ऄन्तह्ऱरक्ष हैं-महलोक (सर्ापकार भुजा का िह क्षेत्र जहां सूयप िस्थत है, सूयप के चारों तरफ भुजा का चौिाइ का गोला)। िनकट का ऄन्तह्ऱरक्ष (या व्रत) िप्रयव्रत सौर-मण्डल में है, जो अलोक भाग में यूरेनस तक के ग्रहों कह्ळ कक्षा है। ितस्रो भूमीधापरयन् त्रीरुतद्यून् त्रीिण व्रता ििदथे ऄन्तरे षाम्। ऊतेनाह्लदत्या मिह िो मिहत्िं तदयपमन् िरुण िमत्र चारु॥ (ऊक् २/२७/८) ये ग्रह सम-गित (समजि) िारा प्रकाश करते हैं, तथा आनके िर्ण्ड रूर्ी रथ के भ्रमण से िलयाकार क्षेत्र बने हैं, िजनके नाम र्ृथ्िी के िीर्ों के समान हैं। िीर्-िलयों का र्रस्र्र २ गुणा अकार का ऄथप िही है जो अजकल बोड िनयम कहा जाता हैभागित र्ुराण (५/१)-भगिानिर् मनुना यथािदुर्किल्र्तार्िचितः िप्रयव्रत... ऄिभसमीक्ष्य प्रितपयन्नगमत्॥२१॥ समजिेन रथेन ज्योितमपयेन रजनीमिर् ह्लदनं कह्ऱरष्यामीित सप्तकृ त्िस्तरिणमनुर्यपक्रमाद् िितीय आि र्तङ्गः॥३०॥ ये िा ई ह तिथ चरणनेिमकृ त र्ह्ऱरखातास्ते सप्त िसन्धि असन् यत एि कृ ताः सप्त भुिो िीर्ाः॥३१॥ जम्बू-्लक्ष-शाल्मिल-कु श-क्रौञ्चशाक-र्ुष्कर संज्ञास्तेषां र्ह्ऱरमाणं र्ूिपस्मात्र्ूिपस्मादुर्त्र ईर्त्रो यथासंख्यं ििगुणमानेन बिहः समन्तत ईर्क्लृप्ताः॥३२॥ बोड िनयम को बोड-ह्ऱटह्ऱटयस िनयम भी कहा जाता है। आसका प्रथम ईल्लेख डेििड ग्रेगरी ने १७१५ में ऄर्नी ज्योितष र्ुस्तक में ह्लकया था-सूयप से र्ृथ्िी कह्ळ दूरी का १० भाग करने र्र ऄन्य ग्रहों कह्ळ दूरी होगी-बुध-४, शुक्र ७, मंगल १५, गुरु ५२, शिन ९६। १७२४ में ह्लक्रिश्चयन िुल्फ ने भी प्रायः यही िलखा। १७६४ में चाल्सप बोनेट ने प्राकृ ितक िनयमों कह्ळ र्ुस्तक िलखी, ईसके १७६६ ऄनुिाद कह्ळ ह्ऱट्र्णी में जोहान डेिनयल ह्ऱटह्ऱटयस ने यह मन्तव्य ह्लदया था-सूयप से शिन कह्ळ दूरी का १०० भाग करने र्र, बुध ४, शुक्र ४+३ = ७ भाग, र्ृथ्िी ४+६ =१०, मंगल ४+१२ = १६ है-४ में ०, ३, ६, १२ जोिते हैं। र्र मंगल, गुरु के बीच यह क्रम टू ट जाता है, जहां ४+२४ भाग दूरी र्र एक ग्रह होना चािहये। यहां ऄिान्तर ग्रह हैं जो मूल ग्रह के टू टे हुये भाग माने जाते हैं, सम्भितः गुरु के अकषपण के कारण। आस क्रम में गुरु ४+४८ तथा शिन ४+९६ भाग दूर होगा (शिन कह्ळ दूरी का ही १०० भाग ह्लकया गया है) । १७७२ में जोहान एलटप बोड ने २५ िषप कह्ळ अयु में ऄर्नी र्ुस्तक में यही ह्ऱट्र्णी दी थी िजसे बाद के संस्करण में ह्ऱटह्ऱटयस का कहा गया। आस िनयम का संशोिधत िनयम है53
सूयप से र्ृथ्िी कह्ळ दूरी (दीघपिृर्त् कक्षा का दीघप ऄक्ष, Major axis) के १० भाग करने र्र ग्रहों कह्ळ कक्षा का दीघप ऄक्ष ऄ = ४ + क, जहां क = ०, ३, ६, १२, २४, ४८, ९६.. है। ३ के बाद कह्ळ प्रत्येक संख्या र्हले से २ गुणी है। आसी प्रकार िीर्ों के बाहर समुिों का ििस्तार क्रमसः २-२ गुणा कहा गया है। आस संख्या में १० से भाग देने र्र यह दूरी ज्योितषीय आकाइ = र्ृथ्िी का दीघप ऄक्ष (AU=Astronomical unit) में होगी, क्योंह्लक र्ृथ्िी का दीघप ऄक्ष १० माना गया था। ऄ = ०.४ + ०.३ २ ख, जहां ख = - ∞, ०, १, २, ....। आस िनयम से यूरेनस तक कह्ळ दूरी प्रायः ठीक मानी जाती है, जहां तक लोक (५० कोह्ऱट योजन व्यास का प्रकािशत भाग) माना गया है, तथा िहां तक सौर िायु है। नेर्चून में २९% कह्ळ भूल है-िह ऄलोक (ऄन्धकार) भाग में है। ्लूटो में ९६% कह्ळ भूल है, िजसे भागित में बालिखल्य माना है। ईसे २००८ में ग्रह सूची से िनकाल ह्लदया गया है। ग्रह
ख
बोड िनयमसे दूरी िास्तििक दूरी ऄशुिद्ध%
बुध
०
०.४
०.३९
२.५६
शुक्र
१
०.७
०.७२
२.७८
र्ृथ्िी
२
१.०
१.००
०.००
मंगल
४
१.६
१.५२
५.२६
िसह्ऱरस ८
२.८
२.७७
१.०८
गुरु
१६
५.२
५.२०
०.००
शिन
३२
१०.०
९.५४
४.८२
यूरेनस
६४
१९.६
१९.२
२.०८
नेर्चून १२८ ३८.८
३०.०६
२९.०८
्लूटो
३९.४४
९५.७५
२५६ ७७.२
(ह्ऱट्र्णी-िसह्ऱरस १८०१ -१८८० तक, ्लूटो को १९३० से २००८ तक ग्रह माना जाता था) अकाशगंगा को र्रा लोक या र्रमेष्ठी कहा गया है। यह िर्ता सूयप का िर्ता होने से िर्तामह है। र्रा का ऄथप १०१७ होता है। ऄतः यह र्ृथ्िी व्यास का १०१४ गुणा या प्रायः १.२७५६ x १०१८ ह्लक.मी. या १,३०,००० प्रकाश िषप है (अधुिनक ऄनुमान १,००,००० प्रकाश िषप)। आसका १० गुणा क्षेत्र कू मप कहा गया है, िजसे अजकल अकाशगंगा का अभामण्डल कहते हैं। ब्रह्मिैिर्त्प र्ुराण, प्रकृ ित खण्ड, ऄध्याय ३ के ऄनुसार यह िनत्य गोलोक है िजसमें ब्रह्माण्ड रूर्ी ििराट् बालक का जन्म होता है। यह सृिि कमप करता है, ऄतः कू मप है। सूयप िसद्धान्त (१२)- भिेद ् भकक्षा ितग्मांशो भ्रपमणं षिितािडतम्। सिोर्ह्ऱरिाद् भ्रमित योजनैस्तैभपमण्डलम्॥८०॥ ख-व्योम-खत्रय-ख-सागर-षट्क-नाग-व्योमा-ि-शून्य-यम-रूर्-नगा-ि-चन्िाः। ब्रह्माण्ड संर्ुटर्ह्ऱरभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा ह्लदनकरस्य करप्रसाराः॥९०॥ ब्रह्मिैितप र्ुराण, प्रकृ ित खण्ड, ऄध्याय ३-ऄथाण्डं तु जलेऽितिद्याििै ब्रह्मणो ियः॥१॥ तन्मध्ये िशशुरेकश्च शतकोह्ऱटरििप्रभः॥२॥ स्थूलात्स्थूलतमः सोऽिर् नाम्ना देिो महाििराट् ॥४॥ तत उध्िे च िैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बिहरे ि सः॥९॥ तदूध्िे गोलकश्चैि र्ञ्चाशत् कोह्ऱटयोजनात्॥१०॥िनत्यौ गोलोक िैकुण्ठौसत्यौ शश्वदकृ ित्रमौ॥१६॥ शतर्थ ब्राह्मण (७/५/१/५)-स यत्कू मो नामा एतिै रूर्ं कृ त्िा प्रजार्ितः प्रजा ऄसृजत, यदसृजत ऄकरोत्-तद् यद् ऄकरोत् तस्मात् कू मपः॥
54
नरर्ित जयचयाप, स्िरोदय (कू मप-चक्र)-मानेन तस्य कू मपस्य कथयािम प्रयत्नतः। शङ्कोः शतसहस्रािण योजनािन िर्ुः िस्थतम्॥ ताण्य महाब्राह्मण (११/१०) शङ्कु भित्यह्नो धृत्यै यिा ऄधृतं शङ्कु ना तर्द्ाधार॥११॥ तद् (शङ्कु साम) ईसीदिन्त आयिमत्यमाहुः॥१२॥ ऐतरे य ब्राह्मण (५/७)-यह्लदमान् लोकान् प्रजार्ितः सृष्ट्िेदं सिपमशक्नोद् तद् शक्वरीणां शक्वरीत्िम्॥ (३) भ योजन-र्ृथ्िी के ही अकषपण के न्ि में ही चन्ि है, ऄतः चन्ि कक्षा तक कह्ळ मार् भू-योजन में मानना ईिचत है। ह्लकन्तु सौर र्ह्ऱरिध कह्ळ मार् के िलये सौर व्यास और दूरी कह्ळ ितपमान मार्ों से तुलना कह्ळ जानी चािहये जैसे भू योजन के िलये करते हैं। सूयप व्यास = १३,९२,००० ह्लक.मी. = ६५०० योजन (सूयप िसद्धान्त ४/१) आस योजन का मान = १३,९२,०००/६५०० = २१४.१५३८ ह्लक.मी. यह सूयप िसद्धान्त के भू योजन से २६.८६ या प्रायः २७ गुणा बिा है, ऄतः आसे भ-योजन कहा गया है। भू = र्ृथ्िी = १, भ = नक्षत्र = २७। सूयप कक्षा = ४३,३१,५०० योजन (सूयप िसद्धान्त १२/८६) र्ह्ऱरिध ित्रज्या = १.४७ x १०८ ह्लक.मी. (अधुिनक मान १.५० x १०८ ह्लक.मी.) नक्षत्र कक्षा = सूयप कक्षा x ६० ( सूयप िसद्धान्त १२/८०) सभी ग्रहों कह्ळ कक्षा आसके भीतर ही है। अधुिनक ज्योितष के ऄनुसार नेर्चून सूयप से ३० गुणा दूरी र्र है तथा ्लूटो ३९ गुणा। ्लूटो चन्ि से भी बहुत छोटा है। ३६-४४ गुणा दूरी र्र १०० ह्लक.मी. से बिे अकार के प्रायः ७०,००० िर्ण्ड सूयप का चक्कर लगा रहे हैं। र्हली बार १९९२ में आनका र्ता चला। यह भागित र्ुराण का १०० कोह्ऱट योजन व्यास का ऄलोक भाग है (स्कन्ध ५) । सूयप कक्षा का ६० गुणा = १.५ x १०८ ह्लक.मी. ६० ित्रज्या, व्यास = १.८ x १०९ ह्लक.मी. = १५० कोह्ऱट योजन। ब्रह्माण्ड कक्षा कह्ळ र्ह्ऱरिध = १.८७ x १०१६ योजन (सूयप िसद्धान्त १२/९०) व्यास = १.८७ x १०१६ x २१४.१५३८/ (π = ३.१४१५९) ह्लक.मी. = १.२७ x १०१८ ह्लक.मी. = १.३ x १०५ प्रकाश िषप। अधुिनक ऄनुमान १०५ प्रकाश िषप का है। ग्रह कक्षायें -सूयप िसद्धान्त १२/८६-८९ में गणना का अधार है ह्लक चन्ि कक्षा से भ्रमण काल कह्ळ तुलना में ग्रह कक्षायें बढ़ाइ गयीं हैं। यहां सीधा ऄनुर्ात माना गया है। ह्लकन्तु िास्तििक गणना तारा ग्रहों कह्ळ शीघ्र र्ह्ऱरिध से कह्ळ गयी है। बुध शुक्र कह्ळ कक्षा र्ह्ऱरिध शीघ्र र्ह्ऱरिध ३६०० सूयप कक्षा र्ह्ऱरिध बुध शुक्र कह्ळ छोटी कक्षायें होने के कारण आनकह्ळ र्ह्ऱरिध को शीघ्र र्ह्ऱरिध कहा गया है। मंगल, गुरु, शिन के िलये सूयप कक्षा ही शीघ्र र्ह्ऱरिध है। ईनके िलये,
३६००
ग्रह कक्षा सूयप कक्षा
शीघ्र र्ह्ऱरिध
सूयप िसद्धान्त (२/३४-३७) के ऄनुसार शीघ्र र्ह्ऱरिधयों के मध्यम मानतारा ग्रह मध्यम शीघ्रर्ह्ऱरिध ग्रह-कक्षा अधुिनक मान (सूयप कह्ळ तुलना में) बुध
१३३.५
०.३६८
०.३८६
शुक्र
२६१
०.७२५
०.७२३
मंगल
२३३.५
१.५४
१.५२४
गुरु
७१
५.०७०
५.२०२८
शिन
३९.५
९.११४
९.५५ 55
(४) धाम योजन-धाम २ प्रकार के हैं-क्षर धाम तथा ऄक्षर धाम। आनके ऄनुसार सूयप के ३० धामों कह्ळ २ प्रकार से व्याख्या है-सदृशीरद्य सदृशीह्ऱरदु श्वो दीघं सचन्ते िरुणस्य धाम। ऄनिद्याह्ऴस्त्रशतं योजनान्येकैका क्रतुं र्ह्ऱरयिन्त सद्यः॥ (ऊक् १/१२३/८) = जैसा अज है िैसे ही कल भी क्रतु (सूयप का तेज, ह्लक्रया का स्रोत = क्रतु) दूर तक िरुण ह्लदशा में (र्ृथ्िी सतह र्र र्िश्चम ह्लदशा, अकाश में सूयप से बाहर ब्रह्माण्ड = िरुण का ऄर्् क्षेत्र कह्ळ तरफ) एक के बाद एक ३० धाम योजन तक चलते हैं (क) क्षर धाम-सूयोदय के ३० धाम र्िश्चम (िरुण कह्ळ ह्लदशा में) तक ईषा-काल रहता है। भारत में सन्ध्या (ईषा) काल ह्लदन-मान का १२िां भाग (किल अह्लद युगों का भी १२िां भाग) ऄथापत् र्ृथ्िी कह्ळ १५० दैिनक गित मानते हैं। ऄतः र्ृथ्िी कह्ळ सतह र्र १५० र्ूिापर्र ह्लदशा में ३० धाम हुये। आनका रै िखक मान ििषुि से ईर्त्र या दिक्षण दूर जाने र्र घटता जाता है। ििषुि रे खा र्र आसका मान धाम योजन है जो िस्थर है। ििषुि र्ह्ऱरिध को सािन िषप के ७२० ऄहोरात्रों में बांटने र्र १ ििषुि-धाम या धाम योजन होता है। १ धाम योजन = र्ह्ऱरिध / ७२० = ४०,७५०.३५५४ / ७२० = ५५.६५९७७ ह्लक.मी.। आस योजन मान से सौर मण्डल का ििस्तार िेदों में ७२,००० योजन है (ब्रह्मििद्या ईर्िनषद्, र्ै्र्लाद संिहता) । ईसके प्रितरूर् मानि शरीर में ७२,००० नािी होती हैं। ििषुि िृर्त् को भी नािी-िृर्त् कहते हैं। ब्रह्माण्ड कह्ळ र्ह्ऱरिध को र्राद्धप कहा गया है, क्योंह्लक यह र्रा (१०१७) योजन का अधा है। ऊतं िर्बन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रिििौ र्रमे र्राधे । छायातर्ौ ब्रह्मििदो िदिन्त र्ञ्चाग्नयो ये च ित्रणािचके ताः ॥ (कठोर्िनषद् १/३/१) = ऊत मागप र्र सुकृत करने िाले ऄन्ततः र्रम गुहा (र्रमेष्ठी, ब्रह्माण्ड) में प्रिेश करते हैं, िजसका अकार (र्ह्ऱरिध) र्राद्धप (योजन) है। आस मागप को ब्रह्म को जानने िाले छाया तथा अतर् (प्रकाश, धूर्) कहते हैं। ब्रह्म तक ५ ऄिग्न (सघन रूर्) हैंस्ियम्भू, र्रमेष्ठी, सौर, चान्ि, भू। आनमें ऄिन्तम ३ नािचके त = र्रस्र्र िमली हुयी हैं, िचके त = ऄलग-ऄलग स्र्ि। अधुिनक मान से र्रम गुहा या अकाश गंगा का व्यास = १०५ प्रकाश िषप। ऄतः र्ह्ऱरिध = १०५ प्रकाश िषप। = १०५ x ३.१४१५९ x ९.४६०५ x १०१२ ह्लक.मी. / ५५.६५९७७ ह्लक.मी. = ०.५३३९७७ x १०१७ धाम योजन। (ख) ऄक्षर धाम- यह र्ृथ्िी को मार्दण्ड मानकर अकाश के सभी क्षेत्रों कह्ळ मार् है। आसका हर धाम र्ूिप धाम से २ गुणा होता है। ऄक्षरों के र्ह्ऱरमाण से जैसे शब्द-छन्द कह्ळ मार् होती है, ईसी प्रकार शब्द गुण िाले अकाश कह्ळ भी आन छन्दों से मार् होती है। अकाश में सूयप का प्रभामण्डल ३० धाम तक है। आसका ऄथप है ह्लक र्ृथ्िी को ३० बार २ गुणा करने र्र सूयप मण्डल का अकार होगा। ह्ऴत्रशद् धाम िि राजित िाक् र्तङ्गाय धीयते। प्रित िस्तोरहद्युिभः॥ (ऊक् १०/१८९/३) = ३० धाम तक ऄिधक (िि) प्रकािशत (राजित) क्षेत्र (िाक् ) र्तङ्ग (सूय)प कह्ळ समझी जाती है। प्रित ििस्त (बस्ती, क्षेत्र) कह्ळ मार् ऄहः िारा अकाश (द्यु) में होती है। ...िाह्ऴत्रशतं िै देिरथाह्न्यन्ययं लोकस्तं समन्तं र्ृिथिी ििस्ताित्र्येित तां समन्तं र्ृिथिीं ििस्ताित्समुिः र्येित..... (बृहदारण्यक ईर्िनषद् ३/३/२) = देिरथ का ििस्तार ३२ ऄहः तक है, ईसके २ गुणे ििस्तार कह्ळ र्ृिथिी (सौर मण्डल) है, ईसका भी २ गुणा समुि ईसे घेरे हुये है। सौर मण्डल का व्यास = र्ृथ्िी व्यास x २३० = ६३७८.१४ ह्लकमी. ित्रज्या x २ x २३० = १.४४८ प्रकाश िषप (अधुिनक मान १-२ प्रकाश िषप)
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छन्दों के ऄनुसार मार् करने के िलये र्ृथ्िी के भीतर २ बाह्य र्ृथ्िी कह्ळ प्रितमा रूर् २ क्षेत्र माने गये हैं। र्ृथ्िी का के न्िीय भाग प्रायः १/४ ित्रज्या का लोहे का गोला है जो ब्रह्माण्ड रूर्ी र्ृिथिी कह्ळ प्रितमा है। िितीय क्षेत्र र्ृथ्िी कह्ळ १/२ ित्रज्या का है, यह िि भाग का के न्ि है तथा सौर र्ृिथिी कह्ळ प्रितमा है। र्ृथ्िी के न्ि से ३रा धाम स्ियं र्ृथ्िी ग्रह है। ितस्रो मातॄ स्त्रीन् िर्तॄन् िबभ्रदेक उध्िपतस्थौ नेमिग्लार्यिन्त। मन्त्रयन्ते ह्लदिो ऄमुष्य र्ृष्ठे ििश्विमदं िाचमििश्विमन्िाम्। (ऊक् १/१६४/१०) ितस्रो भूमीधापरयन् त्रीरुतद्यून् त्रीिण व्रता ििदथे ऄन्तरे षाम्। ऊतेनाह्लदत्या मिह िो मिहत्िं तदयपमन् िरुण िमत्र चारु॥ (ऊक् २/२७/८) र्ृिथव्यािममे लोकाः (र्ृिथिी, ऄन्तह्ऱरक्ष, द्यौ) प्रितिष्ठताः। (जैिमनीय ब्राह्मण ईर्िनषद् १/१०/२) तस्या एतत् र्ह्ऱरिमतं रूर्ं यदन्तिेह्लद (भू िर्ण्डः) ऄथैष भूमाऽर्ह्ऱरिमतो यो बिहिेह्लदः (महा र्ृिथिी)-ऐतरे य ब्राह्मण (८/५) आम संख्या को ऄहगपण कहते हैं क्योंह्लक अकाश के धामों कह्ळ मार् ऄहः में है। र्ृथ्िी सतह र्र ३रा, ईससे २ गुणा क्षेत्र का ४था ऄहगपण अह्लद हैं। ऄतः क ऄहगपण = त २ (क-३) जहां त = र्ृथ्िी कह्ळ ित्रज्या।
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सौर मण्डल के क्षेत्र सूयप के प्रकाश से जीिन तथा सृिि का र्ालन होता है, ऄतः आसे ििष्णु का भौितक या प्रत्यक्ष रूर् कहा गया है। सूयप का जो ऄर्ना क्षेत्र है, ईसमें ििष्णु के ३ र्द हैं। (१) तार् क्षेत्र -१०० सूयप व्यास तक। आसमें तीव्र तेज के कारण ऄणु खिण्डत हो जाते हैं, ऄतः यह रुि है। घोरो िै रुिः। (कौषीतह्लक ब्राह्मण १६/७) तद्यदेतं शतशीषापणं रुिमेतेनाशमयंस्तस्माच्छतशीषपरुि शमनीयं शत शीषपरुि शमनीयं ह िै तच्छतरुह्लियिमत्याचक्षते र्रोऽक्षम्। (शतर्थ ब्राह्मण ९/१/१/७) शतयोजने ह िा एष (अह्लदत्यः) आतस्तर्ित। (कौषीतह्लक ब्राह्मण ८/३) स एष (अह्लदत्यः) एकशतििधस्तस्य रश्मयः शतं ििधा एष एिैकशततमो य एष तर्ित। (शतर्थ ब्राह्मण १०/२/४/३) (२) तेज क्षेत्र-सूयप से १००० योजन व्यास तक तेज प्रकाश रहता है। आसे िेद में सहस्राक्ष कहा गया है। ििश्व का ऄक्ष या चक्षु सूयप है, ईसकह्ळ १००० गुणा दूरी तक का क्षेत्र सहस्राक्ष होगा। यहां तक का क्षेत्र सूयप कह्ळ दृिि में है या यहां तक के ग्रह (शिन तक) हमारे उर्र प्रभाि डालते हैं। ऄतः फिलत ज्योितष में हम शिन तक ही गणना करते हैं यद्यिर् भागित अह्लद र्ुराणों में नेर्चून तक के ग्रहों का ही िणपन है तथा ्लूटो जैसे ६०,०० बालिखल्य कहे गये हैं। गिणत में भी शिन तक के ग्रहों के अकषपण से र्ृथ्िी कक्षा में ििचलन होता है। यहां तक के ग्रहों का चक्र हमको प्रभािित करता है, ऄतः आसे सूयप रथ का चक्र कहते हैं (१००० योजन ित्रज्या या ६००० योजन र्ह्ऱरिध), आसी ग्रह चक्र से ४३,२०,००० िषप का महायुग है। सहस्रं हैत अह्लदत्यस्य रश्मयः। (जैिमनीय ईर्िनषद् ब्राह्मण १/४४/५) सहस्र योजन कह्ळ दूरी र्र शिन का तेज ताम्र ऄरुण रं ग का हैऄसौ यस्ताम्रो ऄरुण ईत बभ्रुः सुमङ्गलः। ये चैनं रुिा ऄिभतो ह्लदक्षुिश्रताः सहस्रोऽिैषां हेड इमहे। (िाजसनेिय संिहता १६/६) योजनानां सहस्रािण भास्करस्य रथो नि। (ििष्णु र्ुराण २/८/२) = यहां रथ चक्र कह्ळ ित्रज्या प्रायः १५०० योजन (सूयप व्यास) है। (३) प्रकाश क्षेत्र-र्ृथ्िी के बाहर ३० धाम तक सूयप का प्रकाश ऄिधक (ब्रह्माण्ड तुलना में) रहता है, यह सौरमण्डल का द्यु (अकाश) है। १ लाख योजन तक मैत्रेय-मण्डल कहा गया है जो सौरमण्डल कह्ळ र्ृथ्िी है तथा र्ृथ्िी ग्रह से कोह्ऱट गुणा बिा है। र्ुराणों में आसे १५७ लाख योजन का सूयप-रथ (सौर मण्डल का शरीर, रथ = शरीर) कहा है60
साधपकोह्ऱटस्तथा सप्त िनयुतान्यिधकािन िै। योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्र प्रितिष्ठतम्॥३॥ (ििष्णु र्ुराण २/८/३) भूमेयोजन लक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम्। (ििष्णु र्ुराण २/७/५) र्ृथ्िी व्यास का २३० गुणा = १२,७५६.२८ x २३० ह्लक.मी. = २.८९६ प्रकाश िषप। सूयप व्यास का १.५७ कोह्ऱट गुणा = १३,९२,००० x १.५७ x १०७ ह्लक.मी. = २.१८५ x १०१३ ह्लक.मी. = २.३१० प्रकाश िषप। (४) र्रम र्द-सौर मण्डल में सूयप का प्रभाि ऄन्य तारों कह्ळ तुलना में ऄिधक है, यह ईसका ऄर्ना घर है, िजसमें ििष्णु के ३ र्द या साम हैं, ऄतः ििष्णु-सहस्रनाम में ईनको ित्रसामा कहा गया है। ह्लकन्तु ििष्णु का र्रम-र्द तारों का समूह है जहां तक िह ििन्दु मात्र दीख सकता है। सूयप िसद्धान्त में कहा है-याित् ह्लदनकरस्य करप्रसाराः। आदं ििष्णुह्सिचक्रमे त्रेधा िनदधे र्दम्। समूळ्हमस्य र्ांसुरे॥ (ऊक् १/२२/१७) तद् ििष्णोः र्रमं र्दं सदा र्श्यिन्त सूरयः। ह्लदिीि चक्षुराततम्॥ (ऊक् १/२२/२०) कल्र्ोक्त चन्िभगणा गुिणताः शिशकक्षया। अकाशकक्षा सा ज्ञेया करव्यािप्तस्तथा रिेः॥८१॥ ख व्योम ख-त्रय क-सागर षट्क नाग व्योमाि शून्य यम-रूर् नगाि चन्िाः। ब्रह्माण्ड सम्र्ुटर्ह्ऱरभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा ह्लदनकरस्य कर प्रसाराः॥ (सूयप िसद्धान्त १२/८१, ९०) २ क्षेत्र-ग्रहों में सबसे बिा बृहस्र्ित है, ग्रह कक्षाओं के बाद प्रायः खाली स्थान है िजसमें के िल आन्ि या प्रकाश है। शून्य स्थान में भी आन्ि है, िहां का र्दाथप र्िमान सोम कहते हैं बृहस्र्ित (ग्रह) क्षेत्र में बृहस्र्ित सोम तथा ब्रह्माण्ड में ब्रह्मणस्र्ित सोम है। ऄतः २ भागों में ििभाजन आन्ि बृहस्र्ित है िजसका शािन्तर्ाठ में ईल्लेख होता हैशं नो िमत्रः शं िरुणः शं नो भित्ययपमा। शं नो आन्िो बृहस्र्ितः शं नो ििष्णुरुरुक्रमः॥ (ऊग् िेद १/९०/१) यहां ईरुक्रमः का ऄथप है बिा क्रम िजनका ऄथप अकाश में ििष्णु के ३ र्द (ित्र-ििक्रम) या र्रम-र्द भी हो सकते हैं। र्ृथ्िी र्र ईरु-क्रमः = सबसे बिी िचित (प्रारूर्) । सबसे बिा िनमापण नगरों का होता है ऄतः नगर को दिक्षण भारत में ईरु या ईर कहते हैं-बंगलूर या बंगलूरु, मंगलूर, नेल्लोर, िचर्त्ूर। ऄिग्निापि र्िित्रम्। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/३/७/१०) ऄयं िायुः र्िमानः (शतर्थ ब्राह्मण २/५/१/५) (िायुः) यः र्श्चाद् िाित। र्िमान एि भूत्िा र्श्चाद् िाित। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/३/९/६) तस्मादुर्त्रत्ः र्श्चादयं (िायुः) भूियष्ठं र्िते सिितृप्रसूतो ह्येष एतत् र्िते। (ऐतरे य ब्राह्मण १/७) सोमो िै र्िमानः। (शतर्थ ब्राह्मण २/२/३/२२) बृहस्र्ितब्रपह्म ब्रह्मर्ितः। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण२/५/७/४) िाग् िै बृहती तस्या एष र्ितस्तस्मादु बृहस्र्ितः। (शतर्थ ब्राह्मण १४/४/१/२२) (यजु ३८/८) ऄयं िै बृहस्र्ितयोऽयं (िायुः) र्िते। (शतर्थ ब्राह्मण १४२/२/१०) बृहस्र्ितिव देिानां ब्रह्मा (कौषीतह्लक ब्राह्मण ६/१३, शतर्थ ब्राह्मण १/७/४/२१, ४/६/६/७) िषट्कार क्षेत्र-६ ऊतुओं के समान सूयप कह्ळ िाक् (क्षेत्र) भी ६ भागों में ििभािजत है, िजसे िषट्कार कहते हैं। ३३ ऄहगपण (३ र्ृथ्िी के भीतर + ३० बाहर) के क्षेत्र ३३ स्तोम हैं, आनके प्राण ३३ देिता हैं। र्ृथ्िी से अरम्भ कर ८ ऄिग्न, ११ रुि (िायु) १२ अह्लदत्य (रिि, तेज) हैं। ऄिग्न क्षेत्र र्ृथ्िी का अकषपण क्षेत्र है, िजसे जम्बूिीर् भी कहा गया है। रुि क्षेत्र िायु है जहां तक सौर िायु (सूयप से कणों का प्रिाह) र्हुंचती है। ऄिग्न-रुि तथा रुि-अह्लदत्य के बीच २ ऄिश्वन, नािसक्य, दस्र, या द्यािा-र्ृिथिी हैं। ििष्णु के ३ र्द ऄहगपण मार् में ११, २२, ३३ हैं-जो ित्रिु र्् छन्द के १, २ ३ र्ाद हैंऄिग्न िायु रििभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् । दुदोह यज्ञिसद्ध्यथपमृग्यजुः साम लक्षणम् ॥ (मनुस्मृित, १/२३) िसन्तेनर्त्ुपना देिा िसििस्त्रिृता स्तुतम्। रथन्तरे ण तेजसा। हििह्ऱरन्िेण ियो दधुः। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/६/१९/१) 61
= ऄिग्न या िसु क्षेत्र ३२=९ ऄहगपण तक, रथन्तर तेज क्षेत्र है। ित्रिृच्च ित्रणिश्च राथन्तरौ तािजश्चाश्वश्चान्िसृज्येतां तस्मार्त्ौ राथन्तरं प्राचीनं प्रधूनुतः। (ताण्य महाबाह्मण १०/२/५) = ३२ =९, ३ x ९ = २७ ऄहगपण क्षेत्र २ रथन्तर हैं, र्ूिप का ऄिग्न है, बाद का (२७) ऄश्व (तेज) है। त्रैिुभ आन्िः। (कौषीतह्लक ब्राह्मण ३/२, २२/७) ित्रिु िबन्िस्य िज्रः। (ऐतरे य ब्राह्मण २/२) ११, २२, ३३ ऄहगपण तक आन्ि (ििह्लकरण) या ईसका िज्र (ह्लकरण का दबाि) है। ११ x ४ ऄक्षरों के आन्ििज्रा, ईर्ेन्ििज्रा छन्द होते हैं। मनुष्य के मेरुदण्ड में ३३ जोि होते हैं ऄतः ईसके समरूर् कम्र्न के िलये प्राथपना के श्लोक प्रायः आन छन्दों में होते हैं। िाग्िै िषट्कारो िाग्रेतो रे त एिैतत् िसञ्चित षिडत्यृतिो िै षट् तदृतुष्िेिैतिेतः िसच्यते तदृतिो रे तः िसक्तिममाः प्रजनयिन्त तस्मादेिं िषट् करोित। (शतर्थ ब्राह्मण १/७/२/२१) त्रयह्ऴस्त्रशो िै स्तोमानामिधर्ित॥ (ताण्य महाब्राह्मण ६/२/७) ज्योितस्त्र्यह्ऴस्त्रशः स्तोमानाम्। (ताण्य महाब्राह्मण १३/७/२) ऄन्तो िै त्रयह्ऴस्त्रशः र्रमो िै त्रयह्ऴस्त्रश स्तोमानाम्। (ताण्य महाब्राह्मण ३/३/२) संित्सरो िाि प्रितष्ठा त्रयह्ऴस्त्रशः (िाजसनेयी १४/२३, शतर्थ ब्राह्मण ८/४/१/२२) िज्रिस्त्रणिः। (शतर्थ ब्राह्मण ८/४/१/२०, १३/४/४/१, षह्ऴड्िश ब्राह्मण ३/४, ताण्य महाब्राह्मण ३/१/२) आमे िै लोकािस्त्रणिः। (ताण्य महाब्राह्मण ६/२/३, १९/१०/९) ित्रिृिा ऄिग्नरङ्गारा ऄह्सचधूपम आित। (कौषीतह्लक ब्राह्मण ईर्िनषद् २८/५) तस्मात् ित्रिृत् स्तोमानां मुखम्। (ताण्य महाब्राह्मण१७/३/२) ित्रिृत् र्ञ्चदशः सप्तदश एकह्ऴिश एते िै स्तोमानां िीयपिर्त्माः। (ताण्य महाब्राह्मण ६/३/१५) प्रजार्ितिव सप्तदशः। (गोर्थ ईर्त्र २/१३, ५/८, तैिर्त्रीय ब्राह्मण १/५/१०/६, ताण्य महाब्राह्मण २/१०/५, १७/९/४, ऐतरे य ब्राह्मण १/१६, ४/२६) त्रयह्ऴस्त्रशिै देिाः ऄिौ िसि एकादश रुिा िादशाह्लदत्याः प्रजार्ितश्च िषट्कारश्चैते देिाः। (ऐतरे य ब्राह्मण २/१८) एष एि िषट्कारो य एषः (सूयपः) तर्ित। (शतर्थ ब्राह्मण १/७/२/११, ११२/२/५) प्रभाि क्षेत्र को साम कहते हैं। र्ृथ्िी के ३ साम हैं-रथन्तर, िैरूर्, शक्वर। सूयप के बृहत्, िैराज, रै ित हैं। यिै रथन्तरं तद् िैरूर्ं, यद् बृहत् तद् िैराजम्। यिथन्तरं तच्छाक्वरम्। यद् बृहत् तद् रै ितम्। (ऐतरे य ब्राह्मण १७/७/१३)। आसके ऄितह्ऱरक्त ऐतरे य ब्राह्मण (१९/६/१८), तैिर्त्रीय ब्राह्मण (१/४/६) भी देखें। रथन्तर साम के स्तोम (क्षेत्र) हैं-९, १५, १७, २१ (ऄहगपण) । प्राणो िै ित्रिृत् (३३ = ९), ऄधपमासः र्ञ्चदशः (१५ ितिथ), संित्सरः सप्तदश, अह्लदत्य एकह्ऴिशं एते िै स्तोमाः। (ताण्य महाब्राह्मण ६/२/२) १७िां स्तोम सूयप िर्ण्ड (संित्सर-कारक, प्रजार्ित = र्ालनकर्त्ाप) हैसप्तदश एि स्तोमो भिित प्रितष्ठायै प्रजार्त्यै। (ताण्य महाब्राह्मण १२/६/१३) ३३ ऄहगपण स्िगप (नाक) कह्ळ सीमा है-तं (त्रयह्ऴस्त्रशं स्तोमं) ई नाक आत्याहुः। (ताण्य महाब्राह्मण १०/१/१८) सौर मण्डल के ३३ ऄहगपण क्षेत्रों के प्राण ३३ देिता हैं, संस्कृ त में क से ह तक व्यञ्जन िणप आनके िचह्न हैं। संस्कृ त िलिर् िचह्न रूर् में देि-नगर है, ऄतः आसे देि-नागरी कहते हैं। र्ृथ्िी कह्ळ सतह (३ ऄहगपण) से सौरमण्डल कह्ळ सीमा तक ३३ ऄहगपण के क्षेत्र को ६-६ ऄहगपण के ऄन्तर से ६ क्षेत्रों में बांटा गया है, जो संित्सर के ६ ऊतु ििभाजन जैसे हैं। र्ृथ्िी र्र 62
सूयप कह्ळ सार्ेक्ष र्ह्ऱरक्रमा का काल संित्सर (िषप) है, िजसमें २-२ मास कह्ळ ६ ऊतु हैं। अकाश में सूयप का क्षेत्र भी संित्सर है, ईसे भी ६ क्षेत्रों में बांटा गया है , जो िषट् -कार है। १-३३ के मध्य में १७ ऄहगपण अता है, र्ृथ्िी के न्ि से १७ िें ऄहगपण (१७-१८ के बीच) सूयप है, ऄतः १७ ऄहगपण या सूयप को प्रजार्ित कहते हैं। सौर क्षेत्र के बाहर ३४ िां ऄहगपण भी प्रजार्ित है, िजससे सौर-मण्डल ही बना है। आन ऄहगपण क्षेत्रों कह्ळ मार् (ित्रज्या) आस प्रकार है(१) ३ ऄहगपण = र्ृथ्िी कह्ळ सतह = ६४०० ह्लक.मी. (२) ९ ऄहगपण = र्ाह्सथि गुरुत्ि अकषपण का क्षेत्र-ऄिग्न मण्डल (८ िसु + १ ऄिश्वन) = २६ ित्रज्या = ६४ ित्रज्या। अधुिनक मान से चन्ि कह्ळ मध्यम दूरी = ६०.२७ ित्रज्या (५५.५-६३.२५) । (३) १५ ऄहगपण िराह क्षेत्र या िायु भाग = २१२ ित्रज्या = २.६१२५ x १०७ ह्लक.मी. र्ृत्िी शुक्र कक्षाओं का ऄन्तर = (१५०-१०८) १०६ ह्लक.मी. ऄतः िराह भाग = २६.१२५/४२ x १०० = ६२.२%। आसके मध्य कह्ळ सूयप से दूरी = (१५०-१३) १०६ ह्लक.मी. = १३७ x १०६ ह्लक.मी.। यह सूयप व्यास १.३९२ x १०६ ह्लक.मी का प्रायः १०० गुणा है। ऄतः िराह क्षेत्र का मध्य भाग सूयप से प्रायः १०० सूयप व्यास कह्ळ दूरी र्र है। १०९ सूयप व्यास र्र र्ृथ्िी कक्षा है, जो ११० व्यास तक जाती है। ऄतः िायु र्ुराण (६/१२) के ऄनुसार िराह १०० योजन उंचा तथा १० योजन ििस्तार का है। १५ ऄहगपण िराह क्षेत्र होने के कारण १५० ईर्त्र ऄक्षांश र्र ितरुर्ित में भू िराह क्षेत्र है। िायु र्ुराण, ऄध्याय ६-अर्ो ह्यग्ने समभिन्निेग्नौ र्ृिथिीतले। सान्तरालैकलीनेऽिस्मन्निे स्थािरजङ्गमे॥१॥ एकाणपिे तदा तिस्मन्न प्राज्ञायत ह्शकचन॥२॥ ब्रह्मा नारायणाख्यः स सुष्िार् सिलले तदा॥३॥ अर्ो नारा िै तनि आत्यर्ां नाम शुश्रुम। ऄ्सु शेते च यतस्तस्मार्त्ेन नारायणः स्मृतः॥५॥ तुल्यं युगसहस्रस्य नैशं कालमुर्ास्य सः। शिपयपन्ते प्रकु रुते ब्रह्मत्िं सगप कारणात्॥६॥ जल-क्रह्ळडासु रुिचरं िाराहं रूर्मस्मरत्। ऄधृष्यं सिपभूतानां िाङ्मयं धमपसंिज्ञतम्॥१०॥ दश-योजन ििस्तीणं शतयोजनमुिच्ितम्। नीलमेघप्रतीकाशं मेघस्तिनत िनःस्िनम्॥११॥ रसातल तले मग्नां रसातलतलेगताम्। प्रभुलोक िहताथापय दंष्ट्रयाऽभ्युज्जहार गाम्॥२४॥ (४) १७ ऄहगपण = १०५.५ x १०६ ह्लक.मी.। १८ िां ऄहगपण आसका २ गुणा २११ x १०६ ह्लक.मी है। आनके बीच में १५० x १०६ ह्लक.मी र्र सूयप है। (५) २१ ऄहगपण-अह्लदत्य या सूयप क्षेत्र = २१८ x ६,३७८.१४ ह्लक.मी. = १६७२ x १०६ ह्लक.मी. यह र्ृथ्िी कक्षा से बिा है ऄतः यह मार् सूयप के िन्ित मानी जायेगी। शिन कक्षा = १४३० x १०६ ह्लक.मी. तक सूयप के रथ का चक्र माना गया है, या सहस्राक्ष (१००० सूयप व्यास) १.३९२ x १०६ ह्लक.मी. तक होगा। आनको यह साम र्ार करता है, ऄतः यह रथन्तर साम है। रथ का स्थान २०० ईर्त्र ऄक्षांश र्र र्ुरी में रथ यात्रा होती है। आन ३ क्षेत्रों-ऄिग्न, िायु, रिि-में यज्ञ ऄथापत् सृिि होती है। ऄतः मनुस्मृित (१/२३) में आन ३ से यज्ञ रूर् िेद कह्ळ ईत्र्िर्त् कही गयी है। (६) २७ ऄहगपण-मैत्रेय मण्डल = र्ृथ्िी ित्रज्या ६,३७८.१४ x २२४ = १.०७ x १०११ ह्लक.मी. = सौर व्यास का ०.७६८ x १०५ गुणा। प्रायः २७.५ ऄहगपण कह्ळ सीमा १ लाख सूयप व्यास होगी। यह र्ृथ्िी से २४ ऄहगपण ऄिधक होने के कारण मार् के ऄनुसार गायत्री या सृिि ह्लक्रया के ऄनुसार सािित्री है। ऄतः २४ ऄक्षर के छन्द गायत्री से लोकों कह्ळ मार् होती है। (७) ३३ ऄहगपण-सौर मण्डल कह्ळ सीमा। ित्रज्या = र्ृथ्िी ित्रज्या ६,३७८.१४ x २३० = ६.८४८ x १०१२ ह्लक.मी. = मध्यम सौर दूरी का ४५,७७८.५८ गुणा। अधुिनक मान के ऄनुसार ५० से १०० हजार सूयप दूरी र्र उटप मेघ हैं जो सौरमण्डल का अिरण है। यह छोटे गैस िर्ण्ड हैं जो ऄित शीत के कारण ठोस गोले हैं। कु छ धूमके तु यहां से िनकलते हैं जब ह्लकसी िनकट के तारा िारा आनका सन्तुलन िबगि जाता है। 63
(८) ३४ ऄहगपण प्रजार्ित है। यह सौर मण्डल का बाहरी अिरण है िजसे समुि कहा गया है। यहां सूयप का तेज मरे ऄण्डे के समान है ऄतः ३३० ईर्त्र ऄक्षांश र्र काश्मीर में मातपण्ड (मृत ऄण्ड) मिन्दर है। ित्रिु र्् क्षेत्रों कह्ळ िगनती सौर के न्ि से है(१) ११ ऄहगपण = ६,३७८.१४ x २९ = १६, ३१, ८०३.४ ह्लक.मी. = सूयप ित्रज्या x २.३४६ = सूयप का अभा-मण्डल। (२) २२ ऄहगपण = ६,३७८.१४ x २१९ = ६,३४४ x १०६ ह्लक.मी. = प्रायः ५२.४ कोह्ऱट योजन व्यास (यहां र्ृथ्िी व्यास का १००० भाग १२.८ ह्लक.मी. का योजन है) । यह र्ुराण िह्सणत चक्राकार र्ृथ्िी का लोक (प्रकािशत) भाग ५० कोह्ऱट योजन का है। आसके भीतर यूरेनस कक्षा है िजसकह्ळ ित्रज्या २८७० x १०६ ह्लक.मी. है। (३) ३३ ऄहगपण-सौर मण्डल कह्ळ सीमा। ित्रज्या = र्ृथ्िी ित्रज्या ६,३७८.१४ x २३० = ६.८४८ x १०१२ ह्लक.मी. (४) ४४ ऄहगपण के बदले ४३ ऄहगपण लेते हैं, क्योंह्लक माहेश्वर सूत्र में ३३ ऄक्षर हैं या श्री-यन्त्र में ३३ ित्रभुज हैं। ऄतः महलोक कह्ळ ित्रज्या = र्ृथ्िी ित्रज्या x ६,३७८.१४ x २४० = ७.०१३ x १०१५ ह्लक.मी. = ७४१.२८ प्रकाश िषप। यह अकाशगंगा कह्ळ सर्ापकार भुजा (शेषनाग) कह्ळ मोटाइ है, िजसमें सूयप िस्थत है। आस ित्रज्या के गोले में प्रायः १००० तारा हैं, जो शेषनाग के १००० िसर हैं। आनमें १ सूयप है िजसमें र्ृथ्िी बहुत छोटे कण के समान है। अकाशगंगा कह्ळ मार् छन्दोमा स्तोम या गायत्री, ित्रिु र््, जगती से है। र्ृथ्िी को मार्दण्ड लेने र्र गायत्री मैत्रेय-मण्डल, ित्रिु र्् (४४-१ ऄहगपण) महलोक, जगती (४८+१ ऄहगपण) ब्रह्माण्ड है। ४९ मरुत् होने के कारण जगती के ४८ ऄक्षरों के बदले ४९ ऄहगपण लेते हैं। सप्त सप्त िह मारुता गणाः (७ x ७ = ४९, यजु. १७/८०-८५, ३९/७, शतर्थ ब्राह्मण ९/३/१/२५) ब्रह्माण्ड या अकाशगंगा कह्ळ ित्रज्या = र्ृथ्िी ित्रज्या ६,३७८.१४ x २४६ = ४.४८८ x १०१७ ह्लक.मी. = ४७,४४१.६५ प्रकाश िषप। अधुिनक ऄनुमान ४५-५०,००० प्रकाश िषप है। गायत्रमयनं (२४) भिित ब्रह्मिचपसकामस्य, त्रैिुभमयनं (४४) भिित ओजस्कामस्य, जागतमयनं भिित र्शुकामस्य (ताण्य महाब्राह्मण १४/४/१०) तद्यच्छन्दोिभह्सनह्समताः तस्मात् छन्दोमाः। (कौषीतह्लक ब्राह्मण २६/७) यद् गायत्रे ऄिध गायत्रमािहतं त्रैिुभाद् िा त्रैिुभं िनरतक्षत। यद् िा जगत् जगत्यािहतं र्दं य आत् तद् ििदुस्ते ऄमृतत्िमानशुः॥२३॥ गायत्रेण प्रितिममीते ऄकप म्, ऄके ण साम त्रैिुभेन िाकम्। िाके न िाकं ििर्दा चतुष्र्दाऽक्षरे ण िममते सप्तिाणीः॥२४॥ (ऊक् १/१६४/२३-२४, ऄथिप ९/१०/१-२) कू मप चक्र का अकार १०१८ योजन, शङ्कु = १०१३मानेन तस्य कू मपस्य कथयािम प्रयत्नतः। शङ्कोः शतसहस्रािण योजनािन िर्ुः िस्थतम्॥ (नरर्ित जयचयाप, स्िरोदय में कू मप चक्र) कू मप चक्र या गोलोक का अकार १०१८ योजन भू-योजन के िणपन में कहा जा चुका है। यह अज ब्रह्माण्ड का अभामण्डल कहते हैं जो प्रायः न्यूह्ऱरनो कणों से भरा है। आसकह्ळ मार् ऄितजगती छन्द (१३ x ४ = ५२ ऄक्षर) में हैआसकह्ळ ित्रज्या = र्ृथ्िी ित्रज्या x ६,३७८.१४ x २४९ = ३.५९ x १०१८ ह्लक.मी. = ३,७९,५३३ प्रकाश िषप। अधुिनक ऄनुमान ४-५ लाख प्रकाश िषप है जो प्रायः ५२.५ ऄहगपण होगा। ब्रह्माण्ड के ४९ ऄहगपण के ऄनुसार देिनागरी िलिर् में ४९ ऄक्षर हैं तथा कू मप = कर्त्ाप या क्षेत्रज्ञ के िलये ३ ऄितह्ऱरक्त ऄक्षर-क्ष, त्र, ज्ञ हैं। आसके बाद ऄन्धकार क्षेत्र अता है, िजसकह्ळ मार् शक्वरी छन्द (१४ x ४ = ५६ ऄक्षर) में है, शक्वरी = राित्र।
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आसकह्ळ ित्रज्या = र्ृथ्िी ित्रज्या x ६,३७८.१४ x २५३ = ५.७४५ x १०१९ ह्लक.मी. = ५.९६ x १०६ प्रकाश िषप = १.८२ मेगा-र्रसेक। अधुिनक मान के ऄनुसार स्थानीय समूह (Local Clusture) कह्ळ ित्रज्या = २.५ मेगा-र्रसेक है, जो ५६.४ ऄहगपण होगा। ऄितशक्वरी = ६० ऄहगपण = र्ृथ्िी ित्रज्या ६,३७८.१४ x २५७ = प्रायः ९.७० x १०७ प्रकाश िषप = २९.७८ मेगा-र्रसेक स्थानीय बृहत् समूह (Local Super Clusture) कह्ळ ित्रज्या प्रायः २५ मेगा-र्रसेक ऄनुमािनत है। ऄिि (६४ ऄहगपण) आससे १६ गुणा (२४) बिा प्रायः ४७६ मेगा-र्रसेक होगा। ५०-१०० मेगा-र्रसेक ित्रज्या के शून्य स्थान (Vacant space) तथा बृहत् अकषपक (Great Attractor) का अकार है। क्वासर कह्ळ दूरी प्रायः १००० मेगार्रसेक है। ऄत्यिि = ६८ ऄहगपण = र्ृथ्िी ित्रज्या ६,३७८.१४ x २६५ = २.३५३ x १०२३ ह्लक.मी. = २.४८७ १०१० प्रकाश िषप। आसका अधा भाग र्ृथ्िी सतह से ६४ ऄहगपण र्र ऄथापत् १२.४४ ऄरब प्रकाश िषप कह्ळ दूरी र्र है। ब्रह्मा का ऄहो-रात्र ८.६४ ऄरब िषप है, आतने समय में प्रकाश ८.६४ ऄरब प्रकाशिषप र्ार करे गा जो तर्ः लोक या अज कह्ळ भाषा में दृश्य जगत् (Visible Universe) है, जहां से िसद्धान्ततः प्रकाश हम तक र्हुंच सकता है। यह प्रायः ६३.५ ऄहगपण होगा, ऄतः ब्राह्मी िलिर् में ६३ या ५४ िणप हैं। दृश्य जगत् का अधुिनक ऄनुमान ८-१८ ऄरब प्रकाशिषप है। ब्रह्मा तर्िस (प्रितिष्ठतम्) । (ऐतरे य ब्राह्मण ३/६, गोर्थ ब्राह्मण ईर्त्र ३/२) तेजोऽिस तर्िस िश्रतम्। समुिस्य प्रितष्ठा। .... तर्ोऽिस लोके िश्रतम्। तेजसः प्रितष्ठा। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/११/१/२-३) ित्रषििः चतुः षिििाप िणापः शम्भुमते मताः। (र्ािणनीय िशक्षा ३) धृित = ७२ ऄहगपण = र्ृथ्िी ित्रज्या ६,३७८.१४ x २६९ = ३.७६५ x १०२४ ह्लक.मी. = ३.९७९ x १०११ प्रकाश िषप। यह सत्य लोक या स्ियम्भू मण्डल का काल्र्िनक मान है। (५) सौर योजन -सौर मण्डल कह्ळ मार् के िलये सौर व्यास को ही योजन माना गया है। आसके ऄनुसार सौर मण्डल में रुि मूह्सर्त् िामन सूयप िर्ण्ड है िजसका व्यास १३,९२,००० ह्लक.मी. है। सौ व्यास कह्ळ दूरी र्र िराह है, िजसके १० योजन मोटे शरीर में १/१०९ योजन कह्ळ र्ृथ्िी है। यहां रुि तेज शान्त हो जाता है, ऄतः आसे शतरुह्लिय (शान्त = शत = १००) कहा जाता है। १०० योजन तक तार् तथा १००० योजन तक रिश्म क्षेत्र है। यहां शिन के र्ास सूयप ताम्र-ऄरुण रं ग का दीखता है। यहां तक अह्लदत्य का मुख्य क्षेत्र है क्योंह्लक आिन्ियों िारा आन्ि क्षेत्र तक का ही ऄनुभि होता है। र्ृथ्िी कक्षा र्र भी शिन तक के ग्रहों का अकषपण ही दृश्य प्रभाि डालता है। आन्ि को सहस्राक्ष कहा गया है , तथा सूयप ऄक्ष हैचक्षोः सूयो ऄजायात (र्ुरुष सूक्त १३)। ऄक्ष का ऄथप चक्षु (अंख) तथा धुरी (Axis) दोनों होता है। ऄतः सूयप को धुरी मानकर ईससे सहस्र ऄक्ष कह्ळ दूरी र्र आन्ि होगा। ईसके बाद लक्ष व्यास तक मैत्रेय मण्डल होगा। आनके ईदाहरण ह्लदये जा चुके हैंतार् क्षेत्र-१०० योजन तक- तद्यदेतं शतशीषापणं रुिमेतन े ाशमयंस्तस्माच्छतशीषपरुि शमनीयं शत शीषपरुि शमनीयं ह िै तच्छतरुह्लियिमत्याचक्षते र्रोऽक्षम्। (शतर्थ ब्राह्मण ९/१/१/७) शतयोजने ह िा एष (अह्लदत्यः) आतस्तर्ित। (कौषीतह्लक ब्राह्मण ८/३) स एष (अह्लदत्यः) एकशतििधस्तस्य रश्मयः शतं ििधा एष एिैकशततमो य एष तर्ित। (शतर्थ ब्राह्मण १०/२/४/३) रिश्म क्षेत्र-१००० योजन तक- सहस्रं हैत अह्लदत्यस्य रश्मयः। (जैिमनीय ईर्िनषद् ब्राह्मण १/४४/५) सहस्र योजन कह्ळ दूरी र्र शिन का तेज ताम्र ऄरुण रं ग का हैऄसौ यस्ताम्रो ऄरुण ईत बभ्रुः सुमङ्गलः। ये चैनं रुिा ऄिभतो ह्लदक्षुिश्रताः सहस्रोऽिैषां हेड इमहे। (िाजसनेिय संिहता १६/६)
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प्रकाश क्षेत्र-सूयप का रथ १५७ लाख योजन है। ईसका चक्र ९००० योजन ऄथापत् ित्रज्या १५०० योजन है। इषादण्ड १८००० योजन का है, ऄथापत् ित्रज्या = ३००० योजन। योजनानां सहस्रािण भास्करस्य रथो नि। इषादण्डस्तथैिास्य ििगुणो मुिनसर्त्म॥२॥ साधपकोह्ऱटस्तथा सप्त िनयुतान्यिधकािन िै। योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्र प्रितिष्ठतम्॥३॥ (ििष्णु र्ुराण २/८/२-३) भूमेयोजन लक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम्। (ििष्णु र्ुराण २/७/५) यजुिेद प्रथम श्लोक के ऄनुसार सौर मण्डल में उजाप कह्ळ िायु (ह्लकरण प्रिाह) ही इषा हैइषे त्िा उजे त्िा िायिस्थः। (िाजसनेिय संिहता १/१) यह बालिखल्य नक्षत्रों कह्ळ सीमा है, जो सूयप से प्रायः ६० गुणा दूरी र्र हैं। आनका अकार ऄंगष्ठ ु मात्र है। अकाश मार् के िलये र्ृथ्िी ही र्ुरुष है। र्ुरुष ९६ ऄंगल ु का होता है। ऄतः ऄंगष्ठ ु = १ ऄंगल ु = र्ृथ्िी व्यास /९६ = १२, ७५६.२८ /९६ = १३२.८८ ह्लक.मी.। ऄतः प्रायः ६० आकाइ (AU = astronomical unit) दूरी र्र ६०,०० बालिखल्य सूयप कह्ळ र्ह्ऱरक्रमा करते हैं िजनका अकार १३३ ह्लक.मी. से ऄिधक है। २००७ में यूरेनस तक नासा का कािसनी यान गया था। ईसके िचत्रों िारा ऄनुमान हुअ ह्लक ४५-६५ दूरी र्र १०० ह्लक.मी. से बिे ७०,००० िर्ण्ड हैं िजनको ‘्लूटोिनक िर्ण्ड’ (Plutonic bodies) कहा जाता है। आसके बाद ्लूटो को ग्रह सूची से िनकाल ह्लदया गया। क्रतोश्च सन्तित-भापयाप बालिखल्या-नसूयत। षििर्ुत्र सहस्रािण मुनीना-मूध्िपरेतसाम्॥ ऄङ्गुष्ठ र्िप मात्राणां ज्िलद् भास्कर तेजसाम्। (ििष्णु र्ुराण १/१०/१०) तथा बालिखल्यां ऊषयोऽङ्गुष्ठ र्िपमात्राः षिि सहस्रािण र्ुरतः सूयं सूक्त िाकाय िनयुक्ताः संस्तुििन्त। (भागित र्ुराण ५/२१/१७) ६. प्रकाश योजन-अकाश में र्ृथ्िी को ही सहस्रदल कमल माना गया है। आसके १ दल ऄथापत् व्यास के १००० भाग को प्रकाश िजतने समय में र्ार करता है, ईस समय को त्रुह्ऱट कहा गया हैकमलदलन तुल्यः काल ईक्तः त्रुह्ऱटस्तत्, शतिमह लि संज्ञस्तच्छतं स्यािन्नमेषः। (िटेश्वर िसद्धान्त, मध्यमािधकार, ७) योक्ष्णोह्सनमेषस्य खराम भागः स तत्र्रस्तच्छत भाग ईक्ता। त्रुह्ऱटह्सनमेषैधृपितिभश्च काष्ठा तत् ह्ऴत्रशता सद्गणकै ः कलोक्ता॥ (िसद्धान्त िशरोमिण, मध्यमािधकार, २६) जालाकप रश्म्यिगतः खमेिानुर्तन्नगात्। त्रसरे णु ित्रकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुह्ऱटः स्मृतः॥ (भागित र्ुराण ३/११/५) र्ृथ्िी कह्ळ र्ह्ऱरिध प्रायः ३००० त्रुह्ऱट होगी जो िनमेष के बराबर है। ब्रह्मा कह्ळ सृिि का अधार या र्ाद (र्द्म) र्ृथ्िी है, आसे मत्यप ब्रह्मा कहते हैं। यही सूयप रूर्ी ििष्णु का नािभ कमल है। ििष्णु के १ िनमेष में ब्रह्मा कह्ळ २ र्राद्धप अयु र्ूरी होती है। सहस्रशीषाप र्ुरुषः सहस्राक्षः सहस्रर्ात्॥१॥ र्द्भ्ां भूिमः ... ॥१३॥ (र्ुरुष सूक्त) कालोऽयं ििर्राद्धापख्यो िनमेषो ईर्चयपते। ऄव्याकृ तस्यानन्तस्य ऄनादेजपगतात्मनः॥ (भागित र्ुराण ३/११/३७) त्रुह्ऱट सेकण्ड का ३३,७५० भाग है। १ सेकण्ड में प्रकाश २,९९,७९२.४५६ ह्लक.मी. दूरी र्ार करता है। ऄतः प्रकाश योजन = २,९९,७९२.४५६/३३७५० = ८.८८२७४ ह्लक.मी.। सौर मण्डल का प्रितरूर् मनुष्य शरीर में ििज्ञान अत्मा है, जो हृदय में रहकर बुिद्ध का िनयन्त्रण करता है। ब्रह्म रन्ध्ररूर्ी ऄणुर्थ से होकर सूयप तक प्रकाश कह्ळ गित से महार्थ िारा सम्र्कप होता है। ऄतः ऊक् (३/५३/८) में कहा गया है ह्लक यह १ मुूर्त्प में ३ बार सूयप तक जाकर लौटता है। सूयप अत्मा जगतस्तस्थुषश्च। (िाज. यजुिेद ७/२२) तदेते श्लोकाः भििन्त-ऄणुः र्न्था ििततः र्ुराणो मां स्र्ृिोऽनुििर्त्ो मयैि। तेन धीरा ऄिर्यिन्त ब्रह्मििदः स्िगं लोकिमत उध्िं ििमुक्ताः॥८॥ तिस्मञ्छु क्लमुत नीलमाहुः िर्ङ्गलं हह्ऱरतं लोिहतं च। एष र्न्था ब्रह्मणा ह्यनुििर्त्स्तेनैित ब्रह्मिित् र्ुण्यकृ र्त्ेजसश्च॥९॥ (बृहदारण्यक ईर्िनषद् ४/४/८-९) 66
ऄथ या एता हृदयस्य नायस्ताः िर्ङलािणम्निस्तष्ठिन्त शुक्लस्य नीलस्य र्ीतस्य लोिहतस्येत्यसौ िा अह्लदत्यः िर्ङ्गल एष शुक्ल एष नील एष र्ीत एष लोिहतः॥१॥ तद्यथा महार्थ अतत ईभौ ग्रामौ गच्छन्तीमां चामुं चामुष्मा-दाह्लदत्यात् प्रतायन्ते ता असु नाडीषु सृप्ता अभ्यो नाडीभ्यः प्रतायन्ते तेऽमुिष्मन्नाह्लदत्ये सृप्ताः॥२॥ ... ऄथ यत्रैतद् ऄस्माच्छरीरादुत्क्रामत्यथैतैरेि रिश्मिभरूध्िपमाक्रामते स ओिमित िा होिामीयते स यािित्क्ष्येन्मनस्तािदाह्लदत्यं गच्छत्येतिै खलु लोकिारं ििदुषा प्रर्दनं िनरोधोऽिदुषाम्॥५॥ (छान्दोग्य ईर्िनषद् ८/६/१,२,५) ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०)-१-तदोकोऽग्रज्िलनं तत् प्रकािशत िारो ििद्यासामथ्यापर्त्च्छे षगत्यनुस्मृित योगाच्च हादापनुगृहीतः शतािधकया। २-रश्म्यनुसारी। ३- िनिश चेन्न सम्बन्धस्य यािर्द्ेहभािित्िार्द्शपयित च। ४-ऄतश्चायनेऽिर् दिक्षणे। मैत्रायणी ईर्िनषद् (६/३) भी ििव्य। सूयप कह्ळ दूरी १५ कोह्ऱट ह्लक.मी. को प्रकाश ३ लाख ह्लक.मी./ सेकण्ड कह्ळ गित से ५०० िमनट या प्रायः ८ िमनट में र्ार करे गा। ऄतः १ मुूर्त्प = ४८ िमनट में यह ३ बार जाकर लौट अयेगाित्रहप िा एष (मघिा= आन्िः, अह्लदत्यः-सौरप्राणः) एतस्या मुूर्त्पयेमां र्ृिथिी समन्तः र्य्येित। (जैिमनीय ब्राह्मण ईर्िनषद् १/४/९) रूर्ं रूर्ं मघिा बोभिीित मायाः कृ ण्िानस्तन्िं र्ह्ऱर स्िाम्। ित्रयपह्लर्द्िः र्ह्ऱरमुूर्त्पमागात् स्िैमपन्त्रैरनृतुर्ा ऊतािा॥ (ऊक् ३/५३/८) आसी ऄथप में अह्लदत्य (िजस क्षेत्र से सूयप का अह्लद, ईत्र्िर्त् हुयी) को सम्ित्सर कहा जाता है। जहां तक १ िषप या सम्ित्सर में सूयप से प्रकाश र्हुंचता है, िह भी सम्ित्सर या सूयप के िन्ित १ प्रकाश िषप का गोल है। सम्ित्सरः स्िगाप (सौर क्षेत्र)-कारः। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/१/५/२) िाक् (सूयप क्षेत्र) सम्ित्सरः। (ताण्य महाब्राह्मण १०/१२/७) आस प्रजार्ित में ही देि ईत्र्न्न (सौर क्षेत्रों के प्राण) होते हैं-सम्ित्सरः प्रजार्ितः। (शतर्थ ब्राह्मण १/६/३/३५, १०/२/६/१, ऐतरे य ब्राह्मण १/१,१३, २/१७, ४/२५ अह्लद) सम्ित्सरो िै देिानां जन्म। (शतर्थ ब्राह्मण ८/७/३/२१) आसके बाद िरुण क्षेत्र है-सम्ित्सरो िरुणः। (शतर्थ ब्राह्मण ४/४/५/१८ अह्लद) ब्रह्मा के ऄहोरात्र में प्रकाश जहां तक अता-जाता है, िह दृश्य जगत् या तर्ः लोक है- ब्रह्मा तर्िस (प्रितिष्ठतम्) । (ऐतरे य ब्राह्मण ३/६, गोर्थ ब्राह्मण ईर्त्र ३/२) तेजोऽिस तर्िस िश्रतम्। समुिस्य प्रितष्ठा। .... तर्ोऽिस लोके िश्रतम्। तेजसः प्रितष्ठा। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/११/१/२-३) (७) प्रमाण योजन-र्ुराण (ििष्णु २/७, ब्रह्माण्ड ३/६, ७, भागित, स्कन्ध ५, िायु, ब्रह्म अह्लद) में लोकों कह्ळ मार् आस प्रकार हैभूलोक -सहस्र योजन भुिः लोक- १ लाख योजन स्िः लोक=सूयप रथ १५७ लाख योजन, सूयप ध्रुि दूरी १४ लाख योजन। महलोक- १ कोह्ऱट योजन ित्रज्या। जनः लोक-२ कोह्ऱट योजन ित्रज्या तर्ः लोक-८ कोह्ऱट योजन ित्रज्या सत्य लोक-१२ कोह्ऱट योजन ित्रज्या
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रििचन्िमसोयापिन् मयूखैरिभास्यते। स समुि सह्ऱरच्छै ला र्ृिथिी तािती स्मृता॥३॥ याित् प्रमाणा र्ृिथिी ििस्तार र्ह्ऱरमण्डलात्। नभस्ताित् प्रमाणं िै व्यास मण्डलतो ििज॥४॥ भूमेर्र्योजन लक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम्। लक्षाह्लर्द्िाकरस्यािर् मण्डलं शिशनः िस्थतम्॥५॥ र्ूणे शतसहस्रे तु योजनानां िनशाकरात्। नक्षत्रमण्डलं कृ त्स्नमुर्ह्ऱरिात् प्रकाश्यते॥६॥ िे लक्षे चोर्त्रं ब्रह्मन् बुधो नक्षत्रमण्डलात्। ताित् प्रमाणभागे तु बुधस्या्युशनाः िस्थताः॥७॥ ऄङ्गारकोऽिर् शुक्रस्य तत् प्रमाभो व्यििस्थतः। लक्षिये तु भौमस्य िस्थतो देि र्ुरोिहतः॥८॥ शौह्ऱरबृपहस्र्तेश्चोध्िं ििलक्षे समििस्थतः। सप्तह्सषमण्डलं तस्माल्लक्षमेकं ििजोर्त्म॥९॥ ऊिषभ्यस्तु सहस्राणां शतादूध्िं व्यििस्थतः। मेढीभूतः समस्तस्य ज्योितश्चक्रस्य िै ध्रुिः॥१०॥ त्रैलोक्यमेतत् किथतं ईत्सेधेन महामुने। आज्याफलस्य भूरेषा आज्या चात्र प्रितिष्ठता॥११॥ ध्रुिादूध्िं महलोको यत्र ते कल्र्िािसनः। एकयोजनकोह्ऱटस्तु यत्र ते कल्र्िािसनः॥१२॥ िे कोटी तु जनो लोको यत्र ते ब्रह्मणः सुताः। सनन्दनाद्याः प्रिथता मैत्रेयामल चेतसः॥१३॥ चतुगुपणोर्त्रे चोध्िं जनलोकार्त्र्ः िस्थतम्। िैराजा यत्र ते देिाः िस्थता दाहििििजताः॥१४॥ षड्गुणेन तर्ोलोकात् सत्यलोक ििराजते। ऄर्ुनमापरका यत्र ब्रह्मलोको िह स स्मृतः॥१५॥ र्ादगम्यस्तु यत् ह्लकिञ्चत् िस्त्ििस्त र्ृिथिीमयम्। स भूलोकः समाख्यातो ििस्तरोऽस्य मयोह्लदतः॥१६॥ भूिमसूयापन्तरं यच्च िसद्धाह्लदमुिनसेिितम्। भुिलोकस्तु सोऽ्युक्तो िितीयोऄ मुिन सर्त्म॥१७॥ ध्रुिसूयापन्तरं यच्च िनयुतािन चतुदश प । स्िलोकः सोऽिर् गह्लदतो लोकसंस्थानिचन्तकै ः॥१८॥ त्रैलोक्यमेतत् कृ तकं मैत्रेय र्ह्ऱरर्ठ्यते। जनस्तर्स्तथा सत्यिमित चाकृ तकं त्रयम्॥१९॥ कृ तकाकृ तकयोमपध्ये महलोक आित स्मृतः। शून्यो भिित कल्र्ान्ते योऽत्यन्तं न ििनश्यित॥२०॥ एते सप्त मया लोका मैत्रेय किथतास्ति। र्ातालािन च सप्तैि ब्रह्माण्डस्यैष ििस्तरः॥२१॥ एतदण्ड कटाहेन ितयपक् चोध्िपमधस्तथा। किर्त्थस्य यथा बीजं सिपतो िै समािृतम्॥२२॥ दशोर्त्रे ण र्यसा मैत्रेयाण्डं च तद्िृतम्। सिोऽम्बुर्ह्ऱरधानोऽसौििह्नना िेिितो बिहः॥२३॥ ििह्नश्च िायुना िायुमवत्रेय नभसा िृतः। भूतादीनां नभः सोऽिर् महता र्ह्ऱरिेिितः। दशोर्त्राण्यशेषािण मैत्रेयैतािन सप्त िै॥२४॥ (ििष्णु र्ुराण २/७) प्रथम ३ कृ तक (िेद कह्ळ रोदसी) ित्रलोकह्ळ हैं। ईनका मध्य या ऄन्तह्ऱरक्ष भुिः लोक है। ऄिन्तम ३ ऄकृ तक (संयती) ित्रलोकह्ळ हैं, ईनका मध्य या ऄन्तह्ऱरक्ष तर्ः लोक है। दोनों ित्रलोकह्ळ के बीच महः भी ऄन्तह्ऱरक्ष लोक है। ३ ऄन्तह्ऱरक्षों के र्ूिप के लोकों भूः, स्िः, जनः लोकों को र्ृिथिी कहा जायेगा तथा ईसके बाद स्िः, जनः, सत्य को स्िः कहा जायेगा। छन्द क्रम में मा को र्ृिथिी तथा प्रमा को ऄन्तह्ऱरक्ष कहा गया है-मा छन्दः तत् र्ृिथिी...। प्रमा छन्दः, तदन्तह्ऱरक्षम्। (मैत्रायणी संिहता २/१४/९३, काठक संिहता ३९/३९) श्री सज्जन ह्ऴसह िलश्क कह्ळ र्ुस्तक जैन ऐस्रोनौमी, र्ृष्ठ २८-२९ के ऄनुसार (Jain Astronomy-By Sajjan Singh Lishk-Vidya Sagara Pulication, B-5/263, Yamuna Vihar, Delhi-53)१ प्रमाण योजन = ५०० अत्मा योजन = १००० ईत्सेध योजन। यहां सूयप िर्ण्ड को अत्मा मानना चािहये-सूयप अत्मा जगतस्तस्थुषश्च। (िा.यजु. ७/४२) ईसके बाद का ऄन्तह्ऱरक्ष प्रमा है, िजसकह्ळ मार् प्रमाण योजन में होगी। आसी प्रकार प्रत्येक लोक एक अत्मा है, मार् के िलये ऄगला लोक ऄन्तह्ऱरक्ष होगा, िजसकह्ळ मार् ५०० गुणा बिे प्रमाण योजन होगी। ईत्सेध योजन अत्मा के १००० खण्ड हैं, जैसे र्ृथ्िी व्यास का १००० भाग ईत्सेध योजन होगा। कु छ प्रसंगों में सूयप िर्ण्ड का १००० भाग भी ईत्सेध योजन माना जा सकता है। यहां ३ र्ृथ्िी हैं जो सूयप चन्ि से प्रकािशत हैं-१, सूय-प चन्ि दोनों से प्रकािशत र्ृथ्िी ग्रह। २. सूयप से प्रकािशत भाग सौर मण्डल। ३. सूयप प्रकाश कह्ळ ऄिन्तम सीमा ब्रह्माण्ड। प्रमाण योजनों कह्ळ सारणी68
१. र्ृथ्िी, अकषपण क्षेत्र चन्ि, या सूयप कह्ळ ग्रह कक्षा तक कह्ळ मार्- र्ृथ्िी व्यास का १००० भाग = ईत्सेध योजन। २. सौर मण्डल-सूयप व्यास = अत्मा योजन। ३. प्रमाण योजन के प्रकार-(क) महलोक-५०० सूयप व्यास, (ख) जनः लोक-५००२ सूयप व्यास, (ग) तर्ः लोक-५००३ सूयप व्यास, (घ) सत्य लोक-५००४ सूयप व्यास। िभन्न मार्ों के प्रमाण-(१) महलोक सौर मण्डल से बिा है, आसिलये ईसे महः कहा जाता है। र्र यहां ईसका अकार मात्र १ कोह्ऱट योजन है, जबह्लक सूयप का रथ १.५७ कोह्ऱट योजन है। (२) िेद में ऄंगल ु (१ ऄंगुल) र्ूरे दृश्य जगत् (भूिम) या ऄन्तरात्मा का भी अकार कहा गया हैस भूह्ऴम ििश्वतो िृत्िा ऄत्यिर्त्ष्ठर्द्शाङ्गुलम्। (र्ुरुष सूक्त, िा. यजु. ३१/१) = र्ूरी भूिम १ ऄंगल ु है, र्ुरुष १० ऄंगल ु है। ऄंगष्ठ ु मात्रः र्ुरुषोऽन्तरात्मासदा जनानां हृदये सिन्निििः। (कठोर्िनषद् ६/१७, श्वेताश्वतर ईर्िनषद् ३/१३) = ऄन्तरात्मा ऄंगष्ठ ु (१ ऄंगुल) है। (३) भागित र्ुराण में सभी लोकों का अकार १ िितिस्त कहा गया है। आनमें से कोइ भी मनुष्य हाथ कह्ळ िितिस्त नहीं है। प्रत्येक लोक का अकार १ ही िितिस्त है ऄतः िितिस्त के मान ७ लोकों के िलये ऄलग ऄलग हैं। आस प्रकार मनुष्य िितिस्त को िमलाकर ८ प्रकार कह्ळ िितिस्त हैं। गज का ऄथप मार्दण्ड लेने र्र भी ८ प्रकार के गज हैं। क्वाहं तमो महदहं खचरािग्निाभूपः संिेििताण्ड घट सप्त िितिस्त कायः। (भागित र्ुराण १०/१४/११) = (ब्रह्मा िारा भगिान् कृ ष्ण कह्ळ स्तुित)-मैं क्या ूं, तम रूर् महत् (ईसका प्रकाश कृ ष्ण), ऄहंकार, तथा ख (अकाश), चर (िायु, गित), ऄिग्न (तेज), िाः (िाह्ऱर, ऄर््, जल), भूः (र्ृथ्िी, ठोस िर्ण्ड)- आन महाभूतों से बना ७ िितिस्त का मेरा शरीर (= ७ लोक) है । (४) प्रित ऄण्ड के बाहर ७ िायु अिरण- आनके िणपन कइ र्ुराणों में हैं ह्लक र्ृथ्िी के बाहर १०-१० गुणे बिे ७ प्रकार कह्ळ िायु के अिरण हैं-नारद र्ुराण १/६० (व्यास िारा शुकदेि को अिह, प्रिह अह्लद ७ ब्रह्माण्ड र्ुराण १/२/२२/३४ (अिह अह्लद िायुए)ं िलङ्ग र्ुराण १/५३/३८ (अिह, र्ह्ऱरिह अह्लद िायुए)ं , िायु र्ुराण ५१/३२ (अिह, प्रिह अह्लद िायुओं में मेघों कह्ळ िस्थित), ६७/११० (अिह अह्लद िात स्कन्धों में मरुत गण) । आनके अधार र्र ज्योितष र्ुस्तकों मॆं भी आनका ईल्लेख हैअिहः प्रिाह ईिहस्तथा संिहः सुर्ह्ऱरर्ूिपकौ िहौ। सप्तमस्तु र्िनः र्रािहः कह्ळह्सततः कु मरुदािहोऽर्रै ः॥ (लल्ल, िशष्यधीिृिद्धद तन्त्र १८/१) भूिायुरािह आह प्रिहस्तदूध्िपः स्यादुिहस्तदनु संिह संज्ञकश्च। ऄन्यस्ततोऽिर् सुिहः र्ह्ऱरर्ूिपकोऽस्याद् बाह्यः र्रािह आमे र्िनाः प्रिसद्धाः॥ (िसद्धान्त िशरोमिण, गोलाध्याय, मध्यगित िासना १) ऄतः र्ृथ्िी का अकाश ७ अिरणों के बाद ईसकॆ १०७ गुणा होगा। यहां सभी र्ृथ्िी के िलये ईनका अकाश १०७ गुणा होगा। ििष्णु र्ुराण के उर्र के ईद्धरण (२/७/२२-२४) में ब्रह्माण्ड कह्ळ सीमा ऄण्ड-कटाह कही है, ईसके ७ अिरण क्रमशः-र्य, जल, ऄिग्न, िायु, अकाश, भूत (ऄहंकार) महर्त्त्ि-हैं। यहां ब्रह्माण्ड से १० गुणे न्यूह्ऱरनो अभा को र्यः कहा गया है जो गोलोक का र्दाथप है (गो र्शु का र्य = दुग्ध होता है) । र्ृथ्िी ग्रह या सौरमण्डल के बाहर भी र्यः (क्षीर सागर अह्लद हैं) । (५) ऄहगपण मार् -ऄहगपण मार् में भी बाद के धामों का अकार क्रमशः २-२ गुणा बढ़ता जाता है। यहां लम्बाइ कह्ळ मार् हर ििन्दु र्र बढ़ती है। प्रमाण योजन र्द्धित में १-१ लोक तक एक ही मार् है, ऄगले लोक में ५०० गुणा होती है।
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(६) जैन िेद सम्बन्ध-यहां यह प्रश्न हो सकता है ह्लक िेदांग रूर् में ज्योितष कह्ळ व्याख्या में जैन ज्योितष का अधार क्यों िलया गया, जो नािस्तक या िेद ििरुद्ध दशपन है। िस्तुतः जैन दशपन िेद ििरुद्ध नहीं हो सकता। आसी प्रकार गीता में जहां कहीं िेद का ईल्लेख है, िह िेद कह्ळ िनन्दा लगती है, र्र गीता को सभी िेदान्त अचायों ने िेद का प्रस्थान माना हैयािममां र्ुिष्र्तां िाचं प्रिदन्त्यििर्िश्चतः। िेदिादरता नान्यदस्तीितिाह्लदनः॥ (गीता २/४२) प्रिचन करने िालों को हम र्रमर्ूज्य मानकर ईनका भाषण र्ुिष्र्त या बिे-बिे शब्दों में सुनते हैं या सत्संग करते हैं, यहां ईनको ऄििर्िश्चत = मूखप कहा है। सामान्यतः हम िेद का ऄनुसरण करने िालों को अिस्तक मानते हैं, र्र यहां िेद में रत लोगों को नािस्तक कहा है क्योंह्लक िे (शास्त्राथप में) कहते हैं-न ऄन्यत् ऄिस्त। यह कहने िाले नािस्तक (न + ऄिस्त + क्यर््) हैं। र्र आसका िास्तििक ऄथप है ह्लक िेद मन्त्रों के ३ या ५ प्रकार के ऄथप होते हैं। कोइ ऄथप समझने र्र ऄन्य ऄथों का ऄिस्तत्ि भी मानना चािहये। ििकल्र् दृिि रखने िाला ििर्िश्चत् या बुिद्धमान् है, एक ही र्क्ष समझने िाला मूखप है। जैन दशपन का ऄनेकान्तिाद यही है। जो के िल एक ही िाद यथा ऄिैत का समथपन कर दूसरे का ििरोध करते हैं िे िेद के ९०% से ऄिधक का ििरोध कर रहे हैं, ऄतः िे नािस्तक हैं। आसके ऄितह्ऱरक्त ऊषभ देि जी जैन धमप के प्रथम तीथपङ्कर थे, ईनको कू मप, िायु, ब्रह्माण्ड अह्लद र्ुराणों में ११ िां व्यास माना गया है। िेद के ईद्धार के िलये कु माह्ऱरल भट्ट (५५७-४९३ इ.र्ू.) ने जैन गुरु कालकाचायप (५९९-५२७ इ.र्ू.) से िशक्षा ग्रहण कह्ळ थी। स्ियं कालकाचायप ने जैन शास्त्रों का र्ुनरुद्धार ह्लकया, िजससे ईनको िीर कहा गया। िेद के ईद्धार में सहायक होने के कारण ईनकह्ळ िनन्दा नहीं हुइ बिल्क ईनके िनधन ५२७ इ.र्ू. से िीर संित् मनाया जाता है। जैन तथा िेद शास्त्रों में ३ मुख्य ऄन्तर हैं-(क) िेद सनातन हैं ऄतः सनातन भाषा संस्कृ त में हैं। जैन शास्त्र तात्कािलक तथा ििद्याथी के स्तर के ऄनुसार हैं, तथा तात्कािलक लौह्लकक भाषा में हैं। (ख) िेद में ३ ििश्वों का समन्िय है, र्र अकाश के ििश्व का भौितक तथा अध्याित्मक ििश्वों र्र प्रभाि प्रयोग िारा ज्ञातव्य नहीं है, तभी ऄलग-ऄलग ििश्वों का ऄिस्तत्ि रह सकता है। ऄतः िैज्ञािनक शास्त्र २ प्रकार के होंगे-१ अिधदैििक ििश्व के िलये, दूसरा अध्याित्मक-अिधभौितक ििश्वों के िलये। ऄतः िेद के ६ ऄंग, ६ ईर्ांग हैं, र्र जैन अगम के १२ ऄंग, १२ ईर्ांग थे-कोइ भी ईर्लब्ध नहीं है। (ग) ज्योितष में अकाश गोल का मानिचत्र कागज र्र २ िृर्त्ों से ह्लदखाया जाता है जैसे ग्रहण के र्ह्ऱरलेख में। बाद में ऄर्नी श्रेष्ठता ह्लदखाने के िलये २ चन्ि, २ सूयप २ x २७ = ५४ नक्षत्र को िास्तििक माना गया, तथा र्ूणप रूर् से काल्र्िनक ििश्व का िणपन हुअ िजसमें के िल जैन तीथंकर थे, बाकह्ळ ह्लकसी का ऄिस्तत्ि या प्रभुत्ि नहीं था। िास्ति में के िल ऄर्नी श्रेष्ठता या र्र-िनन्दा ऄनेकान्त िाद के िबल्कु ल ििर्रीत है, र्र स्र्द्धाप, िेष के कारण लोग िमथ्या सािहत्य िलखने लगते हैं। प्रमाण योजन के मार्- मनुष्य कह्ळ तुलना में र्ृथ्िी का जो अकार है, प्रत्येक र्ृथ्िी के िलये ईसका अकाश ईतना ही (कोह्ऱट गुणा) बिा है (ििष्णु र्ुराण २/७/४) । ऄथापत,् र्ृथ्िी व्यास मनुष्य
मैत्रेय मण्डल
ब्रह्माण्ड
र्ृथ्िी व्यास
मैत्रेय मण्डल
स्ियम्भू मण्डल ब्रह्माण्ड
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(१) सौर मण्डल-१ लाख भू-योजन का मैत्रेय मण्डल है-आसके २ ऄथप हैं-(र्ृथ्िी के व्यास को १००० योजन मानने र्र सूयप िर्ण्ड का अकार १ लक्ष योजन होगा। या सूयप व्यास को १ योजन मानने र्र मैत्रेय मण्डल १ लाख योजन होगा। सूयप व्यास के १००० भाग को ईत्सेध योजन मानने र्र १ लाख योजन दूरी र्र र्ृथ्िी होगी या र्ृथ्िी से देखने र्र सूयप कह्ळ कक्षा होगी। चन्ि कह्ळ तुलना में १ लाख गुणा दूरी र्र (६०,००० सूयप व्यास) नक्षत्र मण्डल (बालिखल्य कक्षा है।
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नक्षत्र मण्डल (बालिखल्य) का के न्ि सूयप है। िहां से बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, सन् को क्रमशः २-२ लाख योजन कह्ळ दूरी र्र कहा गया है। सूयप से आन ग्रहों कह्ळ दूरी लेने र्र १ योजन क्रमशः २९०, २७०, ३८०, ९७३, १४३० ह्लक.मी. होगा । २-२ ग्रहों के बीच का भाग लेने र्र १ योजन २९०, २५०, ६००, २७५०, ३२६० ह्लकमी. होगा। यह ह्लकसी क्रम में नहीं है के िल मानिचत्र कह्ळ समरूर्ता ह्लदखाने के िलये है। सूयप के रथ का ििस्तार, ईसका चक्र, इषादण्ड अह्लद सूयप व्यास में हैं। आसके बाद ऄन्तह्ऱरक्ष लोकों में योजन का अकार क्रमशः ५०० गुणा बढ़ता जाता है। सूयप से ध्रुि (गोल का ध्रुि, तारा नहीं) कह्ळ दूरी तक सौर मण्डल है। यह ५०० र्ृथ्िी व्यास कह्ळ आकाइ में १४ लाख योजन है, क्योंह्लक यह र्ृथ्िी के िलये ऄन्तह्ऱरक्ष होगा। आस गोल कह्ळ ित्रज्या = १४ x १०५ x ५०० x १२७५६.२८ = ८.९२ x १०१२ ह्लक.मी. = ०.४९ प्रकाश िषप। (२) महलोक ित्रज्या = १ कोह्ऱट योजन = १०७ x ५००x १३९२००० (सूयप व्यास) = ६.९६ x १०१५ ह्लक.मी. = ७३५ प्रकाश िषप। (३) महलोक से जनः लोक २ गुणा तथा ५०० गुणा बिी आकाइ में ऄथापत् १००० गुणा बिा है। ऄतः जनः लोक कह्ळ ित्रज्या = ६.९६ x १०१८ ह्लक.मी. = ७३५०० प्रकाश िषप। (४) तर्ः लोक कह्ळ ित्रज्या ५०० गुणा बिी आकाइ में जनः लोक का ४ गुणा ऄथापत् ४ कोह्ऱट योजन (महलोक से २००० गुणा बिा) है। यह १४.७ कोह्ऱट प्रकाश िषप = ४५.१ मेगार्रसेक ित्रज्या का क्षेत्र स्थानीय सुर्र क्लस्चर कह्ळ दूरी है। (५) सत्य लोक आससे ५०० गुणा बिी आकाइ में १२ कोह्ऱट योजन ऄथापत् ९८ ऄरब प्रकाश िषप है। र्ुरुष सूक्त (१) के ऄनुसार र्ुरुष ििश्व से १० गुण बिा है, ऄतः दृश्य जगत् कह्ळ ित्रज्या ९.८ प्रकाश िषप कह्ळ होगी। मार् सारणी-(१) भुिलोक-(क) र्ृथ्िी के िन्ित १० सूयप व्यास का िराह। (ख) र्ृथ्िी २१२, (ग) सूयप के िन्ित १५०० योजन दूरी तक रथ (रथ का चक्र) या ३००० योजन दूरी तक इषा-दण्ड। (घ) २२ ऄहगपण = र्ृथ्िी x २१९ । िराह ५ प्रकार के हैं। मूल ििस्तृत र्दाथप जल या ऄर्् है, आसमें घनीभूत िर्ण्ड र्ृथ्िी है। बीच का क्षेत्र या िनमापण कह्ळ िस्थित (Proto-type) िराह (जल+स्थल का र्शु) या मेघ (जल+ िायु का िमश्रण) है। ५ िराह हैं-(क) अह्लद िराह-यह रस रूर् ब्रह्म है िजससे ब्रह्माण्डों के समूह रूर् में स्ियम्भू मण्डल बना है। (ख) यज्ञ िराह-िनमापण (यज्ञ) का अरम्भ ब्रह्माण्ड के िनमापण से हुअ। यह गोलोक या कू मप चक्र है िजससे र्रमेष्ठी मण्डल बना। (ग) श्वेत िराह-अह्लदत्य क्षेत्र (३४ ऄहगपण का प्रजार्ित, या २२ ऄहगपण का इषा-दण्ड) िजससे सौरमण्डल बना। (घ) भू िराह-र्ृथ्िी से ४०० गुणा बिा १५ ऄहगपण का क्षेत्र िजसके र्दाथप (मधु-कै टभ का मेद) से र्ृथ्िी बनी। (ङ) एमूष िराह-र्ृथ्िी के चारों तरफ का िायुमण्डल िजसकह्ळ उंचाइ ित्रज्या का २४ िां भाग है। (२) सौर मण्डल-(क) सूयप के िन्ित गोल िजसकह्ळ ित्रज्या १ प्रकाश िषप (सम्ित्सर) है। (ख) सूयप व्यास का १५७ लाख गुणा बिा। (ग) ५०० र्ृथ्िी व्यास का १४ लाख गुणा बिा ित्रज्या। र्ृथ्िी से बाहर क्रमशः १०-१० गुणा बिे िायु के ७ स्तरऄिन्तम स्तर का अिरण। (ङ) र्ृथ्िी का २३० गुणा। (च) र्ृथ्िी का कोह्ऱट गुणा (सूयप का लक्ष गुणा) मैत्रेय मण्डल। (३) महलोक-(क) ५०० सूयप व्यास का कोह्ऱट गुणा ित्रज्या। (ख) शेषनाग के १०० िसर या सौर मण्डल का १००० गुना। (ग) र्ृथ्िी २४०। (घ) भू तथा सत्य (१०२० गुणा) का मध्य या १०१० गुणा। (४) जनः लोक (अकाश गंगा)- (क) सूयप िसद्धान्त में १.८७ x १०१६ भ-योजन (=२१४ ह्लक.मी.)
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(ख) र्ृथ्िी x २४६, गोलोक या कू मप = र्ृथ्िी x २४९। (ग) मैत्रेय मण्डल या सािित्री का २२४ = १०७ गुणा। (घ) नरर्ित जयचयाप में कू मप चक्र = १०१८ योजन (र्ृथ्िी व्यास का १००० भाग) । (ङ) ५५.५ योजन के धाम योजन से र्ह्ऱरिध = ०.५ १०१७ (र्राधप) योजन। (च) ५०० x ५०० सूयप व्यास के योजन में २ कोह्ऱट योजन ित्रज्या। (५) तर्ः लोक-(क) र्ृथ्िी का २६४ गुणा। (ख) ५००३ सूयप व्यास के योजन से ८ कोह्ऱट योजन ित्रज्या। (ग) ब्रह्मा के ऄहोरात्र ८६४ कोह्ऱट प्रकाश िषप कह्ळ ित्रज्या। (घ)
र्ृथ्िी कक्षा र्ृथ्िी
तर्ः लोक अकाशगङ्गा
(६) सत्य लोक-(क) अकाशगङ्गा २२४ (या १०७) । (ख) ५००४ सूयप व्यास के योजन से १२ कोह्ऱट योजन ित्रज्या। (ग) महलोक सत्य लोक १०१४ र्ृथ्िी महलोक (घ) ७२ ऄहगपण का क्षेत्र। क्रम लोक ऄथप
१ भू र्ृथ्िी
ित्रलोकह्ळ (धाम)
लोक तथा ििश्व २ ३ ४ ५ ६ ७ भुिः स्िः महः जनः तर्ः सत्य िराह सौरमण्डल सर्ापकार भुजा अकाशगंगा दृश्य जगत् ऄनन्त ििश्व चौिाइ का गोल र्रम धाम रोदसी (ऄिम) क्रन्दसी (मध्यम) संयती (ईर्त्म) (रुि का, रोता हुअ,िनम्न) कृ तक सािित्री मर
समुि जल
(ििष्णु= ऄश्रु, बीच का)
(िस्थर, ईच्च धाम)
महलोक सरस्िती ऄम्भ
ऄकृ तक िनयती ऄर्् = रस
बिे मण्डल ४ हैं, जो मनुष्य से अरम्भ कर क्रमशः १० गुणा बिे हैं। चान्ि मण्डल भुिलोक का मुख्य भाग है जो िनकटता के कारण हमको ऄिधक प्रभािित करता है। ऄतः मनुष्य से बिे ५ मण्डल हैं-१. स्िायम्भुि (जगत्), २. र्रमेष्ठी (अकाशगङ्गा), ३. सौरमण्डल, चान्ि मण्डल (चन्ि कक्षा का गोल), भूमण्डल (र्ृथ्िी) षष्ठ ििश्व मनुष्य है, िजसकह्ळ ईच्चता-चौिाइ का औसत १.२८ मीटर = र्ृथ्िी व्यास का १०७ भाग है। छोटे ििश्व ७ हैं जो मनुष्य से क्रमशः १० भाग छोटे हैं । क्रम १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ििश्व किलल जीि कु ण्डिलनी जगत् देिदानि िर्तर ऊिष ऄथप (कोिषका) (र्रमाणु) (र्रमाणु नािभ) (र्रमाणु कण) (क्वाकप ) िनमापण िस्थित रस्सी अकार
१०-५ मीटर १०-१०
१०-१५
१०-२०
१०-२५
१०-३०
१०-३५
ऄतः कु ल ििश्व १३ हैं, कालमान (Kalmann) कह्ळ िसस्टम िथओरी के ऄनुसान ऄनन्त हो सकते हैं ह्लकन्तु िास्ति में के िल १३ हैं। ऄतः ििश्व का ऄथप १३ संख्या है। रििचन्िमसोयापिन्मयूखैरिभास्यते। स समुि सह्ऱरच्छैला र्ृिथिी तािती स्मृता ।३। याित्प्रमाणा र्ृिथिी ििस्तार र्ह्ऱरमण्डलात् । नभस्ताित्प्रमाणं िै व्यास मण्डलतो ििज ।४। (ििष्णु र्ुराण, २/७/३, ४) सूय-प चन्ि से प्रकािशत क्षेत्र को र्ृथ्िी कहते हैं तथा ईनमें नदी, समुि, र्िपत का िणपन होता है। र्ृथ्िी ग्रह में नदी-समुिर्िपत तीनों हैं। सौर मण्डल में र्ृथ्िी के चारों तरफ ग्रह-कक्षाओं से बना क्षेत्र िीर् हैं, ईनके बीच समुि हैं। लोक भाग कह्ळ सीमा (५० कोह्ऱट योजन व्यास) को लोकालोक र्िपत कहते हैं-ईसके बाद ऄलोक (ऄन्धकार भाग) है। सबसे बिी र्ृथ्िी ब्रह्माण्ड है िजसका के न्िीय चक्राकार भाग अकाश-गंगा (नदी) कहते हैं। हर र्ृथ्िी से ईसका अकाश ईतना ही बिा है, िजतना मनुष्य से र्ृथ्िी। 72
(१) किलल-सिप धातुं कलनीकृ तः, ऄव्यक्त ििग्रहः (तस्मात् किलल) चरक संिहता, शरीर-स्थान (५/९) = गभप में किलल सभी धातुओं का संग्रह करता है, ऄतः किलल है। किलल भी एक ििश्व है जो र्ह्ऱरिेिित (िघरा हुअ) है। यह र्ूणप तथा िनयिन्त्रत है-िालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये ििश्वं देिं जातरूर्ं िरे ण्यं (ऄथिपिशर ईर्िनषद् ५) ऄनाद्यनन्तं किललस्य मध्ये ििश्वस्य स्रिारमनेकरूर्म् । ििश्वस्यैकं र्ह्ऱरिेिितारं ज्ञात्िा देिं मुच्यते सिप र्ाशैः ॥ (श्वेताश्वतर ईर्िनषद्, ५/१३) (२) िालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भािगनः। तस्य भागस्य भागाधं तत्क्षये तु िनरञ्जनम् ॥ (ध्यानििन्दु ईर्िनषद्, ४) = मनुष्य से छोटा प्रथम ििश्व किलल लक्ष भाग छोटा है, ईसी ऄनुर्ात में ६ और छोटे ििश्व हैं। सबसे छोटा िनरञ्जन है जो ह्लकसी भी ऄञ्जन (यन्त्र) से नहीं दीखता। (३) ऊिषभ्यः िर्तरो जाताः िर्तॄभ्यो देि दानिाः। देिेभ्यश्च जगत्सिं चरं स्थाण्िनुर्ूिपशः॥ (मनुस्मृित, ३/२०१) ऊिष से िर्तर, िर्तर से देि-दानि हुये। के िल देि (३३) से सृिि हुइ (९९ दानिों से नहीं)। ईनसे ३ प्रकार के जगत् (गितशील कण) हुये-चर (Lepton), स्थाणु (Baryon), ऄनुर्ि ू प (Meson)। (४) िालाग्र शत भागस्य शतधा किल्र्तस्य च। भागो जीिः स ििज्ञेयः स चानन्त्याय कल्र्ते॥ (श्वेताश्वतर ईर्िनषद्, ५/९) = िालाग्र (माआक्रोन १०-६ मीटर) के १०० भाग कर ईसके भी १००िें कह्ळ कल्र्ना करे । यह जीि का अकार (१०-१० मीटर) है जो ह्लकसी भी कल्र् (रासायिनक ह्लक्रया) में नि नहीं होता। (५) षट्चक्र िनरूर्ण, ७-एतस्या मध्यदेशे ििलसित र्रमाऽर्ूिाप िनिापण शिक्तः कोट्डाह्लदत्य प्रकाशां ित्रभुिन-जननी कोह्ऱटभागैकरूर्ा । के शाग्राितगुह्या िनरििध ििलसत .. ।९। ऄत्रास्ते िशशु-सूयपकला चन्िस्य षोडशी शुद्धा नीरज सूक्ष्मतन्तु शतधा भागैक रूर्ा र्रा ।७। = मूल नािी िालाग्र का १०७ भाग है, कु ण्डिलनी ईसका १०० भाग है जो र्रमाणु कह्ळ नािभ १०-१५ मीटर के बराबर है। (६) ऄसिा ऽआदमग्र ऽअसीत् । तदाहः – ह्शक तदासीह्लदित । ऊषयो िाि तेऽग्रेऽसदासीत् । तदाहुः-के ते ऊषय आित । ते यत्र्ुराऽऽस्मात् सिपस्माह्लददिमच्छन्तः श्रमेण तर्साह्ऱरषन्-तस्मादृषयः (शतर्थ ब्राह्मण, ६/१/१/१) अरम्भ में ऄसत् (ऄदृश्य) ही था, ईससे सत् कह्ळ सृिि हुइ। यह ऄसत् ऊिष थे िजन्होंने श्रम, तर् से खींचा, ऄतः ऊिष (रस्सी) हैं।
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उध्िपमल ू मधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांिस यस्य र्णापिन यस्तं िेद स िेदिित् ॥ (गीता १५/१) यहा स्िािधष्ठान को मिणर्ूर चक्र के उर्र रखा गया है, जबह्लक तन्त्र में नीचे होता है। यह शंकराचायप कह्ळ सौन्दयप लहरी में िह्सणत सृिि क्रम में है, िजस क्रम में माहेश्वर सूत्र के िणप हैं। ईस के मूल स्िर अकाश के ५ स्तर तथा ईनके सिणप ऄन्तःस्थ िणप शरीर के चक्रों के बीज मन्त्र हैं। ऄआईण्। ऊलृक्। ... हयिरट् । लण्। महीं मूलाधारे कमिर् मिणर्ूरे हुतिहं, िस्थतं स्िािधष्ठाने हृह्लद मरुतमाकाशमुर्ह्ऱर। मनोऽिर् भ्रूमध्ये सकलमिर् िभत्त्िा कु लर्थं सहस्रारे र्द्मे सह रहिस र्त्या ििहरिस॥९॥ ब्रह्माण्ड कह्ळ कण संख्या-एभ्यो लोमगर्त्ेभ्य उध्िापिन ज्योतींष्यान्। तद्यािन ज्योतींिषः एतािन तािन नक्षत्रािण। यािन्त्येतािन नक्षत्रािण तािन्तो लोमगर्त्ापः। (शतर्थ ब्राह्मण १०/४/४/२) = आन लोमगर्त्ों से उर्र ज्योित (तारा) हैं। िजतने ज्योित हैं, ईतने नक्षत्र हैं। िजतने नक्षत्र हैं ईतने लोमगर्त्प हैं। र्ुरुषो िै सम्ित्सरः॥१॥ दश िै सहस्राण्यिौ च शतािन सम्ित्सरस्य मुूर्त्ापः। यािन्तो मुूर्त्ापस्ताििन्त र्ञ्चदशकृ त्िः िक्षप्रािण। याििन्त िक्षप्रािण, ताििन्त र्ञ्चदशकृ त्िः एतहीिण। यािन्त्येतहीिण ताििन्त र्ञ्चदशकृ त्ि आदानीिन। यािन्तीदानीिन तािन्तः र्ञ्चदशकृ त्िः प्राणाः। यािन्तः प्राणाः तािन्तो ऽनाः। यािन्तोऽनाः तािन्तो िनमेषाः। यािन्तो िनमेषाः तािन्तो लोमगर्त्ापः। यािन्तो लोमगर्त्ापः ताििन्त स्िेदायनािन। याििन्त स्िेदायनािन, तािन्त एते स्तोकाः 74
िषपिन्त॥५॥ एतद्ध स्म िै तिििानाह बाकप िलः। सािपभौमं मेघं िषपन्तिेदाहम्। ऄस्य िषपस्य स्तोकिमित॥।६॥ (शतर्थ ब्राह्मण १२/३/२/५-६) = र्ुरुष संित्सर (के समान) है। १ संित्सर में १०,८०० मुूर्त्प हैं। १ मुूर्त्प = १५ िक्षप्र, १ िक्षप्र = १५ एतह्सह, १ एतह्सह = १५ आदानी, १ आदानी = १५ प्राण, १ प्राण = १५ ऄक्तन (ऄन), १ ऄक्तन = १५ िनमेष, १ िनमेष = १५ लोमगर्त्प, १ लोमगर्त्प = १५ स्िेदायन। िजतने लोमगर्त्प हैं ईतने ही स्तोक (जल ििन्दु) बरसते हैं। िििान् बाकप िल ने यह कहा-मैं सािपभौम (सभी प्रकार के ) मेघ जानता ूं। सभी मेघों में आतने ही स्तोक हैं। १ िषप में लोमगर्त्प = १०८०० x १५-७ = १.८४५ x १०१२ (शरीर कह्ळ कोष संख्या) र्ुरुष ििश्व का १० गुणा है-ऄत्यिर्त्ष्ठर्द्शाङ्गुलम् (र्ुरुष सूक्त १)। ऄतः प्रायः १०११ तारा ब्रह्माण्ड में या ििश्व में १०११ ब्रह्माण्ड हैं। ब्रह्माण्ड मनुष्य सम्बन्ध अकाश में ही र्ृथ्िी कह्ळ तथा र्ृथ्िी र्र िनस्र्ित, मनुष्य अह्लद कह्ळ सृिि हुइ है। ऄतः स्र्ि है ह्लक र्ृथ्िी तथा मनुष्य अकाश कह्ळ प्रथम रचनाओं के ऄनुसार ही होंगे। आस ऄथप में िेद में लोकों तथा मनुष्य को प्रितमायें कहा गया है। आसी ऄथप में अधुिनक ज्योितष में िंश िसद्धान्त (Anthropic Principle) हैं िजनके कइ रूर् हैं(१) ििश्व का िनरीक्षण ईसे देखने िाले कह्ळ प्रकृ ित या योग्यता के ऄनुसार है। (२) भौितक ििज्ञान के सभी मूल िस्थराङ्क बहुत छोटी सीमा के भीतर हैं िजसमें चेतन सृिि हो सकती है। (३) सृिि के कइ ििकल्र् हैं, ह्लकन्तु िही रूर् रहता है जो स्थायी हो सके या चेतन सृिि कर सके । (४) कइ प्रकार के ििश्व हैं, र्र हम ईसी में हैं िजसमें हमारी ईत्र्िर्त् सम्भि है। (५) ििश्व कह्ळ रचना स्ितः-प्रमाण है, ईसके िनयम िैसे ही हैं िजसमें आस प्रकार कह्ळ रचना हो सके । (६) ििश्व बहुत जह्ऱटल है, ह्लकन्तु हम ईसका ईतना ही भाग और रूर् देखते हैं जो हमारी सीमा में है। (७) ििश्व कह्ळ अयु ईतनी ही है, िजसमें चेतना का सबसे ऄिधक ििकास हो सके । कइ प्रकार के अधुिनक िसद्धान्तों का िणपन तथा समीक्षा के िलये र्ाल डेििस (Paul Davies) कह्ळ र्ुस्तक गोल्डीलौक्स एिनग्मा (The Goldilocks Enigma, 2006) अह्लद देख सकते हैं। िेद में भी प्रायः सभी िसद्धान्तों का िणपन है, जो ऄर्ने-ऄर्ने प्रसंग में सही हैं। (१) सहस्र बल्शा- मूल समरूर् रस या अनन्द से सृिि के सहस्र या ऄनन्त ििकल्र् थे। प्रित ििकल्र् को १ शाखा कहा गया है। आस ऄथप में र्ुरुष को सहस्र शीषप कहते हैं। िनस्र्ते शतिल्शो ििरोह (ऊक् ३/८/११) तेन सहस्र काण्डेन र्ह्ऱर णः र्ािह ििश्वतः। (ऄथिप २/७/३) अचि असां र्ाथो नदीनाम् िरुण ईग्रः सहस्रचक्षाः। (ऊक् ७/३४/१०) तेन सहस्रधारे ण र्ािमान् यः र्ुनन्तु माम्। (ऊक् िखल ९/१३/१, तैिर्त्रीय ब्राह्मण १/४/८/६) सहस्रधारे िितते र्िित्र अ (ऊक् ९/७३/७) सहस्रमूलः र्ुरुषाको ऄित्रः (ऄथिप १३/३/१५) सहस्रिल्शमिभ सं चरिन्त। (ऊक् ७/३३/९) सहस्र शीषाप र्ुरुषः सहस्राक्षः सहस्रर्ात्। (र्ुरुष सूक्त १, िा. यजु ३१/१) सहस्रशृङ्गो िृषभः यः समुिादुदाचरत्। (ऊक् ७/५५/७) सहस्रशृङ्गो िृषभो जातिेदाः (ऄथिप १३/१/१२) सहस्रशृङ्गो िृषभस्तदोजाः (ऊक् ५/१/८) (२) िृक्ष क्रम- जगन्नाथ को कइ ऄथों में दारु ब्रह्म कहा गया है(क) आसके कर्त्ाप तथा िनरीक्षक रूर्ों को २ सुर्णप कहा गया है, जो व्यिक्त में अत्मा-जीि रूर् में हैं। िनरीक्षक रूर् र्रात्र्र िनह्सिशेष ब्रह्म है जो िृक्ष कह्ळ भांित स्तब्ध होकर के िल देखता है।
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िृक्ष आि स्तब्धो ह्लदिि ितष्ठत्येकस्तेनेदं र्ूणं र्ुरुषेण सिपम्। (श्वेताश्वतर ईर्िनषद् ३/९) िा सुर्णाप सयुजा सखाया समानं िृक्षं र्ह्ऱर षस्िजाते। तयोरन्यः िर््र्लं स्िाित्त्यनश्नन्नन्यो ऄिभ चाकशीित॥ (ऊक् १/१६४/२०, ऄथिप ९/९/२०, श्वेताश्वतर ईर्िनषद् ४/६, मुण्डक ईर्िनषद् ३/१/१) (ख) जगत् कह्ळ प्रत्येक ह्लक्रया का क्रम है-सङ्कल्र्-ह्लक्रया-फल, जैसे िृक्ष में मूल, तना, शाखा हैं तथा ऄिन्तम र्ह्ऱरणाम फल है। ऄहं िृक्षस्य रे ह्ऱरिा। कह्ळह्सतः र्ृष्ठं िगरे ह्ऱरि। उध्िप र्िित्रो िािजनीि स्िमृतमिस। िििणं सिचपसम्। सुमेधा ऄमृतोिक्षतः। आित ित्रशङ्कोिेदानुिचनम्। (तैिर्त्रीय ईर्िनषद् १/१०) = मैं (कमपबन्धन रूर्ी) िृक्ष (संकल्र्-ह्लक्रया-फल, र्ुनः नया संकल्र् का ऄनन्त क्रम) को काटने िाला ूं। मेरी कह्ळह्सत िगह्ऱरर्ृष्ठ (चोटी या कू टस्थ, ऄक्षर र्ुरुष) के समान है। मैं स्रिा सूयप के समान ऄमृत (स्थायी) ूं। मेरा धन िचपस् (शिक्त) दे। बुिद्ध ऄमृत से शुद्ध हो। यह िेद में ित्रशंकु का ऄनुभि है। िासना िशतः प्राणस्र्न्दस्तेन च िासना। ह्लक्रयते िचर्त्बीजस्य तेन बीजाङ्कु र क्रमः॥२६॥ िे बीजे िचर्त्िृक्षस्य प्राणस्र्न्दस्तेन िासने। एकह्ऴस्मश्च तयोः क्षीणे िक्षप्रं िे ऄिर् नश्यतः॥२७॥ िे बीजे िचर्त्िृक्षस्य िृिर्त्व्रतितधाह्ऱरणः। एकं प्राण र्ह्ऱरस्र्न्दो िितीयं दृढभािना॥२८॥ (मुिक्तकोर्िनषद्, ऄध्याय २) प्राण का िनयन्त्रण िासना िारा है। प्राण के स्र्न्दन से और िासना होती है। आनका बीज िचर्त् में ऄंकुर कह्ळ तरह बढ़ता है। िचर्त्-िृक्ष के २ बीज हैं, प्राण-स्र्न्दन, िासना। एक भी बीज नि होने र्र दूसरा भी नि होता है। िचर्त्-िृक्ष के २ बीज हैंिृिर्त् (प्रकृ ित), व्रतित (संकल्र्)। एक के िल प्राण का स्र्न्दन है, दूसरा दृढ़ संकल्र्। आसका सारांश गीता में हैऄधश्चोध्िं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रिृद्धा ििषयप्रिालाः। ऄधश्चमूलान्यनुसन्ततािन कमापनुबन्धीिन मनुष्यलोके ॥ न रूर्मस्येह तथोर्लभ्यते,नान्तो न नाह्लदनप च सम्प्रितष्ठा। ऄश्वत्थमेनं सुििरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन िछत्िा। (गीता १५/२-३) (ग) मूल स्रोत उर्र है, ईससे िनह्समत स्तर नीचे कहा गया है। िनमापण बाद में होने के कारण िह नीचा है, नीची भूिम र्र जल बाद में बहकर र्हुंचता है। स्रोत तथा िनमापण के स्तरों का क्रम स्थायी है, जैसे िृक्ष स्थायी होता है, र्र ईसके र्र्त्े झिते रहते हैं। आसी प्रकार सीमा-बद्ध (छन्द) िस्तु नाशिान् है-जैसे मनुष्य, घर अह्लद। र्र िृक्ष, मनुष्य जाित का क्रम स्थायी है। ििश्विृक्ष का अिधदैििक तथा अध्याित्मक रूर् उर्र सारणी में ह्लदखाया गया है। ििश्व के ५ स्तर र्रस्र्र प्रितमा रूर् हैंउध्िपमल ू मधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांिस यस्य र्णापिन यस्तं िेद स िेदिित् ॥ (गीता १५/१) उध्िप मूलोऽिाक् शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः । (कठ ईर्िनषद् २/३/१) गीता (१५/१) स ऐक्षत प्रजार्ितः (स्ियम्भूः) आमं िा अत्मनः प्रितमामसृिक्ष। अत्मनो ह्येतं प्रितमामसृजत। ता िा एताः प्रजार्तेरिध देिता ऄसृज्यन्त-(१) ऄिग्नः (तद् गह्सभतो भूिर्ण्डश्च), (२) आन्िः (तद् गह्सभतः सूयपश्च), सोमः (तद् गह्सभतः चन्िश्च), (४) र्रमेष्ठी प्राजार्त्यः (स्िायम्भुिः)-शतर्थ ब्राह्मण (११/६/१/१२-१३) स्ियम्भू -शतर्थ बाह्मण (६/१/१/८), र्रमेष्ठी-िाह्ऱर िा ऄर्् रूर्-शतर्थ बाह्मण (६/१/१/९-१०), सूयप त्रयी ििद्या (श्रुतेः त्रीिण र्दाः)-शतर्थ बाह्मण (११/६/१/१), भूमण्डल भूिर्ण्डः-शतर्थ बाह्मण (६/१/२/१), भूक्षेत्र-शतर्थ बाह्मण (६/१/२/३), चन्ि मण्डल-शतर्थ बाह्मण (६/१/२/४) (घ) ब्रह्म ही िनमापण सामग्री है जैसे िृक्ष का काष्ठ कु सी अह्लद बनाने के काम अता है। ह्शक िस्ििनं क ई स िृक्ष अस यतो द्यािा र्ृिथिी िनितक्षुः। मनीिषणो मनसा र्ृच्छतेद ु तत् यदध्यितष्ठद् भुिनािन धारयन्॥ (ऊक् १०/८१/४)
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= िह कौन सा महािृक्ष या िन था िजसे काटकर र्ृथ्िी, अकाश का िनमापण हुअ? मनीिषयों ने मन में प्रश्न ह्लकया ह्लक ह्लकसने सृिि कह्ळ तथा ह्लकसने आसका धारण ह्लकया? आसका ईर्त्र हैब्रह्मिनं ब्रह्म स िृक्ष असीत् यतो द्यािा र्ृिथिी िनितक्षुः। मनीिषणो मनसा ििब्रिीिम िो ब्रह्माध्यितष्ठद् भुिनािन धारयन्। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/८/९, संिहता ५/६/१) = ब्रह्म ही िह िन तथा िह िृक्ष था िजसे काटकर अकाश-र्ृिथिी बने। मनीिषयों ने ऄर्ने मन में ही आसका ईर्त्र र्ाया ह्लक ब्रह्म ही आसका िनमापता तथा धारण करने िाला है। ह्शक िस्िदासीदिधष्ठानमारम्भणं कतमित्स्ित् कथासीत्। यतो भूिम जनयन् ििश्वकमाप िि द्यामौणोन् मिहना ििश्वतक्षाः॥ (ऊक् १०/८१/२) = ऄिधष्ठान तथा िनमापण सामग्री क्या तथा ह्लकस प्रकार कह्ळ थी? िनमापण कह्ळ िििध तथा िनमापता कौन था? (ङ) एक साथ कइ िनमापण क्रम, सामग्री, या िनह्समत िस्तु-िृक्षों का िन। (च) िृक्ष चेतन तथा सदा बढ़ता है जैसे ब्रह्म। ऄदो यर्द्ारुः ्लिते िसन्धोः र्ारे ऄर्ूरुषम्। तदारभस्ि दुहण प ो येन गच्छ र्रस्तरम्। (ऊक् १०/१५५/३) = (जगन्नाथ रूर्ी) िह (तत्, ऄदस् = ब्रह्म के ऄथप में, यत् तत् र्दमनुर्त्मम्-ििष्णुसहस्रनाम) दारु (काष्ठ) िसन्धु (रस, ऄर््, या ऄन्य प्रकार के जल का ििस्तार) के र्ार है। िह ऄर्ूरुष है ऄथापत् र्ुरुष-साम से र्रे है। आस दुहण प (ऄििनाशी, दुलपभ) दारु कह्ळ शरण से ही भि सागर के र्ार हो सकते हैं। आसी प्रकार का श्लोक शाकल शाखा में हैयर्द्ािपमानुष िसन्धोस्तीरे तीणं प्रदृश्यते। तदालभाय र्रं र्दं प्राप्नोित दुलपभम्॥ (शाकल सं. ८/८/१३/३) = यह जो ऄमानुष दारु िसन्धु के र्ार (िसन्धु तट र्र ईत्कल भूिम में) दीखता है, ईसका अलभन करने से दुलपभ र्रम र्द प्राप्त होता है। (छ) िृक्ष के फलों से र्ुरुष जीिन चलता है, यह ििराट् र्ुरुष का प्रितरूर् है। ऄश्वत्थे िो िनषदनं र्णे िो िसितकृ ता। गो भाज आत् ह्लकलासथ यत् सनिथ र्ूरुषम्। (ऊक् १०/९७/५) यिस्मन् िृक्षे मध्िदः सुर्णाप िनििशन्ते सुिते चािधििश्वे। तस्येदाहुः िर््र्लं स्िािग्रे तन्नोन्नशद्यः िर्तरं न िेद। (ऊक् १/१६४/२२) (३) माया के अिरण-ऄव्यक्त माया से अिृत होकर कइ रूर्ों कह्ळ सृिि करता है। आसके कइ स्तर हैं। नासदीय सूक्त के १० िादों में एक है-अिरण िाद, िजसमें, िय, ियुन, ियोनाध कह्ळ र्ह्ऱरभाषा छन्द के ऄथप में दी गयी है। आन स्तरों तथा माया का िणपन कइ स्थानों र्र हैस र्यपगात् शुक्रम् ऄकायम् ऄव्रणं ऄस्नाििरं शुद्धम् ऄर्ार्ििद्धम्। कििमपनीषी र्ह्ऱरभूः स्ियम्भूः याथातथ्यतोऽथापन् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥ (इशािास्य ईर्िनषद्, ८, यजु. ४०/८) यहां किि का मुख्य ऄथप स्रिा है। िह ऄव्यक्त तेज या रस रूर् र्दाथप को कइ प्रकार से काया, व्रण, स्नायु, र्ा्मा अह्लद से घेरकर (र्यपगात्) ऄथप (िाक् = अकाश के र्दाथप) को यथास्थान रखा, तथा यह शाश्वत क्रम है। शब्द किि के िलये ऄथप है ह्लक िह ऄव्यक्त ििचारों को िणप, शब्द, ििभिक्त, ईर्सगप, र्द-िाक्य सम्बन्धों िारा िैसा ही व्यक्त करता है जैसा मन के भीतर था, ऐसी रचना शाश्वत होती है। दोनों किि मनीषी (िचन्तक), र्ह्ऱरभू (र्ूणप िििेचक) स्ियम्भू (स्ियं सक्षम) हैं। रूर्ं रूर्ं मघिा बोभिीित मायाः कृ ण्िानस्तन्िं र्ह्ऱर स्िाम्। ित्रयपह्लर्द्िः र्ह्ऱर-मुूर्त्पमागात् स्िैमपन्त्रैरनृतुर्ा ऊतािा। (ऊक् ३/५३/८) रूर्ं रूर्ं प्रितरूर्ो बभूि तदस्य रूर्ं प्रितचक्षणाय। आन्िो मायािभः र्ुरुरूर् इयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश॥ (ऊक् ६/४७/१८) 77
= अकाश में ििकह्ळणप तेज आन्ि है, िह माया िारा सीिमत होकर िििभन्न रूर् धारण करता है। र्रात्र्र ब्रह्म में रस, बल िमले हुये हैं, ईनका ऄन्तर र्ता नहीं चलता। माया के स्तरों से कइ भेद बनते हैं-(१) सीमाभाि१६ प्रकार के -र्ुरुष। (२) कला -मूल प्रकृ ित, (३) गुण-प्रकृ ित भेद, (४) ििकार-यज्ञ प्रजार्ित (र्ह्ऱरितपन या िनमापण), (५) ऄञ्जन (रं ग, दृश्य भेद)-र्ुरञ्जन-ििराट् प्रजार्ित, (६) अिरण-र्ुर-ििश्व प्रजार्ित। (४) सत्य-ऄसत्य-ििश्व िही है जो ििा िारा ऄनुभि ह्लकया जा सके । आस कारण ३ या ७ प्रकार के सत्य हैंये ित्रषप्ताः र्ह्ऱरयिन्त ििश्वाः (ऄथिप १/१/१) सप्तास्यासन् र्ह्ऱरधयः ित्रः सप्त सिमधः कृ ताः। (र्ुरुष सूक्त, १३) सत्यव्रतं सत्यर्रं ित्रसत्यं सत्यस्य योह्ऴन िनिहतं च सत्ये। सत्यस्य सत्यं ऊतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्िां शरणं प्रर्द्ये। (भागित र्ुराण १०/२/२६) कु ल िमला कर ३ x ७ = २१ प्रकार के सत्य होंगे। ििश्व प्रितमा मनुष्य-ििश्व के २ ऄव्यक्त स्तर हैं-िनह्सिशेष र्रात्र्र में कोइ भेद नहीं था। जब र्दाथप-उजाप, या िशि-शिक्त का भेद हुअ तो िह भेदाभेद या ऄधप नारीश्वर ऄिस्था थी। ईसके बाद ब्रह्माण्डों के समूह के रूर् में ििश्व व्यक्त हुअ, िजनसे अरम्भ कर ििश्व के ५ र्िप तथा मनुष्य शरीर में ईनके प्रितरूर् ५ चक्र ििश्व-िृक्ष में ह्लदखाये गये हैं। आन ७ स्तरों का सम्बन्ध आस प्रकार है१. र्रात्र्र (सहस्र िल्शा)
सहस्रार चक्र (िसर के उर्र)
२. िशि-शिक्त युग्म
अज्ञा चक्र-भ्रूमध्य के र्ीछे , मिस्तष्क के न्ि
३. स्ियम्भू मण्डल
ििशुिद्ध-कण्ठ कू र्
४. ब्रह्माण्ड
ऄनाहत-हृदय
५. सौर मण्डल
मिणर्ूर-नािभ के र्ीछे
६. चान्ि मण्डल
स्िािधष्ठान-मेरुदण्ड का अधार
७. र्ृथ्िी
मूलाधार-ऄर्ान-मूत्र मागों का मध्य
यहां साधना क्रम में चक्र ह्लदखाये गये हैं। गितशील सम्बन्ध-आस प्रितमा के ऄितह्ऱरक्त कइ प्रकार से मनुष्य का अकाश से गितशील सम्बन्ध बना रहता है। हमारे मन का मुख्य सम्बन्ध चन्ि तथा सूयप से है। दोनों प्रकाश या गुरुत्िाकषपण कह्ळ गित से हैं-दोनों गित समान हैं। चन्िमा से हमारे प्रज्ञान मन का सम्बन्ध है जो िचन्ता या मन कह्ळ प्रिृिर्त्यां हैं। ईसी के साथ महान् अत्मा भी है, जो अकाशगंगा के प्रितरूर् महाभूतों का समन्िय मात्र है। चन्ि का प्रकाश अकाशगंगा के समरूर् है, ििशेषकर ऄमािास्या राित्र में। महाभूत तत्त्िों को चन्ि का अकषपण प्रभािित करता है। मन का सम्बन्ध प्रकाश कह्ळ गित से चन्ि तक िनमेष मात्र में र्हुंच कर लौटता है। आसके कारण मन में स्र्न्दन होता है, ऄतः चन्ि को मन का स्िामी कहा गया है। मृत्यु के बाद यह सम्बन्ध टू ट जाता है तथा महान् अत्मा १ मास में धीरे धीरे चन्ि के उध्िप भाग तक र्हुंचती है। आसके ऄंश अकृ ित (रूर्, अकार) प्रकृ ित (स्िभाि, गुण) ऄहंकृित ( एक व्यिक्त होने कह्ळ भािना) धीरे धीरे सूयप ह्लकरणों के दबाि से शिन तक र्हुंचते हैं। यह गो (ह्लकरण) कह्ळ र्ूंछ है। शिन के चारों तरफ के िलय िैतरणी नदी हैं, िजनके ३ क्षेत्रों को ऄथिप िेद में र्ीलुमती, ईदन्िती, प्रद्यौ कहा गया है। ििज्ञान अत्मा बुिद्ध है िजसका हृदय से अज्ञा चक्र तक सुषुम्ना िारा तथा ईसके बाद सहस्रार तक ब्रह्म-रन्ध्र िारा है। ये दोनों प्रत्येक मनुष्य के िलये ऄलग ऄलग हैं आसिलये ऄणु र्थ कहे जाते हैं। िहां से सूयप तक प्रकाश ह्लकरणों कह्ळ गित से
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सम्बन्ध होता है, यह र्ृथ्िी से सूयप तक बिा मागप है, ऄतः महा-र्थ कहलाता है। प्रकाश गित से १५ कोह्ऱट ह्लक.मी. कह्ळ दूरी प्रायः ८ िमनट में र्ार करे गा, ऄथापत् १ मुूर्त्प में ३ बार जाकर लौट अता है। (प्रकाश योजन के प्रसंग में सन्दभप) ऄहरहिाप एष यज्ञस्तायते, ऄहरहः सिन्तष्ठते, ऄहरहरे नं स्िगपस्य लोकस्य गत्यै युङ्क्ते , ऄहरहरे नेन स्िगप लोकं गच्छित। (शतर्थ ब्राह्मण ९/४/१/१५) ऄनन्ता रश्मयस्तस्य दीर्िद् यः िस्थतो हृह्लद। िसतािसताः किुनीलाः किर्लाः मृदल ु ोिहताः॥१॥ उध्िपमेकिस्थतस्तेषां यो िभत्िा सूय्यपमण्डलम्। ब्रह्मलोकमितक्रम्य तेन याित र्रां गितम्॥२॥ यदस्यान्यद् रिश्मशतमूध्िपमेि व्यििस्थतम्। तेन देििनकायानां स्िधामािन प्रर्द्यते॥३॥ येनैक रूर्ाश्चाधस्ताद् रश्मयोऽस्य मृदप्र ु भाः। आह कम्मोर्भोगाय तैः संसरित सोऽिशः॥४॥ (मैत्रायणी ईर्िनषद् ६/३०)
ईदन्िती द्यौरिमा र्ीलुमतीित मध्यमा। तृतीया ह प्रद्यौह्ऱरित यस्यां िर्तर असते॥ (ऄथिप १८/२/४८) सत्य-सूत्र अत्मा-र्रमात्मा का सम्बन्ध है, यज्ञ सूत्र िारा शरीर कह्ळ ह्लक्रयायें सम्र्न्न होती हैं। मनुष्य का ग्रहों से सम्बन्ध-शरीर के भीतर हृदय से अज्ञा चक्र तक का सूत्र सुषुम्ना कहा गया है। ईसका महार्थ भाग अकाश में है, ईसे भी सुषुम्ना कहा गया है जो सूयप का चन्ि-मण्डल तथा ईसके के न्ि िस्थत र्ृत्िी से सम्बन्ध है। ििष्णु र्ुराण में कहा गया है ह्लक सुषुम्ना िारा चन्ि का तेज शुक्ल र्क्ष में क्रमशः बढ़ता है। कृ ष्ण र्क्ष में चन्ि के ििर्रीत (उध्िप) भाग में िस्थत िर्तर सुषुम्ना रिश्म का र्ान करते हैंसूयपरिश्मः सुषुम्णा यस्तह्सर्तस्तेन चन्िमाः। कृ ष्णर्क्षेऽमरै ः शश्वत् र्ीयते िै सुधामयः॥२२॥ र्ीतं तं ििकलं सोमं कृ ष्ण-र्क्ष क्षये ििज। िर्बिन्त िर्तरस्तेषां भास्करार्त्र्पणं तथा॥२३॥ (ििष्णु र्ुराण २/११/२२-२३) आनका िितृत िणपन यजुिेद, ऄध्याय १५, १७, १८ में तथा िही िणपन कू मप र्ुराण र्ूिप भाग (४१/२-८), मत्स्य र्ुराण (१२८/२९-३३), िायु र्ुराण (५३/४४-५०), ब्रह्माण्ड र्ुराण (१/२/२४/६५-७२) में है। आनका तात्र्यप है ह्लक सूयप से हमारा सम्बन्ध सुषुम्ना ह्लकरण िारा है ईसमें ग्रहों के अकषपण के कारण कु छ र्ह्ऱरितपन होता है। आन र्ह्ऱरितपनों के कइ नाम, ह्लदशायें अह्लद िह्सणत हैं। आनके कारण ही ग्रह गित का हम र्र प्रभाि र्िता है। गभप में जन्म के समय किलल रूर् के गुण ईस समय िक्षितज र्र ग्रहों कह्ळ ह्लदशा के ऄनुसार िस्थर होते हैं, ईनमें थोिा र्ह्ऱरितपन गभप काल में चन्ि के नक्षत्र-भ्रमण से होताहै। ग्रह
बुध
शुक्र
नािी
ििश्वकमाप
ह्लदशा
दिक्षण
मंगल
गुरु
शिन
नक्षत्र
ििश्वव्यचा(ििश्वश्रिा) सुषुम्ना
संयद् िसु
ऄिापग्िसु
स्िर
हह्ऱरके श
र्िश्चम
ईर्त्र
उध्िप
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र्ूिप
र्ृथ्िी-चन्ि --
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िाजसनेयी यजुिेद, ऄध्याय १५-ऄयं र्ुरो हह्ऱरके शः सूयरप िश्मस्तस्य रथगृत्सश्च रथौजाश्च सेनानीग्रामण्यौ। र्ुिञ्जकस्थला च क्रतुस्थला चा्सरसौ दृङ्क्ष्णिः र्शिो हेितः र्ौरुषेयो िधः प्रहेितस्तेभ्यो नमो ऄस्तु ते नोऽिन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं ििष्मो यश्च नो िेिि तमेषां जम्भे दध्मः॥१५॥ ऄयं दिक्षणा ििश्वकमाप तस्य रथस्िनश्च रथेिचत्रश्च सेनानी ग्रामण्यौ। मेनका च सहजन्या चा्सरसौ यातुधाना हेती रक्षांिस प्रहेितस्तेभ्यो नमो ऄस्तु ते नोऽिन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं ििष्मो यश्च नो िेिि तमेषां जम्भे दध्मः॥१६॥ ऄयं र्श्चाििश्वव्यचास्तस्य रथप्रोतश्चासमरथश्च सेनानी ग्रामण्यौ। प्रम्लोचन्ती चानुम्लोचन्ती चा्सरसौ व्याघ्रा हेितः सर्ापः प्रहेितस्तेभ्यो नमो ऄस्तु ते नोऽिन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं ििष्मो यश्च नो िेिि तमेषां जम्भे दध्मः॥१७॥ ऄयमुर्त्रात् संयिसुस्तस्य ताक्ष्यपश्चाह्ऱरिनेिमश्च सेनानी ग्रामण्यौ। ििश्वाची च घृताची चा्सरसािार्ो हेितिापतः प्रहेितस्तेभ्यो नमो ऄस्तु ते नोऽिन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं ििष्मो यश्च नो िेिि तमेषां जम्भे दध्मः॥१८॥ ऄयमुर्यपिापग्िसुस्तस्य सेनिजच्च सुषेणश्च सेनानी ग्रामण्यौ। ईिपशी च र्ूिपिचिर्त्श्चा्सरसाििस्फू जपन् हेितह्सिद्युत् प्रहेितस्तेभ्यो नमो ऄस्तु ते नोऽिन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं ििष्मो यश्च नो िेिि तमेषां जम्भे दध्मः॥१९॥ ऄध्याय १७-सूयपरिश्महपह्ऱरके शः र्ुरस्तात् सििता ज्योितरुदयािँ ऄजस्रम्। तस्य र्ूषा प्रसिे याित िििान्त्सम्र्श्यिन्िश्वा भुिनािन गोर्ाः॥५८॥ ऄध्याय १८-सुषुम्णः सूयपरिश्मश्चन्िमा गन्धिपस्तस्य नक्षत्राण्य्सरसो भेकुरयो नाम। स न आदं ब्रह्म क्षत्रं र्ातु तस्मै स्िाहा िाट् ताभ्यः स्िाहा॥४०॥ कू मप र्ुराण, र्ूिपििभाग, ऄध्याय ४१तस्य ये रश्मयो ििप्राः सिपलोक प्रदीर्काः। तेषां श्रेष्ठाः र्ुनः सप्त रश्मयो ग्रहयोनयः॥२॥ सुषुम्नो हह्ऱरके शश्च ििश्वकमाप तथैि च। ििश्वव्यचाः र्ुनश्चान्यः संयिसुरतः र्रः॥३॥ ऄिापिसुह्ऱरित ख्यातः स्िराडन्यः प्रकह्ळह्सततः। सुषम्न ु ः सूयपरिश्मस्तु र्ुष्णाित िशिशरद्युितम्॥४॥ ितयपगूध्िपप्रचारोऽसौ सुषुम्नः र्ह्ऱरर्ठ्यते। हह्ऱरके शस्तु यः प्रोक्तो रिश्मनपक्षत्र र्ोषकः॥५॥ ििश्वकमाप तथा रिश्मबुध प ं र्ुष्णाित सिपदा। ििश्वव्यचास्तु यो रिश्मः शुक्रं र्ुष्णाित िनत्यदा॥६॥ संयिसुह्ऱरित ख्यातः स र्ुष्णाित च लोिहतम्। बृहस्र्ह्ऴत प्रर्ुष्णाित रिश्मरिापिसुः प्रभोः। शनैश्चरं प्रर्ुष्णाित सप्तमस्तु सुराट् तथा॥७॥ एिं सूयप प्रभािेण सिाप नक्षत्रतारकाः। िधपन्ते िह्सधता िनत्यं िनत्यमा्याययिन्त च॥८॥ मत्स्य र्ुराण, ऄध्याय १२८-सुषुम्ना सूयपरिश्मयाप क्षीणम् शिशनमेधते। हह्ऱरके शः र्ुरस्तार्त्ु यो िै नक्षत्रयोिनकृ त्॥२९॥ दिक्षणे ििश्वकमाप तु रिश्मरा्याययद् बुधम्। ििश्वािसुश्च यः र्श्चाच्छु क्रयोिनश्च स स्मृतः॥३०॥ संिधपनस्तु यो रिश्मः स योिनलोिहतस्य च। षष्ठस्तु ह्यश्वभू रिश्मयोिनः सा िह बृहस्र्तेः॥३१॥ शनैश्चरं र्ुनश्चािर् रिश्मरा्यायते सुराट् । न क्षीयन्ते यतस्तािन तस्मान्नक्षत्रता स्मृता॥३२॥ क्षेत्राण्येतािन िै सूयपमातर्िन्त गभिस्तिभः। क्षेत्रािण तेषामादर्त्े सूयो नक्षत्रता ततः॥३३॥ ब्रह्माण्ड र्ुराण, र्ूिपभाग, ऄध्याय २४रिे रिश्मसहस्रं यत्प्राङ्मया समुदाहृतम्। तेषां श्रेष्ठाः र्ुनः सप्तरश्मयो ग्रहयोनयः॥६५॥ सुषुम्णो हह्ऱरके शश्च ििश्वकमाप तथैि च। ििश्वश्रिाः र्ुनश्चान्यः संर्िसुरतः र्रः॥६६॥ ऄिापिसुः र्ुनश्चान्यः स्िराडन्यः प्रकह्ळह्सर्त्तः। सुषुम्णः सूयपरिश्मस्तु क्षीण शिशनमेधयेत्॥६७॥ ितयपगूध्िपप्रचारोऽसौ सुषुम्णः र्ह्ऱरकह्ळह्सर्त्तः। हह्ऱरके शः र्ुरस्ताद्य ऊक्षयोिनः स कह्ळत्यपते॥६८॥ दिक्षणे ििश्वकमाप तु रिश्मन्िद्धपयते बुधम्। ििश्वश्रिास्तु यः र्श्चाच्छु क्रयोिनः स्मृतो बुधैः॥६९॥ सम्र्िसुस्तु यो रिश्मः स योिनलोिहतस्य तु। षष्ठस्त्िव्िापिसू रिश्मयोिनस्तु स बृहस्र्तेः॥७०॥ शनैश्चरं र्ुनश्चािर् रिश्मरा्यायते स्िराट् । एिं सूयपप्रभािेण ग्रहनक्षत्रतारकाः॥७१॥ िर्त्पन्ते ह्लदिि ताः सिाप ििश्वं चेदं र्ुनजपगत्। न क्षीयन्ते यतस्तािन तस्मान्नक्षत्रसंिज्ञताः॥७२॥ क्षेत्राण्येतािन िै र्ूिपमातर्िन्त गभिस्तिभः। तेषां क्षेत्राण्यथादर्त्े सूयो नक्षत्रकारकाः॥७३॥ मन आिन्िय मन ईभय कमेिन्िय तथा ज्ञानेिन्िय है। यह ७ प्रकार से ग्रहण करता है, िजसे ऄिग्न कह्ळ लेलायमान् (िनगलने िाली) िजह्िा कहा गया है। बाह्य र्दाथप का जो ऄंश अता है, ईस कह्ळ गित प्राण है। ऄतः ७ प्रकार के प्राण हैं। ह्लकतु आिन्ियां ६ है हैं, ऄतः
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५ प्राण ऄनुभि योग्य है। ऄन्य २ प्राण ऄसत् या ऄतीिन्िय हैं। ऄतः प्राण ७ या ५ कहे गये हैं। २ ऄसत् प्राण हैं ऊिष, र्रोरजा (= रजः या लोक से र्रे , िर्तर) । बाकह्ळ ५ सत् प्राण हैं िजनको प्राण, ऄर्ान, समान, ईदान, व्यान कहा गया है। ७ ग्रहण करने के तथा ७ िनगपमन के प्रकार हैं-ये ऄिग्न कह्ळ िजह्िा हैं-ऄिग्न र्दाथप या उजाप का एक िर्ण्ड, िह ७-७ प्रकार से ग्रहण या दान करता है। दान प्रकारों को ऄह्सच (ऄंगारा) कहते हैं। ऄतः शािन्त-र्ाठ में कु ल ऄिग्न िजह्िा १४ (मनिः) कही हैं। ऄथिा मन कह्ळ सभी िृिर्त्यां ऄिग्न-िजह्िा हैं। ऄिग्निजह्िा मनिः सूरचक्षसो ििश्वेनो देिा ऄिसा गमिन्नह। (ऊग्िेद १/९८/७, यजुिेद २५/२०) काली कराली च मनोजिा च सुलोिहता या च सुधूम्रिणाप। स्फु िलिङ्गनी ििश्वरुची च देिी लेलायमाना आित सप्त िजह्िाः॥ (मुण्डकोर्िनषद् १/२/४) सप्तप्राणा प्रभििन्त तस्मात्, सप्ताह्सचषः सिमधः सप्त होमाः। सप्त आमे लोका येषु चरिन्त प्राणा गुहाशया िनिहताः सप्त सप्त। (मुण्डकोर्िनषद् २/१/८) र्ञ्चस्रोतोऽम्बुं र्ञ्चयोन्युग्रिक्रां, र्ञ्चप्राणोर्वम र्ञ्चबुद्ध्याह्लदमूलाम्। र्ञ्चाितां र्ञ्चदुःखौघिेगां, र्ञ्चाशद् भेदां र्ञ्चर्िापमधीमः॥ (श्वेताश्वतर ईर्िनषद् १/५) नििारे र्ुरे देही हंसो लेलायते बिहः। िशी सिपस्य लोकस्य स्थािरस्य चरस्य च। (श्वेताश्वतर ईर्िनषद् ३/१८) ऄसद् िा आदमग्र असीत्। तद् अहुः ह्शक तद् ऄसद् असीद्। ऊषयो िाि तदग्रे असीत्। तद् अहुः-के ते ऊषयः। प्राणा िा ऊषयः। ते सिपस्माह्लददिमच्छन्तः श्रमेण तर्सा ऄह्ऱरषन्तस्तस्माद् ऊषयः। (शतर्थ ब्राह्मण, ६/१/१/१) प्राणो िै िर्ता। (ऐतरे य ब्राह्मण २/३८) मनःिर्तरः। (शतर्थ ब्राह्मण १४/४/३/१३) एष िाि र्रो रजा आित होिाच। य एष (सूयपः) तर्ित। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/१०/९/४) २ ऄतीिन्िय प्राण िारा प्रज्ञान तथा ििज्ञान अत्मा का चन्ि, सूयप से सम्बन्ध ह्लदखाया जा चुका है। ५ सत् प्राणों िारा ५ ज्ञानेिन्िय ऄनुभि करते हैं िजनको मन ग्रहण करता है तथा ५ कमेिन्ियों को प्रेह्ऱरत करता है। शब्द-कणप
हस्त
स्र्शप-त्िचा
र्ाद
रूर् -नेत्र
मन
िाक (मुख)
रस -िजह्िा
ईर्स्थ-प्रजनन
गन्ध-नािसका
गुदा (मल त्याग) कालमान
ज्योितष को कालििधान शास्त्र कहा गया है जो यज्ञ के िलये ईर्योगी हैिेदा िह यज्ञाथपमिभप्रिृर्त्ाः कालानुर्ूव्याप िििहताश्च यज्ञाः। तस्माह्लददं कालििधानशास्त्रं यो ज्योितषं िेद स िेद यज्ञान् ॥ (ऊक् ज्योितष ३६, याजुष ज्योितष ३) प्रायः यही भास्कराचायप ने िलखा हैिेदास्ताित् यज्ञकमपप्रिृर्त्ा यज्ञाः प्रोक्तास्ते तु कालाश्रयेण। शास्त्रादस्मात् कालबोधो यतः स्याद्, िेदाङ्गत्िं ज्यौितषस्योक्तमस्मात्॥ (िसद्धान्त िशरोमिण, १/१/९) ऄतः िेद, यज्ञ, काल, कह्ळ व्याख्या अिश्यक है। ९ कालमानों के संयोग से ७ प्रकार के युग होते हैं। आन युगों के अधार र्र युग तथा ऐितहािसक काल का िनधापरण होताहै। काल खण्डों के नाम के िलये तत्कालीन राजाओं का िंशािली र्ुराणों में दी गयी है। आन सबके समन्िय से काल का ज्ञान होता है। यज्ञ के िल िषप, ऄयन, मास, र्क्ष र्र ही िनभपर नहीं है, युगों के ऄनुसार भी ईनका ईर्योग तथा िििध में र्ह्ऱरितपन होते हैं। अज जो साधन या िििध ईर्लब्ध हैं, िे ५०० िषप र्ूिप ईर्लब्ध नहीं थे। 81
यज्ञ के ऄथप के ििषय में कइ भ्रम हैं(१) मन्त्र र्ढ़कर ऄिग्न में ऄन्न अह्लद को जलाना यज्ञ है। (२) ऄदृश्य या काल्र्िनक देिताओं को र्शु, ऄन्न अह्लद कह्ळ बिल देकर सन्तुि करना यज्ञ है। (३) यज्ञ के िल िैह्लदक काल में होते थे िजसका ऄनुमान ५०,००० से १५०० इ.र्ू. के काल में ह्लकया गया है। (४) यज्ञ सामान्य कमों से ऄलग प्रकार का अयोजन है। (५) के िल ऊिष लोग यज्ञ करते थे। (६) यज्ञ ही धमप है। िस्तुतः ऄसुर भी यज्ञ करते हे और देिताओं से ऄिधक यज्ञ-तर् के कारण ईनकह्ळ ििजय हुइ। ब्रह्म-कमप-यज्ञ आनका ईल्लेख गीता, ऄध्याय ८ के अरम्भ में है, जहां ३ ििश्वों का भी ईल्लेख हैअिधदैििक का ऄथप काल्र्िनक देि या देिताओं से नहीं है। एक प्रचार है ह्लक िेद के बहुदेििाद का संशोधन ईर्िनषद् के एकदेििाद िारा हुअ। िस्तुतः ईर्िनषद् में देिों का िगीकरण है, जो अकाश के िििभन्न क्षेत्रों के प्राण (उजाप, चेतना) हैं। आनके प्रितरूर् र्ृथ्िी र्र तथा मनुष्य शरीर में है, ऄतः र्ूजा में आनका शरीर में न्यास होता है तथा ईनका प्रितरूर् र्ूजा के िलये सामने रखते हैं। ऄतः अिधदैििक का ऄथप है अकाश कह्ळ सृिि। तैिर्त्रीय ईर्िनषद् में अिधज्योितष का भी िणपन है, जो ब्रह्माण्ड-तारा-ग्रहों कह्ळ िस्थित है। ईनके कारण प्राण क्षेत्रों कह्ळ िस्थित या र्ह्ऱरितपन अिधदैििक है। दोनों िमलाकर भी अिधदैििक कहे जाते हैं। अिधभौितक का ऄथप है हमारे िनकट दीखता र्ृथ्िी का क्षेत्र है। अध्याित्मक का ऄथप है अत्मा (शरीर या ईसके िििभन्न कोष) के भीतर का ििश्व। ब्रह्म = र्ूणप जगत्, िजसके प्रत्येक ििन्दु र्र स्र्न्दन है। कमप = िर्ण्डों कह्ळ गित। जो बाहर से दीखता है िह शुक्ल गित है जो ३ प्रकार कह्ळ है-िनकट अना, दूर जाना, िस्थर दूरी या िृर्त्ीय गित। ५ महाभूतों कह्ळ ५ x ३ = १५ प्रकार कह्ळ गित होगी िजतनी शुक्ल यजुिेद कह्ळ शाखायें हैं। िर्ण्ड कह्ळ अन्तह्ऱरक गित दीखती नहीं है, ऄतः िह कृ ष्ण है। समतल र्र आन खण्डों कह्ळ १७ प्रकार कह्ळ गित हो सकती है (१७ ऄंक के िलये घन शब्द कह्ळ व्याख्या-अधुिनक बीजगिणत का ह्लक्रस्टलोग्राफह्ळ प्रमेय) । ५ महाभूतों कह्ळ ५ x १७ = ८५ प्रकार कह्ळ गित होगी। ऄव्यक्त कह्ळ गित भी दीखती नहीं है। ऄतः कु ल ८६ कृ ष्ण गितयों के िलये ८६ शाखा कृ ष्ण यजुिेद कह्ळ हैं। अधुिनक भौितक ििज्ञान में -- कमप = बल x ििस्थार्न। यज्ञ = ईर्योगी कमप िजस कमप से कोइ ईर्योगी िनमापण हो, ईसे यज्ञ कहते हैं। यह चक्रह्ळय क्रम में होता है। गीता, ऄध्याय ३-सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्िा र्ुरो िाच प्रजार्ितः। ऄनेन प्रसििष्यध्िमेष िोऽिस्त्ििकामधुक् ॥१०॥ यज्ञिशिािशनः सन्तो मुच्यन्ते सिपह्लकिल्बषैः ॥१३॥ एिं प्रिह्सततं चक्रं नानुितपयतीह यः । ऄघायुह्ऱरिन्ियारामो मोघं र्ाथप स जीिित ॥१६॥ = जब से प्रजा कह्ळ सृिि हुयी तभी से यज्ञ चल रहा है। प्रजार्ित ने कहा था ह्लक आसी से आिच्छत िस्तुओं का ईत्र्ादन होगा। यज्ञ चक्र से बचा हुअ ऄन्न ही भोग करना चािहये (िजससे आसका चक्र चलता रहे) । आस यज्ञ-चक्र के ऄनुसार जो नहीं चलता ईसका जीिन मोघ (बेकार, मौगा) है। यज्ञ के दृश्य तथा ऄदृश्य ईत्र्ादन लक्ष्मी, श्री हैं। ईत्र्ाह्लदत िस्तु के अधार र्र गीता में १३ प्रकार के यज्ञ कहे हैं-(१) ब्रह्मयज्ञ-सभी िस्तुओं-ह्लक्रयाओं में ब्रह्म के एकत्ि कह्ळ धारणा। (२) दैियज्ञ -देि और मनुष्य का र्रस्र्र सम्बन्ध और ईन्नित। जो स्ियं ईत्र्ादन नहीं करता तथा दूसरों का ऄर्हरण करता है, िह ऄसुर है। (३) ब्रह्मािग्नयज्ञ-व्यिक्त, र्ह्ऱरिार, समाज, ििश्व के सभी यज्ञों का समन्िय और िनभपरता। (४) संयमयज्ञ-ििषय असिक्त हमें प्रेय मागप र्र ले जाती है, जो क्षिणक खुशी देकर ऄन्ततः हािन करती है। धीर श्रेय मागप 82
र्र चलकर संयम ऄिग्न में आिन्ियों कह्ळ अहुित कर ५२ प्रकार कह्ळ ििभूित र्ा सकते हैं। (५) आिन्िययज्ञ-आिन्ियों को ईनके ििषयों से मुक्त रखना। (६) प्राण कमपयज्ञ-प्राणों को िनयिन्त्रत कर ईर्योगी कमप में लगाना। (७) िव्ययज्ञ-धन लगाकर कइ प्रकार के ईत्र्ादन, व्यिसाय। (८) तर्ोयज्ञ-श्रम का ऄभ्यास, देश में साधन का संग्रह। (९) योगयज्ञ-शरीर में श्वास कमप का समन्िय, (१०) स्िाध्याययज्ञ- ऄर्ना ज्ञान बढाना। (११) ज्ञानयज्ञ-समाज में ज्ञान र्रम्र्रा। (१२) प्राणायामयज्ञ-प्राण का ग्रहण तथा ईसका कमप में प्रयोग। (१३) प्राणयज्ञ-शरीर के भीतर ७ स्तरों र्र ऄन्न का र्ाचन। काल के प्रकार -सूयप िसद्धान्त (१/१०) में २ प्रकार के काल कहे गये हैंलोकानामन्तकृ त् कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः। स ििधा स्थूल सूक्ष्मत्िात् मूतपश्चामूतप ईच्यते॥१०॥ िनत्य काल सदा क्षरण करता है ऄतः मृत्यु भी कहा जाता है। दूसरा कलनात्मक (गणना योग्य) है िजसे जन्य काल कहते हैं। यह यज्ञ-चक्र कह्ळ ऄििध है, िजससे समय कह्ळ मार् होती है। यज्ञ िारा जनन होता है ऄतः यह जन्य काल है। प्राकृ ितक यज्ञों के चक्र हैं-ह्लदन (र्ृथ्िी का ऄक्ष भ्रमण), मास (चन्ि र्ह्ऱरभ्रमण), िषप (सूयप का प्रत्यक्ष र्ह्ऱरभ्रमण) । समय कह्ळ मार् आकाआयां आन र्र अधाह्ऱरत हैं। गीता में ३ बार काल शब्द का व्यिहार है-तीनों ३ प्रकार के काल कह्ळ र्ह्ऱरभाषा है। भागित र्ुराण (३/११) में ४ प्रकार के काल का ईल्लेख है, िजसमें र्रात्र्र काल हमारे ऄनुभि से र्रे है ऄतः ईसका िणपन नहीं है। काल कह्ळ दशपनों में कइ प्रकार से र्ह्ऱरभाषा है, आसका सार है-र्ह्ऱरितपन का अभास काल है। ब्रह्म का ज्ञान रूर् िशि हैं, स्रिा ब्रह्मा, तथा ह्लक्रया रूर् ििष्णु हैं। र्ह्ऱरितपन के ज्ञान रूर् में िशि महाकाल हैं। ह्लक्रया या यज्ञ रूर् में ििष्णु भी काल हैं। ििष्णु िारा कइ प्रकार से काल का कलन होता है-यज्ञ चक्र के ऄििध कह्ळ मार्, कालों का लय (ऄव्यक्त या र्रात्र्र िस्थित) । अकाश के क्षेत्र में ही यज्ञ या काल का लय होता है-िह क्षेत्र काली है। ऄतः ििष्णु को भी एक ऄथप में काली (दिक्षणाकाली) कहते हैं। र्ह्ऱरितपन का अभास ३ प्रकार का है-(१) कोइ भी िर्ण्ड या संहित स्िाभाििक रूर् से ऄव्यििस्थत या क्रम हीन हो जाती है। व्यिस्था लाने के िलये चेतन र्ुरुष का िनयन्त्रण जरूरी है। ऄतः सभी िर्ण्ड क्षय होते होते ऄन्ततः नि हो जाते हैं। ह्लकसी िस्तु के क्षय से र्ता चलता है ह्लक िह र्ुराना हो गया है, र्र ह्लकतना र्ुराना, आस समय कह्ळ मार् नहीं हो र्ाती। आसको भौितक ििज्ञान में तार्गितज काल (Thermodynamic time) कहते हैं। आस काल का ऄथप मृत्यु भी है। (२) जन्य काल-यज्ञ चक्र कह्ळ ऄििध से तुलना कर काल कह्ळ मार् होती है। ह्लदन, मास, िषप के चक्रों में हमारे यज्ञ होते हैं तथा आन चक्रों से समय कह्ळ भी मार् होती है। ऄन्य कृ ित्रम चक्रों से भी मार् हो सकती है िजनका िस्थर चक्र हो-श्वास चक्र, दोलक का दोलन, क्वाट्जप रिा का कम्र्न, र्रमाणु के भीतर आलेक्रन का कक्षा-र्ह्ऱरितपन, या प्रकाश गित से। (३) ऄक्षय कालह्लकसी संहित का ििचार ह्लकया जाय तो कु ल मात्रा, अिेग, उजाप अह्लद ५ प्रकार के मार् िस्थर रहते हैं-ये भौितक ििज्ञान के ५ संरक्षण िसद्धान्त हैं। ऄतः ईस का अभास ऄक्षय काल है। यह र्ूरे समाज या व्यिक्त कह्ळ एक ऄििध का काल है। आस ऄथप में कहते हैं-राजा कालस्य कारणम्-राजा के ऄनुसार समाज कह्ळ िस्थित होती है। आसका िणपन होता है ह्लक समय (जमाना) ऄच्छा या खराब चल रहा है। आसी का छोटा ऄंश मुूर्त्प है जो ह्लकसी काम के िलये ईिचत र्ह्ऱरिस्थित या समय है। र्ूरे ििश्व कह्ळ जो र्ह्ऱरिस्थित है, ईसी से ििश्व का िनमापण या धारण होता है, ऄतः आसे ििश्वतोमुख तथा धाता कहा गया है। (४) बहुत सूक्ष्म र्ह्ऱरितपन हमारे ऄनुभि से र्रे हैं-िह र्रात्र्र काल है। कालोऽिस्म लोक क्षयकृ त्प्रिृद्धो । (गीता ११/३२) = मैं िह काल ूं जो लोकों के क्षय कह्ळ ह्लदशा में बढ़ता है। कालः कलयतामहम् । (गीता १०/३०) = मैं गणना योग्य काल ूं। सभी गणनाओं में काल कह्ळ गणना सबसे कह्ऱठन है, क्योंह्लक यािन्त्रकह्ळ में यह दशपक के ऄनुसार बदलता है, ििद्युत्-चुम्बकह्ळय िसद्धान्त में प्रकाश कह्ळ गित दशपक र्र िनभपर नहीं है। र्र हम दोनों को एक मानकर गणना करते हैं। ऄहमेिाक्षयः कालो धाताहं ििश्वतोमुखः (गीता १०/३३) = मैं ही ऄक्षय काल, धाता तथा ििश्व का मूल ूं। 83
आसी प्रकार र्ुरुष भी ४ प्रकार के हैं। यहां र्ुरुष का ऄथप र्ुरुष-स्त्री, सभी जीि, सभी िर्ण्ड, तथा र्ूणप ििश्व भी है। बाह्य अिरण (छन्द) में दीखती िस्तु का सदा क्षरण होता है, िह क्षर र्ुरुष है। आसका काल िनत्य है। जब र्ुरुष ऄिनत्य है, तो ईसका काल िनत्य है। क्षय होने र्र भी ईसका र्ह्ऱरचय (कू टस्थ, नाम) या कायप िही रहता है, यह ऄक्षर र्ुरुष या कर्त्ाप है। ऄक्षय र्ुरुष कमप या यज्ञ करता है, ऄतः यह जन्य काल से सम्बिन्धत है। संहित का ििचार करने र्र ऄव्यय र्ुरुष कहते हैं क्योंह्लक ईसमें मात्रा, ईजाप अह्लद का व्यय नहीं होता। यह ऄक्षय काल से सम्बिधत है। र्रात्र्र र्ुरुष स्तर र्र कोइ भेद नहीं है, ऄतः यह र्रात्र्र काल से सम्बिन्धत है। िाििमौ र्ुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एि च। क्षरः सिापिण भूतािन कू टस्थोऽक्षर ईच्यते॥१६॥ ईर्त्मः र्ुरुषस्त्िन्यः र्रमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्र्यमाििश्य िबभत्यपव्यय इश्वरः॥१७॥ यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादिर् चोर्त्मम्। ऄतोऽिस्म लोके िेदे च प्रिथतः र्ुरुषोर्त्मः॥१८॥ (गीता, ऄध्याय १५) र्ुरुष काल-Physics क्षर
िनत्य Thermodynamic arrow of time
ऄक्षर जन्य –Time in formula of mechanics/electromagnetic theory ऄव्यय ऄक्षय –Conservation laws for closed system र्रात्र्र र्रात्र्र –Abstract source of world. भागित र्ुराण, स्कन्ध ३, ऄध्याय ११मैत्रेय ईिाच-चरमः सििशेषाणामनेकोऽसंयुतः। सदा र्रमाणुः स ििज्ञेयो नृणामैक्यभ्रमो यतः॥१॥ सत एि र्दाथपस्य स्िरूर्ाििस्थतस्य यत्। कै िल्यं र्रममहानििशेषो िनरन्तरः॥२॥ एिं कालोऽ्यनुिमतः सौक्ष्म्ये स्थौल्ये च सर्त्म। संस्थानभुक्त्या भगिानव्यक्तो व्यक्तभुिग्िभुः॥३॥ स कालः र्रमाणुिव यो भुङ्क्ते र्रमाणुताम्। सतोऽििशेषभुग्यस्तु स कालः र्रमो महान्॥४॥ ऄणुिौ र्रमाणू स्यात्त्रसरे णुस्त्रयः स्मृतः। जालाकप रश्म्यिगतः खमेिानुर्तन्नगात्॥५॥ त्रसरे णुित्रकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुह्ऱटः स्मृतः। शतभागस्तु िेधः स्यार्त्ैिस्त्रिभस्तु लिः स्मृतः॥६॥ िनमेषिस्त्रलिो ज्ञेय अम्नातस्ते त्रयः क्षणः। क्षणान्र्ञ्च ििदुः काष्ठां लघु ता दश र्ञ्च च॥७॥ लघूिन िै समाम्नाता दश र्ञ्च च नािडका। ते िे मुूतपः प्रहरः षयामः सप्त िा नृणाम्॥८॥ िादशाधपर्लोन्मानं चतुह्सभश्चतुरङ्गुलैः। स्िणपमाषैः कृ तिच्छिं याित्प्रस्थजल्लुतम्॥९॥ यामाश्चत्िारश्चत्िारो मत्यापनामहनी ईभे। र्क्षः र्ञ्चदशाहािन शुक्लः कृ ष्णश्च मानद॥१०॥ तयोः समुच्चयो मासः िर्तॄणां तदहह्सनशम्। िौ तािृतुः षडयनं दिक्षणं चोर्त्रं ह्लदिि॥११॥ ऄयने चाहनी प्राहुिपत्सरो िादश स्मृतः। संित्सरशतं नृणां र्रमायुह्सनरूिर्तम्॥१२॥ ग्रहक्षपताराचक्रस्थः र्रमाण्िाह्लदना जगत्। संित्सरािसानेन र्येत्यिनिमषो ििभुः॥१३॥ संित्सरः र्ह्ऱरित्सर आडाित्सर एि च। ऄनुित्सरो ित्सरश्च ििदुरैिं प्रभाष्यते॥१४॥ यः सृज्यशिक्तमुरुधोच््िसयन्स्िशक्त्या, र्ुंसोऽभ्रमाय ह्लदिि धािित भूतभेदः। कालाख्यया गुणमयं क्रतुिभह्सितन्िंस्, तस्मै बह्ऴल हरत ित्सरर्ञ्चकाय॥१५॥ ििदुर ईिाच-िर्तृदेिमनुष्याणामायुः र्रिमदं स्मृतम्। र्रे षां गितमाचक्ष्ि ये स्युः कल्र्ाद्बिहह्सिदः॥१६॥ भगिान्िेद कालस्य गह्ऴत भगितो ननु। ििश्वं ििचक्षते धीरा योगराद्धेन चक्षुषा॥१७॥ मैत्रेय ईिाच-कृ तं त्रेता िार्रं च किलश्चेित चतुयुपगम्। ह्लदव्यैिापदशिभिपषवः सािधानं िनरूिर्तम्॥१८॥ चत्िाह्ऱर त्रीिण िे चैकं कृ ताह्लदषु यथाक्रमम्। सङ्ख्यातािन सहस्रािण ििगुणािन शतािन च॥१९॥ सन्ध्यासन्ध्यांशयोरन्तयपः कालः शतसङ्ख्ययोः। तमेिाहुयुपगं तज्ज्ञा यत्र धमो ििधीयते॥२०॥ धमपश्चतुष्र्ान्मनुजान्कृ ते समनुितपते। स एिान्येष्िधमेण व्येित र्ादेन िधपता॥२१॥ ित्रलोक्या युगसाहस्रं बिहराब्रह्मणो ह्लदनम्। ताित्येि िनशा तात यिन्नमीलित ििश्वसृक्॥२२॥ 84
िनशािसान अरब्धो लोककल्र्ोऽनुितपते। यािह्लर्द्नं भगितो मनून्भुञ्जंश्चतुदश प ॥२३॥ स्िं स्िं कालं मनुभुपङ्क्ते सािधकां ह्येकसप्तितम्, मन्िन्तरे षु मनिस्तिंश्या ऊषयः सुराः। भििन्त चैि युगर्त्सुरेशाश्चानु ये च तान्॥२४॥ एष दैनिन्दनः सगो ब्राह्मस्त्रैलोक्यितपनः। ितयपङ्नृिर्तृदेिानां सम्भिो यत्र कमपिभः॥२५॥ मन्िन्तरे षु भगिािन्बभ्रत्सत्त्िं स्िमूह्सतिभः। मन्िाह्लदिभह्ऱरदं ििश्वमित्युह्लदतर्ौरुषः॥२६॥ तमोमात्रामुर्ादाय प्रितसंरुद्धििक्रमः। कालेनानुगताशेष अस्ते तूष्णीं ह्लदनात्यये॥२७॥ तमेिान्ििर् धीयन्ते लोका भूरादयस्त्रयः। िनशायामनुिृर्त्ायां िनमुपक्त शिशभास्करम्॥२८॥ ित्रलोक्यां दह्यमानायां शक्त्या सङ्कषपणािग्नना। यान्त्यूष्मणा महलोकाज्जनं भृग्िादयोऽर्कदताः॥२९॥ तािित्त्रभुिनं सद्यः कल्र्ान्तैिधतिसन्धिः। ्लाियन्त्युत्कटाटोर् चण्डिातेह्ऱरतोमपयः॥३०॥ ऄन्तः स तिस्मन्सिलल अस्तेऽनन्तासनो हह्ऱरः। योगिनिािनमीलाक्षः स्तूयमानो जनालयैः॥३१॥ एिंििधैरहोरात्रैः कालगत्योर्लिक्षतैः। ऄर्िक्षतिमिास्यािर् र्रमायुिपयःशतम्॥३२॥ यदधपमायुषस्तस्य र्राधपमिभधीयते। र्ूिपः र्राधोऽर्क्रान्तो ह्यर्रोऽद्य प्रितपते॥३३॥ र्ूिपस्यादौ र्राधपस्य ब्राह्मो नाम महानभूत।् कल्र्ो यत्राभिद्ब्रह्मा शब्दब्रह्मेित यं ििदुः॥३४॥ तस्यैि चान्ते कल्र्ोऽभूद्यं र्ाद्ममिभचक्षते। यद्धरे नापिभसरस असील्लोकसरोरुहम्॥३५॥ ऄयं तु किथतः कल्र्ो िितीयस्यािर् भारत। िाराह आित ििख्यातो यत्रासीच्छू करो हह्ऱरः॥३६॥ कालोऽयं ििर्राधापख्यो िनमेष ईर्चयपते। ऄव्याकृ तस्यानन्तस्य ह्यनादेजपगदात्मनः॥३७॥ कालोऽयं र्रमाण्िाह्लदह्सिर्राधापन्त इश्वरः। नैिेिशतुं प्रभुभूपम्न इश्वरो धाममािननाम्॥३८॥ ििकारै ः सिहतो युक्तैह्सिशेषाह्लदिभरािृतः। अण्डकोशो बिहरयं र्ञ्चाशत्कोह्ऱटििस्तृतः॥३९॥ दशोर्त्रािधकै यपत्र प्रिििः र्रमाणुित्। लक्ष्यतेऽन्तगपताश्चान्ये कोह्ऱटशो ह्यण्डराशयः॥४०॥ तदाहुरक्षरं ब्रह्म सिपकारणकारणम्। ििष्णोधापम र्रं साक्षात्र्ुरुषस्य महात्मनः॥४१॥ काल का ििस्तृत िणपन ऄथिपिद े के २ काल सूक्तों में तथा ितथ्याह्लद तत्त्ि अह्लद मुूर्त्प ग्रन्थों में भी है। ऄथिप, शौनक शाखा, काण्ड १९, सूक्त ५३ (कालः) १-१० भृगुः। कालः। ऄनुिुर्,् ित्रिु र्,् ५ िनचृत् र्ुरस्ताद् बृहती। कालो ऄश्वो िहित सप्तरिश्मः सहस्राक्षो ऄजरो भूह्ऱररे ताः। तमारोहिन्त कियो ििर्िश्चतस्तस्य चक्रा भुिनािन ििश्वा॥१॥ सप्त चक्रान् िहित काल एष सप्तास्य नाभीरमृतं न्िक्षः। सा आमा ििश्वा भुिनान्यञ्जत् कालः स इषते प्रथमो नु देिः॥२॥ र्ूणपः कु म्भोऽिध काल अिहतस्तं िै र्श्यामो बहुधा नु सन्तः। स आमा ििश्वा भुिनािन प्रत्यङ् कालं तमाहुः र्रमे व्योमन्॥३॥ स एि सं भुिनान्याभरन् स एि सं भुिनािन र्यवत्। िर्ता सन्नभिन् र्ुत्र एषां तस्माद् िै नान्यत् र्रमिस्त तेजः॥४॥ कालोऽमूं ह्लदिमजनत् काल आमाः र्ृिथिीरुत। काले ह भूतं भव्यं चेिषतं ह िि ितष्ठते॥५॥ कालो भूितमसृजत काले तर्ित सूयपः। काले ह ििश्वा भूतािन काले चक्षुह्सि र्श्यित॥६॥ काले मनः काले प्राणः काले नाम समािहतम्। कालेन सिाप नन्दन्त्यागतेन प्रजा आमाः॥७॥ काले तर्ः काले ज्येष्ठं काले ब्रह्म समािहतम्। कालो ह सिपस्येश्वरो यः िर्तासीत् प्रजार्तेः॥८॥ तेनेिषतं तेन जातं तदु तिस्मन् प्रितिष्ठतम्। कालो ह ब्रह्म भूत्िा िबभह्सत र्रमेिष्ठनम्॥९॥ कालः प्रजा ऄसृजत कालो ऄग्रे प्रजार्ितम्। स्ियम्भूः कश्यर्ः कालात् तर्ः कालादजायत॥१०॥ (५४) कालः १-५ भृगुः। कालः। ऄनुिुर्,् ित्रर्दाऽऽषी गायत्री, ५ त्र्यिसाना षट्र्दा ििराडििः। कालादार्ः समभिन् कालाद् ब्रह्म तर्ो ह्लदशः। कालेनोदेित सूयपः काले िन ििशते र्ुनः॥१॥ कालेन िातः र्िते कालेन र्ृिथिी मही। द्यौमपही काल अिहता॥२॥ कालो ह भूत भव्यं च र्ुत्रो ऄजनयत् र्ुरा। कालादृचः समभिन् यजुः कालादजायत॥३॥ कालो यज्ञं समैरद् देिेभ्यो भागमिक्षतम्। काले गन्धिाप्सरसः काले लोकाः प्रितिष्ठताः॥४॥ आमं च लोकं र्रमं च लोकं र्ुण्यांश्च लोकान् िििधितश्च र्ुण्याः। सिांल्लोकानिभिजत्य ब्रह्मणा कालः स इयते र्रमो नु देिः॥५॥ ह्ऱट्र्णी-काल = ऄश्व-गित से काल का ऄनुभि होता है। गित = ििस्थार्न/ काल। सहस्राक्ष, ऄजर अह्लद ऄक्षय काल। सप्तरिश्म= ७ प्रकार के आिन्िय-ऄतीिन्िय ऄनुभि, सप्तचक्र = ७ युग। र्ूणप कु म्भ = ऄक्षय काल का अयु से सम्बन्ध है। यह 85
अयतन के ऄनुसार है। ह्लकसी िस्तु या ह्लक्रया के चलने कह्ळ क्षमता िैसी ही है जैसे कु म्भ में जल भरा हो, िह धीरे धीरे खाली होता है। ईसके खाली होने का काल घटी (घट खाली होना) है। र्हले िषप का अरम्भ ऄिभिजत् या काह्सर्त्के य काल से धिनष्ठा नक्षत्र से होता था, जो कु म्भरािश में है। ईस समय माघ मास होता है। स्ियम्भू अह्लद र्रात्र्र काल हैं। कश्यर्, र्रमेष्ठी अह्लद को ही गीता में धाता, ििश्वतोमुख कहा है। िनमापण, जीणप होना अह्लद िनत्य काल के रूर् हैं-िनमापण भी र्ूिप ऄिस्था का नाश है। भूत, भव्य (ितपमान), भििष्य अह्लद भी काल के रूर् हैं जो कायप कारण सम्बन्ध हैं। कारण भूत काल है, ऄनुभि ितपमान है, फल भििष्य है। ऄक्षय काल = ब्रह्मा, जन्य = ििष्णु, िनत्य =िशि, ऄव्यक्त ब्रह्म = र्रात्र्र। ऄथिप या ब्रह्मिेद = र्रात्र्र काल, ऊक् = मूह्सत= िनत्य काल, यजु= यज्ञ= जन्य, साम = मिहमा = ऄक्षय काल अह्लद। ितथ्याह्लद तत्त्िऄनाह्लदिनधनः कालो रुिः संकषपणः स्मृतः। कलनात् सिपभूतानां स कालः र्ह्ऱरकह्ळह्सततः॥ कालस्तु ित्रििधो ज्ञेयोऽतीतोऽनागत एि च। िर्त्पमानस्तृतीयस्तु िक्ष्यािम शृणु लक्षणम्॥ कालः कलयते ििश्वं तेन कालोऽिभधीयते। कालस्य िशगाः सिे देिह्सष िसद्ध ह्लकन्नराः॥ कालो िह भगिान् देिः स साक्षात् र्रमेश्वरः। सगप र्ालन संहर्त्ाप स कालः सिपतः समः॥ कालेन कल्यते ििश्वं तेन कालोिभधीयते। येनोत्र्िर्त्श्च जायेत येन िै कल्यते कला॥ सोऽन्तिच्च भिेत् कालो जगदुत्र्िर्त् कारकः। यः कमापिण प्रर्श्येत प्रकषे िर्त्पमानके ॥ सोऽिर् प्रिर्त्पको ज्ञेयः कालः स्यात् र्ह्ऱरर्ालकः। येन मृत्यु िशं याित कृ तं येन लयं व्रजेत्॥ संहर्त्ाप सोऽिर् ििज्ञेयः कालः स्यात् कलनार्रः। कालः सृजित भूतािन कालः संहरते प्रजाः॥ कालः स्ििर्ित जागह्सर्त् कालो िह दुरितक्रमः। काले देिा ििनश्यिन्त काले ऄसुर र्न्नगाः॥ नरे न्िाः सिपजीिाश्च काले सिं ििनश्यित। ित्रकालात् र्रतो ज्ञेय अगन्तुगपत चेिकः॥ तथा िषाप िहमोष्णाख्यास्त्रयः काला आमे मताः। तथा त्रयोऽन्येऽिर् ज्ञेया ईद्यन्मध्यास्त रूिर्णः॥ सूक्ष्मोऽिर् सिपगः स िै व्यक्ताद् व्यक्ततरः शुभः॥ काल के ९ मान सूयप िसद्धान्त (१४/१) के ऄनुसार ९ प्रकार के काल हैंब्राह्मं िर्त्र्यं तथा ह्लदव्यं प्राजार्त्यं च गौरिम्। सौरं सािनं चान्िमाक्षं मानािन िै नि॥ बिे मान से अरम्भ कर आनका क्रम है-ब्राह्म, प्राजार्त्य, ह्लदव्य, गुरु, चान्ि, सौर, सािन, नाक्षत्र। ये सभी कलनात्मक होने के कारण जन्य काल हैं, ऄतः सृिि के ९ सगों के ऄनुसार हैं। सभी सगों कह्ळ िनमापण ऄिस्था १ -१ मेघ है, ऄतः बाआिबल में ९ मेघ कहे गये हैं। ििष्णु र्ुराण (१/५/१९-२५) के ऄनुसार ९ सगप हैंप्राकृ त-१. महत्त्त्ि, २. तन्मात्रा, ३. िैकाह्ऱरक (आिन्िय सम्बन्धी) । िैकृत-४. मुख्य (र्िपत, िृक्ष अह्लद स्थािर), ५. ितयपक् स्रोत (कह्ळट र्तङ्ग अह्लद), ६. उध्िप स्रोत (देि सगप), ७. ऄिापक् स्रोत (मन्ष्य सगप), ऄनुग्रह सगप (साित्िक और तामिसक) । प्राकृ त तथा िैकृत-९. कौमार सगप। भागित र्ुराण में ऄव्यक्त को िमलाकर १० सगप कहे गये हैं। ऄव्यक्त का काल र्रात्र्र है, ऄतः आसका िणपन नहीं होता। कालमानों का आन सगों से तुलना कह्ऱठन है, र्र अकाश के िनमापण क्रमों से आनका सम्बन्ध समझा जा सकता हैब्राह्म-दृश्य जगत् कह्ळ सीमा। प्राजार्त्य-ब्रह्माण्ड का ऄक्ष भ्रमण। ह्लदव्य-सौर मण्डल कह्ळ नक्षत्र कक्षा। गुरु-गुरु ग्रह कह्ळ कक्षा। चान्ि-चन्ि र्ह्ऱरक्रमा के बराबर ह्लदन। सौर-सूयप का प्रत्यक्ष भ्रमण, १० ऄंश काल १ ह्लदन, अह्लद। सािन-र्ृथ्िी का ऄक्ष-भ्रमण तथा १ ह्लदन कह्ळ सौर गित का योग। नाक्षत्र-र्ृथ्िी का ऄक्ष-भ्रमण। ििस्तृत िणपन ह्लदया जाता है(१) ब्राह्म-ऄव्यक्त से व्यक्त कह्ळ सृिि को ब्रह्मा का ह्लदन तथा ईसके लय को राित्र कहा गया हैसहस्रयुगर्यपन्तमहयपद् ब्रह्मणो ििदुः। राह्ऴत्र युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रििदो जनाः॥१७॥ 86
ऄव्यक्ताद् व्यक्ताय्ः सिापः प्रभिन्त्यहरागमे। रात्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैिाव्यक्तसंज्ञके ॥१८॥ (गीता, ऄध्याय ८) र्ुराणों और सूयप-िसद्धान्त के ऄनुसार १२,००० ह्लदव्य िषों का युग होता है। एक ह्लदव्य िषप ३६० सौर िषों का है। ऄतः ब्रह्मा का ह्लदन या कल्र् = १००० युग = १००० x ३६० x १२००० = ४३२ कोह्ऱट िषप। ईतने ही मान कह्ळ राित्र है। अधुिनक भौितक ििज्ञान के ऄनुसार दृश्य जगत् कह्ळ सीमा प्रायः ईतनी ही है िजतनी दूर तक ब्रह्मा के ऄहो-रात्र में प्रकाश जा सकता है, ऄथापत् ८६४ कोह्ऱट प्रकाश िषप ित्रज्या का क्षेत्र। ब्रह्मा के ऄहोरात्र मान से ३० ह्लदनों का मास, १२ मासों का िषप तथा १०० िषप कह्ळ र्रमायु है। ऄथापत् ब्रह्मा कह्ळ अयु ७२,००० कल्र् है= ७२००० x ४३२ x १०७ x ३६० = प्रायः १.१२ x १०१७ ह्लदन। सूयप िसद्धान्त, ऄध्याय १-सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं ििर्यपयात्। षट् षििसंगण ु ं ह्लदव्यं िषपमासुरमेि च॥१४॥ तद्द्वादशसहस्रािण चतुयुपगमुदाहृतम्। सूयापब्दसंख्यया ििित्रसागरै रयुताहतैः॥१५॥ सन्ध्यासन्ध्यांशसिहतं ििज्ञेयं तच्चतुयुपगम्। कृ तादीनां व्यिस्थेयं धमपर्ादव्यिस्थया॥१६॥ युगस्य दशमो भागः चतुिस्त्रद्व्य़ेक संगुणः। क्रमात्कृ तयुगादीनां षष्ठांऽशः सन्ध्ययोः स्िकः॥१७॥ युगानां सप्तितस्सैका मन्िन्तरिमहोच्यते। कृ ताब्दसङ्ख्या तस्यान्ते सिन्धः प्रोक्तो जल्लिः॥१८॥ आत्थं युगसहस्रेण भूतसंहारकारकः। कल्र्ो ब्राह्ममहः प्रोक्तं शिपरी तस्य तािती॥२०॥ र्रमायुश्शतं तस्य तयाऽहोरात्रसङ्ख्यया। अयुषोऽधपिमतं तस्य शेषात्कल्र्ोऽयमाह्लदमः॥२१॥ कल्र्ादस्माच्च मनिः षड् व्यतीतास्ससन्धयः। िैिस्ितस्य च मनोः युगानां ित्रघनो गतः॥२२॥ ऄिाह्ऴिशाद्युगादस्माद्यातमेकं कृ तं युगम्। ऄतः कालं प्रसंख्याय संख्यामेकत्र िर्ण्डयेत्॥२३॥ ग्रहक्षपदेिदैत्याह्लद सृजतोऽस्य चराचरम्। कृ ताह्लििेदा ह्लदव्याब्दाः शतघ्ना िेधसो गताः॥२४॥ ज्योितष में कल्र् तक कह्ळ ही गणना कह्ळ जाती है। के िल िटेश्वर िसद्धान्त में मन्दोच्चगित कह्ळ गणना ब्रह्मा के १०० िषों में कह्ळ है। ब्रह्मा कह्ळ अयु में १ र्राधप ह्लदन होते हैं, ऄतः ईसे या ईसके अधे भाग को र्राधप कहते हैं। ऄभी ब्रह्मा का र्राधप या ५० िषप र्ूणप हो चुके है, ५१ िें िषप का प्रथम कल्र् श्वेतिराह चल रहा है, िजसमें ६ मन्िन्तर बीत चुके हैं, ७ िें मे २७ युग बीत चुके हैं, २८िें का किलयुग १७-२-३१०२ इ.र्ू. में अरम्भ हुअ। ब्रह्मा से बिे काल मान ििष्णु, िशि तथा र्राशिक्त के हैंििष्णु र्ुराण, ऄध्याय (१/३)-काष्ठा र्ञ्चदशाख्याता िनमेषा मुिनसर्त्म। काष्ठाह्ऴस्त्रशत्कला ह्ऴत्रशत्कला मौूह्सतको िििधः॥८॥ ताित्संख्यैरहोरात्रं मुूर्त्वमापनुषं स्मृतम्। ऄहोरात्रािण ताििन्त मासः र्क्षियात्मकः॥९॥ तैः षिड्भरयनं िषं िेऽयने दिक्षणोर्त्रे । ऄयनं दिक्षणं राित्रदेिानामुर्त्रं ह्लदनम्॥।१०॥ ह्लदव्यैिपषपसहस्रैस्तु कृ तत्रेताह्लदसंिज्ञतम्। चतुयुपगं िादशिभस्तद् ििभागं िनबोध मे॥११॥ प्रोच्यते तत्सहस्रं च ब्रह्मणो ह्लदिसं मुने॥१५॥ ब्रह्मणो ह्लदिसे ब्रह्मन्मनिस्तु चतुदश प ॥१६॥ ब्राह्मो नैिमिर्त्को नाम तस्यान्ते प्रितसञ्चरः॥२२॥ ऄध्याय (६/५) ििर्राधापत्मकः कालः किथतो यो मया ति। तदहस्तस्य मैत्रेय ििष्णोरीशस्य कथ्यते॥४७॥ व्यक्ते च प्रकृ तौ लीने प्रकृ त्यार्ुरुषे तथा। तत्र िस्थते िनशा चास्य तत्प्रमाणा महामुने॥४८॥ बृहत् र्ाराशर स्मृित (१२/१८८-१९१)तदेकसप्तितगुणं मन्िन्तरिमितस्मृतम्। मन्िन्तरियेनेह शक्रर्ातः प्रकह्ळह्सततः॥ एतन्मानेनिषापणां शतं ब्रह्मक्षयः स्मृतः। ब्रह्मक्षयशतेनािर् ििष्णोरे कमहभपिेत्॥ एतह्लर्द्िसमानेन शतिषेण तत् क्षयः। तत्क्षयिस्त्रगुणोऽिाभी रुिस्य त्रुह्ऱटरुच्यते॥ एिमािब्दकमानेन प्रयातेऽब्दशते ििजाः। रुिश्चात्मिन लीयेत िनरालम्बे िनरामये॥ देिीमीमांसा भाष्य, ईत्र्िर्त्र्ाद, सूत्र ४-चतुयुपगसहस्रािण ह्लदनं र्ैतामहं भिेत्। िर्तामहसहस्रािण ििष्णोश्च घह्ऱटका मता। ििष्णोिापदशलक्षािण कलाधं रौिमुच्यते॥ शिक्त रहस्य-चतुयुपगसहस्रािण ब्रह्मणो ह्लदनमुच्यते। िर्तामहसहस्रािण ििष्णोरे का घटी मता॥ ििष्णोिापदशलक्षािण िनमेषाधं महेिशतुः। दशकोट्डो महेशानां श्रीमातुस्त्रुह्ऱटरूर्काः॥ 87
(२) प्राजार्त्य-ब्रह्म का ह्लक्रयात्मक रूर् प्रजार्ित कहते हैं। मनुष्य रूर् में प्रजा का र्ालन करनेिाला राजा भी प्रजार्ित है। अकाश में यज्ञ या िनमापण कायप ब्रह्माण्ड के िनमापण से हुअ। ईसका चक्र-भ्रमण ही ब्रह्माण्ड का प्रथम यज्ञ है। ऄतः यह प्राजार्त्य काल हुअ। ब्रह्माण्ड ििराट् मन कह्ळ सबसे बिी प्रितमा है, ऄतः आसे मनु तत्त्ि कहते हैं। आसका ऄक्ष-भ्रमण मन्िन्तर है। ब्रह्माण्ड मन कह्ळ प्रितमा हमारा मन है िजसके कण (कोिषका) कह्ळ संख्या ईतनी ही (१०११) है िजतनी ब्रह्माण्ड के कण (तारा)। व्यिक्त में भी िही मनु तत्त्ि होने के कारण ईसे मनुष्य कहते हैं। गीता, ऄध्याय ३-सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्िा र्ुरो िाच प्रजार्ितः। ऄनेन प्रसििष्यध्िमेष िोऽिस्त्ििकामधुक् ॥१०॥ प्रजार्ितिव मनुः स हीदं सिपममनुत। (शतर्थ ब्राह्मण ६/६/१/१९) य एि मनुष्याणां मनुष्यत्िं िेद। मनस्येि भिित। नैनं मनुः(मननशिक्तह्ऱरित सायणः) जहाित।(तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/३/८/३) मनुयपज्ञ ऽआत्यु िा ऽअहुः। (शतर्थ ब्राह्मण १/५/१/७) र्ुराणों के ऄनुसार ब्रह्मा के ह्लदन में १४ मन्िन्तर हैं। ऄतः १ मन्िन्तर = १००० युग/१४ = ७१.४३ युग। गणना में हम १ मन्िन्तर = ७१ युग लेते हैं। ६ युग बचते हैं िजनको हम १५ सन्ध्या में बांट देते हैं, जो दो मनु के बीच का सिन्धकाल हैं तथा मन्िन्तर के अरम्भ और ऄन्त में अते हैं। प्रत्येक सिन्धकाल = ६/१५ = ४/१० युग। युग के १० भाग करने र्र ईसके ४ खण्ड सत्य, त्रेता, िार्र, किल क्रमशः ४, ३, २, १ भाग हैं। ऄतः प्रत्येक सत्य युग = ४/१० युग, जो मन्िन्तरों के बीच कह्ळ सन्ध्या हैं। ऄतः १ मन्िन्तर = ७१ युग = ७१ x ४३२०००० = ३१,६८,००,००० िषप। अधुिनक मान से भी ब्रह्माण्ड का ऄक्ष-भ्रमण काल प्रायः आतना ही ३२ कोह्ऱट िषप होना चािहये। के न्िसे २/३ ित्रज्या दूरी र्र सूयप ब्रह्माण्ड के न्ि कह्ळ र्ह्ऱरक्रमा प्रायः २०-२५ कोह्ऱट िषप में करता है, बाहरी भाग का र्ह्ऱरभ्रमण धीमा होगा तथा प्रायः ३२ कोह्ऱट िषप होना चािहये। अयपभट ने स्िायम्भुि मनु कह्ळ र्रम्र्रा में कल्र् तथा युग दोनों के समान ििभाग माने हैं। आसमें युग िही है ४३,२०, ००० िषप र्र ईसके ४ समान ििभाग हैं-सत्य, त्रेता, िार्र, किल-प्रत्येक का मान १०,८०,००० िषप है। प्रित मन्िन्तर भी ७१.४३ के बदले र्ूणप ७२ युग का िलया है, ऄतः १ कल्र् = ७२ x १४ =१००८ युग। िटेश्वर ने भी यही मन्िन्तर तथा कल्र् माना है। काहो मनिो ढ, मनुयुगा श्ख। (अयपभटीय १/५) = क= ब्रह्मा के ऄहः में मनु ढ =१४ हैं, मनु में युग = श्ख =७०+२ = ७२ हैं। दन्ताब्धयोऽयुतहता (४३,२०,०००) युगमकप (िषाप दस्राियो ७२) युगगणा मनुरेक ईक्तः। कल्र्ाश्चतुदश प मनुद्युपिनशं च तौिौ कस्य स्ििषपशतमत्र तदायुरुक्तम्॥ (िटेश्वर िसद्धान्त १/९) = ४३२०००० िषप का युग, ७२ युग का १ मनु हैं, १४ मनु का ब्रह्म के ह्लदन तथा राित्र हैं, आस ऄहोरात्र मान से १०० िषप ब्रह्मा कह्ळ अयु है। (३) ह्लदव्य मान-सूयप के ईर्त्रायण-दिक्षणायन गित चक्र या िषप (ऊतु िषप) को ह्लदव्य ह्लदन कहते हैं। ऐसे ६० ह्लदव्य ह्लदन ऄथापत् ३६० सौर िषप का ह्लदव्य िषप होगा। यह ३ प्रकार से र्ह्ऱरभािषत हैिायु र्ुराण के २८ व्यासों कह्ळ सूची में आसे र्ह्ऱरितप युग कहा गया है, ऄथापत् यह ऐितहािसक र्ह्ऱरितपन का चक्र है। १०० कोह्ऱट योजन के लोकालोक भाग कह्ळ सीमा र्र यह्लद कोइ काल्र्िनक ग्रह हो तो ईसका र्ह्ऱरभ्रमण काल भी प्रायः ३६० िषप होगा। के ्लर िसद्धान्त के ऄनुसार आसकह्ळ ित्रज्या = (३६०)
२/३
= ५०.६०६ ज्योितषीय आकाइ , ऄथापत् ११८.६१ कोह्ऱट
योजन व्यास होगा। आस िनयम के ऄनुसार र्ह्ऱरभ्रमण काल का िगप, ग्रह कह्ळ दूरी (बृहद् ऄक्ष) के घन के ऄनुर्ात में होता है। तीसरा ऄथप है ह्लक सूयप कह्ळ ईर्त्र-दिक्षण गित को ही ह्लदव्य ह्लदन कहते हैं जैसे ईदय-ऄस्त का चक्र ह्लदन कहलाता है। र्ुराण तथा ज्योितष ग्रन्थों में ईर्त्रायण को देिों का ह्लदन तथा ऄसुरों कह्ळ राित्र कही गयी है (ईद्धरण ब्राह्म मान में हैं), ऄतः ३६० ह्लदनों के सािन िषप कह्ळ तरह ३६० ह्लदव्य ह्लदनों का ह्लदव्य िषप होगा।
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(४) गुरु मान-गुरु ग्रह १२ िषप में सूयप कह्ळ १ र्ह्ऱरक्रमा करता है। मध्यम गुरु १ रािश िजतने समय में र्ार करता है िह ३६०.०४८६ ह्लदन (सूयप िसद्धान्त, ऄध्याय १४) का गुरु िषप कहा जाता है। दिक्षण भारत में र्ैतामह िसद्धान्त के ऄनुसार सौर िषप को ही गुरु िषप कहा गया है। रामदीन र्िण्डत िारा संग्रहीत-बृहर्द्ैिज्ञरञ्जनम्, ऄध्याय ४नारदः-गृह्यते सौरमानेन प्रभिाद्यब्दलक्षणम्॥१॥ िेदाङ्ग ज्योितषे-माघशुक्ल प्रर्न्नस्य र्ौषकृ ष्ण समािर्नः। आित चान्िमासेन प्रभिाह्लद सम्ित्सराणां प्रिृिर्त्रुक्ता। भानुघ्नभागाह्लद समैरहोिभस्तस्य प्रिृिर्त्ः प्रथमं ह्लक्रयात्स्यात्। आत्यनेन क्विचत्सौरमानेनोक्ता। आित ित्रधा प्रभिाह्लद षििसम्ित्सराणां प्रिृिर्त्दृश्प यते, तत्र साधु र्क्षो ििचायपते। ऄत्र प्रभिाह्लद प्रिृिर्त्ः बाहपस्र्त्यमानेनैि शोभना। तदाह सूयप िसद्धान्ते-मानान्तरं तदा र्ूिपक बाहपस्र्त्य मानेनैि षष्ट्डब्द गणनोक्ते ित तत्र। ििव्यम्-यथा-बाहपस्र्त्येन षष्ट्डब्दं ज्ञेयं
नान्यैस्तु िनत्यशः॥२॥ लघुििसष्ठिसद्धान्ते-मध्यगत्या भभोगेन गुरोगौरि
ित्सराः॥३॥ भास्कराचायोऽिर्-बृहस्र्तेमपध्यमरािशभोगं साम्ित्सरं सांिहितका िदिन्त॥ ऄनेन मध्यमगुरु रािशर्ूरण समय एि प्रभिाह्लद षष्ट्डब्द प्रिृिर्त्ह्ऱरित सूिचतम्। फलिनदेशस्तु गुरुमानोत्र्न्न प्रभिाह्लद सम्ित्सराणािमत्येिाह। ििसष्ठोऽिर्षष्ट्डब्दजन्मप्रभिाह्लदकाना फलं च सिं गुरुमानतः स्यात्॥४॥ आित िेदाङ्गज्योितषिचनं तु ततोऽन्यििषयं यदाह गगपःमाघशुक्लं समारभ्य चन्िाकौ िासिक्षपगौ। जीिशुक्लौ यदा स्यातां षष्ट्डब्दाह्लदस्तदा भिेत्॥५॥ श्रीर्ितः-आयं िह षििः र्ह्ऱरित्सराणां बृहस्र्तेमपध्यमरािश भोगात्। ईदाहृता र्ूिपमुिन प्रिीणैह्सनयोजनीया गणना क्रमेण॥६। तर्िस खलु यदासािुद्गमं याित मािस प्रथमलिगतः सन् िासिे िासिेज्यः। िनिखलजनिहताथं िषपिृन्दे िह्ऱरष्ठः प्रभि आित स नाम्ना जायतेब्दस्तदानीम्॥७॥ तृतीयर्क्षस्तु फलाभािादुर्ेक्ष्य आत्युर्रम्यते। िराहः-अद्यं धिनष्ठांशमिभप्रिृर्त्ो माघे यदा यात्युदयं सुरेज्यः। षष्ट्डब्दर्ूिपः प्रभिः स नाम्ना प्रर्द्यते भूतिहतस्तदाब्दः॥८॥ र्ैतामह िसद्धान्ते-प्रमाथी प्रथमं िषं कल्र्ादौ ब्रह्मणा स्मृतम्। तदा िह षििहृच्छाके शेषं चान्िोऽत्र ित्सरः॥९॥ व्यािहाह्ऱरकसंज्ञोऽयं कालः स्मृत्याह्लदकमपसु। योज्यः सिपत्र तत्रािर् जैिो िा नमपदोर्त्रे ॥१०॥ अह्सिषेिणः-स्मरे त्सिपत्र कमापदौ चान्िसम्ित्सरं तदा। नान्यं यस्माित्सरादौ प्रिृिर्त्स्तस्य कह्ळह्सतता॥११॥ मकरन्दे-िििेदर्ञ्चेन्दुििहीनशाके ग्रहाग्रहाणां दशयुिक्त्रभागः। लिा ग्रहाः स्िीयह्लदगंशहीना िलप्ता िििलप्ता रसकु ञ्जराङ्गम्। तिािन खाङ्गैभपिनािन भूिम युतािन शुक्लाह्लदह ित्सरः स्यात्। भानुघ्नभागाह्लदसमैरहोिभस्तस्य प्रिृिर्त्ः प्रथमं ह्लक्रयात्स्यात्॥१३॥ (५) सौर मान-सूयप कह्ळ १० ऄंश गित १ ह्लदन, ३०० ऄंश (१ रािश) गित १ मास तथा ३६०० ऄंश गित (र्ूणप भगण या चक्र) १ सौर िषप होता है। आस प्रकार के िल सौर िषप तथा सौर मास कह्ळ गणना होती है। सौर मास के ऄनुसार ही ऊतु कह्ळ गणना होती है। यह ऊतु िषप है, जो नाक्षत्र सौर िषप से थोिा कम होता है, क्योंह्लक र्ृथ्िी का ऄक्ष शंकु ऄकार में २६,००० िषों में ििर्रीत गित से घूम रहा है। आस चक्र को ब्रह्माण्ड र्ुराण में मन्िन्तर कहा गया है। ऊतु िषप के ही भागों को ऊतु कहा गया है जो दीघपकािलक ऄन्तर को छोि देने र्र सौर संक्रािन्त (रािश र्ह्ऱरितपन) से अधाह्ऱरत होता है। २-२ सौर मास कह्ळ १ ऊतु, ३ ऊतु या ६ मास का १ ऄयन है। आन सौर मासों के नाम हैंमधुश्चमाधिश्च, शुक्रश्च शुिचश्च, नभश्च, नभस्यश्च, इषश्चोजपश्च, सहश्चसहस्यश्च, तर्श्च तर्स्यश्चोर्याम गृहीतोऽिस संसर्ोऽस्यहंस्र्त्याय त्िा॥ (तैिर्त्रीय संिहता १/४/१४) मधुश्चमाधिश्च िासिन्तकािृतू। शुक्रश्च शुिचश्च ग्रैष्मािृतू। नभश्च, नभस्यश्च िाह्सषकािृतू। इषश्चोजपश्च शारदािृतू। सहश्च सहस्यश्च हैमिन्तकािृतू। तर्श्च तर्स्यश्च शैिशरािृतू॥ (तैिर्त्रीय संिहता ४/४/११) िषप में ५ या ३ ऊतुओं के ििभाजन भी सौर मास के ही अधार र्र हैंिादशमासाः र्ञ्चतपिो हेमन्तिशिशरयोः समासेन। (ऐतरे य ब्राह्मण १/१) ६-६ मास के ईर्त्र दिक्षण ऄयन-२६००० िषों के ऄयन चक्र के कारण आनका अरम्भ काल धीरे धीरे बदलता हैप्रर्द्येते श्रििष्ठादौ सूयापचन्िमसािुदक् । सार्ापधे दिक्षणाकप स्तु माघश्रािणयोः सदा॥ (याजुष ज्योितष ७, ऊक् ज्योितष ६) िराहिमिहर काल में-बृहत् संिहता (३/१-२)-अश्लेषाद्धापर्द्िक्षणमुर्त्रमयनं रिेधपिनष्ठाद्यम्। नूनं कदािचदािसद्येनोक्तं र्ूिपशास्त्रेषु॥१॥ साम्प्रतमयनं सिितुः ककप टकाद्यं मृगाह्लदतश्चान्यत्। ईक्ताभािो ििकृ ितः प्रत्यक्षर्रीक्षणैव्यपिक्तः॥२॥ 89
= प्राचीन र्ुस्तकों में अश्लेषा मध्य (११३०२०’) से तथा दिक्षणायन अरम्भ धिनष्ठा से कहा है, ऄब यह ककप (९००) तथा मकर रािशयों से होता है, जो िेध िारा असानी से जांच कर सकते हैं। र्ञ्चिसद्धािन्तका, ऄध्याय ३ (र्ौिलश िसद्धान्त)ऄके न्दुयोगचक्रे िैधृतमुक्तं दशक्षप सिहते (तु) । यह्लद च (क्रं) व्यितर्ातो िेला मृग्या (युतैः भोगैः॥२०॥ अश्लेषाधापदासीद्यदा िनिृिर्त्ः ह्लकलोष्णह्लकरणस्य। युक्तमयनं तदाऽऽसीत् साम्प्रतमयनं र्ुनिपसुतः॥२१॥ सूय-प चन्ि के रािश-ऄंशों का योग ३६०० होने र्र िैधृित योग होता है, जब सूयप चन्ि कह्ळ क्रािन्त समान र्र ििर्रीत ह्लदशा (ईर्त्र-दिक्षण) में होती है। १० नक्षत्र (१३३०२०’) जोिने र्र यह व्यतीर्ात योग होता है, जब चन्ि-सूयप कह्ळ क्रािन्त समान होती है, र्र क्रािन्त-िृर्त् के ििर्रीत भागों में होती है। यह तभी सम्भि है यह्लद सूयप का दिक्षणायन अश्लेषा मध्य (११३०२०’) से अरम्भ हो जो ऄभी (िराहिमिहर काल में) र्ुनिपसु ( आसके चतुथप र्ाद से ककप रािश का अरम्भ) से होता है। ििक्रमाह्लदत्य काल में िेताल भट्ट िारा र्ुराणों का सम्र्ादन हुअ था, ऄतः र्ुराणों में भी ऄयन गित का यही क्रम है जैसा ििक्रमाह्लदत्य के निरत्न िराहिमिहर ने िलखा हैभििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप ४, ऄध्याय १एिं िार्रसन्ध्याया ऄन्ते सूतेन िह्सणतम्। सूयपचन्िान्ियाख्यानं तन्मया किथतम् ति॥१॥ ििशालायां र्ुनगपत्िा िैतालेन िििनह्समतम्। कथियष्यित सूतस्तिमितहास समुच्चयम्॥२॥ तन्मया किथतं सिं हृषीकोर्त्म र्ुण्यदम्। र्ुनह्सिक्रमभूर्ेन भििष्यित समाह्ियः॥३॥ ििष्णु र्ुराण (२/८)-ऄयनस्योर्त्रस्यादौ मकरं याित भास्करः। ततः कु म्भं च मीनं च राशे राश्यन्तरं ििज॥२८॥ ित्रष्िेतेष्िथ भुक्तेषु ततो िैषुिती गितम्। प्रयाित सििता कु िपन्नहोरात्रं ततः समम्॥२९॥ ततो राित्रः क्षयं याित िद्धपतेऽनुह्लदनं ह्लदनम्॥३०॥ ततश्च िमथुनस्यान्ते र्रां काष्ठामुर्ागतः। राह्ऴश ककप टकं प्रा्य कु रुते दिक्षणायनम्॥३१॥ (६) चान्ि मान-सूयप कह्ळ तुलना में चन्ि गित ऄथापत् चन्िमा कह्ळ कला (प्रकािशत भाग) का चक्र प्रायः २९.५ ह्लदन का होता है, जो चान्ि मास कहा जाता है। ऄमािास्या (एक साथ िास) में सूय-प चन्ि एक ही ह्लदशा में होते हैं, ईसके बाद चन्ि अगे बढ़ने र्र िह दीखना शुरु होता है, िजसे दशप कहते हैं। गिणत के ऄनुसार ऄमािास्या र्ूणप होते ही शुक्ल र्क्ष कह्ळ प्रथम ितिथ अरम्भ होती है, र्र व्यिहार में ११० ऄन्तर होने र्र ही चन्ि दीखता है जब १२० ऄन्तर होने र्र प्रायः िितीया अरम्भ होती है। ऄतः श्री जगन्नाथ कह्ळ रथयात्रा िितीया होने र्र भी ईसे प्रथम ह्लदिस कहा गया है जब ििक्रमाह्लदत्य या कािलदास काल में िषाप अरम्भ होती थी- अषाढस्य प्रथम ह्लदिसे मेघमािश्लिसानुः (मेघदूत, ब्रह्मप्रकािशका टीका) । दशप से र्ूह्सणमा तक शुक्ल र्क्ष में १५ ितिथ (प्रायः १५ ह्लदन) तथा ईसके बाद र्ूह्सणमा से दशप तक कृ ष्ण र्क्ष में १५ ितिथयां होतीं हैं। आस चक्र के ऄनुसार प्रायः सभी यज्ञ-चक्रों को िेद में दशपर्ूण-प मास यज्ञ कहा गया है। १२ चान्ि-मास में प्रायः ३५४ ह्लदन होते हैं जबह्लक सौर िषप में ३६५.२५ ह्लदन होते हैं, ऄतः प्रायः ३१ मास के बाद िषप में १ ऄिधक मास जोिकर ईसे सौरमास या ऊतु-चक्र के समतुल्य करते हैं। ऄिधक मास में सूयप ईसी रािश में रह जाता है िजसमें िह र्ूिप मास में था, आसको संसर्प (समान रािश में गित) या मिलम्लुच (रािश र्ह्ऱरितपन नही होने से ऄशुद्ध, जैसा िस्त्र नही बदलने से ऄशुद्ध होता है) कहा गया है। संसर्ापय स्िाहा, चन्िाय स्िाहा, ज्योितषे स्िाहा, मिलम्लुचाय स्िाहा, ह्लदिांर्तये (ऄंहस्र्ित) स्िाहा॥ (िाजसनेिय संिहता २२/३०) ऄिधमास सिहत १३ मासों के नाम-
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ऄरुणोऽरुणरजाः र्ुण्डरीको ििश्विजदिभिजत्। अिपः िर्न्िमानोऽन्निान् रसिािनरािान्। सिौषधः सम्भरो महस्िान्॥ (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/१०/१) यत्िा देि प्रिर्बिन्त तत अ्यायसे र्ुनः। िायुः सोमस्य रिक्षता समानां मास अकृ ितः। (ऊक् १०/८५/५) देि चन्ि का र्ान करते हैं (राित्र, कृ ष्ण र्क्ष में), चन्ि र्ुनः ह्लकरणों से तृप्त होता है (शुक्ल र्क्ष में)। िायु िारा सोम कह्ळ रक्षा होती है (तेज सब जगह फै ल जाता है, जो सोम है)। िषों (समा) का िनमापण मास से हुअ है। (गभप में मनुष्य कह्ळ भी अकृ ित चन्ि कह्ळ १० र्ह्ऱरक्रमा =२७३ ह्लदन में बनती है, आस अत्मा को अकृ ित-महान् कहते हैं) । एष िै र्ूह्सणमाः। य एष (सूयपः) तर्त्यहरहह्येिैष र्ूणो ऽथैष एि दशो यच्चन्िमा ददृश आि ह्येषः। ऄथोऽआतरथाहुः। एष एि र्ूणप चन्िमा यच्चन्िमा एतस्य ह्यनुर्ूरणं र्ौणपमासीत्याचक्षतेऽथैष एि दशो य एष (सूयपः) तर्ित ददृश आि ह्येषः। (शतर्थ ब्राह्मण ११/२/४/१-२) सिृत यज्ञो िा एष यर्द्शपर्ूणपमासौ। (गोर्थ ब्राह्मण ईर्त्र २/१४) २४ ऄद्धप-मास (र्क्षों) के नाम-र्िित्रं र्ििष्यन् र्ूतो मेध्यः। यशो यशस्िानायुरमृतः। जीिो जीििष्यन् स्िगो लोकः। सहस्िान् सहीयानोजस्िान् सहमानः। जयन्निभजय सुिििणो िििणोदाः। अिपर्िित्रो हह्ऱरके शो मोदः प्रमोदः॥ (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/१०/१) चन्िोदय से अगामी चन्िोदय को भी ितिथ कहा जाता थायां र्यपस्तमयादभ्युदयाह्लदित सा ितिथः। (ऐतरे य ब्राह्मण ३२/१०) (७) िर्तर मान- चन्ि के उर्री (ििर्रीत भाग जो नहीं दीखता है) में िर्तर रहते हैं। ऄतः चान्ि-मास को िर्तरों का ह्लदन कहा गया है। ििर्रीत भाग (र्ृथ्िी से दूर) में रहने के कारण कृ ष्ण र्क्ष िर्तरों का ह्लदन तथा शुक्ल र्क्ष िर्तरों कह्ळ राित्र होती है। ३० चान्िमास का िर्तर मास तथा ३० चान्ि िषप का िर्तर िषप होता है। (८) सािन मान-सूयोदय से अगामी सूयोदय का सािन ह्लदन, ३० ह्लदन का मास तथा १२ मास का िषप होता है। आसे सौर मास के समतुल्य करने के िलये आसमें ५ ह्लदन जोिते हैं (र्ाञ्चरात्र) या ४ िषों के ऄन्तर र्र ६ ह्लदन (षडाह) जोिते हैं। (९) नाक्षत्र मान-िस्थर नक्षत्रों कह्ळ तुलना में र्ृथ्िी का ऄक्ष-भ्रमण काल २३ घण्टा ५६ िमनट) नाक्षत्र ह्लदन है। ईसके िहसाब से ३० ह्लदनों का मास, ३६० ह्लदनों का िषप होता है। २ प्रकार के चक्रों के योग से युग होता है, जैसे(१) सौर-चान्ि मासों का योग-५ या १९ िषप का युग। (२) सौरिषप + ह्लदन का योग-४ िषप का लीर् िषप का चक्र या गोर्द युग। (३) ग्रहण युग-सूयप + राहु चक्रों का योग = १८ िषप १०.५ ह्लदन (४) बृहस्र्ित तथा सौर िषों का चक्र-१२ िषप युग। (५) बृहस्र्ित + शिन का चक्र-६० िषप का बाहपस्र्त्य युग। (६) सौर िषप+ सप्तह्सष चक्र=सप्तह्सष ित्सर या युग। (७) सौर िषप + र्ृथ्िी ऄक्ष का भ्रमण -२६००० िषप का ऐितहािसक मन्िन्तर (८) रोमक िसद्धान्त युग- १९ िषप युग x १५० = २८५० िषप। (९) ऄयनाब्द युग-मन्दोच्च का दीघपकािलक चक्र + र्ृथ्िी ऄक्ष का चक्र (१०) शिन तक कह्ळ ग्रह कक्षाओं (सहस्राक्ष= १००० सूयप व्यास तक) का चक्र-ज्योितषीय युग (११) तर्ः लोक, सृिि के प्रसार संकोच का चक्र = कल्र् मुनीश्वर ने िसद्धान्त सािपभौम में ५ प्रकार के युग बताये हैं-
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(१) ५ िषप, (२) १२ x ५ = ६० िषप, (३) १२ x ६० = ७२० िषप, (४) ६०० x ७२० = ४३२०,००० िषप का किलयुग, (५) किल x १० = १ युग। ७ प्रकार के योजन कह्ळ तरह ७ प्रकार के युग होने चािहये। िस्तुतः ऄिधक प्रकार के युगों का ईदाहरण उर्र ह्लदया गया है, ह्लकन्तु यज्ञ या सृिि ह्लक्रया कह्ळ र्ूणपता के ऄनुसार आनके ७ िगप हैं(१) संस्कार युग-४ से १९ िषों में िशक्षा के क्रम र्ूरे होते हैं। यह ५ प्रकार के हैं(क) गोर्द युग-४ िषप के लीर् इयर कह्ळ र्द्धित में ३६५ १/४ िषप कह्ळ ह्लदन संख्या र्ूणप होती है। यह ह्लदन और िषप के चक्रों का योग है तथा ऐतरे य ब्राह्मण के िनम्निलिखत श्लोक र्र अधाह्ऱरत हैकिलः शयानो भिित सिञ्जहानस्तु िार्रः। ईिर्त्ष्ठन् त्रेता भिित कृ तं सम्र्द्यते चरन्॥ (७/१३) प्रथम िषप (किल = गणना का अरम्भ) कह्ळ गोधूिल िेला यह्लद १ जनिरी सन्ध्या ६ बजे से हो, तो िह िितीय िषप १ जनिरी को राित्र १२ बजे र्ूरा होगा। ऄतः किल को सोया हुअ कहते हैं (आसकह्ळ र्ूणपता के समय ऄद्धप राित्र)। िितीय या िार्र िषप तीसरे िषप २ जनिरी को प्रातः ६ बजे होगा जब लोग ईठने लगेंगे। ऄतः िार्र को सिञ्जहान (जागने का समय) कहते हैं। तृतीय िषप त्रेता ४थे िषप २ जनिरी ह्लदन १२ बजे र्ूरा होगा जब लोग खिे होंगे (या सूयप उर्र खिा होगा)। चौथा िषप कृ त (र्ूणप) २जनिरी सन्ध्या ५ बजे समाप्त होगा जब लोग घर लौटते होंगे। आन ४ िषों में १ लीर् इयर होगा िजसमें १ ह्लदन ऄिधक होगा। ऄतः ४ िषप का युग ईसी ह्लदन १ जनिरी को र्ूणप होगा। (ख) र्ञ्चिषीय युग-याजुष ज्योितष में ५ िषों का युग माना गया है जो माघ शुक्ल प्रितर्दा से अरम्भ होता था क्योंह्लक ईसी ितिथ में सूयप चन्ि कह्ळ िासि (आन्ि) के नक्षत्र ज्येष्ठा में युित होती थीमाघशुक्लप्रर्न्नस्य र्ौषकृ ष्णसमािर्नः। युगस्य र्ञ्चिषपस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥५॥ स्िराक्रमेते सोमाकौ यदा साकं स िासिौ। स्यात् तदाऽऽह्लदयुगं माघस्तर्ः शुक्लोह्ययनं ह्युदक् ॥६॥ प्रर्द्येते श्रििष्ठादौ सूयपचन्िमसािुदक् । सार्ापधे दिक्षणाकप स्तु माघश्रिणयोः सदा॥७॥ (याजुष ज्योितष ५-७) आन िषों के नाम ित्सर में सम्, र्ह्ऱर, आदा, ऄनु, आत्-ईर्सगप लगाने से होते थे। िसफप ित्सर या आद् ित्सर का ऄथप ३६० ह्लदनों का सािन् िषप है। (ग) १२ िषीय युग-गुरु का र्ह्ऱरभ्रमण काल है। चान्िमास के ऄनुकरण र्र १२ िषीय युगों के नाम चैत्र िैशाख अह्लद हैं। गुरुभगणा रािशगुणास्त्िाश्वय्जाद्या गुरोरब्दाः॥ (अयपभटीय ३/४) = गुरु के भगण में १२ से गुणा करने र्र ऄिश्वनी से अरम्भ होने िाले गुरु िषों कह्ळ संख्या अती है। १ रािश में गुरु के संचार का काल १ गुरु िषप है रािश के ऄनुसार गुरुिषों के नाम हैं१, मेष-अश्वयुक् (ऄिश्वनी), २. िृष-काह्सतक, ३. िमथुन-मागपशीषप, ४. ककप -र्ौष, ५. ह्ऴसह-माघ, ६. कन्या-फाल्गुन, ७. तुला-चैत्र, ८. िृिश्चक-िैशाख, ९. धनु-ज्येष्ठ,१०. मकर-अषाढ, ११. कु म्भ-श्रािण, १२. मीन-भािर्द। (घ) १९ िषीय युग-प्रभाकर होले कह्ळ र्ुस्तक-िेदाङ्ग ज्योितष (अ्टे भिन, नागर्ुर, १९८५) के ऄनुसार ऊक् ज्योितष का युग १९ िषप का होता है। यहां ‘र्ञ्चसम्ित्सरमयं युगं’ (ऊक् ज्योितष का प्रथम श्लोक) का ऄथप है ह्लक १९ िषीय युग में ५ िषप सम्ित्सर होते हैं, बाकह्ळ १४ िषप र्ह्ऱरित्सर अह्लद ऄन्य ४ प्रकार के हैं। याजुष ज्योितष में भी ५ युगों के ५ x ५ = २५ िषों में ६ क्षय िषप होने से १९ िषों का युग होता हैक्षयं सम्ित्सराणां च मासानां च क्षयं तथा॥ (महाभारत, शािन्त र्िप ३०१/४६)। (ङ) ग्रहण युग-सूयप-राहु कह्ळ संयुक्त गित से १८ सौर िषप १०.५ ह्लदनों में ग्रहण चक्र र्ूणप होता है। यह २२३ चान्िमास का सरोस चक्र कहलाता है (सुमेह्ऱरयन ज्योितष का नाम)। आसका अधा ३३३९ ितिथ का भी ऄधप-चक्र है जो दूसरे ऄधप चक्र के समान है। ऄतः िषप कह्ळ ३७१ ितिथयों को प्रत्येक में ९ भांश कर िषप में ३३३९ भांश ह्लकये गये हैं, जो िेद में क्रािन्त-िृर्त् के देिता कहे गये हैंत्रीिण शतािन त्रीसहस्राण्यह्ऴग्न ह्ऴत्रशच्च देिा नि चा सर्यपन्। (ऊक् ३/९/९, १०/५२/६, िा. यजु. ३३/७)
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(२) मनुष्य युग-(क) ६० िषप-मनुष्य जीिन का कमप समय प्रायः ६० िषों का होता है जो गुरु िषों का चक्र है। आसमें गुरु कह्ळ ५ तथा शिन कह्ळ २ र्ह्ऱरक्रमायें होती हैं। यह सभी ज्योितष ग्रन्थों तथा र्ुराणों में है। आसे िेद में ऄिङ्गरा काल कहा गया हैअह्लदत्याश्च ह िा अिङ्गरसश्च स्िगे लोके स्र्धपन्त-ियं र्ूिे एष्यामो ियिमित। ते हाऽऽह्लदत्याः र्ूिे स्िगं लोकं जग्मुः, र्श्चेिािङ्गरसः, षष्ट्डां िा िषेषु। (ऐतरे य ब्राह्मण १८/३/७) अह्लदत्याश्चािङ्गरसश्च सुिगे लोके ऽ स्र्धपन्त .... त अह्लदत्या एतं र्ञ्चहोतारमर्श्यन्। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/२/३/५) यहां, अह्लदत्य = १२, र्ञ्च होता = ५ x १२ = ६० िषप। (ख) १०० िषप-शताब्दी काल में सप्तह्सष १ नक्षत्र चलते हैं। ऊक् ज्योितष के १९ िषीय युग समाप्त होने र्र र्ुनः िही नक्षत्र अता है। ५ युगों के १९ ५ िषों के बाद ५ िषों का याजुष युग लेने र्र चन्िमा भगण से १ नक्षत्र ऄिधक चलता है। कल्हण कह्ळ राजतरिङ्गणी में आसे लौह्लकक िषप कहा गया है। (ग) १२० िषप-३६० िषों के ह्लदव्य िषप का १/३ भाग १२० िषप कह्ळ ग्रह दशा भी मनुष्य कह्ळ अयु मानी गयी है( ह्ऴिशोर्त्री दशा) । (३) र्ह्ऱरितप युग-१ ह्लदव्य िषप या ३६० सौर िषप में ऐितहािसक र्ह्ऱरितपन होते हैं। ऄतः यह र्ह्ऱरितप युग कहा गया है। िायु र्ुराण (२३/११४-२२६) में २८ व्यासों कह्ळ गणना के समय कभी ईसे िार्र, कभी र्ह्ऱरितप कहा गया है। ऄतः युगों का ििभाग आन्हीं र्ह्ऱरितप खण्डों में है। आन्हें ही १० िां या १५िां त्रेता अह्लद भी कहा गया है। आसी प्रकार का िणपन कू मप (ऄध्याय ५२) ब्रह्माण्ड र्ुराणों मे भी है। ब्रह्माण्ड र्ुराण (१/२/२९/१९) में २६००० िषों का युग कहा गया है। ईसे ही (१/२/९/३६,३७) में ७१ युगों का मन्िन्तर कहा गया हैषह्ऴड्िशित सहस्रािण िषापिण मानुषािन तु। िषापणां तु युगं ज्ञेयं ... (१/२/९/१९) तस्यैकसप्तित युगं मन्िन्तरिमहोच्यते। (१/२/९/३७) ७१ x ३६० = २५,५६० या प्रायः २६,००० िषप। (४) सहस्र युग-(क) भागित प्राण (१/१/४) में शौनक ऊिष के १००० िषप के सत्र का िणपन है। एक मनुष्य १०० िषप तक ही जीता है, र्र धमप, संस्कार अह्लद के मार्दण्ड हजारों िषोंतक चलते हैं। शौनक सत्र के बाद र्ुराणों का र्ुनः सम्र्ादन ३००० िषों के बाद ििक्रमाह्लदत्य के समय हुअ जो ऄभी २००० िषों से चल रहा है। भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप ४, ऄध्याय १एिं िार्रसन्ध्याया ऄन्ते सूतेन िह्सणतम्।सूयपचन्िान्िया ख्यानं तन्मया किथतम् ति॥१॥ ििशालायां र्ुनगपत्िा िैतालेन िििनह्समतम्। कथियष्यित सूतस्तिमितहाससमुच्चयम्॥२॥ तन्मया किथतं सिं हृषीकोर्त्म र्ुण्यदम्। र्ुनह्सिक्रमभूर्ेन भििष्यित समाह्ियः॥३॥ नैिमषारण्यमासाद्य श्रािियष्यित िै कथाम्। र्ुनरुक्तािन यान्येि र्ुराणािादशािन िै।।४॥ (ख) प्रायः सहस्र िषप २ ह्लदव्य िषों (७२० िषप -मुनीश्वर िह्सणत युग) या ३ ह्लदव्य िषों (१०८० िषप) का होगा। (ग) २७०० ह्लदव्य िषप या ३०३० मनुष्य िषप का सप्तह्सष युग होता हैत्रीिण िषप सहस्रािण मानुषेण प्रमाणतः । ह्ऴत्रशदिधकािन तु मे मतः सप्तह्सष ित्सरः॥ (ब्रह्माण्ड र्ुराण, १/२/२९/१६, िायुर्ुराण, ५७/१७) सप्तह्ऴिशित र्यपन्ते कृ त्स्ने नक्षत्र मण्डले । सप्तषपयस्तु ितष्ठन्ते र्यापयेण शतं शतम्॥ (िायु र्ुराण, ९९/४१९, ब्रह्माण्ड र्ुराण २/३/७४/२३१) यहां, मानुष िषप = चन्ि र्ह्ऱरक्रमा िषप = २७.३ ह्लदन चन्ि र्ह्ऱरक्रमा x १२ = ३२७.५३६४ ह्लदन। ३०३० मानुष िषप = २७२७ सौर िषप (३६५.२५ ह्लदन का) तारा प्रायः िस्थर होते हैं ऄतः ईन्हें नक्षत्र (क्षत्र = चलना) कहा जाता है। ह्लकन्तु सप्तह्सष मण्डल के र्ूिप भाग में िस्थत र्ुलस्त्य, क्रतु तारों को िमलाने िाली रे खा ििर्रीत गित से नक्षत्र को १०० िषों में र्ार करती है93
सप्तषीणां तु यौ र्ूिो दृश्येते ह्युह्लदतौ ह्लदिि। तयोऽस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यस्तमं िनिश॥१०५॥ तेन सप्तषपयो युक्ता ितष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम्॥ (ििष्णु र्ुराण ४/२४/१०५, िायु र्ुराण ९९/४२१, ४१२, ब्रह्माण्ड र्ुराण २/३/७३/२३३, २३४) कइ प्रकार के सम्ित्सर तथा िार्र/त्रेता खण्डों का र्ह्ऱरितप नाम से ईल्लेख िायु र्ुराण अह्लद में हैिायु र्ुराण, ऄध्याय २३-चतुबापहुश्चतुष्र्ादश्चतुनेत्रश्चतुमुपखः। तदा सम्ित्सरो भूत्िा यज्ञरूर्ो भििष्यित। षडङ्गश्च ित्रशीषपश्च ित्रस्थानिस्त्रशरीरिान्॥१०४॥ कृ तं त्रेता िार्रं च किलश्चैि चतुयुपगम्। एतस्य र्ादाश्चत्िारः ऄङ्गािन क्रतिस्तथा॥१०५॥ भुजाश्च िेदाश्चत्िार ऊतुः सिन्धमुखािन च। िे मुखे िे च ऄयने नेत्राश्च चतुरस्तथा॥१०६॥ िशरांिस त्रीिण र्िापिण फाल्गुन्याषाढकृ िर्त्काः। ह्लदव्यान्तरािक्ष भौमािन त्रीिण स्थानािन यािन तु॥ सम्भिः प्रलयश्चैि अश्रमौ िौ प्रकह्ळह्सततौ॥ १०७॥ र्ुनस्तु मम देिेशो िितीय िार्रे प्रभुः॥११९॥ तृतीये िार्रे चैि यदा व्यासस्तु भागपिः॥१२३॥ चतुथे िार्रे चैि यदा व्यासोऽिङ्गरा स्मृतः॥१२६॥ र्ह्ऱरिते र्ुनः षष्ठे मृत्युव्यापसो यदा ििभुः॥१३३॥ सप्तमे र्ह्ऱरिते तु यदा व्यासः शतक्रतुः॥१३६॥ यदा व्यासः सुरक्षस्तु र्यापयश्च चतुदश प ॥१६२॥ र्ह्ऱरिते चतुर्विशे ऊक्षो व्यासो भििष्यित॥२०६॥ ऄिाह्ऴिशे र्ुनः प्राप्ते र्ह्ऱरिते क्रमागते। र्राशरसुतः श्रीमान् ििष्णुलोक िर्तामहः॥२१७॥ यदा भििष्यित व्यासो नाम्ना िैर्ायनः प्रभुः॥२१८॥ िायु र्ुराण (ऄध्याय ९८)-यज्ञं प्रितपयामास चैत्ये िैिस्ितेऽन्तरे ॥७१॥ प्रादुभापिे तदाऽन्यस्य ब्रह्मैिासीत् र्ुरोिहतः। चतुथ्यां तु युगाख्यायामार्न्नेष्िसुरेष्िथ॥७२॥ सम्भूतः स समुिान्तह्सहरण्यकिशर्ोिपधे िितीयो नारह्ऴसहोऽभूिदु ः सुर र्ुरःसरः॥७३॥ बिलसंस्थेषु लोके षु त्रेतायां सप्तमे युगे। दैत्यैस्त्रैलोक्य अक्रान्ते तृतीयो िामनोऽभित्॥७४॥ एतािस्तस्रः स्मृतास्तस्य ह्लदव्याः सम्भूतयः शुभाः। मानुष्याः सप्त यास्तस्य शार्जांस्तािन्नबोधत॥८७॥ त्रेतायुगे तु दशमे दर्त्ात्रेयो बभूि ह। निे धमे चतुथपश्च माकप ण्डेय र्ुरःसरः॥८८॥ र्ञ्चमः र्ञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूि ह। मान्धातुश्चक्रिह्सतत्िे तस्थौ तथ्य र्ुरः सरः॥८९॥ एकोनह्ऴिशे त्रेतायां सिपक्षत्रान्तकोऽभित्। जामदग्न्यास्तथा षष्ठो ििश्वािमत्रर्ुरः सरः॥९०॥ चतुर्विशे युगे रामो ििसष्ठेन र्ुरोधसा। सप्तमो रािणस्याथे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥ ब्रह्माण्ड र्ुराण (१/२/३४)-िार्रे र्त्ु र्ुरािृर्त्े मनोः स्िायम्भुिान्तरे । ब्रह्मा मनुमुिाचेदं रक्ष िेदं महामते॥२॥ कू मप र्ुराण में सभी २८ व्यासों का काल १-१ िार्र कहा गया हैकू मप र्ुराण, र्ूिप भाग, ऄध्याय ५०-िार्रे प्रथमो व्यासो मनुः स्िायम्भुिो मतः॥१॥ िितीये िार्रे चैि िेदव्यासः प्रजार्ितः॥२॥ तृतीये चोशना व्यासश्चतुथे स्याद् बृहस्र्ितः। सििता र्ञ्चमे व्यासःषष्ठे मृत्युः प्रकह्ळह्सततः॥३॥ सप्तमे च तथैिेन्िो ििसष्ठश्चािमे मतः। सारस्ितश्च निमे ित्रधामा दशमे स्मृतः॥४॥ एकादशे तु ित्रिृषः (ऊषभ देि) शततेजास्ततः र्रः। त्रयोदशे तथा धमपस्तरक्षुस्तु चतुदश प े॥५॥ त्र्यारुिणिव र्ञ्चदशे षोडशे तु धनञ्जयः। कृ तञ्जयः सप्तदशे ह्यिादशे ऊतञ्जयः॥६॥ ततो व्यासो भरिाजस्तस्मादूध्िं तु गौतमः। राजश्रिाश्चैकह्ऴिशसतस्माच्छु ष्मायणः र्रः॥७॥ तृणििन्दुस्त्रयोह्ऴिशे िाल्मीकस्तत्र्रः स्मृतः। र्ञ्चह्ऴिशे तथा शिक्तः षह्ऴड्िशे तु र्राशरः॥८॥ सप्तह्ऴिशे तथा व्यासो जातूकणो महामुिनः। ऄिाह्ऴिशे र्ुनः प्राप्ते ह्यिस्मन् िै िार्रो ििजाः। र्राशरसुतो व्यासः कृ ष्णिैर्ायनो हह्ऱरः॥१०॥ (घ) रोमक िसद्धान्त का युग २८५० िषों का है जो ऊक् ज्योितष के १९ िषीय युग का१५० गुणा है। रोमकयुगमके न्िोिपषाप-‘ण्याकाशर्ञ्चिसु र्क्षाः’ (२८५०) ’खेिन्ियह्लदशो’ (१०५०) ऽिधमासाः ’स्िरकृ तििषयाियः’ (१६,५४७) प्रलयाः॥ (र्ञ्चिसद्धािन्तका १/१५)
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(५) ध्रुि या क्रौञ्च युग-यह सप्तह्सष युग का ३ गुणा या ऄयन चक्र (२६,०००) िषप का प्रायः १/३ भाग है। आसमें ९०९० मानि िषप या ८१०० सौर िषप होंगेनि यािन सहस्रािण िषापणां मानुषािन तु। ऄन्यािननिितश्चैि ध्रुिः सम्ित्सरः स्मृतः॥ (ब्रह्माण्ड र्ुराण १/२/२९/१८, िायु र्ुराण ५७/१८ में क्रौञ्च सम्ित्सर) प्रायः आसी अकार का गुरु महायुग माना जा सकता है। सौर मत से मध्यम गुरु गित का गुरु िषप लेने र्र ८५ सौर िषप में १ ऄिधक ऄथापत् ८६ गुरु िषप होते हैं। ६० िषों का चक्र ८६ बार लेने र्र कु ल गुरु िषप = ६० x ८६ = ६० x ८५ सौर िषप = ५१०० सौर िषप होंगे। िाल्मीह्लक रामायण के ऄनुसार राम-जन्म कह्ळ ग्रह िस्थित ११-२-४४३३ इ.र्ू. में थी, जब २४ िां त्रेता चल रहा था। ईस समय ििष्णुधमोर्त्र र्ुराण (८२/७, ८) के ऄनुसार सौर तथा र्ैतामह दोनों मतों से प्रभि िषप था। आसी प्रकार मत्स्य ऄितार के समय भी दोनों मतों से प्रभि िषप था। आस कारण प्रभि िषप से गुरुिषप का चक्र अरम्भ होता है जब गुरु ककप रािश में होता है, ईसके मेष रािश से चक्र नहीं अरम्भ होता। ऄथापत् मत्स्य ऄितार राम से ५१०० िषप र्ूिप ९५३३ इ.र्ू. में हुअ था। होमर के आिलयड के ऄनुसार भी एटलािण्टस का ऄिन्तम भाग ९५६४ इ.र्ू. में डू बा था। र्ारसी गाथाओं के ऄनुसार जल प्रलय ९८४४ इ.र्ू. में हुअ था जब जमशेद (िैिस्ित यम, १० िें व्यास) का काल था। ग्रीस के लेखक सोलन (६३८-५५८ इ.र्ू.) को िमस्र के र्ुरोिहतों ने बताया था ह्लक एथेंस के लोग ऄर्ना प्राचीन आितहास भूल चुके हैं क्यों ह्लक ९००० िषप र्ूिप (प्रायः ९५६४ इ.र्ू.) में प्राकृ ितक प्रलय के कारण एटलािण्टस नि हो गया था। यह हरकु लस स्तम्भ (सूयप िसद्धान्त का के तुमाल िषप, ितपमान िजब्राल्टर खािी के दोनों तरफ के र्िपत) से र्िश्चम था। ्लेटो ने िसह्ऱटयस कह्ळ िाताप में भी आसे ईद्धृत ह्लकया है। होमर (८०० इ.र्ू.) ने ऄर्नी र्ुस्तक आिलयड में एटलािण्टस तथा र्िश्चम एिसअ के राय के युद्ध का िणपन ह्लकया है। आस अधार र्र स्लीमैन ने राय में खुदाइ भी कह्ळ िजसमें राय के ऄिशेष िमले। ितपमाने तथा कल्र्े षिे मन्िन्तरे गते। तस्यैि च चतुर्विशे राजंस्त्रेता युगे तदा॥६॥ यदा रामेण समरे सगणो रािणो हतः॥ लक्ष्मणेन तथा राजन् कु म्भकणो िनर्ािततः॥७॥ माघशुक्ले समारभ्य चन्िाकौ िासक्षपगौ। जीियुक्तो यदा स्यातां षष्ट्डब्दाह्लदस्तदा स्मृतः॥८॥ ििष्णुधमोर्त्र र्ुराण (८२) के िल सूयप चन्ि युित धिनष्ठा में ५ िषीय युग में ५ बार होगी। गुरु का प्रत्येक नक्षत्र के ऄनुसार फल कहा है। ऄतः बल्लालसेन ने ऄद्भुत् सागर, १/५ ऄध्याय में गुरु-सूय-प चन्ि कह्ळ धिनष्ठा में युित १ कल्र् में ५ बार मानी है। प्रित चक्र १ कल्र् का १/५ भाग होगा िजसमें क्रम से गुरु-सूयप-चन्ि कह्ळ युित ऄिश्वनी से अरम्भ कर २७ नक्षत्रों में होगी। कल्र् अरम्भ में सभी ग्रह ऄिश्वनी अरम्भ में थे, ऄतः धिनष्ठा में आन ३ ग्रहोंकह्ळ युित २२/७ कल्र्/५=४३२० x १०६ x २२/३५ = ७०४ x १०६ िषप में होगी। (धिनष्ठा २२ नक्षत्र र्ूणप होने के बाद २३ िां है) । आस समय प्रथम चक्र अरम्भ हो कर कल्र् के ५ िें भाग ८६४ x १०६ िषप के ४ चक्र होंगे। ५िें चक्र में कल्र्ान्त तक के िल १६० x १०६ िषप बचेंगे। (६) ऄयनाब्द युग-(१) २४०००िषप का चक्र -२६००० िषों के ऄयन-चक्र को ही ब्रह्माण्ड र्ुराण में मन्िन्तर कहा गया है-षड् ह्ऴिशित सहस्रािण िषापिण मानुषािण तु । िषापणां युगं ज्ञेयं ह्लदव्यो ह्येष िििधः स्मृतः॥ (ब्रह्माण्ड र्ुराण,१/२/२९/१९) स िै स्िायम्भुिः र्ूिं र्ुरुषो मनुरुच्यते। तस्यैकसप्तित युगं मन्िन्तरिमहोच्यते॥ (ब्रह्माण्ड र्ुराण,१/ २/९/३६,३७) यहां सौर िषप के ह्लदनों को िषप मानने से िह ह्लदव्य िषप का युग होता है७१x ३६५.२५ = २५९३२.७५ या प्रायः २६००० िषप। युग चक्र कह्ळ गणना में सुििधा के िलये ३६५.२५ के बदले ३६० िलया जाता है, जो ित्सर के ह्लदन होते हैं। आसमें ३० ह्लदनों के १२ मास होंगे। िषप के बाकह्ळ ५ या ६ ह्लदन र्ाञ्चरात्र या षडाह होंगे। मत्स्य र्ुराण, ऄध्याय २७३ में भी कहा है ह्लक स्िायम्भुि मनु के ४३ युग बाद िैिस्ित मनु हुये िजनके बाद २८ युग बीत चुके हैं -किल अरम्भ (३१०२ इसा र्ूिप) तक जब सूत िारा र्ुराणों का प्रणयन हुअऄिाह्ऴिश समाख्याता गता िैिस्ितेऽन्तरे । एते देिगणैः साधं िशिा ये तािन्नबोधत॥७७॥ 95
चत्िाह्वरशत् त्रयश्चैि भिितास्ते महात्मनः (स्िायम्भुिः)। ऄििशिा युगाख्यास्ते ततो िैिस्ितो ह्ययम् ॥७८॥ भििष्य र्ुराण में भी स्िायम्भुि मनु को बाआिबल िह्सणत अदम कहा है िजसके १६००० िषप बाद िैिस्ित मनु हुयेअदमो नाम र्ुरुषो र्त्नी हव्यिती तथा। ... षोडशाब्द सहस्रे च तदा िार्रे युगे। (भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप १/४/१६, २६) स्िायम्भुि मनु को ब्रह्मा या प्रथम व्यास कहा गया है। कृ ष्ण िैर्ायन या बादरायण २८ िें व्यास थे, ईसके बाद ऄन्य कोइ व्यास ऄभी तक नहीं हुअ है ऄतः ऄभी भी २८िां युग ही माना जाता है। िैिस्ित मनु से र्ह्ऱरितप युग कह्ळ गणना लेने र्र बादरायण का काल २८ युग बाद था। स्िायम्भुि मनु से िैिस्ित मनु=१६००० िषप = ३६० x ४३ िैिस्ित मनु से कृ ष्णिैर्ायन २८ युग = प्रायः १०००० िषप। ह्लकन्तु युग व्यिस्था िैिस्ित मनु से हुइ िजसमें सत्य, त्रेता, िार्र का योग ४८००+३६००+२४०० = १०८०० होता है। (२) तृतीय ऄयनाब्द २४००० िषप चक्र को भििष्य र्ुराण (प्रितसगप १/१/३) में ब्रह्माब्द (ऄभी तीसरा ह्लदन या युग) तथा िायु र्ुराण (३१/२९) में ऄयनाब्द युग कहा गया हैत्रेता युगमुखे र्ूिपमासन् स्िायम्भुिेऽन्तरे । ... ये िै ब्रजकु लाख्यास्तु असन् स्िायम्भुिेऽन्तरे । कालेन बहुनातीतायनाब्द युगक्रमैः (िायु र्ुराण ३१/३, २९) कल्र्ाख्ये श्वेत िाराहे ब्रह्माब्दस्य ह्लदनत्रये । (भििष्य र्ुराण, प्रितसगप १/१/३) िेदों में भी देिों का काल ३ युग र्ूिप कहा गया है-या ओषधीः र्ूिाप जाता देिेभ्यिस्त्रयुगं र्ुरा। (ऊग्िेद १०/९७/३, िाजसनेिय यजु १२/७५, तैिर्त्रीय संिहता ४/२/६/१, िनरुक्त ९/२८) युग गणना िैिस्ित मनु से अरम्भ होने के कारण ईनके र्ूिप के चक्र में ब्रह्मा अद्य त्रेता में थे। ब्रह्मा से ितपमान गणना िाला युग अरम्भ होता तो ईनसे सत्य युग का अरम्भ होता। तस्मादादौ तु कल्र्स्य त्रेता युगमुखे तदा (िायु र्ुराण ९/४६) त्रेता युगमुखे र्ूिपमासन् स्िायम्भुिेऽन्तरे । (िायु र्ुराण ३१/३) स्िायम्भुिेऽन्तरे र्ूिपमाद्ये त्रेता युगे तदा। (िायु र्ुराण ३३/५) (३) ऄयनाब्द चक्र के २ खण्ड- २४००० िषों के २ खण्ड ह्लकये गये हैं-ऄिसह्सर्णी तथा ईत्सह्सर्णी। आन ििभागों का िणपन जैन शास्त्रों में है ह्लकन्तु अयपभट ने भी ईल्लेख ह्लकया है, ऄिसह्सर्णी को ऄर्सह्सर्णी िलखा है। ह्लकसी भी चक्र गित को र्ह्ऱरिध से देखने र्र ऄधप भाग में दूर जाने कह्ळ तथा बाकह्ळ भाग में िनकट अने कह्ळ गित होती है। चान्ि मास में भी सूयप से दूर जाने र्र शुक्ल र्क्ष तथा र्ुनः ईसके िनकट जाने र्र कृ ष्ण र्क्ष होता है। ह्लकसी भी चक्र के आन ििर्रीत भागों को चान्ि मास कह्ळ तरह दशप-र्ूणप मास, िनकट-दूर गित के कारण ऄिसह्सर्णी-ईत्सह्सर्णी, संकोच-प्रसार के ऄथप में ईद्ग्राभ-िनग्राभ कहा गया है। ईत्सह्सर्णी युगाधं र्श्चादर्सह्ऱरणी युगाधं च। मध्ये युगस्य सुषमाऽऽदािन्ते दुष्षमेन्दूच्चात्॥ (अयपभटीय, कालह्लक्रयार्ाद २/९) तद्यदेना ईरिस (आन्िः) न्यग्रहीत तस्मािन्नग्राभ्या नाम। (शतर्थ ब्राह्मण ३/९/४/१५) ईद्ग्राभेणोदग्रभीत् (िाज.यजु.१७/६३, तैिर्त्रीय संिहता १/१/१३/१, ६/४/२, ४/६/३/४, मैत्रायणी संिहता १/१/१३, ८/१३, ३/३/८, ४१/९, काण्ि संिहता १/१२, १८/३, २१/८, शतर्थ ब्राह्मण ९/२/३/२१) एष िै र्ूह्सणमाः। य एष (सूयपः) तर्त्यहरहह्येिैश र्ूणोऽथैष एि दशो यच्चन्िमा ददृश आि ह्येषः। ऄथोऽआतरथाहुः। एष एि र्ूणपमा यच्चन्िमा एतस्य ह्यनु र्ूरनं र्ौणपमासीत्याचक्षते ऽथैष एष दषो य एष (सूयपः) तर्ित ददृश आि ह्येषः। (शतर्थ ब्राह्मण ११/२/४/१-२) सिृत (=चक्रह्ळय) यज्ञो िा एष यर्द्शपर्ण ू म प ासौ। (गोर्थ ईर्त्र २/२४) दशपर्ूणपमासौ िा ऄश्वस्य मेध्यस्य र्दे। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/९/२३/१) युग ििभाग के प्रसंग में ऄिसह्सर्णी का ऄथप है घटते मान िाले युग-क्रम-सत्य = ४८०० िषप, त्रेता = ३६००, िार्र = २४००, किल = १२०० िषप। ईत्सह्सर्णी में युग ििर्रीत क्रम में बढ़ते हुये होंगे-किल, िार्र, त्रेता, सत्य युग। िैिस्ित मनु 96
के काल से ऄिसह्सर्णी क्रम िलया गया है। ईसके र्ूिप अद्य युग के त्रेता में ब्रह्मा थे। ब्रह्मा से र्ूिप साध्य, मिणजा अह्लद का काल था जो ब्रह्माब्द का प्रथम ह्लदन कहा जा सकता है। अज कह्ळ भाषा में यह प्रागैितहािसक युग है। आसमें ऄभी तीसरा ह्लदन चल रहा है। देि युग के र्ूिप साध्य युग का ईल्लेख र्ुरुष सूक्त, ऊक् १६ में हैयज्ञेन यज्ञमयजन्त देिास्तािन धमापिण प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं मिहमानः सचन्तः यत्र र्ूिे साध्याः सिन्त देिाः॥ (िाज. यजु. ३१/१६) युग-चक्र चक्र क्रम इ.र्ू.िषप युग अरम्भ िहम-चक्र (ग्लेिसऄल)
ह्ऱट्र्णी
६१,९०२ सत्य शीत युग ६९२०० (र्ूिप काल का त्रेता) ऄिरोही ५७,१०२ त्रेता जल्लािन ५८,१००-मिणजा युग, च्युित गणना के ऄनुसार कइ सूक्तों का काल ५३,५०२ िार्र (र्ं. दीनानाथ शास्त्री चुलेट का िेद-काल-िनणपय, आन्दौर, १९२५) ऄन्धयुग
५१,१०२ किल
(प्रथम)
४९,९०२ किल
अरोही ४८,७०२ िार्र ४६,३०२ त्रेता शीतयुग ४५,५०० ४२,७०२
सत्य
३७,९०२ सत्य ऄिरोही
३३,१०२ त्रेता जल्लािन ३१,२०० २९,५०२ िार्र अद्य त्रेता-ब्रह्मा (२९.१०२)-िराह कल्र्
अद्य युग
२७,१०२ किल
२७,३७६-ध्रुि िनधन-०ध्रुि संित्सर
(स्िायम्भुि) २५,९०२ किल िितीय
२४,७०२ िार्र
(४३x३६० =१६०००)
अरोही २२,३०२ त्रेता शीतयुग २०,०००
१८२७६- ध्रुि -१, क्रौञ्च प्रभुत्ि
१८,७०२ सत्य १३,९०२ सत्य
१३९०२-िैिस्ित मनु
ऄिरोही ९,१०२ त्रेता जल्लािन ९,२०० ५,५०२ िार्र
११,१७६-ध्रुि-२, ८४७६-आक्ष्िाकु , सप्तह्सष-१
२८x ३६०= १०,८०० ५,७७६-सप्तह्सष-२
ितपमान
३१०२ किल ३१०२-किल ३०७६-लौह्लकक या सप्तह्सष-३
(िैिस्ित)
१,९०२ किल-आसके ठीक र्ूिप महािीर जन्म ११-२-१९०५ इ.र्ू., ३१-३-१८८७ िसद्धाथप बुद्ध जन्म
तृतीय अरोही
७०२ िार्र
७५६-शूिक, ६१२-चाहमान, ४५६-श्रीहषप, ५७ ििक्रम् संित्
१,६९९ इ. त्रेता ७८ इ.-शािलिाहन सक, २८िां अन्ध्र राजा ३७६ इ.र्ू.-सप्तह्सष-१ ५,२९९ इ. सत्य १७००-त्रेता सन्ध्या-औद्योिगक क्रािन्त, २०००-त्रेता-सूचना ििज्ञान
(४) िायु र्ुराण अह्लद में ब्रह्मा के र्ूिप मिणजा जाित का ईल्लेख है। ईस काल में देिों को याम कहते थे। ४ िणों को साध्य, महारािजक, अभास्िर तथा तुिषत कहते थे िजनका ऄमरकोष में भी गण-देिता के रूर् में ईल्लेख हैअह्लदत्य ििश्व-िसिस्तुिषताभास्िरािनलाः। महारािजक साध्याश्च रुिाश्च गणदेिताः॥ (ऄमरकोष १/१/१०) 97
त्रेता युगमुखे र्ूिपमासन् स्िायम्भुिेऽन्तरे । देिा यामा आित ख्याताः र्ूिं ये यज्ञसूनिः॥ ऄिजता ब्राह्मणः र्ुत्रा िजता िजदिजताश्च ये। र्ुत्राः स्िायम्भुिस्यैते शुक्र नाम्ना तु ििश्रुताः॥ तृिप्तमन्तो गणा ह्येते देिानां तु त्रयः स्मृताः। तुिषमन्तो गणा ह्येते िीयपिन्तो महाबलाः॥ ते िै ब्रजकु लाख्यास्तु असन् स्िायम्भुिेऽन्तरे । कालेन बहुनाऽतीता ऄयनाब्दयुगक्रमैः॥ (िायु र्ुराण ३१/३-२१) (५) यहां जलप्रलय तथा शीत युग का चक्र अधुिनक ऄनुमानों के अधार र्र है, जैसे मीर प्रकाशन, मास्को का The Earth है। आनसे यह स्र्ि है ह्लक सभी जल प्रलय ऄिसह्सर्णी (ऄिरोही) त्रेता में तथा शीत युग ईत्सह्सर्णी (अरोही) त्रेता में हैं। ऄतः भारतीय युग व्यिस्था अधुिनक िमलांकोििच िसद्धान्त से ऄिधक शुद्ध है। (६) मन्दोच्च का र्ूणप मान १ लाख िषप का चक्र लेने र्र २१६०० िषप का जल-्लािन चक्र अता है। २४००० िषप के चक्र के िलये २६००० िषप कह्ळ ऄयन गित में मन्दोच्च का ३१२००० िषप का दीघपकािलक चक्र जोिना र्िेगा। १/२४००० = १/२६००० + १/३१२००० मन्दोच्च का दीघपकािलक चक्र के ऄितह्ऱरक्त ईसका बचा भाग सूयप भगण में िमलाया गया है। ईस मन्दोच्च गित कह्ळ तुलना में सौर िषप थोिा कम होगा तथा ऄयन गित कु छ ऄिधक होगी। ऄतः ५० ििकला के बदले सूयप िसद्धान्त में ६० ििकला ऄयन गित ली गयी है। आन मानों को िनकालने र्र १ कल्र् में मन्दोच्च का ३८७ भगण होता हैप्राग्गते सूयपमन्दस्य कल्र्े सप्ताििह्नयः॥ (सूयप िसद्धान्त १/४१) आस युग-चक्र के ऄनुसार मयासुर का सूय-प िसद्धान्त ९१०२+१३१=९२३३ इसा र्ूिप में हुअ, जब जल्लािन समाप्त हुअ तथा ईसके बाद ९१०२ इसा र्ूिप में आसके ऄनुसार र्ंचांग अरम्भ हुअ। (७) आस युग चक्र के ऄनुसार जल-प्रलय या िहमयुग अते हैं। ऄतः आसी के ऄनुसार युगों के ऐितहािसक लक्षण दीखेंगे। महाभारत, शािन्त र्िप (२३२/३१-३४ के ऄनुसार त्रेता में ही यज्ञ या ईत्र्ादन का ििकास होता है जैसा ह्लक ितपमान काल के त्रेता में १६९९ इस्िी से दीख रहा हैत्रेता युगे िििधस्त्िेष यज्ञानां न कृ ते युगे। िार्रे िि्लिं यािन्त यज्ञाः किलयुगे तथा। त्रेतायां तु समस्ता ये प्रादुरासन् महाबलाः। सन्यन्तारः स्थािराणां जङ्गमानां च सिपशः॥ ब्रह्माण्ड र्ुराण (१/२/६) में भी र्ूिप युग में देिताओं िारा ििमान के प्रयोग का िणपन है। सूयप के ऄिधक दाह के कारण जल प्रलय तथा आस युग का ऄन्त हुअ। ऄस्मात् कल्र्ार्त्तः र्ूिं कल्र्ातीतः र्ुरातनः॥ चतुयुपगसहस्रािण सह मन्िन्तरै ः र्ुरा॥१५॥ क्षीणे कल्र्े ततस्तिस्मन् दाहकाल ईर्िस्थते। तिस्मन् काले तदा देिा असन् िैमािनकस्तु िै॥१६॥ एकै कह्ऴस्मस्तु कल्र्े िै देिा िैमािनका स्मृताः॥१९॥अिधर्त्यं ििमाने िै ऐश्वयेण तु तत्समाः॥३२॥ ते तुल्य लक्षणाः िसद्धाः शुद्धात्मनो िनरञ्जनाः॥३८॥ ततस्तेषु गतेषध्ू िं त्रैलोक्येषु महात्मसु। एर्त्ैः साधं महलोकस्तदानासाह्लदतस्तु िै॥४२॥ तिच्छष्या िै भििष्यिन्त कल्र्दाह ईर्िस्थते। गन्धिापद्याः िर्शाचाश्च मानुषा ब्राह्मणादयः॥४३॥ सहस्रं यर्त्ु रश्मीनां स्ियमेि ििभाव्यते। तत् सप्त रश्मयो भूत्िा एकै को जायते रििः॥४५॥ क्रमेणोिर्त्ष्ठमानास्ते त्रींल्लोकान्प्रदहंत्युत। जंगमाः स्थािराश्चैि नद्यः सिे च र्िपताः॥४६॥ शुष्काः र्ूिपमनािृष्ट्डा सूय्यवस्ते च प्रधूिर्ताः। तदा तु िििशाः सिे िनदपग्धाः सूयपरिश्मिभः॥४७॥ जंगमाः स्थािराश्चैि धमापधमापत्मकास्तु िै। दग्धदेहास्तदा ते तु धूतर्ार्ा युगान्तरे ॥४८॥ ईिषत्िा रजनीं तत्र ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः। र्ुनः सगे भिन्तीह मानसा ब्रह्मणः सुताः॥५०॥ ततस्तेषूर्र्न्नेषु जनैस्त्रैलोक्यिािसषु। िनदपग्धेषु च लोके षु तदा सूय्यवस्तु सप्तिभः॥५१॥ िृष्ट्डा िक्षतौ ्लािितायां ििजनेष्िणपिेषु च। सामुिाश्चैि मेघाश्च अर्ः सिापश्च र्ाह्सथिाः॥५२॥ (८) सप्तह्सष या लौह्लककाब्द का अरम्भ ३०७६ इ.र्ू. (किल २५) में हुअ जब युिधिष्ठर का कश्मीर में देहान्त हुअ (राजतरिङ्गणी, तरङ्ग १)-कलैगत प ैः सायकनेत्र (२५) िषवः युिधिष्ठराद्याः ित्रह्लदिं प्रयाताः।
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राजतरिङ्गणी िनमापण के समय लौह्लककाब्द २४ था िजसमें शताब्दी ऄङ्क नहीं िलखे जाते हैं। ईस समय (शािलिाहन) शक अरम्भ से १०७० िषप बीते थेलौह्लककाब्दे चतुर्विशे शककालस्य साम्प्रतम्। सप्तत्याभ्यिधकं यातं सहस्र र्ह्ऱरित्सराः॥ (राजतरिङ्गणी १/५२) शककाल ७८ इ. में हुअ, ईसके १०७० िषप बाद ३०७६ + ७८ + १०७० = ४२२४ या शताब्दी िषप छोिने र्र २४ िषप हुये थे। युिधिष्ठर देहान्त तक सप्तह्सष मघा नक्षत्र में थे, ईसके २७०० िषप बाद सप्तह्सष का १ चक्र र्ूणप हुअ। ३ सप्तह्सष चक्र या ८१०० िषप का ध्रुि िषप है। आस क्रम से ध्रुि िषप का अरम्भ २७,३७६ इ.र्ू. में हुअ, जो ठीक लगता है क्योंह्लक िह स्िायम्भूि के र्ुत्र (िंशज) ईर्त्ानर्ाद के र्ुत्र थे। ईसके बाद १ चक्र र्ूणप होने के समय १९.२७६ इ.र्ू. में क्रौञ्च िीर् के शासक बिल का प्रभुत्ि था, ऄतः आसे क्रौञ्च युग भी कहा गया है। दूसरा ध्रुि चक्र र्ूणप होने के समय ११,१७६ इ.र्ू. में जल प्राय कह्ळ िस्थित थी। (७) ज्योितषीय युग-३६० सौर िषों का ह्लदव्य िषप मानकर १२,००० ह्लदव्य िषों का ज्योितषीय युग सभी र्ुराणों तथा ज्योितष र्ुस्तकों में िह्सणत है। आस कह्ळ ३ व्याख्यायें हैं- (क) भास्कराचायप -२ ने भगणोर्र्िर्त् ग्रन्थ में कहा है ह्लक आस काल में सभी ग्रह (शिन तक) ऄर्ना भगण (र्ह्ऱरक्रमा) र्ूणप करते हैं। (ख) एक ऄन्य मत है ह्लक र्ृथ्िी का ईर्त्र ध्रुि ितपमान र्ामीर से ईर्त्र ध्रुि तक गया है। आसका ििषुि रे खा से ईर्त्र ध्रुि जाने का चक्र के ४ खण्ड किल िार्र, त्रेता, कृ त युग हैं। चुम्बकह्ळय ध्रुिों का र्ह्ऱरितपन भी प्रायः आसी काल में होता है। ज्योितषीय काल में महािीर्ों कह्ळ ईर्त्र ह्लदशा में गित दीख रही है। आसका एक कारण है ह्लक र्ृथ्िी र्ूरी तरह गोल नहीं है। घूणपन के कारण ििषुि भाग थोिा फै ल गया है। यह फै लाि घूणपन धीमा होने के कारण कम होता जा रहा है। ऄतः ईभरे भाग के िीर् ईर्त्र िखसक रहे हैं। ध्रुि तथा िीर् गितयां ऄन्य ग्रहों के अकषपण के कारण भी हैं। (ग) र्ृथ्िी कह्ळ कक्षा का छोटा -बिा होना या ईसका अकार दीघपिृर्त् से प्रायः िृर्त्ाकार होने का चक्र भी प्रायः आसी ऄििध का है। आन मतों का अधुिनक ज्योितष में ऄभी तक सटीक ऄध्ययन नहीं हुअ है, के िल ऄनुमान मात्र हैं। ज्योितषीय युग ४३,२०,००० िषों का है। आसके ४ खण्ड सदा ऄिरोही क्रम में हैं-सत्य, त्रेता, िार्र, किल िजनके मान ४, ३, २, १ ऄनुर्ात में हैं। ह्लकन्तु अयपभट (३६० किल = २७४२ इ.र्ू.) ने आनको बराबर माना है। दोनों मतों से किलयुग का अरम्भ ३१०२ इ.र्ू. में हुअ है, ऄतः आनको ऐितहािसक युग मानने कह्ळ भूल होती है। १००० युगों का ब्रह्मा का कल्र् या ह्लदन है। आतने ही मान कह्ळ राित्र है। ३६० ऄहोरात्र का ब्रह्मा का िषप है, तथा १०० िषों कह्ळ ब्रह्मा कह्ळ र्रमायु है। आस काल में प्रायः ३ x १०१७ ह्लदन होते हैं, ऄतः १०१७ को र्रा कहते हैं। ब्रह्मा कह्ळ १०० िषप अयु र्ुरुष या ििष्णु का ह्लदन है, ह्लकन्तु कल्र् से ऄिधक कह्ळ कोइ गणना नहीं होती है। युग खण्ड र्ुरानी सृिि के बाद यह (श्वेत-) िाराह कल्र् अरम्भ हुअयश्चायं ितपते कल्र्ो िाराहः साम्प्रतं शुभः। (ब्रह्माण्ड र्ुराण १/२/६/६-८) युगखण्डों कह्ळ गणना आसी कल्र् के िलये है। व्यास गणना में हर युग को र्ह्ऱरितप कहा गया है। १ र्ह्ऱरितप = ३६० िषप (िृर्त् के ऄंश), १ त्रेता = ३६०० िषप = १० र्ह्ऱरितप युग। उर्र ह्लदये गये िायु, कू मप र्ुराण में र्ह्ऱरितप युग के ईद्धरणों के ऄनुसारतृतीय त्रेता, िार्र या र्ह्ऱरितप-ईशना या भागपि शुक्राचायप व्यास चतुथप युग या त्रेता-िहरण्यकिशर्ु सप्तम त्रेता युग-बिल-िामन ऄितार-सप्तम व्यास शतक्रतु आन्ि आसी काल में िराह ऄितार िारा समुि मन्थन- काह्सर्त्के य िारा ऄसुरों कह्ळ र्राजय (७ दीघपजीिियों में बिल कह्ळ गणना) 99
१०म त्रेता-दर्त्ात्रेय-ित्रधामा व्यास १५ िां त्रेता-मान्धाता-त्र्यारुिण व्यास १९िां त्रेता-र्रशुराम-भरिाज व्यास २४िां त्रेता-राम िारा रािण का िध-ऊक्ष या िाल्मीह्लक व्यास। ऄयनाब्द युग के २ त्रेताओं का अरम्भ २२,३०२ तथा ९१०२ इ.र्ू. में हुअ। आनमें १०+१० = २० र्ह्ऱरितप युग हैं। िितीय त्रेता ५५०२ इ.र्ू. में समाप्त होने र्र भी यह गणना चलती रही। िजसके ऄनुसार २४ िें त्रेता में श्रीराम हुये। िहरण्यकिशर्ु-४थप त्रेता-२२३०२-३ x ३६०= २१,२२२ से २०,८६२ इ.र्ू. तक। बिल का काल आसके ३ त्रेता बाद २०१४२ से १९७८२ इ.र्ू. तक-ईसके बाद क्रौञ्च िीर् में ऄसुर प्रभुत्ि। काह्सर्त्के य काल में ईर्त्री ध्रुि ऄिभिजत् से दूर हट गया था १६००० इ.र्ू. से, िजसे ऄिभिजत् का र्तन कहा गया है। ईसके बाद धिनष्ठा में सूयप के प्रिेश से िषप का अरम्भ हुअ। महाभारत, िन र्िप (२३०/८-१०)ऄिभिजत् स्र्धपमाना तु रोिहण्या ऄनुजा स्िसा। आच्छन्ती ज्येष्ठतां देिी तर्स्तप्तुं िनं गता॥८॥ तत्र मूढोऽिस्म भिं ते नक्षत्रं गगनाच्युतम्। कालं ित्िमं र्रं स्कन्द ब्रह्मणा सह िचन्तय॥९॥ धिनष्ठाह्लदस्तदा कालो ब्रह्मणा र्ह्ऱरकिल्र्तः। रोिहणी ह्यभित् र्ूिपमेिं संख्या समाभित्॥१०॥ ईस काल में धिनष्ठा में सूयप के प्रिेश के समय िषाप का अरम्भ होता था, जब दिक्षणायन अरम्भ होता था। काह्सर्त्के य के र्ूिप ऄसुरों का प्रभुत्ि था, ऄतः दिक्षणायन को ऄसुरों का ह्लदन कहा गया हैसूयप िसद्धान्त, ऄध्याय १-मासैिापदशिभिपषं ह्लदव्यं तदह ईच्यते॥१३॥ सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं ििर्यपयात्। षट् षििसङ्गुणं ह्लदव्यं िषपमासुरमेि च॥१४॥ िषाप से अरम्भ होने के कारण सम्ित्सर को िषप कहा गया है। िजस भौगोिलक क्षेत्र में एक िषाप चक्र का प्रभाि है ईसे भी िषप, जैसे भारत-िषप कहा गया। ईसकह्ळ सीमा िस्थत र्िपतों को िषप-र्िपत कहा गया। प्रायः १५८०० इसा र्ूिप में धिनष्ठा में सूयप के प्रिेश करने र्र दिक्षणायन होता था, जो काह्सर्त्के य का काल है। ईससे र्ूिप क्रौञ्च का प्रभुत्ि था, ऄतः ईस काल में ध्रुि सम्ित्सर को िायु र्ुराण में क्रौञ्च सम्ित्सर कहा गया हैनि यािन सहस्रािण िषापणां मानुषािन तु। ऄन्यािन निितश्चैि क्रौञ्चः सम्ित्सरः स्मृतः॥ (िायु र्ुराण ५७/१८) धिनष्ठा के र्हले ऄिभिजत् में सूयप के प्रिेश से िषप अरम्भ होता था, जब माघ मास होता था। आसे श्रिण-धिनष्ठा के बीच होने के कारण श्रििष्ठा कहा गया है-ऊग् ज्योितष (३२, ५,६) याजुष ज्योितष (५-७) माघशुक्ल प्रर्न्नस्य र्ौषकृ ष्ण समािर्नः। युगस्य र्ञ्चिषपस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥५॥ स्िराक्रमेते सोमाकौ यदा साकं सिासिौ। स्यार्त्दाह्लद युगं माघः तर्ः शुक्लोऽयनं ह्युदक् ॥६॥ प्रर्द्येते श्रििष्ठादौ सूयापचन्िमसािुदक् । सार्ापधे दिक्षणाकप स्तु माघश्रिणयोः सदा॥७॥ यह माघ से अरं भ िषप ब्रह्मा के समय से था, जब सूयप का प्रिेश ऄिभिजत् नक्षत्र में होता था। स्िायम्भुि मनु काल में ऄिभिजत् (श्रिण-धिनष्ठा का मध्य श्रििष्ठा) से ईर्त्रायण होता था, यह २९१०२ इसा र्ूिप में था। दर्त्ात्रेय का काल प्रथम त्रेता के ऄन्त या िितीय त्रेता के अरम्भ में होगा यह िितीय त्रेता के कु छ र्ूिप है, जब ित्रधामा या माकप ण्डेय १० िें व्यास थे। मान्धाता १५ िें त्रेता ऄथापत् िितीय त्रेता के ५िें खण्ड में थे= ९१०२ - ४ x ३६० = ७६६२ से ७३०२ इ.र्ू. तक। आनके १८ र्ीढ़ी बाद ईसी सूयपिंश में राजा बाहु हुअ जो यिन अक्रमण में र्रािजत हुअ था। रुरुकार्त्ु िृकः र्ुत्रस्तस्माद् बाहुह्सिजिज्ञिान्॥११९॥ हैहयैस्तालजंघैश्च िनरस्तो व्यसनी नृर्ः। शकै यपिनकाम्बोजैः र्ारदैः र्ह्लिैस्तथा॥१२०॥ (ब्रह्माण्ड र्ुराण २/३/६३)
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मेगस्थनीज के ऄनुसार यह युद्ध भारतीय कालगणना से ३२६ इ.र्ू. जुलाइ के िसकन्दर के अक्रमण से ६४५१ िषप ३ मास र्ूिप ऄथापत् ऄप्रैल ६७७७ इ.र्ू. में हुअ था, या मान्धाता से प्रायः ८-९०० िषप बाद जो १८ र्ीढ़ी ऄन्तर का समय है। ईस समय यिन भारत कह्ळ र्िश्चमी सीमा र्र थे। िे ययाित र्ुत्र ऄनु के िंशज या ऄनुयायी होने के कारण अनि या यिन (Ionian) कहे जाते थे। बाद में बाहु के र्ुत्र सगर ने यिनों को िहां से भगा ह्लदय तब िे ग्रीस में बसे िजसका नाम यूनान (Ionia) हुअ। र्रशुराम १९ िें त्रेता ऄथापत् िितीय त्रेता के ९िें खण्ड में थे जो ५५०२ + २ x ३६० = ६२२२ से ६५८२ इ.र्ू. तक था। ईनके िनधन से ६१७७ इ.र्ू. में कलम्ब सम्ित् (कोल्लम्) अरम्भ हुअ जो अज भी के रल में प्रचिलत है, र्र ईसमें हजार िषप नहीं िलखे जाते। आनके काल के राजतन्त्र ििनाश को मेगस्थनीज ने १२० िषप का गणतन्त्र कहा है। आसमें २१ बार गणतन्त्र हुये, िजनको २१ बार क्षित्रयों का ििनाश कहा गया है। यह राजाओं के शासन का नाश था, क्षित्रयों का नहीं। कु छ व्यिक्त ऄिश्य युध में मरे होंगे। सहस्राजुपन िध के समय र्रशुराम ऄिश्य ३०-३५ िषप के रहे होंगे, ईसके बाद १२० िषप गणतन्त्र रहने र्र ईनकह्ळ अयु प्रायः १२०+ ३५ = १५५, िषप होगी, ऄत ईनको दीघपजीिी कहा गया है। ऄतः र्रशुराम का जन्म प्रायः ६२९७ इ.र्ू. में था। आनको भारतीय गणना में डायोिनसस (बाहु कालीन यिन शासक) के १५ र्ीढ़ी बाद मानते हैं। यह प्रायः ५०० िषों का ऄन्तर है। श्री राम २४ िें त्रेता में थे जो ५५०२-३ x३६० = ४४२२ इ.र्ू. में अरम्भ हुअ। ईसके कु छ र्ूिप िाल्मीह्लक रामायण कह्ळ ग्रह िस्थित के ऄनुसार ११-२-४४३३ इ.र्ू. में राम-जन्म हुअ। आसके र्ूिप ऄध्याय ७५ में मत्स्य ऄितार का िणपन है। ऄध्याय ८१ में कहा है ह्लक प्रित कल्र् में ऐसा ही होता है। आसी प्रकार राम जन्म के समय हुअ था। कल्र्ानां सित सादृश्ये शृणु भेद नरािधर्। समतीते यथा कल्र्े षष्ठे मनिन्तरे गते॥२३॥ समतीते चतुर्विशे राजंस्त्रेता युगे तदा। यदा रामेण समरे सगणो रािणो हतः॥२४॥ ब्रह्मा का काल-महाभारत, शािन्त र्िप, ऄध्याय ३४८ में मनुष्य रूर् में ७ ब्रह्मा का िणपन है१. मुख्य (नारायण के मुख से)-िैखानस को ईर्देश, २. नेत्र से-सोम को ईर्देश, ईनसे रुि, िालिखल्यों को, ३. िाणी से-आसे शािन्त र्िप ३४९/४९ में िाणी का र्ुत्र ऄर्ान्तरतमा कहा है, ईनके माता िर्ता के िलये िाणीिहरण्यगभापय नमः यज्ञ में र्ाठ होता है। ईनसे ित्रसुर्णप ऊिष को ईर्देश। गगप संिहता (६.१४.८) में ऄर्ान्तरतमा िारा गौतम-र्ुत्र मेधािी को र्िपत बनने का शार् , (७.४०.३५) में ऄर्ान्तरतमा ऊिष िारा हह्ऱरण ईर्िीर् (मलगासी िीर्, मृगव्याध या मृगतस्कर = मगाडास्कर) में तर्, ऄर्ान्तरतमा अश्रम में गरुड के र्क्ष का र्तन, (७.४२.२३) में ऄर्ान्तरतमा शकु िन िारा शम्बर अह्लद दैत्यों को मोक्ष ईर्ाय रूर् में भिक्त के प्रकारों का कथन, ब्रह्मिैिर्त्प र्ुराण (१.८.२७) में ऄर्ान्तरतमा ऊिष का ब्रह्मा के गले से प्रादुभापि), (१.१२.४) में ब्रह्मा - र्ुत्र, (१.२२.१७) में ऄर्ान्तरतमा नाम कह्ळ िनरुिक्त, तैिर्त्रीय अरण्यक (८.९) सायण भाष्य में ऄर्ान्तरतमा का जन्मान्तर में कृ ष्ण िैर्ायन व्यास बनना।) ४. अह्लद कृ त युग में (श्लोक ३४) कणप से ब्रह्मा कह्ळ ईत्र्िर्त्-अरण्यक, रहस्य. और संग्रह सिहत िेद क्रम से स्िारोिचष मनु, शंखर्द, ह्लदक्र्ाल, सुिणापभ को ईर्देश। ५. अह्लद कृ त युग में (श्लोक ४१) नािसका से ब्रह्मा कह्ळ ईत्र्िर्त्- क्रम से िीरण, रै भ्य मुिन, ह्लदक्र्ाल कु िक्ष को ईर्देश। ६. ऄण्डज ब्रह्मा (शािन्त र्िप ३४९/१७ में भी)-से बह्सहषद् मुिन, ज्येष्ठसामव्रती हह्ऱर, राजा ऄििकम्र्न को ईर्देश। ७. र्द्मनाभ ब्रह्मा से दक्ष, िििस्िान्, िैिस्ित मनु, आक्ष्िाकु को ईर्देश। यह सम्भितः मिणर्ुर के िनकट िहमालय के र्ूिप भाग में थे। ईनके नाम र्र ित्रिििर्् का र्ूिप भाग ब्रह्म ििटर् (ब्रह्मर्ुत्र नदी का स्रोत क्षेत्र), ब्रह्मर्ुत्र, ब्रह्म देश (बमाप, ऄभी म्याम्मार = महा + ऄमर) हैं। 101
शंकराचायप ने मठाम्नाय सेतु में कृ तयुग में ब्रह्मा, त्रेता में ििसष्ठ, िार्र में व्यास तथा किल में शंकराचायप को जगद् गुरु कहा है। आससे स्र्ि है ह्लक अज के शंकराचायप र्रम्र्रा कह्ळ तरह, ब्रह्मा, ििसष्ठ, र्रशुराम अह्लद कह्ळ र्रम्र्रा है। कृ ते ििश्वगुरुबपह्मा त्रेतायामृिषसर्त्मः (ििसष्ठ)। िार्रे व्यास एि स्यात् कलाित्र भिाम्यहम्॥७३॥ आनमें कइ िणपन लाक्षिणक हैं। िशिर्ुराण, कोह्ऱटरुि संिहता में ज्ञान स्रोत के रूर् में िशि को ब्रह्मा, ििसष्ठ, व्यास कहा गया है(ऄध्याय ३५-३६, नामसंख्या ५०, ४९८, ९८२)। सभी व्यासों को िशि ऄितार कहा गया है। र्र कृ ष्ण िैर्ायन व्यास कह्ळ स्तुित में ईनको ब्रह्मा, ििष्णु, िशि कहा जाता है। २८ ििसष्ठ-ििष्णुधमोर्त्र र्ुराण (१/११६) में ििसष्ठ गोत्र के ऊिषयों का िणपन है। ऄन्य र्ुराणों में भी २८ ििसष्ठों का िणपन है। ऊक् (९/९७/१-३०) के ििसष्ठ ऊिष-१. िृषगण, २. मन्यु, ३. ईर्मन्यु, ४. व्याघ्रर्ाद, ५. मैत्रािरुिण, र्ैजिन सुदास का समकालीन (ऊक् ७/३२,३३), ६. ईसका र्ुत्र शिक्त, ७. शिक्तर्ुत्र र्राशर, ८. आन्िप्रमित, ९. कणपश्रद ु ,् १०. मृळीक, ११. िसुक। ऄन्य मन्त्रििा ििसष्ठ हैं-१२. कु िण्डन्, १३. सुद्युम्न, १४. िसुमत्। र्ुराणों के ऄन्य ििसष्ठ हैं- १५. धमप, नारायण के िशष्य और िशि के ऄितार, १६. देिराज-ऄयोध्या के राजाओं त्र्यारुण, ित्रशङ्कु , हह्ऱरश्चन्ि के काल में, १७. अर्ि-मिहष्मती के कातपिीयापजुपन का काल, १८. ऄथिपिनिध-ऄयोध्या राजाबाहु के काल में, १९. श्रेष्ठभाज-ऄयोध्या राजा िमत्रसह सुदास या कल्मषर्ाद के साथ, २०. ऄथिपिनिध (िितीय)-ऄयोध्या राजा ह्लदलीर् खट्िाङ्ग के साथ, २१. दाशरिथ राम के गुरु, २२. सुिचपस-हिस्तनार्ुर राजा सम्िरण का काल, २३. राजा हिस्तन् के काल के , २४. ऄयोध्या राजा मुचकु न्द के काल के , २५. ििसष्ठ-स्मृित का लेखक, ििद र्ुत्र ििसष्ठ, काम का रचियता, २८. उजप-सप्तह्सष। ितपमान श्वेताश्वतर कल्र् के मुख्य ब्रह्मा स्िायम्भूि मनु थे जो किल अरम्भ से २६००० िषप र्ूिप हुये थे। आनको ही बाआिबल में अदम कहा गया है। आसके ऄितह्ऱरक्त ऄजर्ृिश्न या ऄथिाप ऊिषयों को भी िेदकताप कहा गया हैऄजान् ह िै र्ृश्नीन् तर्स्यमानान् ब्रह्म स्ियम्भू ऄभ्यानषपत्। तद् ऊषयोऽभिन्। त एिं ब्रह्मयज्ञमर्श्यन्। (तैिर्त्रीय अरण्यक २/९/१) अदिङ्गरा प्रथमं दिधरे िय आद्धाग्नयः शम्या ये सुकृत्यया। सिं र्णेः समििन्दत भोजनमश्वािन्तं गोमन्तमा र्शुं नरः॥ (ऊक् १/८३/४) यज्ञैरथिाप प्रथमः र्थस्तते ततः सूयो व्रतर्ा िेन अजिन। अ गा अजदुशना काव्यः स चा यमस्य जातममृतं यजामहे। (ऊक् १/८३/५) कश्यर् और मन्िन्तर-िायु, कू मप, ििष्णु, मत्स्य, ब्रह्माण्ड अह्लद र्ुराणों में २८ व्यासों कह्ळ सूची है िजसमें प्रथम स्िायम्भूि मनु ब्र्ह्ह्मा थे। िितीय कश्यर् भी ब्रह्मा थे, अत्ः दोनों के बीच र्यापप्त समय बीता हओगा। २८िें व्यास कृ ष्णिैर्ायान् महाभारत काल में थे। ज्योितषीय कल्र् में १४ मनु एक के बाद एक अते हैं। र्हले ७ मनु का काल सूयोदय से मध्याह्न कह्ळ तरह है। अज का एक अनुिंिशक सृिि िसद्धान्त भी कहता है ह्लक हर स्थान र्र सृिि का सबसे ििकिसत रूर् दीखेगा। ईसी प्रकार ऄगले ७ मनु काल में ह्रास होगा, ऄतः आन्हें सािह्सण (= एक जैसा) मनु कहा जाता है। ऐितहािसक युग में, सािह्सण मनु प्रथम मनु के भाइ (एक िणप या गोत्र के ) तथा एक ही काल के हैं। क्रम मुख्य मनु सािह्सण मनु १. स्िायम्भुि मेरु सािह्सण (ििकास कह्ळ ईच्चतम िस्थित=मेरु) २. स्िारोिचष दक्ष सािह्सण ३. ईर्त्म ब्रह्म सािह्सण ४. तामस धमपसािह्सण ५. रै ित रुिसािह्सण ६. चाक्षुष रौच्य ७. िैिस्ित भौत्य
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ब्रह्माण्ड र्ुराण (१/२/३६/६५) के ऄनुसार ४ मनु-स्िारोिचष, ईर्त्म, तामस, रै ित-ये स्िायम्भुि मनु के ज्येष्ठ र्ुत्र िप्रयव्रत के िंशज थे। आनमें स्िारोिचष कह्ळ माता स्िायम्भुि मनु कह्ळ र्ुत्री अकू ित थी िजसका िििाह रुिच प्रजार्ित (रौच्य मनु के िर्ता) से हुअ था। ऄन्य ३ िप्रयव्रत के र्ुत्र थेस्िारोिचषश्चोर्त्मोऽिर् तामसो रै ितस्तथा। िप्रयव्रतान्ियाह्येते चत्िारो मनिः स्मृताः॥ ५ सािह्सण मनु दक्ष र्ुत्री िप्रया (या ह्लक्रया) कह्ळ सन्तान थेसािणप मनिस्तात र्ञ्च तांश्च िनबोध मे। र्रमेष्ठी सुतास्तात मेरु सािणपतां गताः। दक्षस्येते दौिहत्राः िप्रयायाः तनयः नृर्॥ (ब्रह्माण्ड र्ुराण ३/४/१/२३, २४) हह्ऱरिंश र्ुराण (२/१५) के ऄनुसार ध्रुि के र्ौत्र ह्ऱरर्ु का र्ुत्र चाक्षुष मनु थे। ईसके बाद रौच्य तथा भौत्य मनु हुयेचाक्षुषस्यान्ते ऽतीते प्राप्ते िैिस्ितस्य च। रुचेः प्रजार्तेः र्ुत्रो रौच्योनामाभित्सुतः। (िायु र्ुराण १००/५४) िायु र्ुराण (४/१००, ५८/३०) में प्रायः यही िणपन है। र्ुराणों में स्व्यम्भुि से चाक्षुष तक ४० तथा ईसके बाद िैिस्ित तक १२ र्ीढ़ी दी हुइ है जो स्र्ितः ऄर्ूणप सूची है। कश्यर् (ब्रह्मसािह्सण) का काल चाक्षुष से र्ृथु तक ५ र्ीढ़ी का है। बीच में, िृ, ऄंग, िेन हुये। स्िायम्भुि ............... चाक्षुष .............. िैिस्ित ४० र्ीढ़ी १२ र्ीढ़ी ५२ र्ीढ़ी (ऄर्ूणप सूची) = १५,१२० िषप। ऄतः १ र्ीढ़ी = १५१२०/५२ = २९० िषप। चाक्षुष काल = २९१०२ (स्िायम्भुि) - ४० x २९० = १७,५०० इ.र्ू. र्ृथु = १७५०० -५ २९० = १६,०५० इ.र्ू. ऄतः कश्यर् काल १७,५०० से १६,०५० इ.र्ू तक है। आसके बाद ११ िें व्यास ऊषभ तक प्रत्येक का काल २ र्ह्ऱरितप (२ x ३६० िषप) माना जा सकता है। षष्ठ व्यास िैिस्ित यम का समय ४ र्ह्ऱरितप माना गया है क्योंह्लक ईस समय जल्लािन हुअ था। बाकह्ळ व्यासों का काल १-१ र्ह्ऱरितप है। २८ व्यास-कइ र्ुराणों के अधार र्र श्री कुं िर चन्ि जैन ’व्यासिशष्य’ ने २८ व्यासों का काल र्ह्ऱरितप युगों के अधार र्र तैयार ह्लकया जो िनम्निलिखत है१. स्िायम्भुि मनु (ब्रह्मा)-(२९१०२-१७५०० इ.र्ू.)-आसी काल में स्िारोिचष, ईर्त्म तामस, रै ित भी हुये। २. कश्यर् (ब्रह्मसािह्सण मनु)-(१७५००-१६०५० इ.र्ू.)-चाक्षुष तथा ऄन्य सािह्सण मनु का काल। ३. ईशना काव्य या शुक्राचायप (१६०५०-१५,३३० इ.र्ू.)-भृगु र्ुत्र। भृग-ु ऄिङ्गरा िारा ऄथिप िेद। ऄसुर, दैत्यों, दानिों के गुरु। राजनीित, धनुिेद, अयुिेद, र्ुराणों का प्रणयन। ४. बृहस्र्ित (१५३३०-१४६१० इ.र्ू.)-िेदों का र्ूणप रूर्। र्द क्रम का व्याकरण जो ऄभी भी चीन में प्रचिलत है-प्रित शब्द का ऄलग िचह्न, शब्द-र्ारायण। ५. िििस्िान् (सििता)-१४६१०-१३९०० इ.र्ू.)-सूयप िसद्धान्त का िनमापण। िेदों का अह्लदत्य सम्प्रदाय। यम, मनु के ऄितह्ऱरक्त ऄिश्वनी कु मार भी आनकह्ळ सन्तान थे। शुक्रर्ुत्र त्ििा के र्ुत्र ििश्वकमाप के गुरु। िैिस्ित मनु के बाद सत्य, त्रेता, िार्र कह्ळ समािप्त ३१०२ (प्रायः ३१००) इ.र्ू. में हुइ-१३९०० - (४८०० + ३६०० + २४००) = ३१००। ६. िैिस्ित यम (१३९००-१२४६० इ.र्ू.)-जेन्द-ऄिेस्ता (छन्दो-भ्यस्ता) के ऄहुर-मज्दा (ऄसुर महादेि) । आस काल में जल-प्रलय हुअ था। आनके बाद आनके ऄनुज िैिस्ित मनु का काल था। यह श्राद्धदेि कहे जाते हैं, ऄथापत् मृत्यु का रहस्य समझाया था (कठोर्िनषद्)। आनका स्थान आन्ि कह्ळ नगरी ऄमरािती से ९०० र्िश्चम संयमनी थी, िजनसे मृत-सागर, यमन, ऄम्मान, संयमनी (यमन कह्ळ राजधानी सना) अह्लद हैं।
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७. आन्ि शतक्रतु (१२४६०-११७४०)-१०० क्रतु ऄथापत् यज्ञ का ऄथप है १०० िषप का कमपमय जीिन-कु िपन्नेिेह कमापिण िजजीििषेत् शतं समाः (इशािास्योर्िनषद्)। संित्सर क्रम में यज्ञ होते हैं ऄतः यज्ञ को सम्ित्सर, आन्ि कहा गया हैसम्ित्सरो िै यज्ञः (शतर्थ ब्राह्मण ११/१/१/१ अह्लद), संित्सरो िा आन्ि शुनासीरः (तैिर्त्रीयब्राह्मण)। प्रायः १० युग ऄथापत् ३६०० िषों तक आन्ि का प्रभुत्ि रहा, िजस काल में १४ मुख्य आन्ि थे िजन्होंने प्रायः १००-१०० िषप शासन ह्लकया, ऄतः १४ ऄथप में आन्ि शब्द है। १४ आन्िों कह्ळ सूची गरुि र्ुराण (१/१४), नारद (१/४०/१३), भििष्य (१/१२५/२४), भागित (८/५), ििष्णु (३/१-२), ििष्णुधमोर्त्र (१/१७५), िशि (५/३४/१२), देिीभागित (१.३.३१) में है- शचीर्ित शक्र, ििर्िश्चत्, सुशािन्त, िशिि, ििभु, मनोजि, र्ुरन्दर, बिल, ऄद्भुत,् शािन्त, िृष, ऊतुधामा (ऊभु), ह्लदिस्र्ित, शुिच (ििष्णु, नारद र्ुराण) । एक आन्ि ने मरुत् कह्ळ सहायता से ४९ िणों कह्ळ देिनागरी िलिर् प्रचिलत कह्ळ, जो अज भी र्ूिप (आन्ि क्षेत्र) से र्िश्चमोर्त्र (िायु) भारत में प्रचिलत है। ऐन्ि-िायि व्याकरण कह्ळ र्रम्र्रा में ऄिन्तम र्ािणिन का है। चरक संिहता के ऄनुसार आन्ि ने ऊिषयों को अयुपिेद का ज्ञान ह्लदया जो भरिाज िारा फै ला। िेद में िैकुण्ठ आन्ि काल के बहुत से सूक्त हैं। ८. ििसष्ठ (११७४०-११०२० इ.र्ू.)-िमत्र (सूयप) तथा िरुण (ऄहुर मज्दा) दोनों के र्ुत्र-दोनों र्रम्र्राओं का समन्िय। ऊग्िेद का ८म मण्डल। ९. ऄर्ान्तरतमा (११०२०-१०३०० इ.र्ू.) या सारस्ित-दध्यङ् ऄथिपण तथा सरस्िती ऄलम्बुषा के र्ुत्र। सम्भितः जलप्रलय के बाद िेदों का ईद्धार। गौतमी (गोदािरी) तट र्र जन्म, हह्ऱरण िीर् (मगाडास्कर) में तर्। १०. ित्रधामा (१०३००-९५८० इ.र्ू.) या माकप ण्डेय (?)-दर्त्ात्रेय िारा योग-तन्त्र तथा माकप ण्डेय िारा र्ुराण प्रणयन। ११. ऊषभ (९५८०-८८६० इ.र्ू.) -कु छ र्ुराणों के मत से शरिान् अिङ्गरस या गौतम आस युग के व्यास थे। प्रथम जैन तीथपङ्कर तथा संन्यास मागप के प्रितपक। ििजाितयों के िलये ३ प्रकार के यज्ञोर्िीत (जैन शास्त्र)। िृषभ देि के रूर् में मनुष्य रूर्ी महादेि, या िामदेि जो स्ियं यज्ञोर्िीत र्हनते हैं। १२. ऄित्र (८८६०-८५०० इ.र्ू.)-भौम ऄित्र ने सूयप ग्रहण गणना के िलये तुरीय यन्त्र (दूरदशपन यन्त्र) का प्रयोग ह्लकया (ऊग्िेद १/५१, ११२) तथा आनको ज्योितष के १८ अचायों में िगना जाता है। सांख्य ऄित्र र्िश्चमोर्त्र ह्लदशा में गये जहां साख्य तत्त्िों (२५) के समान ऄक्षरों कह्ळ िलिर् प्रचिलत हुयी, यह गायत्री छन्द के ऄक्षरों के समान है (१ ऄिधक) ऄतः गायत्री को सांख्यायन गोत्र का कहा गया है। अयुिेद के भी अचायप। १३. धमप या नर-नारायण (८५००-८१४० इ.र्ू.)-बदरीनाथ (बदह्ऱरकाश्रम) में िेदों का ईर्देश। सम्भितः शंकराचायप कह्ळ गुरु-र्रम्र्रा का अरम्भ करने िाले यही नारायण हैं। काण्ि मेधाितिथ ऊिष, दुष्यन्त तथा ईनके र्ुत्र भरत का काल। १४. सुरक्षण या सुचक्षु (८१४०-७७८० इ.र्ू.)-राजा मरुर्त्, ऄिििक्षत, करन्धम तथा ऊिष गौतम, िामदेि अह्लद का काल। १५. त्र्यारुण (७७८०-७४२० इ.र्ू.)-आक्ष्िाकु िंशी राजा मान्धाता तथा गान्धार नरे श ऄङ्गार का काल। १६. धनञ्जय (७४२०-७०६० इ.र्ू.) १७. कृ तञ्जय (७०६०-६७०० इ.र्ू.) १८. ऊतञ्जय (६७००-६३४० इ.र्ू.)-ऊिष भरिाज आन ३ के समकालीन थे तथा आस काल में दाशराज युद्ध हुअ था (प्रायः ७२०० इ.र्ू. में) । गयासुर या ऄिसतधन्िा (मेगास्थनीज मत से डायोिनसस या बाकस) िारा भारत र्र अक्रमण (६७७७ इ.र्ू. में) । १९. भरिाज (६३४०-५९८० इ.र्ू.)-सम्राट् चायमान तथा काशीराज ह्लदिोदास दोनों के र्ुरोिहत। र्रशुराम काल (६२९७-६१७७ इ.र्ू.) २०. गौतम (५९८०-५६२० इ.र्ू.)-गोदािरी या गौतमी तट। जमदिग्न, हह्ऱरश्चन्ि, र्रशुराम, कातपिीयप ऄजुपन का काल। न्याय दशपन सूत्र।
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२१. िाचस्र्ित (५६२०-५२६० इ.र्ू.) या िनयपन्तर-राजा सगर के िारा यिन बिहष्कृ त, सागरों र्र प्रभुत्ि, ईनके प्रर्ौत्र भगीरथ िारा गंगा ऄितरण (िहमालय कह्ळ एक िहमनदी को र्ूिप ह्लदशा में मोिना)। २२. सुकल्याण या सोमषुष्ण (५२६०-४९०० इ.र्ू.)-र्ुलस्त्य तथा ििश्रिा ऊिष। २३. तृणििन्दु (४९००-४५४० इ.र्ू.)-सम्राट् । आनके जामाता र्ुलस्त्य के जामाता रािण तथा कु बेर। २४. िाल्मीह्लक (४५४०-४१८० इ.र्ू.)-दशरथ र्ुत्र राम (४४३३-४३६२ इ.र्ू.), रािण, हनुमान् अह्लद का काल। २५ शिक्त िािसष्ठ (४१८०-३८२० इ.र्ू.)-िेद र्ाठ िििध। २६-जातूकण्यप (३८२०-३४६० इ.र्ू.)-र्राशर िशष्य, ह्लकन्तु ईनसे र्ूिप। कणाद। २७. र्राशर (३४६०-३१०० इ.र्ू.)-ििष्णु र्ुराण का प्रणयन, १०० कोह्ऱट श्लोकों के र्ुराण का ४ लाख श्लोकों के १८ र्ुराणों में ििभाजन। होरा शास्त्र। २९. िेद व्यास (३१०० इ.र्ू. से ऄभी तक)-सत्यिती (बाद में र्ुरुिंशी राजा शान्तनु कह्ळ र्त्नी) िारा र्राशर र्ुत्र कृ ष्ण िैर्ायन। भागिात् र्ुराण, ब्रह्मसूत्र प्रणयन, र्ातञ्जल योग सूत्र कह्ळ व्याख्या, िेदों का शाखा ििभाजन। आनके बाद और कोइ व्यास नहीं हुअ, ऄतः ऄभी भी किल या २८ िां युग ििभाग मानते हैं। किल र्ूिप के राजिंश र्ुराणों में िैिस्ित मनु के बाद सूयप िंश कह्ळ र्ूणप िंशािली दी गयी है। चन्ि िंश का भाग बीच में लुप्त है। किल िषप १४६८ (१६३४ इ.र्ू.) में दोनों राजिंशों का महार्द्मनन्द िारा ििनाश हुअ। ऄिेस्ता के ऄनुसार िैिस्ित यम ने प्रायः १२०० िषप राज्य ह्लकया और ईस काल में जल प्रलय हुअ। ईनके भाइ िैिस्ित मनु के साथ सत्य युग का अरम्भ हुअ, ऄतः ईनका काल िार्र ऄन्त (३१०० इ.र्ू.) से १०८०० (=२४०० + ३६०० + ४८००) िषप र्ूिप ऄथापत् १३९०० इ.र्ू. िलखा गया है। ईसके बाद आक्ष्िाकु का शासन १-११-८५७६ इ.र्ू. में हुअ िजनको िैिस्ित मनु का र्ुत्र कहा गया है। आन्होंने ईस र्रम्र्रा में ५३३६ िषप बाद चक्रिती शासन अरम्भ ह्लकया, आस ऄथप में िे िैिस्ित मनु के र्ुत्र हैं। आसी प्रकार ऊषभ देि जी ने प्रायः ९५०० इ.र्ू. में जलप्रलय के बाद ईसी प्रकार सभ्यता अरम्भ कह्ळ जैसा ३१००० इ.र्ू. के जल प्रलय के बाद स्िायम्भूि मनु ने २९१०२ इ.र्ू. में अरम्भ ह्लकया था, ऄतः ईनको स्िायम्भुि मनु का िंशज कहा गया है। आक्ष्िाकु के र्ुत्र ििकु िक्ष को आराक के ह्लकश में प्राप्त लेखों में ईकु सी कहा गया है तथा िहां के प्रथम राजा के रूर् में ईसका काल ८३२० इ.र्ू. ह्लदया है। यह स्ियं ििकु िक्ष या ईसके िंशज का काल है। सूयप िंश िििस्िान् (सूयप ऊिष) से १. िैिस्ित मनु (राजा), २. आक्ष्िाकु (१-११-८५७६ इ.र्ू. से)- तन्जािुर के मिन्दर लेख, ईस ह्लदन ििषुि संक्रािन्त थी। ३. ििकु िक्ष, ४. र्ुरञ्जय या ककु त्स्थ (अडीबक = बैल कह्ळ र्ीठ का कू बि) -आन्होंने षष्ठ देिासुर संग्राम (अडीबक संग्राम) में प्रह्लाद के िितीय र्ुत्र सुजम्भ को र्रािजत ह्लकया। ५. ऄनेना, ६. र्ृथ,ु ७ ििश्वगश्व, ८. अिप, ९. युिनाश्व-१, १०. श्रािस्त (श्रािस्ती नगर), ११. बृहदश्व-आन्होंने संन्यासी होने कह्ळ आच्छा कह्ळ तो ईदङ्क ने कहा ह्लक धुन्धु ऄसुर को मारना ऄिधक जरूरी है। ईनके र्ुत्र (१२) कु िलयाश्व ने यह कायप ह्लकया, िजसके कारण ईनको धुन्धुमार कहा गया। ह्लफरदौसी के शाहनामा में आनको के रास्र् कहा है। आस युद्ध में २१,००० सैिनक मारे गये। १३. दृढाश्व, १४. प्रमोद, १५. हयपश्व, १६. िनकु म्भ, १७. संहताश्व, १८. कृ शाश्व, १९. प्रसेनिजत, २०. युिनाश्व-२। २१. मान्धाता सािपभौम राजा थे, िजनके बारे में प्रिसद्ध था ह्लक ईनके राज्य में सदा सूयप का ईदय और ऄस्त होता रहता हैयाित् सूयप ईदयित याित् च प्रितितष्ठित। सिं तद् यौिनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते॥ (िायु र्ुराण ८८/६८, ििष्णु ४/२/६५, महाभारत, िोण र्िप ६२/११) महाभारत, शािन्त र्िप (ऄध्याय २८) िोण र्िप (ऄध्याय ६२) के ऄनुसार ये राजा मान्धाता के ऄधीन थे-ऄङ्गार (गान्धार), मरुर्त्, ऄिसत (शतर्थ ब्राह्मण १३/४/३/१२-ऄिसतधन्िा ऄसुर राजा था), गय, ऄङ्ग-बृहिथ, जनमेजय, सुधन्िा, नृग।
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मान्धाता के ३ र्ुत्र २२. र्ुरुकु त्स ऄम्बरीष मुचुकुन्द २३. त्रसदस्यु युिनाश्व-३ २४. सम्भूत हारीत (ब्राह्मण) र्ुरुकु त्स दाशराज युद्ध के राजा सुदास का समकालीन था। सम्भूत र्ुत्र (२५) ऄनरण्य से रािण का युद्ध हुअ था जो राम काल के र्ूिप का ऄन्य राजा था। २६. त्रसदश्व, २७. हयपश्व-२, २८. िसुमान, २९. ित्रधन्िा, ३०. त्र्यारुण। ३१. सत्यव्रत या ित्रशङ्कु -ििश्वािमत्र के यज्ञ िारा स्िगप गमन, बीच में आन्ि िारा रोका गया। ३२. हह्ऱरश्चन्ि-ििश्वािमत्र को भूिमदान के बाद श्मशान में चाण्डाल का कायप ह्लकया। ३३. रोिहताश्व, ३४. हह्ऱरत, ३५. चञ्चु, ३६. ििजय, ३७. रुरुक, िृक, ३९. बाहु-यह हैहय, यिन अह्लद के सिम्मिलत अक्रमण में मारा गयाहैहयस्तालजङ्घैश्च िनरस्तो व्यसनी नृर्ः। शकै ः यिनैः काम्बोजैः र्ारदैः र्ल्लिैस्तथा॥ (ब्रह्माण्ड र्ुराण २/३/६/१२०) मेगास्थनीज के ऄनुसार यह यिन राजा डायोिनसस था। ४०. सगर-यह चक्रिती राजा हुअ। ऄर्ने िर्ता का राज्य िार्स लेकर समुिों र्र प्रभुत्ि स्थािर्त ह्लकया, िजससे ईनका नाम सागर र्िा। आनके ६०००० र्ुत्र किर्ल दारा भस्म हुये, ये किर्ल सांख्य के प्रितपक हो सकते हैं। आसने ऄर्ने र्ुत्र ऄसमञ्जस को िनष्कािसत कर र्ौत्र (४२) ऄंशुमान को राजा बनाया। िह ऄर्ने र्ुत्र (४३) ह्लदलीर् को राज्य देकर िन में चला गया। ह्लदलीर् र्ुत्र (४४) भगीरथ ने िहमालय के जल को गङ्गा रूर् में समतल में प्रिािहत ह्लकया। ऄतः गङ्गा को भागीरथी कहते हैं। ईसके बाद भगीरथ के र्ुत्र (४५) श्रुत तथा सम्बन्धी (४६) नाभाग राजा हुये। नाभाग र्ुत्र (४७) ऄम्बरीष (मान्धाता र्ुत्र से ऄलग) के िंशजों का राज्य चला। ४८. िसन्धु, ४९. ऄयुतायु, ५०. ऊतुर्णप, ५१. सिपकाम, ५२. सुदास, ५३. कल्मषर्ाद-ििसष्ठ र्ुत्र शिक्त के शार् से आनका र्ैर काला हो गया था। ५४. ऄश्मक, ५५. ईरुकाम, ५६. मूलक, ५७. शतरथ, ५८. आडििड, ५९. कृ शकमप, ६०. सिपकाम, ६१. ऄनरण्य, ६२. िनघ्न, ६३. ऄनिमत्र या रघु-१, ६४. दुलीडु ह, ६५. ििश्वमहत्, ६६. ह्लदलीर्, ६७. रघु-यह कािलदास के महाकाव्य रघुिंश के ििख्यात नायक हैं िजनके नाम र्र सूयपिंश को रघुिंश भी कहा जाता है। आनके ऄधीन ये राज्य थे-सुह्म, िंग, ईत्कल, कह्ऴलग, दिक्षणार्थ, र्ाण्य, यिन, र्ारसीक, कम्बोज, र्ािपतीय गण, कामरूर्। रघु के बाद-६८. ऄज, ६९. दशरथ हुये। दशरथ र्ुत्र (७०) राम (४४३३४३६२ इ.र्ू.) ने रािण का िध कर सािपभौम राज्य स्थािर्त ह्लकया तथा अचरण और शासन कह्ळ मयापदा स्थािर्त कह्ळ। ईसके बाद ७१. कु श, ७२ ऄितिथ, ७३. िनषध, ७४. नल (िनषधराज नल से िभन्न), ७५. नभ, ७६. र्ुण्डरीक, ७७. क्षेमधन्िा, ७८. देिानीक, ७९. ऄिहनगु, ८०. रुरु, ८१. र्ह्ऱरयात्र, ८२. शल, ८३. दल, ८४. बल, ८५. ईक्थ, ८६. सहस्राश्व, ८७. चन्िािलोक, ८८. तारार्ीड, ८९. चन्ििगह्ऱर, ९०. भानुचन्ि या भानुिमत्र, ९१. श्रुतायु, ९२. ईलूक, ९३. ईन्नाभ, ९४. िज्रनाभ, ९५. शंखन, ९६. व्युिषताश्व, ९७. ििश्वसह, ९८. िहरण्यनाभ-याज्ञिल्क्य से योग सीख कर आसका प्रचार ह्लकया। ९९. कौशल्य, १००. ब्रिह्मष्ठ, १०१. र्ुत्र, १०२. र्ुण्य, १०३. ऄथपिसिद्ध, १०४. सुदशपन, १०५. ऄिग्निणप, १०६. शीघ्रग, १०७. मरु, १०८. प्रसुश्रुत, १०९. सिन्ध, ११०. प्रमषपण, १११. महस्िान्, ११२. सहस्िान्, ११३. ििश्वभि, ११४. ििश्वस्ि, ११५. प्रसेनिजत, ११६. तक्षक, ११७. बृहद्बल-यह महाभारत युद्ध (३१३९ इ.र्ू.) में ऄजुपन र्ुत्र ऄिभमन्यु िारा मारा गया। चन्ि िंश ऄित्रर्ुत्र (१) सोम के र्ुत्र बुध थे-सौमायनो बुधः (ताण्य महाब्राह्मण २४/१८/६) तथा महाभारत ईद्योग र्िप (१४७/३)सोमः प्रजार्ितः र्ूिपः कु रूणां िंशिधपनः। २. बुध का िििाह आळा से हुअ-ऐडी (ऐळी) िा आमाः प्रजाः। (मैत्रायणी संिहता १/५/१०)। आळा िैिस्ित मनु कह्ळ र्ुत्री थी। बुध-आळा का र्ुत्र (ऐल) र्ुरुरिा सम्राट् हुअ। सोम या चन्ि का र्ुत्र होने से यह चन्ि िंश कहलाया।
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३. र्ुरुरिा ४. अयु धीमान ऄमािसु ििषायु ५. नहुष क्षत्रिृद्ध रम्भ रिज ऄनेना यित ६. ययाित संयाित ऄन्य ५. नहुष ने आन्ि र्द भी धारण ह्लकया था जब िृत्र िध के बाद ब्रह्महत्या के कारण आन्ि को ऄर्ना र्द छोिना र्िा था। बाद में नहुष को भी ऊिष शार् से सर्प बनना र्िा। नहुष र्ुत्री रुिच का िििाह ऄर्न्िान् ऊिष से हुअ जो भृगु के र्ुत्र थे। भृगु िहरण्यकिशर्ु र्ुत्री ह्लदव्या ऄन्य र्ुत्री र्ौलोमी शुक्र = ईशना या काव्य च्यिन + र्त्नी सुकन्या त्ििा शण्ड मकप दधीिच ऄर्न्िान +रुिच ित्रिशरा ििश्वरूर् (ििश्वकमाप) ऊचीक + सत्यिती जमदिग्न र्रशुराम बाआिबल में मनु = नूह, अयु = रयु, नहुष = नहुर। नहुष का प्रथम र्ुत्र संन्यासी हो गया। ऄतः िितीय र्ुत्र (६) ययाित राजा हुअ। ईसकह्ळ एक र्त्नी देियानी शुक्राचायप कह्ळ र्ुत्री थी, िजससे यदु, तुिपसु-दो र्ुत्र हुये। ऄन्य र्त्नी ऄसुरराज िृषर्िाप (िृष = Taurus, र्िपत = mountain, तुकी में) कह्ळ र्ुत्री शह्समष्ठा थी िजससे ३ र्ुत्र हुये-िुह्यु, ऄनु, र्ुरु। धोखे से दूसरा िििाह करने के कारण शुक्राचायप ने ययाित को बुढ़ार्े का शार् ह्लदया। ईसका बुढ़ार्ा लेने के िलये के िल किनष्ठ र्ुत्र र्ुरु तैयार हुअ, ऄतः िही राजा बना और ईसके नाम र्र यह र्ुरु िंश भी कहा जाता है। यदु को र्ूिप-ईर्त्र ह्लदशा का भाग िमला, िजनसे ििख्यात यदु िंश चला िजसमें भगिान् श्रीकृ ष्ण ईत्र्न्न हुये। र्िश्चम में िुह्यु, ईर्त्र में ऄनु (अनि = यिन), तथा दिक्षण र्ूिप में तुिपसु को भेजा। ७. र्ुरु, ८. जनमेजय- ३ ऄश्वमेध यज्ञ। प्राचीनिान् या ऄििद्ध। १०. प्रिीर। ११. मनस्यु या नमस्यु-िसन्धु से र्ूिप समुि तथा िहमालय से ििन्ध्य तक राज्य। १२. ऄभयद या सुभ्र,ू १३. सुन्िन्त या धुन्धु, १४. यिुयान या बहुग्ि, १५. संयाित, १६. ऄहंयित, १७. रौिाश्व, १८. रुचेय-ु आसकह्ळ १० बहनों में एक का िििाह ऄित्र से हुअ िजसका र्ुत्र स्ििस्त था। ईसके ३ र्ुत्र थे-सोम (चन्ि िंश के मूल से ऄन्य,), दर्त् (दर्त्ात्रेय), दुिापसा। र्ुत्री ऄर्ाला भी ऊग्िेद के मन्त्रों कह्ळ ििा है। १९. मितनार, २०. ऄप्रतीथप,-आसके र्ुत्र काण्ि मेधाितिथ कइ मन्त्रों के ििा थे। आसकह्ळ बहन गौरी के र्ुत्र चक्रिर्त्ी मान्धाता थे। २१. तंसु या सुमित। २२. इिलन या सुद्युम्न, २३. दुष्यन्त-आसकह्ळ र्त्नी शकु न्तला से (२४) चक्रिर्त्ी भरत हुये जो कािलदास के नाटक ऄिभज्ञान शाकु न्तलम् के नायक हैं। आनके समकालीन ऊिष थे ऊचीक, जमदिग्न, ििश्वािमत्र तथा भरिाज। काशी राज सिपसेन कह्ळ कन्या सुनन्दा से भरत का र्ुत्र भूमन्यु ईनके बाद राजा हुअ। (२५) भूमन्यु-भरिाज िारा िनयोग से ईत्र्न्न) (२६) बृहत्क्षत्र नर गगप महािीयप (२७) सुहोत्र संकृित िशिन ईरुक्षय (२८) हिस्त गुरुिीत रिन्तदेि त्रय्यारुिण र्ुष्कह्ऱरन् किर् २८. हिस्त के नाम र्र हिस्तनार्ुर नगर बना तथा आस राजधानी के कारण चीन में भारत को हिस्त-राज्य कहा जाता था। ईसके बाद ईसका र्ुत्र (२९) ििकु ण्ठन राजा हुअ िजसके तीनों र्ुत्र ऄजमीढ़, र्ुरुमीढ़, ििमीढ़-ब्राह्मण हुये। ह्लकन्तु भरिाज के अदेश से ज्येष्ठ र्ुत्र (३०) ऄजमीढ़ ने राज्य िलया। यह ििख्यात राजा सूयपिंशी ित्रधन्िा का समकालीन था। आसके बाद कह्ळ सूची ऄर्ूणप है, ह्लकन्तु ये नाम िमलते हैं-३१. ऊक्ष-१, ३२. ऄहंयित-कातपिीयप ऄजुपन कह्ळ बहन भानुमती से िििाह। ३३. सिपभौम, ३४. जयत्सेन, ३५. ऄिचीन, ३६. ऄधप, ३७. महाभौम, ३८. ऄयुतनयी, ३९. ऄक्रोधन, ४०. देिितिथ, ४१. ऄह्ऱरह। िायु र्ुराण के ऄनुसार सूची है-(३०) ऄजमीढ, ३१. ऊक्ष, ३२. र्रीिक्षत, ३३. जनमेजय, ३४. सुरथ, ३५.
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भीमसेन, ३६. जह्नु, ३७. सुरथ, ३८. ििदूरथ, ३९. सिपभौम, ४०. जयत्सेन, ४१. अरािधत या ऄक्रोधन, ४२. महासत्ि, ४३. ऄयुतायु, ४४. ऄक्रोधन, ४५. देिितिथ, ४६. ऊक्ष, ४७. ह्लदलीर्, ४८. प्रतीर्, ४९. शान्तनु। मितनार मान्धाता के साथ प्रायः ७३०० इ.र्ू. में था तथा शान्तनु प्रायः ३२०० इ.र्ू. में र्ाण्डिों के प्रिर्तामह थे। ४००० िषों में कइ ऄन्य राजा भी होंगे िजनका नाम लुप्त है। संिरण तथा ईनके र्ुत्र कु रु का नाम भी आस सूची में नहीं है िजनके नाम र्र यह कु रु िंश कहलाता था। संिरण ह्लकसी र्ाञ्चाल राजा से र्रािजत होकर िसन्धु तट र्र रहते थे जहां ईनका िििाह सूयप (िमत्र) र्ुत्री तर्ती से हुअ। ईसके र्ुत्र ने ह्लफर से साम्राज्य स्थािर्त ह्लकया। यहां से कालक्रम िमलता है। संिरण-र्त्नी तर्ती (४१५९-४०७१ इ.र्ू.) कु रु-र्त्नी शुभाङ्गी (४०७१-३९९९ इ.र्ू.) ऄिभस्िान् या िचत्ररथ सुधन्िा (३९९९-३९१९ इ.र्ू.) जह्नु भागित के ऄनुसार सुहोत्र (३९१९-३८२६ इ.र्ू.) ९ राजा च्यिन (३८२६-३७८८ इ.र्ू.) कृ िम या कृ ित (३७८८-३७५१ इ.र्ू.) र्रीिक्षत ईर्ह्ऱरचर िसु (३७५१-३७०९ इ.र्ू.) (प्रतीर् या चैद्य) जनमेजय बृहिथ (३७०९-३६३७ इ.र्ू.) राजधानी िगह्ऱरव्रज कु शाग्र (३६३७-३५६७ इ.र्ू.) भीमसेन ऊषभ (३५६७-३४९७ इ.र्ू.) सत्यिहत (३४९७-३४३७ इ.र्ू.) प्रतीर् (३३७०-३३१०) र्ुण्य या र्ुष्र्िन्त (३४२७-३३९४) शान्तनु (३३१०-३२५१) देिािर् बाह्लीक सत्यधृित (३३९४-३३५१) गंगा सत्यिती (र्ित्नयां) सुधन्िा (३३५१-३३०८) िचत्रांगद (३२४८) िििचत्रिीयप (३२३८ तक) सिप (३३०८-३२६५) भीष्म (३२३८-३२१८) सम्भि (३२६५-३२२२) र्ाण्डु (३२१८-३२१३) धृतराष्ट्र (३२१३-३१७४) जरासन्ध (३२२२-३१८०) युिधिष्ठर (३१३८-३१०२) (दुयोधन (३१७४-३१३८) सहदेि (३१८०-३१३८) महाभारत १/९५/७४-८२-प्रतीर् से) मगध का बाहपिथ िंश ऄन्य मुख्य िंश-(१) िमिथला -आक्ष्िाकु के १०िें र्ुत्र िनिम से अरम्भ हुअ। ििसष्ठ और िनिम ने एक दूसरे को ििदेह (शरीर रिहत होने का शार् ह्लदया। ईनके शरीर मन्थन से ईत्र्न्न र्ुत्र िमिथ कहा गया। ऄतः आस क्षेत्र को िमिथला कहा गया और यहां के राजा ििदेह और जनक कहे जाते थे। आसके मुख्य राजा थे-िनिम, िमिथ, सीरध्िज (सीता के िर्ता), के िशध्िज, धमपध्िज (ब्रह्मिेर्त्ा), धमपराज, जनदेि, मखदेि, ऐन्िद्युिम्न। करालजनक के साथ महाभारत के र्ूिप आस राज्य का ऄन्त (सम्भितः जरासन्ध िारा) हुअ। यहां िनिम लाक्षिणक शब्द है। काह्सर्त्के य काल में दिक्षणायन (िषाप) से जो सम्ित्सर अरम्भ हुअ िह यहां चलता रहा। र्ृथ्िी सतह र्र सूयप कह्ळ गित कह्ळ ईर्त्री दिक्षणी सीमायें नेिम हैं, दिक्षण सीमा को ऄह्ऱरिनेिम (सबसे ऄिधक शीत के कारण) भी कहते हैं। ईर्त्री नेिम जहां ऄन्त होती है िह क्षेत्र नैिमषारण्य कहा गया-यह ऄन्त ििन्दु कइ ऄक्षांशों र्र होंगे क्योंह्लक र्ृथ्िी ऄक्ष का झुकाि घटता बढ़ता है। ऄतः ईन स्थानों का क्षेत्र ऄरण्य हुअ। सूयप संसार का चक्षु है, ऄतः ईर्त्री दिक्षणी गोलाधप कह्ळ ईसकह्ळ गितयां िनिम (र्लक) हैं। ईर्त्री सीमा का ऄथप है ह्लक ईर्री र्लक सदा खुला रहेगा, िहां से िषप अरम्भ होने के कारण कहा जाता है ह्लक िनिम का र्लक नहीं िगरता था। अज भी िषाप (श्रािण मास) से िमिथला का र्ञ्चाङ्ग अरम्भ होता है। (२) कान्यकु ब्ज-र्ुरुरिा के िितीय र्ुत्र ऄमािसु से। प्रमुख राजा-जह्नु (भगीरथ काल में गंगा का मागप प्रशस्त ह्लकया), कु िशक, गािध, ििश्वािमत्र, मधुच्छन्दा। (३) शयापत-मनु र्ुत्र शयापित से-आनकह्ळ र्ुत्री सुकन्या का िििाह ऊिष च्यिन से हुअ। आनके र्ुत्र अनतप के नाम र्र गुजरात को अनतप कहते थे।
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(४) काशी-चन्ििंशी (५) नहुष के भाइ क्षत्रिृद्ध से। आनके िंशज प्रकािशरत के नाम र्र यह काशी हुअ। या यह िैह्लदक ज्ञान का के न्ि था ऄतः िहरण्य गभप क्षेत्र (काशी = प्रकािशत) था जैसे अकाश में िहरण्य गभप से ५ महाभूत अह्लद ईत्र्न्न हुये। आसकह्ळ र्ूिप सीमा िहरण्यबाहु (शोण = सोन) जो र्ुह्ऴल्लग नद है। ज्ञान के न्ि रूर् में यह महादेि का स्थान हैिहरण्यगभपः समितपताग्रे भूतस्य जातः र्ितरे क असीत्। स दाधार र्ृिथिीं द्यामुतेमां कस्मै देिाय हििषा ििधेम॥ (ऊक् १०/१२१/१, िाजसनेयी यजुिेद १३/४, २३/१, ऄथिप ४/२/७) क्षत्रिृद्ध के र्ौत्र हृत्समद ऊिष, धन्िन्तह्ऱर, ह्लदिोदास, प्रतदपन मुख्य व्यिक्त थे। (५) बाहपिथ िंश का कु रु र्ुत्र सुधन्िा से अरम्भ िलखा जा चुका है। किल के बाद यह सबसे प्रमुख राज्य था। (६) चैद्य-ििदभप के र्ुत्र चेह्लद िारा। आस िंश के िशशुर्ाल का कृ ष्ण िारा िध। (७) र्ाञ्चाल-ऄजमीढ़ (चन्ििंश ३०) के र्ुत्र नील से ईर्त्र र्ाञ्चाल, बृहिसु से दिक्षण र्ाञ्चाल। महाभारत काल में िुर्द दोनों भागों के राजा थे, र्र िोण ने िशष्यों कह्ळ सहायता से दिक्षण भाग र्र ऄिधकार कर िलया। दाशराज युद्ध (७२०० इ.र्ू.) में सुदास यहां का राजा था। (८) ऄनु-ययाित के ३ र्ुत्रों-ऄनु, िुह्यु, तुिपसु से यिन राज्य बने। ऄनु से अयोिनया, यिन, यूनान हुअ है। ऄन्य २ दिक्षण तथा र्ूिप गये थे। िहां से िमस्र, यूरोर् अह्लद गये। आसके कु छ राजा थे-सभानर, कालानल (िमस्र का ऄनुकुलाल), सृञ्जय, र्ुरञ्जय, जनमेजय, महाशाल, महामना (चक्रिर्त्ी)। आसके र्ुत्र ईशीनर का र्ुत्र िशिि ििख्यात था। ऄन्य र्ुत्र ितितक्षु से ऊषिथ, हेम, सुतर्, बिल अह्लद (९) िुह्यु से-दुदम प , िुह्यु, बभ्रु, सेतु, ऄंगार, गान्धार, धमप, धृत, दुदम प , प्रचेता-िसन्धु के र्िश्चम भाग में। (१०) यादि-ययाित का ज्येष्ठ र्ुत्र (७) यदु सहस्रिजत (८) क्रोिु
नील
ऄंजुक लघु
शतिजत (९) हैहय (१०)
हय
िैनुहय
१०. हैहय के बाद क्रमशः ११. धमपनेत्र, १२. कु िन्त, १३. सहञ्जय। सहञ्जय के बाद ईसका सम्बन्धी १४. मिहष्मान राजा हुअ िजसने नमपदा तट र्र मिहष्मती बसाइ। १५. भिश्रेण्य, १६. दुदम प को कािशराज ह्लदिोदास ने ऄर्ने क्षेत्र से हटाया। १७. कनक, १८. कृ तिीयप, १९. सहस्राजुपन-दतात्रेय के अशीिापद से आसे कइ िसिद्धयां थीं। ऊिषयों र्र ऄत्याचार के कारण र्रशुराम ने आसका िध ह्लकया। जयध्िज ऄििन्त ऄनन्त दुजपन अह्लद
शूरसेन
शूर
सहस्राजुपन िृष िृिष्ण मधु
कृ ष्ण
(िासुदेि कृ ष्ण)
(११) क्रोिु िंश-८. क्रोिु , ९. ििजन्िान, १०. स्िािह, ११.रुषदगु, १२. िचत्ररथ, १३. शशिबन्दु (चक्रिर्त्ी) कह्ळ र्ुत्री का िििाह सूयपिंशी राजा (२१) मान्धाता से हुअ। १४. र्ृथुश्रिा, १५. ईर्त्र (या ऄन्तर), १७. सुयज्ञ, १८. उष्ण, १८. िशिनयु, १९. मरुत्, २०. कम्बलिशी, २१. रुक्मत्िच, २२. र्िपरर्त्, २३. ज्यामध (चेह्लद राज्य कह्ळ स्थार्ना), २४. ििदभप (राजा का नाम)-आसकह्ळ र्ुत्री लोर्ामुिा का िििाह ऄगस्त्य ऊिष से हुअ। आसके ३ र्ुत्र थे-लोमर्ाद, क्राथ, के िशक। २५. लोमर्ाद के रामर्द, बभु, धृित, के िशक, २६, चेह्लद र्ुत्र थे। बाद में काशु चैद्य, क्राथ (भीम), कु िन्त ििख्यात राजा हुये। ईसके बाद धृिि, दशाहप, भीमरथ अह्लद। मधु और सत्ित (सूयपिंशी दशरथ का समकालीन) प्रिसद्ध थे। 109
भिजन
देििृध
सत्ित भीम महाभोज
िृिष्ण
बिभ्रल
रै ित
देिमीढु ष
(ऊिक्ष, ििश्वगभप, िसु, ...)
ऄन्धक (ऄनुर्लब्ध)
शूर
(ऄन्धक, कु क्कु र, िृिष्ण, ...) (कर्ोतरोम, ििलोम, अहुक, ...) ईग्रसेन
िसुदेि
कं स (कृ ष्ण िारा िध)
कृ ष्ण
िसुदेि के भाइ देिश्रिा के र्ुत्र एकलव्य का र्ालन िनषादराज ित्सित ने ह्लकया था (हह्ऱरिंश र्ुराण १/३४/३३,३४)। िसुदेि के ऄन्य भाइ देिभग का र्ुत्र ईद्धि था। महाभारत काल में यादिों के ५ मुख्य गण थे, िजनकह्ळ कु ल जनसंख्या ५६ कोह्ऱट कही गयी है-कु क्कु र (आन्ि काल के शुनः या सारमेय, र्िश्चमी सीमान्त के रक्षक, आस्लािमक अक्रमण के समय आनको खोखर कहते थे, िजनको के िल मारने का िनयम था, आस्लाम स्िीकार करने र्र भी ईनको नहीं छोिते थे। कइ खोखर िहमालय क्षेत्रों में चले गये िजनमें ऄसम का कोकराझार भी है), सात्ित (गुजरात, राजस्थान-सात्यह्लक, कृ तिमाप), भोज (मध्य भारत, रुक्मी का भोजकट नगर), ऄन्धक (र्ूिी समुि तट जहां से ऄन्धक या अन्धी अती है, कं स का मल्ल चाणूर यहां का था-ििष्णु-सहस्रनाम), िृिष्ण (िषाप से ह्ऴसिचत ईर्त्र भारत िजसमें कृ ष्ण भी हुये)। भागित र्ुराण, स्कन्ध १०, ऄध्याय १-श्लाघ्नीयगुणः शूरैभपिान् भोज यशस्करः॥३७॥ ईग्रसेनं च िर्तरं यदु-भोजान्धकािधर्म्॥६९॥ स्कन्ध ११, ऄध्याय ३०-दाशाहप-िृष्ण्य-न्धक-भोज-सात्िता मध्िबुपदा माथुरशूरसेनाः॥ ििसजपनाः कु कु राः कु न्तयश्च िमथस्ततस्तेऽश्च ििसृज्य सौहृदम्॥१८॥ ब्रह्माण्ड र्ुराण (१/२/१६)-आत्येते ऄर्रान्ताश्च शृणुध्िं ििन्ध्यिािसनः॥६३॥ ईर्त्मानां दशाणापश्च भोजाः ह्लकिष्कन्धकै ः सह॥६४॥ (२/३/६१)-कृ तां िाराितीं नाम बहुिारां मनोरमाम्। भोजिृष्ण्यन्धकै गुपप्तां िसुदेिर्ुरोगमैः॥२३॥ किल के राजिंश (१) र्ौरि या चन्ि िंश-किल अरम्भ के ६ मास ११ ह्लदन बाद (२२-८-३१०२ इ.र्ू.) में युिधिष्ठर ने ऄजुपन र्ौत्र र्रीिक्षत को राज्य देकर संन्यास िलया। २५ िषप के संन्यास काल में ईनको नेिमनाथ (२२िें जैन तीथंकर) कहा गया, गुह्यक राजा ईनका िशष्य होने से ईस राज्य का नाम नेर्ाल र्िा। कश्मीर में २५ किलिषप में ईनका देहान्त होने र्र लौह्लकक या सप्तह्सष िषप अरम्भ हुअ जब सप्तह्सष मघा नक्षत्र से िनकले। २. र्रीिक्षत (३१०२-३०४१ इ.र्ू.)-नागराज तक्षक (तक्षिशला का) िारा र्रीिक्षत कह्ळ हत्या के बाद ईसका र्ुत्र जनमेजय राजा हुअ। जयाभ्युदय शक (जय सम्ित्सर अरम्भ होने र्र जब युिधिष्ठर ऄभ्युदय के िलये गये) ८९ ऄथापत् ऄर्ने राज्य के २९ िषप में जनमेजय ने नाग राज्य को र्ूरी तरह ध्िस्त कर ह्लदया, िजनके ऄिशेष मोआन-जो-दरो (मुदों का स्थान) या हि्र्ा (हिियों का ढेर) अज भी ििख्यात हैं। आस सर्प यज्ञ में ऄिधक नरहत्या के प्रायिश्चर्त् के िलये जयाभ्युदय शक ८९ कह्ळ काह्सर्त्क ऄमािास्या, सोमिार सूयपग्रहण के समय (२७-११३०१४ इ.र्ू.) में के दारनाथ, तुङ्गभिा तट र्र मिन्दरों के िलये भूिम दान ह्लदये िजनका र्ट्टा अज भी चल रहा है। यह सर्प यज्ञ ईसी िषप चैत्र कृ ष्ण र्क्ष, भरणी नक्षत्र, व्यतीर्ात योग (७-३-३०१४ इ.र्ू.) में अरम्भ हुअ था। जनमेजय के ५ र्ट्टे मैसूर ऐिण्टकु ऄरी, १९०० में प्रकािशत हुये थे। 110
स्ििस्तश्री जयाभ्युदये युिधिष्ठरशके ्लिङ्गाख्ये एकोननिित (८९) ित्सरे सहस्यमािस ऄमािास्यायां सोमिासरे श्रीमन्महाराजािधराज र्रमेश्वरो िीराग्रणी िैयाघ्रर्ादगोत्रजः श्रीजनमेजयभूर्ः.....मुिनिृन्दक्षेत्रस्य चतुःसीमा .. ईर्त्र िािहन्यास्तुंभिया र्िश्चमे .... सिन्नधािुर्राग समये सिहरण्येन तुंगभिा जलधारा र्ूिपकं यितहस्ते दर्त्ो ऄस्म्यहं। जनमेजय चक्रिती हिस्तनार्ुरे सुखङ्गदा ििनोदेन दिक्षण ह्लदग्िलया ह्लदिग्िजय यात्रेय तुङ्गभिा-हह्ऱरिा सङ्गमे श्री हह्ऱरहरदेि सिन्नधौ .. चैत्रमासे कृ ष्णर्क्ष सोमह्लदने भरणी महानक्षत्रे संक्रािन्त व्यतीर्ात िनह्समत समये सर्पयागं करोिम। ३. शतानीक और ईसके र्ुत्र। ५. ऄश्वमेधदर्त् के काल में शौनक िारा र्ुराणों का र्ुनः सम्र्ादन हुअ। ६. ऄिधसीम कृ ष्ण। ७. िनचक्षु-हिस्तनार्ुर गंगा में डू बने से कौशाम्बी में राजधानी हुयी। आस काल में र्िश्चमी भारत में १०० िषप ऄनािृिि के कारण सरस्िती नदी सूख गयी, िजसमें जैन तथा िैह्लदक शास्त्र नि हो गये। देिी का शाकम्भरी ऄितार। ईर्त्र र्ूिप भाग में ऄिधक िषाप हुइ। ऄकाल ऄिस्था में धमप रक्षाथप ईस काल के सबसे समथप काशी के राजा ने संन्यास ग्रहण ह्लकया िजनका नाम र्ाश्वपनाथ (२३ िें जैन तीथंकर) हुअ। ईस समय से जैन युिधिष्ठर शक (२६३४ इ.र्ू.) चला (िजनििजयमहाकाव्य)। ििष्णु र्ुराण ऄंश ४, ऄध्याय -२१- योऽयंसाम्प्रतमिनीर्ितः र्रीिक्षर्त्स्यािर् जनमेजय-श्रुतसेनो-ग्रसेन-भीमसेनाश्चत्िारः र्ुत्राः
भििष्यिन्त।२।
जनमेजयस्यािर्
शतानीको
भििष्यित।३।
...
शतानीकादश्वमेधदर्त्ो
भििता।५।
तस्माद्यिधसीमकृ ष्णः।६। ऄिधसीमकृ ष्णािन्नचक्षुः।७। यो गङ्गायर्हते हिस्तनार्ुरे कौशाम्ब्यां िनित्स्यित।८। दुगाप सप्तशती, ऄध्याय ११-भूयश्च शतिाह्सषक्यामनािृष्ट्डामनम्भिस। मुिनिभः संस्तुता भूमौ सम्भििष्याम्ययोिनजा॥४६॥ ततः शतेन नेत्रेण िनरीिक्षष्यािम यन्मुनीन्। कह्ळतपियष्यिन्त मनुज्ः शताक्षीिमित मां ततः॥४७॥ ततोऽहमिखलं लोकमात्मदेहसमुििैः। भह्ऱरष्यािम सुराः शाकै रािृिःे प्राणधारकै ः॥४८॥ शाकम्भरीित ििख्याह्ऴत तदा यास्याम्यहः भुिि। तत्रैि च ििधष्यािम दुगपमाख्यं महासुरम्॥४९॥ ८. उष्ण (भूह्ऱर), ९. िचत्ररथ, १०. शुिचिथ, ११. िृिष्णमान्, १२. सुषेण, १३. सुनीथ, १४. िनचक्षु-२, १५. रुच, १६. सुखबल, १७. र्ह्ऱर्लि, १८. सुनय, १९. मेधािी, २०. नृर् (ह्ऱरर्ु)ञ्जय, २१. दुिप, २२. ितग्मात्मा, २३. बृहिथ, २४. िसुदान, २५. शतानीक, २६. ईदयन (भास, बाण कह्ळ रचनाओं का नायक, कािलदास के मेघदूत में, मगधराज प्रद्योत का समकालीन), २७. िशीनर, २८. दण्डर्ािण, २९. िनरिमत्र, ३०. क्षेमक-१६३४ इ.र्ू. में महार्द्मनन्द िारा ििनाश। २. सूयपिश ं -महाभारत में बृहद्बल के मारे जाने र्र ईसके ३० िंशजों ने १६३४ इ.र्ू. महार्द्मनन्द काल तक शासन ह्लकयाबृहत्क्षण, २. ईरुक्षय, ३. ित्सव्यूह, ४. प्रितव्योम, ५. ह्लदिाकर, ६. सहदेि, ७. बृहदश्व, ८. भानुरथ, ९. प्रिततस्ि, १०. सुप्रतीक, ११. मरुदेि. १२. सुनक्षत्र, १३. ह्लकन्नर, १४. ऄन्तह्ऱरक्ष, १५. सुर्णप, १६. ऄिमत्रिजत, १७. बृहिाज, १८. धमी, १९, कृ तञ्जय, २०. रणञ्जय, २१. सञ्जय, २२. शाक्य, २३. शुद्धोदन, २४. िसद्धाथप (शाक्यमुिन बुद्ध), २५. राहुल, २६. प्रसेनिजत, २७. क्षुिक, २८. कु न्दक, २९. सुरथ, ३०. सुिमत्र। ३. मगध का बाहपिथ िंश- ब्रह्माण्ड ३/७४.१२१, ििष्णु र्ुराण ४/२३/१२ अह्लद में आनकह्ळ सूची है। र्ूणप कालक्रम भििष्योर्त्र र्ुराण या किलयुग राज िृर्त्ान्त में है। (१) सोमािर् (माजापह्ऱर) ३१३८-३०८० इ.र्ू., (२) श्रुतश्रिा ३०८०-३०१६, (३) ऄप्रतीर् ३०१६-२९८०, (४) िनरिमत्र २९८०-२९४०, (५) सुकृत २९४०-२८८२, (६) बृहत् कमपन् २८८२-२८५९, (७), (७) सेनिजत २८५९-२८०९, (८) श्रुतञ्जय २८०९-२७६९, (९) महाबल २७६९-२७३४, (१०) शुिच २७३४-२६७६, (११) क्षेम २६७६-२६४८, (१२) ऄणुव्रत (ऄनुव्रत-र्ाश्वपनाथ काल, सम्भितः ईनका िशष्य) २६४८-२५८४, (१३) धमपनेत्र २५८४-२५४९, (१४) िनिृपिर्त् २५४९-२४९१, (१५) सुव्रत २४९१-२४५३, (१६) दृढसेन २४५३-२३९५, (१७) सुमित २३९५-२३६२, (१८) सुचल २३६२-२३४०, (१९) सुनेत्र २३४०-२३००, (२०) सत्यिजत २३००-२२१७, (२१) िीरिजत २२१७-२१८२, (२२) ह्ऱरर्ुञ्जय (२१८२-२१३२)-२२ राजा कु ल १००६ िषप।
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४. प्रद्योत िंश-ऄिन्तम राजा ह्ऱरर्ुञ्जय को मार कर ईसके मन्त्री शुनक या र्ुलक ने मारकर ईसकह्ळ र्ुत्री से ऄर्ने र्ुत्र प्रद्योत का िििाह कर ईसे राजा बनाया१. प्रद्योत (२१३२-२१०९ इ.र्ू.), २. र्ालक (२१९-२०८५), ३. ििशाखयूर् (२०८५-२०३५), ४. जनक (२०३५२०१४), ५. निन्दिधपन (२०१४-१९९४)-१३८ िषप। ५ राजा = १३८ िषप। निन्दिधपनस्तत्र्ुत्रः र्ञ्चप्रद्योतना आमे। ऄिह्ऴत्रशोर्त्रशतं भोक्ष्यिन्त र्ृिथिीं नृर्ाः॥ (स्कन्द र्ुराण १२/२) ५. िशशुनाग िंश-शैशुनागा दशैिैते भोक्ष्यिन्त र्ृिथिीं नृर्ाः। शतािन त्रीिण िषापिण षिििषापिधकािन च॥ (किलयुग राज िृर्त्ान्त २/२, भागित र्ुराण १२/२/८ अह्लद) १. िशशुनाग (१९९४-१९५४), २. काकिणप या शकिणप (१९५४-१९१८), ३. क्षेमधन्िा (१९१८-१८९२), ४. क्षत्रौज (१८९२-१८५२), ५ िििधसार (िबिम्बसार) या श्रेिणक (१८५२-१८१४), ६. ऄजातशत्रु (१८१४-१७८७), ७. दशपक (१७८७-१७५२), ८ ईदािय (१७५२-१७१९), ९. निन्दिधपन (१७१९-१६७७), १०. महानिन्द (१६७७-१६३४)। आस काल में मायामोह स्िरूर् शुद्धोदन र्ुत्र बुद्ध हुयेमायामोहस्िरूर्ोऽसौ शुद्धोदनसुतोऽभित्। मोहयामास दैत्यांस्तांस्त्यािजतान् िेद धमपकान्। ये च बौद्धा बभूिुह्सह तेभ्योऽन्ये िेदिह्सजताः॥ (ििष्णु र्ुराण ४/२३)। ईदािय ने ऄर्ने शासन के चतुथप िषप (१७४९ इ.र्ू.) में गंगा के दिक्षण तट र्र र्ाटिलर्ुत्र नगर बसायाईदािय भििता यस्मात् त्रयह्ऴस्त्रशत् समा नृर्ः। स िै र्ुरिरं राजा र्ृिथव्यां कु सुमाह्ियं॥ ऄजातशत्रु राज्य के ८िें िषप में बुद्ध का िनिापण (देहान्त) हुअ (१८०६ इ.र्ू.)। गंगायां दिक्षणे कू ले चतुथेऽब्दे कह्ऱरष्यित। (िायु र्ुराण ११९/३१८) बुद्ध (१८८६-१८०६ इ.र्ू.) िबिम्बसार से ५ िषप छोटे थे। ६. नन्दिंश-ऄिन्तम िशशुनाग राजा महानिन्द के बाद ईसकह्ळ शूिा र्त्नी कह्ळ सन्तान महार्द्मनन्द हुअ िजसने सभी क्षित्रय राजाओं का ऄन्त ह्लकयामहानिन्दस्ततः शूिीगभोििो बली ऄितलुब्धो ऄितबलो महार्द्मनन्द नामा र्रशुराम आि ऄर्रः ऄिखलक्षत्रान्तकारी भििष्यित। (ििष्णु र्ुराण ४/२४/२१) र्रीिक्षत जन्म के १५०० (१५०४) िषप के बाद महार्द्मनन्द का ऄिभषेक हुअयाित् र्रीिक्षतो जन्म याित् नन्दािभषेचनम्। एतद् िषप सहस्रं तु ज्ञेयं र्ञ्चशतोर्त्रम्। (ििष्णु र्ुराण ४/२४/१०४) स एकच्छत्रां र्ृथ्िीमनुल्लंिघतशासनः। शािसष्यित महार्द्मो िितीय आि भागपिः॥ (भागित र्ुराण १२/१/१०) ईसने ८८ िषप तथा ईसके ८ र्ुत्रों ने १२ िषप शासन ह्लकयाऄिाशीित स िषापिण र्ृिथव्यां तु भििष्यित॥ (मत्स्य र्ुराण २७०/२०) सुमाल्याह्लद सुताह्यिौ समा िादश ते नृर्ाः। कौह्ऱटल्यश्चन्िगुप्तं स ततो राज्येिभषेच्यित। भुक्त्िा महीं िषपशतं ततो मौयापन् गिमष्यित॥ (मत्स्य र्ुराण २७३/२३) ७. मौयप िंश-नन्द िंश का ििनाश कर कौह्ऱटल्य चाणक्य ने चन्िगुप्त को राजा बनाया। छर्त्ीसगढ़ से दिक्षण झारखण्ड के लौह क्षेत्र के के न्ि में मुरा (मुर = लौह) नगर िस्थत था। ऄभी यह सम्बलर्ुर के िनकट महानदी जल-भण्डार में डू ब गया है। र्ाण्डिों कह्ळ एक शाखा यहां शासन करती थी जो ित्रकिलङ्गािधर्ित थे-कोसल का के न्ि मुरा नगर, ईत्कल का के न्ि ििजय-कटक, कह्ऴलग का के न्ि कोणगढ़। सिम्मिलत राजधानी सोनर्ुर थी। मुरा-शासन के प्रायः ५० दानर्त्र ईर्लब्ध हैं।
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आन शासकों को मौयप कहते थे। भागित र्ुराण में नरकासुर को भी ईसके नगर के लौह घेरे के कारण मुर कहा गया है। मौयप तथा जंग-दोनों के २ ऄथप हैं-लोहा, युद्ध। १२ मौयप राजाओं ने ३१६ िषप राज्य ह्लकयािादशैते नृर्ाः मौयापः चन्िगुप्तादयो महीम्। शतािन त्रीिण भोक्ष्यिन्त दश षट् च समा कलौ॥ (किलयुगराज ऊर्त्ान्त ३/२) आत्येते दश च िे च ते भोक्ष्यिन्त िसुन्धराम्। शतािन त्रीिण र्ूणापिन तेभ्यः शुङ्गान् गिमष्यित॥ (मत्स्य र्ुराण २७०/३, िायु) १. चन्िगुप्त (१५३४-१५०० इ.र्ू.), २. िबन्दुसार (१५००-१४७२), ३. ऄशोक (१४७२-१४३६), ४. सुर्ाश्वप (सुयश, कु णाल १४३६-१४२८), ५. दशरथ (बन्धुर्ािलत १४२८-१४२०), ६. आन्िर्ािलत (१४२०-१३५०), ७. हषपिद्धपन (१३५०-१३४२), ८. संगत (१३४२-१३३३), ९. शािलशूक (१३३३-१३२०), १०. सोम (देि) शमाप (१३२०-१३१३), ११. शतधन्िा (१३१३-१३०५), १२. बृहिथ (बृहदाश्व) १३०५-१२१८)। ऄशोक के समकालीन गोनन्द िंश के ४३ िें राजा ऄशोक ने बौद्ध धमप ग्रहण ह्लकया था, र्र राजतरं िगणी के आस श्लोक के ऄथप में मिास सरकार के ऄिभलेखागार ऄध्यक्ष हुल्ज ने आसे मौयप ऄशोक के बारे में िलखकर भारतीय आितहास नि करने के िब्रह्ऱटश प्रयास में महत्त्िर्ूणप योग ह्लदया(राजतरिङ्गणी, तरङ्ग १)प्रर्ौत्रः शकु नेस्तस्य भूर्तेः प्रिर्तृव्यजः। ऄथािहदशोकाख्यः सत्यसन्धो िसुन्धराम्॥१०१॥ यः शान्तिृिजनो राजा प्रर्न्नो िजनशासनम्। शुष्कलेत्र िितस्तात्रौ तस्तारस्तूर्मण्डलैः॥१०२॥ म्लेच्छै ः संछाह्लदते देशे स तदुिच्छतये नृर्ः।१०७। सोऽथभूभृज्जलौकोऽभूद ् भूलोकसुरनायकः।१०८। स रुद्ध िसुधान् म्लेच्छान् िनिापस्याखिप ििक्रमः।११५। ते यत्रोज्झह्ऱटतास्तेन म्लेच्छाश्छाह्लदत मण्डलाः। स्थानमुज्झटिडम्बं तज्ज्नैरद्यािर् गद्यते।११६। िजत्िोिीं कान्यकु ब्जाद्यां तत्त्रत्यं स न्यिेशयत्। चातुिपण्यं िनजे देशे धम्यांश्च व्यिहाह्ऱरणः।११७॥ गोनन्द ऄशोक (१४४४८-१४०० इ.र्ू.) के बौद्ध धमप ग्रहण करने के कारण मध्य एिसया के बौद्धों ने ईसका राज्य नि कर ह्लदया। ईसके बाद ईसके र्ुत्र जलौक (१४००-१३४४ इ.र्ू.) ने बौद्धों को भगा कर चातुिपण्यप स्थािर्त ह्लकया। जहां बौद्धों को िनमूपल ह्लकया िह स्थान ईज्झटिडम्ब नाम से प्रिसद्ध हुअ। १८६५ इ. में ओिडशा के किमश्नर रे िेनशा ने यहां का सब ऄन्न ह्लकसानों से िसूलकर बाहर बेच ह्लदया था िजससे ३५ लाख लोग भूख से मर गये। ईसे िछर्ाने के के िलये ईतना ही नरसंहार िहन्दू राजाओं िारा ह्लदखाना चाहता था। र्र ििन्सेण्ट िस्मथ को शक था ह्लक कह्ऴलग कह्ळ ईतनी अबादी मौयप काल में नहीं थी, ऄतः ईसने कह्ऴलग युद्ध में ३.५ लाख मृत, ५.५ लाख घायल तथा १.५ लाख बन्दी ह्लदखा कर प्रचार ह्लकया ह्लक ह्ऴहसा त्याग करने के िलये ऄशोक बौद्ध हो गया था। आसमें कइ झूठ हैं-(१) बौद्ध ग्रन्थ ह्लदव्यािदान के ऄशोकािदान में िलखा है ह्लक कह्ऴलग ििजय के बाद ऄशोक ने १२००० जैन साधुओं कह्ळ हत्या कर दी थी क्योंह्लक बुद्ध को खण्डिगह्ऱर में महािीर का चरण स्र्शप करते ह्लदखाया गया था जब िे योग सीखने के िलये गये थे। गुरु के र्ास जाने कह्ळ यह ििश्व प्रिसद्ध र्रम्र्रा है। (२) ह्लकसी ग्रन्थ या िशलाल्ख में न बौद्ध होने कह्ळ चचाप है न ह्ऴहसा त्याग करने कह्ळ कथा है। १२००० त्यागी साधुओं कह्ळ हत्या कदािर् बौद्ध ऄह्ऴहसा का ईदाहरण नहीं है। (३) प्रचार का ईर्द्ेश्य है ह्लक के िल बौद्ध ऄह्ऴहसक हो सकते हैं, िैह्लदक या जैन नहीं। (४) ऄशोक के कारण मौयप साम्राज्य नहीं नि हुअ, बिल्क ईसकह्ळ मृत्यु के बाद १८२ िषप तक मौयप राज्य, ३०० िषप तक शुंग, ८५ िषप तक कण्ि िंश का राज्य चला। ईसके बाद अन्ध्र िंश के काल में आसका र्तन अरम्भ हुअ। (५) ऄशोक या कोइ भी मौयप राजा बाह्मण ििरोधी नहीं थे बिल्क ऄन्त तक ईसके महामन्त्री ब्राह्मण थे। ८. शुग ं िंश-१० शुंग राजाओं िारा ३०० िषप शासन-
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दशैते शुंगराजानो भोक्ष्यन्तीमां िसुन्धराम्। शतं र्ूणप सते िे च तेभ्यः कण्िान् गिमष्यित॥ (किलयुगराज िृर्त्ान्त, मत्स्य, िायु) १, र्ुष्यिमत्र (१२१८-११५८ इ.र्ू.), २. ऄिग्निमत्र (११५८-११०८), ३. िसुिमत्र (११०८-१०७२), ४. सुज्येष्ठ (१०७२-१०५५), ५. भिक (१०५५-१०२५), ६. र्ुिलन्दक (१०२५-९९२), ७. घोषिसु (९९२-९८९), ८. िज्रिमत्र (९८९-९६०), ९. भागित (९६०-९२८), १०. देिभूित (९२८-९१८). ९. कण्ि िंश-४ कण्ि राजाओं ने ८५ िहप शासन ह्लकया-एते चत्िाह्वरशत् काण्िायनश्चत्िारः। र्ञ्चचत्िाह्वरशद् िषापिण भूर्तयो भििष्यिन्र्त्। (ििष्णु र्ुराण ४/२४/३९-४२) १. िासुदेि (९१८-८७९), २. भूिमिमत्र (८७९-८५५), ३. नारायण (८५५-८४३), ४. सुशमाप (८४३-८३३)। १०. अन्ध्र िंश-३२ राजाओं ने ५०६ िषप शासन ह्लकया-१. िशमुक (िसन्धुक, सुमुख, ८३३-८१० इ.र्ू.), २. श्रीकृ ष्ण शातकह्सण (८१०-७९२), ३. श्रीमल्ल शातकह्सण (७९२-७८२), ४. र्ूणोत्सङ्ग (७८२-७६४)-यह कह्ऴलग राजा खारािेल का समकालीन माना जाता है। िस्तुतः खारािेल का ईदय अन्ध्रिंश के साथ ही हुअ जब भारत में के न्िीय शासन दुबपल हो गया तथा र्िश्चम में ऄसीह्ऱरया का ईदय हुअ। खारािेल के िशलालेख के ऄनुसार ईसके राज्य के ४ िषप र्ूणप होने र्र नन्द ऄिभषेक के ८०३ िषप बीते थे, ऄथापत् ईसका शासन १६३४- (८०३-४) = ८३५ इ.र्ू. में अरम्भ हुअ। ईसके शासन के ११ िषप र्ूणप होने र्र मथुरा में शक राजा को र्रािजत ह्लकया (८२४ इ.र्ू.)। ५. श्री शातकह्सण (७६४-७०८), ६. स्कन्धस्तिम्बन् (श्रीस्िामी, ७०८-६९०), ७. लम्बोदर (६९०-६७२), ८. अिर्लक (६७२-६६०), ९. मेघस्िाित (६६०६४२), १०. शातस्िाित (६४२-६२४), ११. स्कन्दस्िाित (६२४-६१७), १२. मृगेन्िस्िाितकणप (६१७-६१४), १३. कु न्तल (६१४-६०६), १४. सौम्य (६०६-५९४), १५. शतस्िाितकणप (५९४-५९३), १६. र्ुलोमािि (५९३-५५७), १७. मेघ (५५७-५१९), १८. ऄह्ऱरि (५१९-४९४), १९. हाल (४९४-४८९)-गाथा सप्तशती का लेखक, अह्लद शंकर का समकालीन। २०. मण्डलक (४८९-४८४), २१. र्ुरन्दरसेन (४८४-४६३)-आसके काल में ३१७६ इ.र्ू. से अरम्भ २७०० िषप का सप्तह्सष चक्र र्ूणप हुअताित्कालानन्तरं भाव्यमान्ध्रन्तादार्रीिक्षतः। भििष्येते प्रसंख्याताः र्ुराणज्ञैः श्रुतह्सषिभः॥४०॥ सप्तषपयस्तदा प्राहुः प्रदीप्तेनािग्नना समाः। सप्तह्ऴिशित भाव्यानानामान्ध्राणान्तु यथा र्ुनः॥४१॥ (मत्स्य र्ुराण २७०) २२. सुन्दर शातकह्सण (४६३-४६२), २३. चक्रिािसष्ठीर्ुत्र तथा महेन्ि (४६२-४६१), २४. िशि (४६१-४३३), २५. गौतमीर्ुत्र शातकह्सण (४३३-४०८), २६. र्ुलोमािि-२ (४०८-३७६), २७. िशि (३७६-३६९), २८. िशिकोण्डा (३६९३६२), २९. यज्ञश्री (३६२-३४३), ३०. ििजयश्री (३४३-३३७), ३१. चन्िश्री (३३७-३३४), र्ुलोमािि-३ (बालक ३३४-३२७)। ११. गुप्त िंश-अन्ध्र राजाओं ििजयश्री (३०) और चन्िश्री शातकह्सण (३१) के सेनार्ित घटोत्कच और ईसके र्ुत्र चन्िगुप्त थे। चन्िश्री कह्ळ र्त्नी कह्ळ सहायता से चन्िगुप्त ने ईसकह्ळ हत्या कर ईसके बालक र्ुत्र र्ुलोमािि को राजा बनाया तथा ७ िषप बाद ईसकह्ळ भी हत्या कर स्ियं राजा बना। (किलयुग राजिृर्त्ान्त)चन्ििश्रयं घातियत्िा िमषेणैि िह के निचत्। तत्र्ुत्रं प्रितभूत्िा च राज्यं चैि िनयोिजतः॥ िषवस्तु सप्तिभः प्राप्त राज्यो िीराग्रणीरसौ। तत्र्ुत्रं च र्ुलोमनं िििनहत्य नृर्ाभपकम्॥ अन्ध्र राजा के सेनार्ित होने के कारण गुप्तों को अन्ध्रभृत्य भी कहा गया हैअन्ध्राणां संिस्थता राज्ये तेषां भृत्यान्िये नृर्ाः। सप्तैिान्ध्रा भििष्यिन्त दशाभीरास्तथा नृर्ाः॥ (मत्स्य र्ुराण २७३/१७)। मेगास्थनीज तथा एह्ऱरयन के ऄनुसार-बिा ि्लनी (गाआयस ि्लनससेकंडस ने नैचरु ल िहस्री के भारतीय आितहास ऄध्याय में-भारत एकमात्र देश है जहां के िनिासी बाहर से नहीं अये हैं। यिन राजा बाकस िर्ता के समय से ऄलेक्जेण्डर काल तक भारतीय १५४ राजा िगनते हैं, िजनका काल ६४५१ िषप ३ मास है। सोिलन ने भी िर्ता बाकस के भारत अक्रमण से ऄलेक्जेण्डर तक ६४५१ िषप ३ मास िगने हैं िजनमें १५३ भारतीय राजा िगने हैं। ि्लनी के १०० िषप बाद एह्ऱरयन 114
िलखता है-डायोिनसस (बाकस) से सैण्ड्रोकोट्टस (ऄलेक्जेण्डर अक्रमण के समय भारतीय राजा) तक १५३ भारतीय राजा ६०४२ िषप तक थे। र्र आस काल में ३ गणतन्त्र थे-प्रथम का काल नहीं िलखा, बाकह्ळ ३०० तथा १२० िषप के थे। यहां ३०० िषप मालि गण का काल है जो शूिक शक (७५६ इ.र्ू.) से श्रीहषप शक (४५६ इ.र्ू.) तक था तथा १२० िषप र्रशुराम काल होगा। ईसके बाकस के र्ूिप से हैहय-तालजंघ अह्लद का काल रहा होगा िजन्होंने बाकस कह्ळ मदद कह्ळ थी। किलयुग के बाद यह्लद मगध राजाओं को िगने तो िे २२ बाहपिथ + ५ प्रद्योत + १० िशशुनाग + नन्द २ र्ीढ़ी (९ राजा) + मौयप १२ + शुग ं १० + काण्ि ४ + अन्ध्र ३२ = ८७ राजा हैं। सगर से राम तक ३१ राजा थे। राम के बाद महाभारत तक के राजाओं का नाम स्र्ि नहीं र्र ऄिधकांश र्ुराण ३५ र्ीढ़ी िगनते हैं। कु ल योग =३१+३५+८७ = १५३ राजा। १५४ िां गुप्त काल का प्रथम राजा चन्िगुप्त था। ईसके िर्ता घटोत्कच के नाम का ऄनुिाद ग्रीक में नाइ (घट = िसर, कच बाल, ईत्कच =बाल काटना, गंजा) कर ह्लदया है। अन्ध्र राजा चन्िबीज (चन्िश्री) को ऄग्रमस या जैण्ड्रमस, चन्िगुप्त-१ को सैण्ड्रोकोट्टस, समुिगुप्त को सैण्ड्रोह्लक्र्टस, चन्िगुप्त-२ को ऄिमत्रोच्छे दस (शत्रु संहारक) कहा है। गुप्त िैश्यों कह्ळ ईर्ािध है, आन्होंने राजा बनने र्र अह्लदत्य ईर्ािध धारण कह्ळिञ्चकं िर्तरं हत्िा सहर्ुत्रं सबान्धिम्। ऄशोकाह्लदत्यनामानं प्रख्यातो तु महीतले॥ (किलयुगराजिृर्त्ान्त) चन्िगुप्त-१-ििजयाह्लदत्य। समुिगुप्त-ऄशोकाह्लदत्य। चन्िगुप्त-२-ििक्रमाह्लदत्य (यह के िल ईर्ािध थी) श्रीगुप्त-घटोत्कच-चन्िगुप्त-१ (३२७-३२० इ.र्ू.) कच (३२०) समुिगुप्त (ऄशोकाह्लदत्य) ३२०-२६९ इ.र्ू. रामगुप्त (२६९) चन्िगुप्त-२ (ििक्रमाह्लदत्य) २६९-२३३ इ.र्ू. कु मारगुप्त-१ (२३३-१९१ इ.र्ू.) स्कन्दगुप्त (१९१-१७५)-िनःसन्तान र्ुरगुप्त (बुधगुप्त का ऄिभभािक) िैन्यगुप्त (१७५-१७४) कु मारगुप्त-२ (१७४-१७२) बुधगुप्त (१७२-१६६) नरह्ऴसहगुप्त (बालाह्लदत्य-१) १६६-१२६ कु मारगुप्त-३(१२६-८५ इ.र्ू.) ििष्णुगुप्त (८५-८२ इ.र्ू.) आसके बाद ईज्जैन के र्रमार राजा ििक्रमाह्लदत्य का शासन अरम्भ हुअ। (१२) कश्मीर राजिंश-राजतरं िगणी के अधार र्र-तरं ग १-३४५० इ.र्ू. से-प्रथम ५ राजाओं (३४५-३२३८ इ.र्ू.) का नाम नहीं है। ६. गोनन्द-१ (३२३८-३१८८ इ.र्ू.), ६. दामोदर-१ (३१८८-३१४०)-यह महाभारत युद्ध के ठीक र्ूिप मारा गया, तब ईसकह्ळ र्त्नी यशोिती ने शासन ह्लकया। ८. गोनन्द-२ (३१३८-३०८३)-र्ाण्डि राजा र्रीिक्षत (९) िारा मारा गया, ईसने ३०८३-३०४१ तक शासन ह्लकया। र्रीिक्षत का िितीय र्ुत्र हनपदेि (१०) राजा हुअ। ईस िंश के ११. रामदेि, १२. व्यासदेि, १३. िोणदेि, १४. ह्ऴसहदेि, १५. गोर्ालदेि, १६. ििजयानन्द, १७. सुखदेि, १८. रमणदेि, १९. सिन्धमान, २०. महानदेि, २१. कमानदेि, २२. चन्िदेि, २३. अनन्ददेि, २४. िुर्ददेि, २५. हरनामदेि, २६. सुलखानदेि, २७. सेनाह्लदत्य, २८. मंगलाह्लदत्य-२० र्ाण्डि राजा। ऄन्य कश्मीर िंशी-२९. क्षेमन्े ि, ३०. भीमसेन, ३१. आन्िसेन, ३२. सुन्दरसेन, ३३. गलगेन्ि, ३४. बलदेि, ३५. नलसेन, ३६. गोकणप, ३७. प्रह्लाद, ३८. बम्ब्रु, ३९. प्रतार्शील, ४०. संग्रामचन्ि, ४१. लोह्ऱरकचन्ि, ४२. बीरमचन्ि, ४३. बिबघन, ४४. भगिन्त-आन ३६ र्ाण्डि िंशी राजाओं ने १३३१ िषप (३०८३-१७५२ इ.र्ू.) शासन ह्लकया। र्ुनः गोनन्द िंश ने ऄिधकार ह्लकया। ४५. लि (१७५२-१७१३), ४६. कु श या कु शेशय (१७१३-१६७४), ४७. खगेन्ि (१६७४-१६३५), ४८. सुरेन्ि (िनःसन्तान, १६३५-१५९६)। एक सम्बन्धी गोधर (४४ िां गोनन्द) १५९६-१५५७ इ.र्ू. में राजा हुअ। ४५. सुिणप (१५५७-१५१८), ४६. जनक (१५१८-१४७९), ४७. शचीनर (१४७९-१४४८) जनक के भाइ का र्ौत्र (४८) ऄशोक १४४८ इ.र्ू. में राजा हुअ। लोकधातु बुद्ध के प्रभाि में यह बौद्ध हुअ तथा बौद्धों ने आसका नाम धमापशोक रखा। आसने बहुत से ििहार तथा स्तूर् बनिाये। आसके कइ िशलालेख मौयप ऄशोक के कहे जाते हैं। स्तूर्, ििहार अह्लद के िनमापण में राज्य कह्ळ सम्र्िर्त् और शिक्त नि हुइ, िजससे मध्य एिसया के बौद्धों ने राज्य र्र कब्जा कर िलया। एक 115
शैि सन्त कह्ळ कृ र्ा से आसने र्ुनः राज्य र्ाया तथा जालौक नाम का र्ुत्र हुअ। आसने १४०० इ.र्ू. तक राज्य ह्लकया तथा श्रीनगर बसाया। ४९. जालौक (१४००-१३४४), ५०. दामोदर-२ (१३४४-१२९४)। र्ुनः मध्य एिसया के बौद्धों हुष्क, जुष्क, किनष्क ने १२९४-१२३४) = ६० िषप शासन ह्लकया। र्ुनः गोनन्द िंशी ५२. ऄिभमन्यु (१२३४-११८२) का राज्य५२ गोनन्द राजा २२६८ िषप तक (३४५०-११८२ इ.र्ू.)। ५३. गोनन्द-३ (११८२-११४७), ५४. ििभीषण (११४७-१०९२), ५५. आन्ििजत (१०९२-१०५७), ५६. रािण (१०५७-१०२७), ५७. ििभीषण-२ १०२७-९९१), ५८. ह्लकन्नर या नर (९९१-९५२), ५९. िसद्ध (९५२-८९२), ६०. ईत्र्लाक्ष (८९२-८६१), ६१. िहरण्याक्ष (८६१-८२४), ६२. िहरण्यकु ल (८२४-७६४), ६३. िसुकुल (७६४-७०४), ६४. िमिहरकु ल (७०४-६३४ इ.र्ू.)-कश्मीरी शैि, ििदेशी नहीं। ६५. बक (६३४-५९४), ६६. िक्षितनन्दन (५९४५६४), ६७. िसुनन्दन किि (५६४-५१२), ६८. नर (५१२-४७७), ६९. ऄक्ष (४७७-४१७), ७०. गोर्ाह्लदत्य (४१७३५७ इ.र्ू.)-आसने ३६७ इ.र्ू. में शंकराचायप मिन्दर बनिाया, िजसे अजकल तख्त-ए-सुलेमान कहते हैं। ७१. गोकणप (३५७-३२२), ७२. ह्लकनिखल या नरे न्िाह्लदत्य (३२२-२८५), ७३. ऄन्ध-युिधिष्ठर (छोटी अंख का, ऄन्ध नहीं, २८५२७२ इ.र्ू.)-७३ + ५ = ७८ राजा ३४५०-२७२ इ.र्ू.। तरं ग -२-हषप ििकमापह्लदत्य के सम्बन्धी-७४. प्रतार्ाह्लदत्य (२७२-२४०), ७५. जलौकस (२४०-२०८), ७६. तुिञ्जन (२०८-१७२), ७७. ििजय (१७२-१६४), ७८. जयेन्ि (१६४-१२७), ७९. सिन्धमित (१२७-८०)-२७२-८० इ.र्ू.। र्ुनः गोनन्द िंश के ऄन्ध-युिधिष्ठर का िंशज ८०. मेघिाहन (८०-४६ इ.र्ू.), ८१. प्रिरसेन, श्रेष्ठसेन या तुिञ्जन (४६-१६ इ.र्ू.), ८२. िहरण्य (छोटे भाइ तोरमाण ने ऄर्ने नाम के िसक्के बनिाये-जेल में मृत्यु)-िनःसन्तान मरा (१६ इ.र्ू.-१४ इ.). ८३. मातृगुप्त (ईज्जैन के ििक्रमाह्लदत्य ने भेजा था)-(१४-१९ इ.), ८४. प्रिरसेन-२-तोरमाण का र्ुत्र (१९-७९ इ.), ८५. युिधिष्ठर-२ (७९-११८, शािलिाहन का समकालीन), ८६. लक्ष्मण या नरे न्िाह्लदत्य (११८-१३१), ८७. तुिञ्जन या रणाह्लदत्य किि (१३१-१७३), ८८. ििक्रमाह्लदत्य (१७३-२१५), ८९. बालाह्लदत्य (२१५-२५२)-गोनन्द िंश का ऄन्त। तरं ग-४-ककोटक िंश-९०. दुलभ प िधपन (ऄिन्तम गोनन्द राजा बालाह्लदत्य का दामाद)-(२५२-२८८), ९१. दुलपभक या प्रतार्ाह्लदत्य (२८८-३३८), ९२, चन्िार्ीि या िणापह्लदत्य (३३८-३९७), ९३. तारार्ीि या ईदयाह्लदत्य (३९७-४३१), ९४. लिलताह्लदत्य या किि मुक्तार्ीि (४३१-४६७), ९५. कु िलयाह्लदत्य (४६७-४६८), ९६. िज्राह्लदत्य, िा्याियक या लिलतार्ीि (४६८-५२५), ९७. र्ृिथव्यार्ीि (५२५-५६९), ९८. संग्रामार्ीि (७ ह्लदन), ९९. जयार्ीि, र्िण्डत किि (५६९-६२०), १००. लिलतार्ीि (६२०-६७२)-आस काल में हुएनसांग कह्ळ यात्रा, १०१. संग्रामार्ीि-२ (६७२-७२९), १०२. िच्यट-जयार्ीि (७२९-७८१), १०३. ऄिजतार्ीि (७८१-८३७), १०४. ऄनङ्गर्ीि (८३७-८४०), १०५. ईत्र्लर्ीि (८४०-८४५), १०६. सुखिमाप (८४५-८५२) तरं ग-५-ईत्र्ल िंश-१०७. ऄििन्तिमपन (ऄििन्तर्ुर नगर, अनन्दिधपन, रत्नाकर किि, ८५२-८८०), १०८. शंकरिमाप (८८०-९००), १०९. गोर्ालिमाप कह्ळ माता सुगन्धा (९००-९०२), ११०. संकट, १११. सुगन्धा, ११२. सुरिमाप (९०२९०४), ११३.र्ाथप (९०४-९१८), ११४. िनह्सजतिमाप (९१८-९२०), ११५. चक्रिमाप (९२०-९३४-मारा गया), ११६. ईन्मर्त्िन्ती (९३४-९३६). तरं ग-६- गुप्त ब्राह्मण िंश-११७. यशस्कर (९३६-९४५), ११८. िणापत (१ मास), ११९. संग्रामदेि (५ मास), १२०. र्िपगुप्त (९४६-९४८), १२१. क्षेमगुप्त (९४८-९५७)-आसकह्ळ र्ौत्री ह्लदर्द्ा काबुल के भीमशाही कह्ळ र्ौत्री थी। ईसने ऄर्ने बालक र्ुत्रों (१२२) ऄिभमन्युगुप्त के नाम र्र ९५७-९७१ तक, (१२३) निन्दगुप्त के नाम से १ िषप (९७२ तक), १२६. ित्रभुिनगुप्त के नाम से २ िषप तथा १२५. भीमगुप्त के नाम से ५ िषप राज्य ह्लकया। १२६. ह्लदर्द्ा ने ऄर्ने नाम से ३३ िषप (९७९-१०१२) तक राज्य ह्लकया तथा गजनी के महमूद का अक्रमण रोका। 116
तरं ग-७-सातिाहन लोहार िंश-१२७. संग्रामराज (ह्लदर्द्ा के भाइ का र्ुत्र, काबुल के ित्रलोचनर्ाल का समकालीन, १०१२-१०२७), १२८. हह्ऱरराज (२२ ह्लदन), १२९. ऄनन्तदेि (१०२७-१०६२), १३०. कलस या रणाह्लदत्य-र्िण्डत तथा किि (१०७८-१०८८), १३१. ईत्कषप, १३२. हषप (१०८८-११०) तरं ग-८-ऄिग्निंशी-१३३. ईच्छल, १३४. शंखराज (१११०-११२०). १३४. सुस्सल (११२०-११२८), १३६. जयह्ऴसह (११२८-११४८) आस काल में राजतरं िगणी िलखा गया, ईसके बाद १२९५ इ. तक का आितहास ज्ञात नहीं है। १२९५ में कश्मीर के राजा ह्ऴसहदेि ने स्िात के शाहमीर, ितब्बत के रे ञ्चन शाह, तथा दर्कदस्तान के लंकरचाक को अश्रय तथा जागीर ह्लदया। आन व्यिक्तयों ने धोखे से राज्य नि कर ह्लदया। १३२२ इ. में चंगज े खान के िंशज जुिल्फकार खान ईफप दुले ने कश्मीर र्र अक्रमण कर र्ूरा लूट िलया तथा लाखों बच्चों बूढ़ों कह्ळ हत्या कह्ळ। ५०,००० ब्राह्मणों को गुलाम बना कर ले गया। देिसर के रास्ते में ऄिधकांश गुलाम बफप में मर गये। राजा ह्ऴसहदेि ह्लकश्तिार भाग गये। ईनके अक्रमण के बाद ईनके सेनार्ित रामचन्ि ने र्ुनः शासन स्थािर्त करने कह्ळ चेिा कह्ळ, र्र ितब्बत के रे न्चन शाह ने ईसकह्ळ हत्या कर ईसकह्ळ र्ुत्री से िििाह कर िलया और कश्मीर का राजा बन गया। जुलोबुलोशाह िारा िह मुिस्लम बना तथा सदरुर्द्ीन नाम से २५ िषप शासन ह्लकया। ईसके बाद ह्ऴसहदेि के भाइ ईदयनदेि ने १३२७-१३४३ इ. तक शासन ह्लकया र्र ईसके मन्त्री शाह िमजाप ईसकह्ळ हत्या कर शमसुर्द्ीन नाम से राजा बन गया। ईसका िंश १५६१ तक चला। ईसके बाद मुगल ऄकबर अया। १३. मालिा राजा-शूिक ७५६ इ.र्ू. (किल २३४५) में राजा हुअ, जब शूिक-शक अरम्भ हुअ (यल्ल का ज्योितष दर्पण ७१)। ईसके राज्य में ऄबुपद र्िपत र्र यज्ञ हुअ िजसमें ऄिग्न कह्ळ साक्षी में ४ क्षित्रय कु लों-प्रितहार, र्रमार, चालुक्य, चाहमान (चौहान) ने देशरक्षा के िलये शर्थ ली। आस काम में ऄग्री (ऄग्रणी) होने से ईनको ऄिग्न-कु ल का कहा गया (शतर्थ ब्राह्मण २/२/४/२)। चाहमान काल में शाकम्भरी (दुगाप सप्तशती ११/४९) तथा ििष्णु ऄितार मगध के ऄिजन ब्राह्मण के र्ुत्र बुद्ध के प्रसाद से ६१२ इ.र्ू. में ऄसुर राजधानी िननेिे ध्िस्त हुइ। आस काल से अरम्भ शक का िराहिमिहर ने व्यिहार ह्लकया है (बृहत् संिहता १३/३)। ईज्जैन के गदपिभल्ल राजा दर्पण के काल में जैन मुिन कालकाचायप कह्ळ बहन सरस्िती का राजा ने ऄर्हरण कर िलया। िह सहायता के िलये िहन्दुकुश के ९६ सामन्तों के र्ास गये। ईन्होंने इरान राजा डेह्ऱरयस से बचने के िलये सौराष्ट्र के राजा बलिमत्र कह्ळ सहायता से ईज्जैन र्र ऄिधकार कर िलया। शक राजा नहर्ान या नहसेन को ईज्जैन का राजा बना कर ईसे जैन दीक्षा देने के कारण कालकाचायप (५९९-५२७ इ.र्ू.) को जैन शास्त्रों में िीर कहा गया तथा ईनके देहान्त से िीर सम्ित् अरम्भ हुअ। नहर्ान (५५०-५१० इ.र्ू.) का दामाद ईशिदर्त् का र्ुत्र ह्लदिनक, िमत्र अह्लद शक राजा हुये। ४५७ इ.र्ू. में हषप ििक्रमाह्लदत्य ने आनको र्रािजत कर र्ुनः मालि प्रभुत्ि स्थािर्त ह्लकया। शूिक से श्रीहषप शक (७५६-४५६ इ.र्ू.) काल को मेगास्थनीज ने ३०० िषप का गणराज्य कहा है। ईसके बाद कइ छोटे शक राजा राज्य करते रहे-जयदमन (४२०-३९०), रुिदमन१ (३९०-३६०), दमजादश्री, जीिदमन, ईसका भाइ रुिह्ऴसह-१ (३६०-३१७), रुिसेन-२ (३१७-२९३), र्ृथ्िीसेन (२९३), रुिसेन का भाइ संघदमन (२९२), दमसेन (२९२२७९)। आसके बाद िे के िल क्षत्रर् (अज कह्ळ खार् र्ंचायत) या ऄधीनस्थ शासक रह गये-यशोदमन-१ (२७९-२७५),, ईसका भाइ ििजयसेन (२७५-२६५), दमजादश्री-३ (२६५-२६१), रुिसेन-२ (२६१-२४१), ििष्णुह्ऴसह (२४१-२२६), भरतदमन (२२६-२२०), ििष्णुसेन (२२०-२११), रुिह्ऴसह२ (२११-१९८), यशदमन (१९८-१८३), रुिदमन-२ (१८३१६७), रुिसेन-३ (१६७-१३७), ईसका भांजा रुिह्ऴसह (१३७-१३१)। मथुरा में ये ५७ इ.र्ू. तक बने रहे। श्रीहषप ििक्रम के बाद ईज्जैन र्र र्रमार िंश राजाओं ने ऄिधकार ह्लकया। प्रमर सामिेदी ब्राह्मण था, ऄिग्निंशी राजा होने र्र यह ब्रह्म-क्षत्र िंश हुअ। ३९२-३८६ इ.र्ू. में ऄम्बार्ुरी (ईज्जैन) में राज्य ह्लकया। महामर, देिािर्, देिदूत के ३-३ िषप राज्य के बाद कइ छोटे राजा हुये। गन्धिपसेन ने १८२-१३२ इ.र्ू. राज्य ह्लकया। ईसका र्ुत्र शंख राजा बनने र्र संन्यासी हो गया। र्ुनः गन्धिपसेन को १०२ इ.र्ू. में राज्य संभालना र्िा। १ िषप बाद िशि कृ र्ा से ईसके र्ुत्र ििक्रमाह्लदत्य का जन्म हुअ। ईसने ५ िषप कह्ळ अयु से १२ िषप तक तर्स्या कर बहुत िसिद्धयां र्ायीं। १९ िषप कह्ळ अयु में ८२ इ.र्ू. में राजा
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बना तथा १०० िषप तक १९ इ. तक राज्य ह्लकया। ईनका प्रत्यक्ष शासन सम्र्ूणप प्राचीन भारत र्र था तथा इरान, ऄरब र्र भी प्रभुत्ि था। ििक्रमाह्लदत्य के राज्य के २ ज्योितषी जेरुसलेम गये थे िजन्होंने इसा को महार्ुरुष बताया था। इरान के राजा कह्ळ सहायता के िलये ईन्होंने सीह्ऱरया के सेला में रोमन राजा सीजर को र्रािजत ह्लकया तथा ईसे बन्दी बना कर ईज्जैन ले अये। आसे रोमन आितहासकारों ने िमस्र में सीजर का ६ मास ऄज्ञातिास कहा है। ििल डु रण्ट के ऄनुसार आसी र्राजय के कारण सीजर कह्ळ हत्या ब्रूटस ने कह्ळ थी। ४६ इसा र्ूिप में जुिलयस सीजर ने कै लेण्डर अरम्भ ह्लकया तो िह ईर्त्रायण अरम्भ से अरम्भ करना चाहता था, र्र ििक्रम सम्ित् १० का र्ौष मास (कृ ष्ण र्क्ष से) ह्लदन बाद अरम्भ हो रहा था, ऄतः जुिलयन िषप भी ७ ह्लदन बाद अरम्भ हुअ। मूल अरम्भ ह्लदन को अज ह्लक्रसमस कहते हैं। ििक्रमाह्लदत्य ने काबा मिन्दर का जीणोद्धार कराकर ईसके िलये सोने, कर्िे का ईर्हार ह्लदया था, जो चोरी हो गये थे। चोरी के काल से ििश्वासघात िषप शुरु हुअ जो र्ैगम्बर मुहम्मद के समय तक चलता रहा (ऄल बरुनी -प्राचीन देशों कह्ळ कालगणना) । आस सन्देह में आिथओिर्या के लोगों को भगाया गया तो आिथओिर्या सेना ने काबा को घेर िलया। ईसकह्ळ रक्षा के िलये ििक्रमाह्लदत्य ने गज सेना भेजी थी। ििक्रमाह्लदत्य कह्ळ प्रशिस्त िहां सोने के थाल र्र िलखी हुयी थी जो तुकी के संग्रहालय में सुरिक्षत है। मुहम्मद साहब के चाचा ने भी ििक्रमाह्लदत्य कह्ळ प्रशिस्त िलखी थी। ििक्रमाह्लदत्य के िंशज भोजराज जब ऄर्नी सेना के साथ बल्ख गये थे तो मुहम्मद साहब ने ईनसे धमपयद्ध ु में सहायता मांगी थी। ईनके साथ कािलदास-३ भी थे िजन्होंने मना ह्लकया, र्र कइ सैिनकों ने सहायता कह्ळ, िजनको मोहयाली (मुहम्मद के सहायक) कहा गया। ज्योितह्सिदाभरण, ग्रन्थाध्यायिनरूर्णम् २२, ििक्रमाकप िणपनम्िषे श्रुितस्मृितििचारिििेकरम्ये श्रीभारते खधृितसिम्मतदेशर्ीठे । मर्त्ोऽधुना कृ ितह्ऱरयं सित मालिेन्िे श्रीििक्रमाकप नृर्राजिरे समासीत् ॥ २२.७ ॥ सैन्यिणपनम्-यस्यािादशयोजनािन कटके र्ादाितकोह्ऱटत्रयं िाहानामयुतायुतं च निितिस्त्रघ्ना कृ ितहपिस्तनाम्। नौकालक्षचतुियं ििजियनो यस्य प्रयाणे भित् सोऽयं ििक्रमभूर्ितह्सिजयते नान्यो धह्ऱरत्रीधरः ॥ २२.१२ ॥ शाकप्रिृिर्त्काल-येनािस्मन्िसुधातले शकगणान्सिाप ह्लदशः सङ्गरे हत्िा र्ञ्चनिप्रमान्किलयुगे शाकप्रिृिर्त्ः कृ ता। श्रीमििक्रमभूभुजा प्रितह्लदनं मुक्तामिणस्िणपगो सप्तीभाद्यर्िजपनेन िििहतो धमपः सुिणापननः ॥ २२.१३ ॥ ह्लदिग्िजयिणपनम्-ईर्द्ामिििडिुमैकर्रशुलापटाटिीर्ािको, िेल्लिङ्गभुजङ्गराजगरुडो गौडािब्धकु म्भोििः। गजपद ् गुजपरराजह्ऴसधुरहह्ऱरधापरान्धकारायपमाः, काम्बोजाम्बुजचन्िमा ििजयते श्रीििक्रमाको नृर्ः ॥ २२.१४ ॥ प्रभुत्ििणपनम्-येना्युग्रमहीधराग्रििषये दुगापण्यसह्यान्यहो, नीत्िा यािन नतीकृ तास्तदिधर्ाः दर्त्ािन तेषां र्ुनः। आन्िाम्भोध्यमरिुमस्मरसुरक्ष्माभृद ् गणेनाञ्जसा, श्रीमििक्रमभूभृतािखलजनाम्भोजेन्दुना मण्डले ॥ २२.१५ ॥ ईज्जियनीिणपनम्-यिाजघान्युज्जियनी महार्ुरी सदा महाकालमहेशयोिगनी। समाश्रियप्राण्यर्िगपदाियनी श्रीििक्रमाकोऽििनर्ो जयत्यिर् ॥ २२.१६ ॥ यो रुक्मदेशािधर्ह्ऴत शके श्वरं िजत्िा गृहीत्िोज्जियनीं महाहिे। अनीय सम्भ्राम्य मुमोच यत्त्िहो स ििक्रमाकप ः समसह्यििक्रमः ॥ २२.१७ ॥ तिस्मन् सदाििक्रममेह्लदनीशे ििराजमाने समििन्तकायाम्। सिपप्रजामङ्गलसौख्यसम्र्द् बभूि सिपत्र च िेदकमप ॥ २२.१८ ॥ काव्यत्रयं सुमितकृ िघुिश ं र्ूिं र्ूिं ततो ननु ह्लकयच्ुितकमपिादः। ज्योितह्सिदाभरणकालििधानशास्त्रं श्रीकािलदासकिितो िह ततो बभूि ॥ २२.२० ॥ िषवः िसन्धुरदशपनाम्बरगुणैयापते कलौ (3068 Kali) सिम्मते, मासे माधिसंिज्ञके च िििहतो ग्रन्थह्लक्रयोर्क्रमः। नानाकालििधानशास्त्रगह्लदतज्ञानं ििलोक्यादरा-दूजे ग्रन्थसमािप्तरत्र िििहता ज्योितह्सिदां प्रीतये ॥ २२.२१ ॥
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History of the Calendar, by M.N. Saha and N. C. Lahiri (part C of the Report of The Calendar Reforms Committee under Prof. M. N. Saha with Sri N.C. Lahiri as secretary in November 1952Published by Council of Scientific & Industrial Research, Rafi Marg, New Delhi-110001, 1955, Second Edition 1992. Page, 168-last para-“Caesar wanted to start the new year on the 25th December, the winter solstice day. But people resisted that choice because a new moon was due on January 1, 45 BC. And some people considered that the new moon was lucky. Caesar had to go along with them in their desire to start the new reckoning on a traditional lunar landmark.” Page 180-“It has been shown by Dr. Hashim Amir Ali of the Osmania University, Hyderabad, that the Mohammedan calendar was originally luni-solar in which intercalation was made when necessary, and not purely lunar. …. According to this view, proper intercalation was applied in all years where necessary up to A.H. 10 and consequently the year A.H. 11 which started on March 29, 632 A.D. (Footnote)-Initial epoch of the Hejira era thus arrived at is the evening of March 19, 622 A.D., Friday, the day following the vernal equinox.” Thus, Hejira era also started with start of year in India-it was start of Vikrama year 679. Vikramāditya inscription, found inscribed on a gold dish hung inside the Kaaba shrine in Mecca, is found recorded on page 315 of a volume known as ‘Sayar-ul-Okul’ treasured in the Makhtabe-Sultania library in Istanbul, Turkey. http://www.guardiansofdarkness.com/GoD/muslims.pdf Al-Biruni-Chronology of Ancient Nations at page 39Epoch of the Ancient Arabs-Ishmaelite Arabs… used to date from the construction of the Ka’ba by Abraham and Ismael. …. After a long course of time they dated from year of Amr ben Yahya. … Afterwards they dated from death of Ka’b ben Lu’ay till the Year of Treason, in which the Banu-Yarbu stole certain garments which some of the kings of Himyar (Himavat =Bhārata) sent to Ka’ba. Then they dated from Year of the Elephants, when Ethiopians came to destroy Ka’ba. Lord annihilated them. Then they dated from era of Hijra. भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप १, ऄध्याय ६एतिस्मन्नेि काले तु कान्यकु ब्जो ििजोर्त्मः। ऄबुपदं िशखरं प्रा्य ब्रह्महोममथाकरोत्।४५॥ िेदमन्त्रप्रभािाच्च जाताश्चत्िाह्ऱर क्षित्रयाः। प्रमरस्सामिेदी च चर्हािनयपजुह्सिदः॥४६॥ ित्रिेदी च तथा शुक्लोऽथिाप स र्ह्ऱरहारकः॥४७॥ ऄध्याय७-र्ूणे िे च सहस्रान्ते सूतो िचनमब्रिीत्। सप्तह्ऴत्रशशते िषे दशाब्दे चािधके कलौ॥७॥ प्रमरो नाम भूर्ालः कृ तं राज्यं च षट्समाः। महामदस्ततो जातः िर्तुरधं कृ तं र्दम्॥८॥ देिािर्स्तनयस्तस्य िर्तुस्तुल्य कृ तं र्दम्। देिदूतस्तस्य सुतः िर्तुस्तुल्यं स्मृतं र्दम्॥९॥ तस्माद् गन्धिपसेनश्च र्ञ्चाशदब्द भूर्दम्॥ कृ त्िा च स्िसुतं शंखमिभषेच्य िनं गतः॥१०॥ शंखेन तत्र्दं प्राप्तं राज्यं ह्ऴत्रशत् समाः कृ तम्। देिांगना िीरमती शक्रेण प्रेिषता तदा॥११॥ 119
गन्धिपसेनं सम्प्रा्य र्ुत्ररत्नमजीजनत्। सुतस्य जन्मकालेतु नभसः र्ुष्र्िृियः॥१२॥ र्ेतुदन्पु दुभयोनेदि ु ापित िाताः सुखप्रदाः। िशिदृििह्सिजो नाम िशष्यैस्साद्धं िनं गतः॥१३॥ ह्ऴिशििः कमपयोगं च समाराध्य िशिोऽभित्। र्ूणे ह्ऴत्रशच्छते िषे कलौ प्राप्ते भयङ्करे ॥१४॥ शकानां च ििनाशाथपमायपधमप िििृद्धये। जातिश्शिाज्ञया सोऽिर् कै लासाद् गुह्यकालयात्॥१५॥ ििक्रमाह्लदत्य नामानं िर्ता कृ त्िा मुमोद ह। स बालोऽिर् महाप्राज्ञः िर्तृमातृ िर्यङ्करः॥१६॥ र्ञ्चिषे ियः प्राप्ते तर्सोऽथे िनं गतः। िादशाब्द प्रयत्नेन ििक्रमेण कृ तं तर्ः॥१७॥ भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप, खण्ड ३, ऄध्याय २स्िगपते ििक्रमाह्लदत्ये राजानो बहुधाऽभिन्। तथािादश राज्यािन तेषां नामािन मे शृणु॥९॥ र्िश्चमे िसन्धुनद्यन्ते सेतुबन्धे च दिक्षणे। ईर्त्रे बदरीस्थाने र्ूिे च किर्लान्तके ॥१०॥ ऄिादशैि राष्ट्रािन तेषां मध्ये बभूििरे । आन्िप्रस्थं च र्ाञ्चालं कु रुक्षेत्रं च कािर्लम्॥११॥ ऄन्तिेदी ब्रजथ्यैिाजमेरं मरुधन्ि च। गौजपरं च महाराष्ट्रं िाििडं च कह्ऴलगकम्॥१२॥ अिन्त्यं चोडु र्ं िंगं गौडं मागधमेि च। कौशल्यं च तथा ज्ञेयं तेषां राजा र्ृथक् र्ृथक् ॥१३॥ नानाभाषाः िस्थतास्तत्र बहुधमपप्रितपकाः। एिमब्दशतं जातं ततस्ते िै शकादयः॥१४॥ श्रुत्िा धमपििनाशं च बहुिृन्दैः समिन्िताः। के िचर्त्ीत्िाप िसन्धुनदीमाय्यपदेशं समागताः॥१५॥ िहमर्िपतमागेण िसन्धुमागेण चागमन्। िजत्िाय्यापल्लािँठियत्िा तान्स्िदेशं र्ुनराययुः॥१६॥ गृहीत्िा योिषतस्तेषां र्रं हषपमर् ु ाययुः। एतिस्मन्नन्तरे तत्र शािलिाहन भूर्ितः॥१७॥ ििक्रमाह्लदत्य र्ौत्रश्च िर्तृराज्यं गृहीतिान्। िजत्िा शकान् दुराधषापन् चीनतैिर्त्ह्ऱरदेशजान्॥१८॥ बाह्लीकान् कामरूर्ांश्च रोमजान् खुरजान् शठान्। तेषां कोषान् गृहीत्िा च दण्डयोग्यानकारयत्॥१९॥ स्थािर्ता तेन मय्यापदा म्लेच्छाय्यापणां र्ृथक् र्ृथक् । िसन्धुस्थानिमित ज्ञेयं राष्ट्रमायपस्य चोर्त्मम्॥२०॥ म्लेच्छानां र्रं िसन्धोः कृ तं तेन महात्मना। एकदा तु शकाधीशो िहमतुंगं समाययौ॥२१॥ ूणदेशस्य मध्ये िै िगह्ऱरस्थं र्ुरुषं शुभम्। ददशप बलिान् राजा गौरांगं श्वेतिस्त्रकम्॥२२॥ को भिािनित तं प्राह होिाच मुदािन्ितः। इशर्ुत्रं च मां िििद्ध कु मारीगभपसम्भिम्॥२३॥ ििक्रमाह्लदत्य के िनधन र्र ईनका राज्य खिण्डत हो गया तथा चीन, तातार, रोमन, कु दप, बल्ख अह्लद का सिम्मिलत अक्रमण हुअ। चीनी अक्रमण का हुएनसांग ने भी ईल्लेख ह्लकया है ह्लक ितब्बत के राजा ने भारत र्र ऄिधकार ह्लकया था। ििक्रमाह्लदत्य के र्ौत्र शािलिाहन ने सभी ििदेिशयों को िसन्धु नदी के र्ार भगाया तथा ईस ईन्नित काल में स्ियं इसा मसीह ने कश्मीर में तथा ईनके िशष्य टामस ने चेन्नइ में शरण ली। यही प्रमाण है ह्लक भारत ईस युग में सबसे सम्मािनत तथा सुरिक्षत देश था। ये सभी ऄिग्निंशी राजा ११९२ इ. तक राज्य करते रहे िजनकह्ळ िंशािली भििष्य र्ुराण तथा राजाओं कह्ळ ऄर्नी सूची में है। र्रमार िंश-१. प्रमर (३९२-३८६ इ.र्ू.), २. महामर (३८६-३८३), ३. देिािर् (३८३-३८०), ४. देिदर्त् (३८०-३७७) (३७७-१९५ इ.र्ू.) तक शक राजाओं का ईज्जैन र्र ऄिधकार तथा र्रमार श्रीशैलम चले गये। ६. गन्धिपसेन (१८२-१३२ इ.र्ू.), ७. शंखराज (१३२-१०२)-संन्यासी होकर िनिास तथा देहान्त। गन्धिपसेन र्ुनः िार्स राजा बने (१०२-८२ इ.र्ू.) तथा ईनके िितीय र्ुत्र ििक्रमाह्लदत्य का जन्म हुअ (१०२ इ.र्ू.) । ८. ििक्रमाह्लदत्य (८२ इ.र्ू.-१९ इ.), ९. देिभक्त (१९-२९). १०. (२९-७८ इ. तक) ऄराजकता, ११. शािलिाहन (७८-१३८ इ.)-कश्मीर में इसा मसीह को अश्रय। ८० इ. में मिास (चेन्नइ) में सन्त टामस को अश्रय। १२. शािलहोत्र, १३. शािलिधपन, १४. सुहोत्र, १५. हििहोत्र, १६. हििहोत्र, १७. माल्यिान, १८. शम्भुदर्त्, १९. भूिमर्ाल, २०. ित्सराज-९ राजा ५०० िषप (१३८-६३८ इ.)। २१. भोजराज (६३८-६९३ इ.)-र्ैगम्बर मुहम्मद से िमले। २२. शम्भुदर्त्-२, २३. िबन्दुर्ाल, २४. राजर्ाल, २५. महीनर, २६. सोमिमाप, २७. कामिमाप, २८. भूिमर्ाल या िीरह्ऴसह-७ राजा ३०० िषप (६९३-९९४ इ.)। २९. रं गर्ाल, ३०. कल्र्ह्ऴसह, ३१. गंगाह्ऴसह (िनःसन्तान)-२०० िषप (९९३-११९२ इ.)। ऄिन्तम राजा गंगाह्ऴसह र्ृथ्िीराज चौहान के साथ तराआन (कु रुक्षेत्र) कह्ळ दूसरी लिाइ में ११९२ इ. में मारे गये।
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चाहमान राजा-१. चाहमान, २. सामन्तदेि, ३. महादेि, ४. कु बेर, ५. िबन्दुसार, ६. सुधन्िा-आन्होंने २६६३ युिधिष्ठर शक (४८५ इ.र्ू.) अिश्वन शुक्ल मास में शंकराचायप के ४ र्ीठ स्थािर्त ह्लकये। ७. िीरधन्िा, ८. जयधन्िा (ये राजा र्ृथ्िीराज चौहान तक ििख्यात धनुधपर थे। ईसके बाद के िल गुरु गोििन्द ह्ऴसह जी ने ही धनुष का प्रयोग ह्लकया), ९. िीरह्ऴसह, १०. िरह्ऴसह, ११. िीरदण्ड, १२. ऄह्ऱरमन्त्र, १३. मािणक्यराज, १४. र्ुष्कर, १५. ऄसमञ्जस, १६. प्रेमर्ुर, १७. भानुराज, १८. मानह्ऴसह, १९. हनुमान, २०. िचत्रसेन, २१. शम्भु, २२. महासेन, २३. सुरथ, २४. रुिदर्त्, २५. हेमरथ, २६. िचत्रांगद, २७. चन्िसेन, २८. ित्सराज, २९. धृिद्युम्न, ३०. ईर्त्म, ३१. सुनीक, ३२. सुबाहु, ३३. सुरथ, ३४. भरत, ३५. सात्यह्लक, ३६. शत्रुिजत, ३७. ििक्रम, ३८. सहदेि, ३९. िीरदेि, ४०. िसुदेि, ४१. िासुदेि-यह ५५१ इ. में राजा बना। आसके र्ुत्रों ने २ राज्य स्थािर्त ह्लकये। एक शाखा जैसलमेर में थी िजसके िीर गोगादेि ने महमूद गजनिी से मरुभूिम में युद्ध ह्लकया था। ऄन्य शाखा ह्लदल्ली में हुइ िजसका ऄिन्तम राजा र्ृथ्िीराज-३ ११९२ इ. में तराआन में मुहम्मद गोरी के अक्रमण में मारा गया। ह्लदल्ली-ऄजमेर शाखा-४२. सामन्त, ४३. नरदेि या नृर्, ४४. ििग्रहराज-१, ४५. चन्िराज-१, ४६. गोर्ेन्िराज या गोर्ेन्िक, ४७. दुलपभराज, ४८. गोििन्दराज या गुिक-१ (प्रितहार राजा नागभट्ट का समकालीन), ४९. चन्िराज-२ (८४३-८६८इ.), ५०. गोििन्दराज या गुिक-२ (८६८-८९३), ५१. चन्दन गोििन्दराज (८९३-९१८), ५२. िाक्र्ितराज-१ या ि्र्यराय (९१८-९४३), ५३क. ििन्ध्यराज-ऄल्र्काल के िलये, ईसके बाद ईसका भाइ (५३ख) ह्ऴसहराज. आसके ४ र्ुत्र थे-ििग्रहराज-२, दुलपभराज-२, चन्िराज, गोििन्दराज। (५४क) ििग्रहराज-२ (९७३ इ. से)-ईसने गुजरात के मूलराज को हराकर अशार्ुरा देिी का मिन्दर भृगक ु च्छ में बनाया। सुबुक्तगीन के अक्रमण को रोकने के िलये ईसने लाहौर के राजा कह्ळ सहायता के िलये ९९७ इ. में सेना भेजी। (५४ख) दुलपभराज-२ (९९८ इ.), ५५. गोििन्दराज-३ (९९९ इ.), (५६क) िाक्र्ितराज-२ (९९९-१०१८), (५६ख) िीयपराज (१०१८-१०३८), (५६ग) चामुण्डराज (१०३८१०६३)-ये दोनों (५६क) के भाइ थे। (५७क) ह्ऴसहल-(५६ग) बिा र्ुत्र, (५७ख) दुलपभराज-३ (१०६३-१०७९, ५६ग का र्ुत्र), (५७ग) ििग्रहराज-३ (१०७९-१०९८, ५७ख का भाइ), (५८) र्ृथ्िीराज-१ (१०९८-११०५), ५९. ऄजयराज, ऄजयदेि या सलखान (११०५-११३२)-ऄजमेर बसाया। ६०. ऄणोराज या ऄनलदेि (११३२-११५१), (६१क) जगदेि (११५१)-आसने ऄर्ने िर्ता कह्ळ हत्या कह्ळ िजसके कारण ईसके भाइ ििग्रहराज-४ ने आसे मार ह्लदया। (६१ख) ििग्रहराज-४ या ििशालदेि (११५१-११६७)-आसने चालुक्यों को हराया। (६१ग) सोमेश्वरदेि (११६९-११७७, ६१ख का भाइ)र्ृथ्िीराज-२ के िनस्सन्तान मरने र्र आनको राजा बनाया। (६२क) ऄर्रगांगेय या ऄमरगांगय े (६१ ख के र्ुत्र), (६२ख) र्ृथ्िीराज-२ (६१क के र्ुत्र, ६२क को हराकर राजा बने), (६२ग) र्ृथ्िीराज-३ (११७७-११९२)-ह्लदल्ली का ऄिन्तम िहन्दू शासक।११९१ इ. में मुहम्मद गोरी को हराया, र्र १ िषप बाद कन्नौज के जयचन्द के सहयोग से गोरी ने ईनको र्रािजत कर बन्दी बना िलया। शुक्ल या चालुक्य (िारका देश में)-२७ राजा ३९२ इ.र्ू से ११९२ इ. तक। १. शुक्ल या चालुक्य, २. ििश्वक्सेन, ३. जयसेन, ४. ििसेना, ५. मदह्ऴसह, ६. िसन्धुिमाप, ७. िसन्धुिीर्, ८. श्रीर्ित, ९. भुजिमाप, १०. रणिमाप, ११. िचत्रिमाप, १२. धमपिमाप, १३. कृ ष्णिमाप, १४. ईदय, िा्यकमप, १६. गुिहल, १७. कालभोज, १८. राष्ट्रर्ाल, १९. जयर्ाल, २०. िेणुक, २१. यशोििग्रह, २२. महीचन्ि, २३. चन्िदेि, २४. मन्दर्ाल, २५. कु म्भर्ाल य िैश्यर्ाल, २६. देिर्ाल (ह्लदल्ली के तोमर राजा ऄनंगर्ाल का दामाद), २७. जयचन्ि-ईसकह्ळ र्ुत्री संयुक्ता का िििाह ह्लदल्ली के ऄिन्तम िहन्दू राजा र्ृथ्िीराज चौहान से हुअ। ११९३ में गोरी के साथ युद्ध में मारा गया। प्रितहार िंश-(कािलञ्जर)-३५ राजा (३९२ इ.र्ू.-११९३ इ.)-१. प्रितहार, २. गौरिमाप, ३. घोरिमाप, ४. सुर्णप, ५. रूर्न, ६. कालिमाप, ७. भोगिमाप, ८ किलिमाप, ९. कौिशक, १०. कात्यायन, ११. हेमिमाप, १२. िशििमाप, १३. भाििमाप, १४. 121
रुििमाप, १५. भोजिमाप, १६. गििमाप, १७. ििन्ध्यिमाप, १८. सुखसेन, १९. बलाक, २०. लक्ष्मण, २१. माधि, २२. के शि, २३. शूरसेन, २४. नारायण, २५. शािन्तिमाप, २६. निन्दिमाप (गौि को जीतकर िहां शासन ह्लकया), २७. सारं गदेि, २८. गंगदेि, २९. ऄनंग भूर्ित, ३०. महीर्ित-१, ३१. राजेश्वर, ३२. नृह्ऴसह, ३३. किलिमाप-२, ३४. धृितिमाप, ३५. महीर्ित-गोरी से कु रुक्षेत्र युद्ध में १९९३में मारा गया। (१४) नेर्ाल राजिंश-यह र्ूणप रूर् में ईर्लब्ध है क्योंह्लक नेर्ाल स्िाधीन रहा है। यह गुह्यक स्थान था जहां ििक्रमाह्लदत्य ने तर्स्या कह्ळ थी। नेिमनाथ (युिधिष्ठर का संन्यास नाम) का िशष्य बनने र्र यह नेर्ाल बना। यह आिण्डयन ऐिण्टकु ऄरी, खण्ड १३ में प्रकािशत हुइ थी िजसके अधार र्र र्ं. कोटा िेंकटाचलम ने नेर्ाल कालक्रम (ऄंग्रेजी, १९५३) िलखा। गोर्ाल िंश- १. भुक्तमानगत गुप्त (४१५९-४०७१ इ.र्ू.), २. जय गुप्त (४०७१-३९९९), ३. र्रम गुप्त (३९९९-३९१९), ४. हषपगुप्त (३०१०-३८२५), ५. भीमगुप्त (३८२६-३७८८), ६. मिणगुप्त (३७८८-३७५१), ७. ििष्णुगुप्त (३७५१३७०९), ८. यक्षगुप्त (िनस्सन्तान, भारत से ऄहीर िंश बुलाया)-(३७०९-३६३७) ऄहीर िंश-३राजा २०० िषप तक (३६३७-३४३७ इ.र्ू.)-९. िरह्ऴसह, १०. जयमतह्ऴसह, ११. भुिनह्ऴसह। ह्लकरात िंश-७ राजा महाभारत काल तक ३०० िषप (३४३७-३१३७ इ.र्ू.), ईसके बाद २२ राजा ८१८ िषप (३१३८२३१९ इ.र्ू.) १२. यलम्बर, १३. र्िि, १४. स्कन्दर, १५. िलम्ब, १६. हृित, १७. हुमित-र्ाण्डिों के साथ िन गया।, १८. िजतेदािस्तमहाभारत में र्ाण्डि र्क्ष से युद्ध कर मारा गया। १९. गिल (महाभारत के बाद ३६३७ इ.र्ू. में राजा), २०. र्ुष्क, २१. सुयमप, २२. र्भप, २३. ठूं क, २४. स्िानन्द, २५. स्तुंक, २६. िघघ्री, २७. नाने, २८. लूक, २९. थोर, ३०. ठोको, ३१. िमाप, ३२. गुज, ३३. र्ुष्कर, ३४. के सु, ३५. सूंस, ३६. सम्मु, ३७. गुणन, ३८. ह्लकम्बू, ३९. र्टु क, ४०. गस्ती। सोमिंश-१२ राजा ६०७ िषप (२३१९-१७२ इ.र्ू.)-४१. िनिमष, ४२. मानाक्ष, ४३. काकिमपन,् ४४-४८-लुप्त नाम, ४९. र्शुप्रेक्षदेि-१८६७ इ.र्ू. में आसने भारत से कु छ व्यिक्त बुलाये। र्शुऄितनाथ मिन्दर का र्ुनः िनमापण। (महािीर, िसद्धाथप बुद्ध का काल)-४१-४९, ये ९ राजा ४६४ िषप (२३१९-१८५५ इ.र्ू.) ५०-५१. ऄज्ञात, ५२. भास्करिमपन् (३ राजा १८५५-१७१२ इ.र्ू.)-आसने भारत को जीता। िनस्सन्तान होने के कारण सूयपिंशी राजा भूिमिमपन को गोद िलया। सूयपिंश-३१ राजा १६१२ िषप (१७१२-१०० इ.र्ू.)-५३. भूिमिमपन (१७१२-१६४५ इ.र्ू.), ५४. चन्ििमपन (१६४५१५८४), ५५. जयिमपन (१५८४-१५०२), ५६. िषपिमपन (१५०४-१४४१), ५७. सिपिमपन (१४४१-१३६३), ५८. र्ृथ्िीिमपन (१३६३-१२८७), ५९. ज्येष्ठिमपन (१२८७-१२१२), ६०. हह्ऱरिमपन (१२१२-११३६), ६१. कु बेरिमपन (११३६-१०४८), ६२. िसिद्धिमपन (१०४८-९८७), ६३. हह्ऱरदर्त्िमपन (९८७-९०६), ६४. िसुदर्त्िमपन (९०६८४३),६५. र्ितिमपन (८४३-७९०), ६६. िशििृिद्धिमपन (७९०-७३६), ६७. िसन्तिमपन (७३६-६७५), ६८. िशििमपन (६७५-६१३), ६९. रुििमपन (६१३-५४७), ७०. िृषदेििमपन (५४७-४८६)-आस काल में (४८७ इ.र्ू.) शंकराचायप यहां अये थे तथा १२ बोिधसत्त्िों को शास्त्राथप में र्रािजत ह्लकया। नेर्ाल राजा को र्ुरी राजा के समान राजा रूर् में श्रीजगन्नाथ र्ूजा का ऄिधकार। ऄर्ने र्ुत्र का नाम शंकराचायप के नाम र्र शंकर रखा। ७१. शंकरदेि (४८६४६१), ७२. धमपदेि (४६१-४३७), ७३. मानदेि (४३७-४१७), ७४. मिहदेि (४१७-३९७), ७५. िसन्तदेि (३९७३८२), ७६. ईदयदेि िमपन (३८२-३७७), ७७. मानदेि िमपन (३७७-३४७), ७८. गुणकामदेि िमपन (३४७-३३७), ७९. िशिदेि िमपन (३३७-२७६), ८०. नरे न्िदेि िमपन (२७६-२३४), ८१. भीमदेि िमपन (२३४-१९८), ८२. ििष्णुदेि िमपन (१९८-१५१), ८३. ििश्वदेि िमपन (१५१-१०१)-आसका र्ुत्र नहीं था। ऄर्नी र्ुत्री का िििाह ठाकु री िंश के ऄंशुिमपन से कर ईसको राजा बनाया।
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ठाकु री िंश-२१ राजा ८९९ िषप (१०१ इ.र्ू. से ७९८ इ. तक)-८४. ऄंशुिमपन (१०१-३३ इ.र्ू.)-आनकह्ळ व्याकरण कह्ळ र्ुस्तक ििख्यात थी िजसका ईल्लेख चीनी यात्री हुएनसांग (६४२ इ.) ने ह्लकया है। आस काल में ईज्जैन के र्रमार राजा ििक्रमाह्लदत्य यहां अये तथा ५७ इ.र्ू. में र्शुर्ितनाथ में चैत्र शुक्ल से ििक्रम संित् अरम्भ ह्लकया। ऄंशुिमपन के कइ दानर्त्र चाहमान शक में, ििक्रमाह्लदत्य के अने र्र ििक्रम सम्ित् में हैं। आनके र्ुत्र िजष्णुगुप्त कु छ काल तक राजा रहने के बाद ििक्रमाह्लदत्य राज्य में ज्योितष का ऄध्ययन करते थे, िराहिमिहर के समकालीन। आनके र्ुत्र ब्राह्मस्फु टिसद्धान्त के लेखक ब्रह्मगुप्त िजष्णुसुत के रूर् में ििख्यात। ८५. कृ तिमपन् (३३ इ.र्ू.-५४ इ.), ८६. भीमाजुपन (५४-१४७ इ.), ८७. नन्ददेि (१४७-१७२), ८८-ऄज्ञात (१७२२३२), ८९-ऄज्ञात (२३२-२९९), ९०. िीरदेि (२९९-३९४), ९१. चन्िके तुदेि (३९४-४६०), ९२. नरे न्िदेि (४६०५१६), ९३. िरदेि (५१६-५७०)-आनके शासन में एक शंकराचायप तथा ऄिलोह्लकतेश्वर ५२२ इ. में अये थे। ९४. नरमुह्लद (५७०-६१५), ९५. शंकरदेि (६१५-६२७), ९६. िधपमानदेि (६२७-६४०), ९७. बिलदेि (६४०-६५३), ९८. जयदेि (६५३-६६८), ९९. बलाजुपनदेि (६६८-६८५), १००. ििक्रमदेि (६८५-६९७), १०१. गुणकामदेि (६९७-७४८), १०२. भोजदेि (७४८-७५६), १०३. लक्ष्मीकामदेि (७५६-७७८), १०४. जयकामदेि (७७८-७९८) निकोट ठाकु री िंश-१.भास्करदेि, २. बलदेि, ३. र्द्मदेि, ४. नागाजुपनदेि, ५. शंकरदेि-आनके राज्य में २४५ सम्ित् में प्रज्ञा र्ारिमता र्ुस्तक स्िणप ऄक्षरों में िलखी गयी थी। आनकह्ळ मृत्यु के बाद ऄंशुिमपन र्ह्ऱरिार के एक िंशज िामदेि ने िितीय ठाकु री िंश का शासन अरम्भ ह्लकया। िितीय ठाकु री िंश-ऄंशुिमपन् के िंशज (७२०-९४५ इ.)-१. िामदेि, २. हषपदेि, ३. सदािशिदेि ने ७५० इ. में र्शुर्ितनाथ मिन्दर के िलये सोने कह्ळ छत दी तथा ईसके दिक्षण-र्िश्चम में कह्ळह्सतर्ुर बनाया। ईनके लौह-ताम्र िसक्के हैं िजन र्र ह्ऴसह िचह्न है। ४. मानदेि (१० िषप)-चक्रििहार में सन्यासी हो गया। ५. नरह्ऴसहदेि (२२ िषप), ६. नन्ददेि (२१ िषप), ७. रुिदेि (१९ िषप)-बौद्ध सन्यासी, ८. िमत्रदेि (२१ िषप), ९. ऄित्रदेि (२२ िषप), १०. ऄभयमल्ल, ११. जयदेिमल्ल(१० िषप), १२. अनदमल्ल (२५ िषप)-भक्तर्ुर अह्लद ७ नगर बनाये। कनापटक िंश-१. नान्यदेि- नेर्ाल सम्ित् ९ या शािलिाहन शक ८११, श्रािन सुदी ७ को कनापटक के नान्यदेि नेर्ाल के राजा बने, भाटगाम में ५० िषप शासन। िमिथला र्र भी शासन। २. गंगदेि (४१ िषप), ३. नरह्ऴसहदेि (३१ िषप), ४. शिक्तदेि (३९ िषप), ५. रामह्ऴसहदेि (५८ िषप), ६. हह्ऱरदेि (४१ िषप) भारतीय ज्योितष का आितहास यह स्िायम्भुि मनु (२९१०२ इ.र्ू.) के र्ूिप मिणजा सभ्यता से अरम्भ है जब र्ूरे ििश्व में रािश-नक्षत्र व्यिस्था एक हुइ। र्र ईनका िणपन ३१००० इ.र्ू. के जलप्रलय में नि हो गया। स्िायम्भुि मनु ही प्रथम िेद व्यास कहे गये हैं िजन्होंने िेदों का संकलन ह्लकया। ईसके र्ूिप प्रायः १० प्रकार के िसद्धान्त ििश्व कह्ळ ईत्र्िर्त् के ििषय में प्रचिलत थे िजनका ईल्लेख नासदीय सूक्त (ऊग्िेद १०/१२९/१-७, तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/८/९/३-९) में हैं। आनकह्ळ व्याख्या र्ं. मधुसूदन ओझा ने दशिादरहस्य (१९२१) में तथा ऄलग ऄलग ग्रन्थों में कह्ळ है। आनका एकह्ळकरण कर िेद के रूर् में व्यििस्थत ह्लकया गया िजसमें ३ ििश्वों को र्रस्र्र सम्बिन्धत माना गया है-अिधदैििक (अकाश कह्ळ रचनायें), अिधभौितक (र्ृथ्िी र्र का ििश्व), अध्याित्मक (शरीर के भीतर का ििश्व)। आनकह्ळ रचना अकाश कह्ळ सृिि से ही हुयी है, ऄतः स्र्ितः ईसका प्रभाि आन र्र रहेगा। यह प्रभाि िैज्ञािनक ईर्करणों िारा मार्-योग्य नहीं है। आनका ऄलगाि या कम प्रभाि होना ही सृिि के िििभन्न स्तरों के ऄिस्तत्त्ि का कारण है। यह्लद सभी िमले रहेंगे, तो एक दूसरे को नि कर देंगे। आनमें र्ुनः ३ प्रकार के ऄध्ययन हैं-ब्रह्म = सम्र्ूण,प कमप = दृश्य गित, यज्ञ = ईर्योगी कमप िजससे ऄक्षर र्ुरुष का कायप चलता रहे। आन सभी का ईल्लेख गीता, ऄध्याय ८ में है। अकाश कह्ळ रचनायें ५ र्िप या मण्डल में हैं, िजनमें ७ लोक हैं। ईनके ऄनुरूर् र्ृथ्िी र्र भी लोक संस्था बनी। ऄतः आनके िणपन के र्ूिप ज्योितष कह्ळ सूक्ष्म मार् र्ूरी हो चुकह्ळ होगी। आसी ऄथप में ज्योितष को िेद का नेत्र कहा गया है। जल प्रलय के बाद स्िायम्भुि मनु ने िेदों का एकह्ळकरण स्ियं ह्लकया या ऄर्ने ज्येष्ठ र्ुत्र ऄथिाप को ह्लदया 123
(मुण्डक ईर्िनषद् १/१-५)। लोकों कह्ळ मार् का कायप िप्रयव्रत को ह्लदया। सौर मण्डल कह्ळ ग्रह कक्षा को व्रत कहा गया है, िजसका र्ालन सूयप ह्लकरणों से होता है, ऄतः सूयप व्रतर्ा हैं। ईनकह्ळ मार् करने िाले भी िप्रयव्रत हैं। ईर्त्ानर्ाद िारा आस ज्ञान का ईर्योग तथा प्रसार र्ृथ्िी र्र हुअ। द्यौमे िर्ता जिनता नािभरत्र बन्धुमे माता र्ृिथिीमहीयम्। ईर्त्ानयोश्चम्िो योिनरन्तः ऄत्रा िर्ता दुिहतुगपभपमाधात्। (ऊक् १/१६४/३३) तदाशा ऄन्िजायन्त तदुर्त्ानर्दस्र्ह्ऱर। भूयपज्ञ ईर्त्ानर्दो भुि अशा ऄजायन्त। (ऊक् १०/७२/३-४) ईर्त्ान र्णे सुभगे देिजूते सहस्िित (ऊक् १०/१४५/२) आयं र्ृिथिी िा ईर्त्ान अङ्गीरसः। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/३/२/५, २/३/४/६) श्रुतरथे िप्रयरथे दधानाः सद्यः र्ुह्ऴि िनरुन्धनासो ऄग्मन्। (ऊक् १/१२२/७) ततः सूयो व्रतर्ा िेन अजिन। (ऊक् १/८३/५) भागित र्ुराण (५/१)-भगिानिर् मनुना यथािदुर्किल्र्तार्िचितः िप्रयव्रत... ऄिभसमीक्ष्य प्रितपयन्नगमत्॥२१॥ समजिेन रथेन ज्योितमपयेन रजनीमिर् ह्लदनं कह्ऱरष्यामीित सप्तकृ त्िस्तरिणमनुर्यपक्रमाद् िितीय आि र्तङ्गः॥३०॥ ये िा ई ह तिथ चरणनेिमकृ त र्ह्ऱरखातास्ते सप्त िसन्धि असन् यत एि कृ ताः सप्त भुिो िीर्ाः॥३१॥ जम्बू-्लक्ष-शाल्मिल-कु श-क्रौञ्चशाक-र्ुष्कर संज्ञास्तेषां र्ह्ऱरमाणं र्ूिपस्मात्र्ूिपस्मादुर्त्र ईर्त्रो यथासंख्यं ििगुणमानेन बिहः समन्तत ईर्क्लृप्ताः॥३२॥ यज्ञ का ििकास र्हले भी साध्य युग में हुअ था, र्र िह भोगिादी सभ्यता होने से नि हो गयी। प्रत्येक यज्ञ ऄन्य यज्ञों का सहायक है, आस रूर् में आनका प्रयोग देिताओं ने ह्लकया िजससे िे ईन्नित के िशखर र्र र्हुंचे। अध्याित्मक, बाह्य व्रत या ह्लक्रया, र्ह्ऱरिार या समाज तथा राष्ट्र या ििश्व के ४ प्रकार के यज्ञ हैं, आनमें प्रत्येक के ईत्र्ाद का ईर्योग ऄर्ने से बिे के िलये होता है, जो ४ स्तरों र्र अत्म-बिलदान है। चतुष्र्ाद र्ुरुष या यज्ञ को िेद में ऄज, कु रान में बकर या बाआिबल में गोट (goat –Gott-God) कहा गया है। अत्म-बिलदान बकरीद है। यज्ञेन यज्ञमयजन्त देिास्तािन धम्मापिण प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं मिहमानः सचन्त यत्र र्ूिे साध्याः सिन्त देिाः। (यजुिेद ३१/१६) ऄजामेकां लोिहतशुक्लकृ ष्णां बह्िीः प्रजाः सृजमानां सरूर्ाः। ऄजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः॥ (श्वेताश्वतर ईर्िनषद् ४/५) = यहां ऄज चेतन रूर् है तथा ऄजा ह्लक्रया रूर् प्रकृ ित है, िजसके ३ गुण ३ रं ग कहे गये हैं। िेद शास्त्र ज्ञान के िलये ७ ऊिष-संस्था थीं िजनको ब्रह्मा का मानस र्ुत्र कहा गया है। सभ्यता के ििकास के िलये ८ लोकर्ाल संस्थायें थी िजनका स्थान भारत से ८ ह्लदशाओं में था-आन्ि, ऄिग्न, यम, िनऊित, िरुण, मरुत्, कु बेर, इश-क्रमशः र्ूिप, दिक्षण र्िश्चम, र्िश्चम अह्लद ह्लदशाओं के र्ालक हैं। ६ व्यक्त लोकों के ऄनुसार ६ दशपन तथा ६ दशपिाक् (िलिर्) बनी। अकाश के लोकों कह्ळ तरह आन्ि कह्ळ ित्रलोकह्ळ में भी ७ लोक बने। आन्ि के ३ लोक थे-भारत, चीन, रूस (ऊषीक देश)। आनके ३-३ ििभाजन से ७ लोक हुये, बीच के २ लोक दोनों ििभागों में हैं। ये सभी िैह्लदक िसद्धान्तों के ऄनुसार थीं। सिेषां तु स नामािन कमापिण च र्ृथक् र्ृथक् । िेद शब्देभ्य एिादौ र्ृथक् संस्थाश्च िनमपमे॥ (मनु स्मृित १/२१) यास्सप्त संस्था या एिैतास्सप्त होत्राः प्राचीिपषट् कु िपिन्त ता एि ताः। (जैिमनीय ब्राह्मण ईर्िनषद् १/२१/४) सप्तप्राणा प्रभििन्त तस्मात्, सप्ताह्सचषः सिमधः सप्त होमाः। सप्त आमे लोका येषु चरिन्त प्राणा गुहाशया िनिहताः सप्त सप्त॥ (मुण्डकोर्िनषद् २/१/८) िैह्लदक सभा िैह्लदक ग्रन्थों के िनमापण के िलये ऊिषयों का कइ बार सम्मेलन हुअ है जो ईन संस्थाओं में िषों तक चलता रहा। ऊिष संस्थाओं के बाद आन्ि के ऄधीन कइ सभायें हुईं। कृ ष्ण यजुिेद कह्ळ चरक नामक १२ शाखायें हैं, िजनके िलये भरिाज कह्ळ ऄध्यक्षता में सभा हुइ। ईसके बाद भरिाज कह्ळ र्रम्र्रा में शौनक कह्ळ महाशाला थी जो कइ र्ीह्लढ़यों तक चलती रहीं।
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महाभारत के बाद भी ऄन्य शौनक िारा आितहास संकलन हुअ। र्ुनः ििक्रमाह्लदत्य िारा ऐसा ही हुअ। आन सभाओं को तिमल में संगम, बौद्ध सािहत्य में संगीित कहा गया है। (१) साध्य युग-िायु र्ुराण (३१/३)-त्रेतायुगमुखे र्ूिपमासन् स्िायम्भुिेऽन्तरे । देिा यामा आित ख्याताः र्ूिं ये यज्ञसूनिः॥ ऄिजता ब्राह्मणाः र्ुत्राः िजता िजदिजताश्च ये। र्ुत्राः स्िायम्भुिस्यैते शुक्रनामा तु ििश्रुताः॥ (२) ब्रह्मा के मानस र्ुत्र-ब्रह्माण्ड र्ुराण (१/२/६)ऄस्मात् कल्र्ार्त्तः र्ूिं कल्र्ातीतः र्ुरातनः॥१५॥ ते तुल्य लक्षणाः िसद्धाः शुद्धात्मनो िनरञ्जनाः॥३८॥ तिच्छष्या िै भििष्यिन्त कल्र्दाह ईर्िस्थते। गन्धिापद्याः िर्शाचाश्च मानुषा ब्राह्मणादयः॥४३॥ ईिषत्िा रजनीं तत्र ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः। र्ुनः सगे भिन्तीह मानसा ब्रह्मणः सुताः॥५०॥ (३) आन्ि सभा-को ददशप प्रथमं जायमानस्थन्िन्तं यदनस्था िबभह्सत। भूम्या ऄसुरसृगात्मा क्विस्ित् को िििांसमुर्गात् प्रिु मेतत्॥ (ऊग्िेद १/१६४/४) मनीिषणः प्रभरध्िं मनीषां यथा यथा मतयः सिन्त नृणाम्। आन्िं सत्यैरेरयामा कृ तेिभः स िह िीरो िगिपणस्युह्सिदानः। (ऊग्िेद १०/१११/१) आन्िःह्लकल श्रुत्िा ऄस्यिेद स िह िजष्णुः र्िथकृ त् सूय्यापय। अत्मेनां कॄ ण्िन्नच्युतो भुिद् गोःर्ितर्कदिः सनजा ऄप्रतीतः। (ऊग्िेद १०/१११/३) (४) भरिाज सभा-अयुिेदं भरिाजश्चकार सिभषक् ह्लक्रयाम्। तमिधा र्ुनव्यपस्य िशष्येभ्यः प्रत्यर्ादयत ॥२०॥ (िायु र्ुराण, ऄध्याय, ९२) चरक संिहता, सूत्रस्थान-दीघपञ्जीिितीयमध्यायंििघ्नभूता यदा रोगाः प्रादुभूपताः शरीह्ऱरणाम्। तर्ोर्िासाध्ययनब्रह्मचयपव्रतायुषम्।६। तदा भूतेष्िनुक्रोषं र्ुरस्कृ त्य महषपयः। समेताः र्ुण्यकमापणः र्ाश्वे िहमितः शुभे॥७॥ ऄंिगरा जमदिग्नश्च ििशष्ठः काश्यर्ो भृगुः। अत्रेयो गौतमः सांख्यः र्ुलस्त्यो नारदोऽिसतः॥८॥ ऄगस्त्यो िामदेिश्च माकप ण्डॆयाश्वलायनौ। र्ारीिक्षह्सभक्षुरात्रेयो भरिाजः किर्ञ्जलः।९॥ ििश्वािमत्राश्वरथ्यं च भागपिश्च्यिनोऽिभिजत्। गाग्यपः शािण्डल्यकौिण्डन्यौ िािक्षदेिलगालिौ॥१०॥ साङ्कृ त्यो िैजिािर्श्च कु िशको बादरायणः। ििडशः शूरलोमा च का्यकात्यायनिुभौ॥११॥ काङ्कायनः कै कशेयो धौम्यो मारीिचकाश्यर्ौ। शकप राक्षो िहरण्याक्षो लोकाक्षः र्िङ्गरे ि च॥१२॥ शौनकः शाकु नेयश्च मैत्रेयो मैमतायिनः। िैखानसा बालिखल्यास्तथा चान्ये महषपयः॥१३॥ ऄहमथे िनयुज्येयं ऄत्रेित प्रथमं िचः। भरिाजोऽब्रिीत् तस्माद् ऊिषिभः स िनयोिजतः ॥१९॥ स शक्र भिनं गत्िा सुरह्सषगण मध्यगम् । ददशप बलहन्तारं दी्यमानिमिानलम् ॥२०॥ (५) शौनक सभा-ऄथिपणे यां प्रिदेत ब्रह्माऽथिाप तां र्ुरोिाचािङ्गरे ब्रह्मििद्याम्। स भारिाजाय सत्यिहाय प्राह भरिाजो ऽिङ्गरसे र्रािराम्॥२॥ शौनको ह िै महाशालोऽिङ्गरसं िििधिदुर्सन्नः र्प्रच्छ ॥३॥ मुण्डक ईर्िनषद् (१/१/२-३) (६) नैिमषारण्य सभा-भागित र्ुराण स्कन्ध १, ऄध्याय १नैिमषेऽिनिमषक्षेत्रे ऊषयः शौनकादयः। सत्रं स्िगापय लोकाय सहस्र सममासत ॥४॥ (७) ििक्रमाह्लदत्य सभा-भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप ४, ऄध्याय १एिं िार्रसन्ध्याया ऄन्ते सूतेन िह्सणतम्। सूयपचन्िान्ियाख्यानं तन्मया किथतम् ति॥१॥ ििशालायां र्ुनगपत्िा िैतालेन िििनह्समतम्। कथियष्यित सूतस्तिमितहाससमुच्चयम्॥२॥ तन्मया किथतं सिं हृषीकोर्त्म र्ुण्यदम्। र्ुनह्सिक्रमभूर्ेन भििष्यित समाह्ियः॥३॥ नैिमषारण्यमासाद्य श्रािियष्यित िै कथाम्। र्ुनरुक्तािन यान्येि र्ुराणािादशािन िै।।४॥ र्ृथ्िी का मानिचत्र-ईर्त्री गोलाधप में ९०-९० ऄंश देशान्तर खण्डों के मानिचत्र बनते थे। आससे र्ृथ्िी कह्ळ मार् होती है, ऄतः यह मैर् (map) है। आसे बनाने में नक्षत्र देखना र्िता है (ऄक्षांश, देशान्तर, ह्लदशा के िलये), ऄतः आसे नक्शा कहते हैं।
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एक साथ ४ क्षेत्रों का नक्शा बनाने में ४ रं गों का प्रयोग होता है, ऄतः मेरु को चतुष्कोण कहा गया है तथा ४ ह्लदशाओं में ४ रं ग हैं। आसी प्रकार दिक्षणी गोलाधप में भी र्ृथ्िी के ४ मानिचत्र बनते थे। मानिचत्रों के ऄनुसार र्ृथ्िी ऄि-दल कमल है। योजन कह्ळ र्ह्ऱरभाषा से यह सहस्र-दल-कमल है। भारत का मान िचत्र ईज्जैन से र्ूिप-र्िश्चम ४५-४५ ऄंश तक ििषुि से ईर्त्र ध्रुि तक था िजसमें आन्ि के ३ लोक थे। बाकह्ळ ७ क्षेत्र ७ तल है, िजनको र्ाताल अह्लद कहा गया है। (ििष्णु र्ुराण २/२)-भिाश्वं र्ूिपतो मेरोः के तुमालं च र्िश्चमे। िषे िे तु मुिनश्रेष्ठ तयोमपध्यिमलािृतः।२४। भारताः के तुमालाश्च भिाश्वाः कु रिस्तथा। र्त्रािण लोकर्द्मस्य मयापदाशैलबाह्यतः।४०। मत्स्य र्ुराण ११३-चातुिपण्यपस्तु सौिणो मेरुश्चोल्बमयः स्मृतः।१२। नाभीबन्धनसम्भूतो ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः। र्ूिपतः श्वेतिणपस्तु ब्राह्मण्यं तस्य तेन िै।१४। र्ीतश्च दिक्षणेनासौ तेन िैश्यत्ििमष्यते। भृिङ्गर्त्रिनभश्चैि र्िश्चमेन समिन्ितः। र्ाश्वपमुर्त्रतस्तस्य रक्तिणं स्िभाितः। तेनास्य क्षत्रभािः स्याह्लदित िणापः प्रकह्ळह्सतताः।१६। मध्ये ित्िलािृतं नाम महामेरोः समन्ततः।१९। मध्ये तस्य महामेरुह्सिधूम आि र्ािकः। िेद्यथं दिक्षणं मेरोरुर्त्राधं तथोर्त्रम्।२०। अकाश जैसे र्ृथ्िी के लोक-ये भारत र्द्म में हैं, जो ईर्त्र गोलाधप के ४ र्द्मों में से एक है। ये सभी लोक अकाश जैसे हैंब्रह्माण्ड र्ुराण ईर्संहार र्ाद, ऄध्याय २ (३/४/२)लोकाख्यािन तु यािन स्युयेषां ितष्ठिन्त मानिाः॥८॥ भूरादयस्तु सत्यान्ताः सप्तलोकाः कृ तािस्त्िह॥९॥ र्ृिथिीचान्तह्ऱरक्षं च ह्लदव्यं यच्च महत् स्मृतम्। स्थानान्येतािन चत्िाह्ऱर स्मृतान्यािणपकािन च॥११॥ जनस्तर्श्च सत्यं च स्थान्यान्येतािन त्रीिण तु। एकािन्तकािन तािन स्युिस्तष्ठंतीहाप्रसंयमात्॥१३॥ भूलोकः प्रथमस्तेषां िितीयस्तु भुिः स्मृतः।१४॥ स्िस्तृतीयस्तु ििज्ञेयश्चतुथो िै महः स्मृतः। जनस्तु र्ञ्चमो लोकस्तर्ः षष्ठो ििभाव्यते॥१५॥ सत्यस्तु सप्तमो लोको िनरालोकस्ततः र्रम्।१६। महेित व्याहृतेनैि महलोकस्ततोऽभित्॥२१॥ यामादयो गणाः सिे महलोक िनिािसनः।५१॥ (िायु र्ुराण, ऄध्याय १०१)-महेित व्याहृतेनैिं महलोकस्ततोऽभित्। िििनिृर्त्ािधकाराणां देिानां तत्र िै क्षयः॥२३॥ यामादयो गणाः सिे महलोकिनिािसनः॥५२॥ भारत र्द्म के ७ लोक-(१) भू लोक-यह २१० ऄक्षांश र्र ििन्ध्य से दिक्षण भाग है। भू-िराह १५ ऄहगपण है, ऄतः आस क्षेत्र में भू-िराह क्षेत्र ितरुर्ित १५० ऄक्षांश र्र है। (२) भुिर् लोक-यह ििन्ध्य तथा िहमालय के बीच में है ऄतः मध्यम-लोक (रघुिंश २/४२ अह्लद) या मध्यदेश कहा गया है। आसे बाआिबल में मेडेस या अजकल नेर्ाल में मधेस कहते हैं। एक मेडेस इरान के र्िश्चम ईर्त्र कै िस्र्यन सागर तक था। (३) स्िर् लोक-यह िहमालय क्षेत्र है िजसमें ३ ििटर् या जल ग्रहण क्षेत्र थे, ऄतः आसे ित्रिििर् (ितब्बत) कहते थे। र्िश्चमी भाग का जल िसन्धु नदी से िनकलता था, यह ििष्णु ििटर् है। ईनकह्ळ र्त्नी लक्ष्मी भी िसन्धु-तनया या आस क्षेत्र कह्ळ थीं। ििष्णु ििटर् होने के कारण कश्मीर को स्िगप कहा गया है तथा आस ऄथप में इसा मसीह शूली के बाद स्िस्थ होने र्र सशरीर स्िगप (कश्मीर) अये थे। मध्य में िशि-ििटर् है, िजसका जल गंगा नदी िारा समुि में िमलता है। ऄतः यह िशि कह्ळ जटा (कै लास-मानसरोिर क्षेत्र) है िजससे गंगा का जन्म हुअ है। र्ूिी भाग ब्रह्म-ििटर् है, ऄतः आस भाग का जल िनकालने िाला नद ब्रह्मर्ुत्र है तथा ईसके र्ूिप ब्रह्म देश (अजकल म्याम्मार = महा + ऄमर) है। ब्रह्मा कह्ळ ईत्र्िर्त् ििष्णु के नािभ कमल से हुइ, ऄतः भारत (ऄजनाभ िषप) तथा ब्रह्म देश के बीच मिणर्ुर (नािभ-कमल) है। र्ूिप ह्लदशा का महािाक्य ऄहम् ब्रह्मािस्म है ऄतः र्ूिप के ३ मुख्य क्षेत्र हैं -ऄहम् (ऄसम), ब्रह्मा, स्याम (ऄिस्म का बहुिचन, थाआलैण्ड)। (४) महलोक-िहमालय के ईर्त्र के िनिािसयों को ब्रह्मा ने महान् (अजकल हान जाित) कहा था ऄतः आसे महलोक कहा गया। यह ७ लोकों या आन्ि कह्ळ ित्रलोकह्ळ के बीच में है, ऄतः आसे मध्य राज्य भी कहते हैं।
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(५) जनः लोक-यह मंगोिलया है। मरने के बाद प्रेत ऄन्ततः जनःलोक (कु रान का जन्नत) जाता है (ििष्णु र्ुराण २/७/१२)। ऄरबी में प्रेत को मुकुल कहते हैं, ऄतः आसे मंगोिलया कहा गया। यह प्रेत स्थान नहीं, अकाश के जनः लोक का प्रितरूर् है। (६) तर्ः लोक-यह साआबेह्ऱरया (िशििर देश) है। तर्स् लोक के कारण यह क्षेत्र स्टेर्ी (Steppees) कहा जाता है। (७) सत्य लोक-ध्रुि िृर्त् के ईर्त्र का भाग है। ७ तल-आनके नाम र्ुराणों में थोिा ऄलग हैंििष्णु-ऄतल, िितल, िनतल, गभिस्तमत्, महातल, सुतल, र्ाताल। ब्रह्माण्ड-तत्िल, सुतल, तलातल, ऄतल, तल. रसातल, र्ाताल। भागित-ऄतल, िितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, र्ाताल। ििष्णु र्ुराण (२/५)-दशसाहस्रमेकैकं र्ातालं मुिनसर्त्म। ऄतलं िितलं चैि िनतलं च गभिस्तमत्। महाख्यं सुतलं चाग्र्यं र्ातालं चािर् सप्तमम्॥२॥ शुक्लकृ ष्णाख्याः र्ीताः सकप राः शैल काञ्चनाः।भूमयो यत्र मैत्रेय िरप्रासादमिण्डताः॥३॥ ब्रह्माण्ड र्ुराण (१/२/२०)-र्रस्र्रै ः सोर्िचता भूिमश्चैि िनबोधत॥९॥ िस्थितरे षा तु ििख्याता सप्तमेऽिस्मन् रसातले। दशयोजन साहस्रमेकं भौमं रसातलम्॥१०॥ प्रथमः तत्िलं नाम सुतलं तु ततः र्रम्॥११॥ ततस्तलातलं ििद्यादतलं बहुििस्तृतम्। ततोऽिापक् च तलं नाम र्रतश्च रसातलम्॥१२॥ एतेषम्यधो भागे र्ातालं सप्तमं स्मृतम्। भागित र्ुराण (५/२४/७)- ईर्िह्सणतं भूमेयपथासंिनिेशािस्थानमिनेरत्यधस्तात् सप्त भूिििरा योजनायुतान्तरे णायामं ििस्तारे णोर्क्लृप्ता ऄतलं िितलं सुतलं तलातलं महातलं रसातलं र्ातालिमित॥७॥ ब्रह्माण्ड र्ुराण (१/२/२०) के ऄनुसार ७ तल-
एकै कशो
(१) तल = कृ ष्ण भूिम, आन्ि तथा नमुिच का िनिास, आसे गभिस्तमान् या कु माह्ऱरका समुि भी कहते हैं। दिक्षणी गोलाधप में ३००४३’ र्ूिप (प्रायः ३१० र्ूिप) से १२००४३’ र्ूिप तक। मधुसूदन ओझा ने आसे मलुकु िीर् कहा है जो बोह्सनओ तथा र्र्ुअनयी िगनी के बीच प्रायः १२७.५० र्ूिप है।, भारत सागर (कु माह्ऱरका समुि) में यह मगाडास्कर (मलगासी) हो सकता है। (२) सुतल = र्ाण्डु भूिम-महाजम्भ, ििप्र, दैत्य, शंख, किु, तक्षक अह्लद का िनिास। ईर्त्र गोलाधप में १२००४३’ र्ूिप से १४९०१७’ र्िश्चम तक। (सु = ईर्त्र जैसे सुमेरु, शंख जार्ान = र्ञ्चजन से, र्ाञ्चजन्य। (३) तलातल = नीलभूिम-प्रह्लाद (िमस्र में ितल्-ऄत्-तल ऄमनाप, नील नदी का मुख), तारक ऄसुर तथा ईसका ित्रर्ुर (िलिबया का ित्रर्ोली)। दिक्षणी गोलाधप में ५९०१७’ र्िश्चम से ३००४३’ र्ूिप तक। (४) ऄतल = र्ीत भूिम-गरुड, कालनेिम (डैन्यूब के िनकट के दानि, डच या यूट्श के दैत्य)। ऄतल = आटली। ईसके र्रे (र्िश्चम में) ऄतलान्तक (एटलािण्टक) समुि जहां प्राचीन एटलािण्टस था। ईर्त्र गोल में ५९०१७’ र्िश्चम से ३००४३’ र्ूिप तक। (५) तल या महातल = शकप रा भूिम-ििरोचन, िहरण्याक्ष, माली, ििद्युत् िजह्ि, का िनिास। जेन्द ऄिेस्ता के ऄनुसार िहरण्याक्ष अमेजन नदी क्षेत्र में था। र्िश्चम ऄफ्रह्ळका के माली कह्ळ योद्धा िस्त्रयों को भी अमेजन कहते थे। दिक्षण एटलािण्टक-दिक्षण गोल में ५९०१७’ र्िश्चम से १४९०१७’ र्िश्चम तक। (६) रसातल = िशला भूिम-िासुह्लक, दैत्य के सरी, र्ुलोमा, १०० िसर का सुरमा-र्ुत्र िनिास करते हैं। दिक्षण गोल में १२००४३’ र्ूिप से ५९०१७’ र्िश्चम तक। (७) र्ाताल-यह रसातल के ििर्रीत ईर्त्र गोल में १२००४३’ र्ूिप से ५९०१७’ र्िश्चम तक है। ऄनन्त-भागित तथा ििष्णु र्ुराणों के ऄनुसार आसके ३ ऄथप हैं-
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(१) यह ऄनन्त ििश्व है िजसके १ र्ाद से सृिि हुयी। बाकह्ळ ३ र्ाद शेष या ऄनन्त हैं। आसे ईिच्छि ब्रह्म, ईिच्छि गणर्ित, या ज्येष्ठराज कहा है। सभी ४ र्ाद िमलाकर दीघप र्ूरुष होता है, दृश्य भाग के िल र्ुरुष हैएतािानस्य मिहमाऽतो ज्यायांश्च र्ूरुषः। र्ादोऽस्य ििश्वाभूतािन ित्रर्ादस्यामृतं ह्लदिि। (र्ुरुष सूक्त, िाज. यजु. ३१/३) (२) अकाश-गंगा कह्ळ यह सर्ापकार भुजा है िजसे शेषनाग कहते हैं। आसमें सूयप ब्रह्माण्ड के न्ि से ३०००० प्रकाश िषप (योजन) दूर िस्थत है। ब्रह्माण्ड का के न्ि या मूल को मूल-बहपिण या मूल नक्षत्र कहते हैं। सूयप के िनकट सर्ापकार भुजा कह्ळ चौिाइ प्रायः १५०० प्रकाश िषप (र्ृथ्िी x २४०) है। आसमें प्रायः १००० तारा शेष के १००० िसर हैं। आनमें एक सूयप है िजस र्र र्ृथ्िी ििन्दु मात्र है। (३) र्ृथ्िी का ८ भागों में समतल मानिचत्र बनाने र्र ध्रुि प्रदेश का अकार बहुत बिा हो जाता है। िबलकु ल ध्रुि र्र यह ऄनन्त हो जायेगा। ईर्त्री ध्रुि में जल भाग होने से कोइ समस्या नहीं है, र्र दिक्षणी ध्रुि का नक्शा ऄनन्त अकार का हो जायेगा, ऄतः आसे ऄनन्त कहते हैं तथा आसका ऄलग से नक्शा बनता है। ििष्णु र्ुराण (२/५)-र्ातालानामधश्चास्ते ििष्णोयाप तामसी तनुः। शेषाख्या यद्गुणान्िक्तुं न शक्ता दैत्यदानिाः॥१३॥ योऽनन्तः र्ठ्यते िसद्धैदेिो देिह्सष र्ूिजतः। स सहस्रिशरा व्यक्तस्ििस्तकामलभूषणः॥१४॥ नीलिासा मदोित्सक्तः श्वेतहारोर्शोिभतः। साभ्रगङ्गाप्रिाहोऽसौ कै लासाह्लिह्ऱरिार्रः॥१७॥ कल्र्ान्ते यस्य िक्त्रेभ्यो ििषानलिशखोज्ज्िलः। सङ्कषपणात्मको रुिो िनष्क्रामयािर्त् जगत्त्रयम्॥१९॥ यस्यैषा सकला र्ृथ्िी फणामिणिशखारुणा। अस्ते कु सुममालेि कस्तिीयं िह्लदष्यित॥२२॥ भागित र्ुराण (५/२५)- ऄस्य मूलदेशे ह्ऴत्रशद् योजन सहस्रान्तर अस्ते या िै कला भगितस्तामसी समाख्यातानन्त आित सात्ितीया ििृ दृश्ययोः सङ्कषपणमहिमत्यिभमान लक्षणं यं सङ्कषपणिमत्याचक्ष्यते॥१॥ यस्येदं िक्षितमण्डलं भगितोऽनन्तमूतेः सहस्रिशरस एकिस्मन्नेि शीषापिण िध्रयमाणं िसद्धाथप आि लक्ष्यते॥२॥ र्ृथ्िी के ७ िीर्-िृर्त्ाकार ७ िीर् तथा समुि सौरमण्डल के क्षेत्र हैं जो र्ृथ्िी से दीखती ग्रह कक्षाओं से बने हैं। र्ृथ्िी के िीर् गोलाकार नहीं हैं। आनका िणपन आस प्रकार है(१) जम्बू िीर्-एिसया िजसमें भारत भी है। (२) शक िीर्-भारत के दिक्षण र्ूिप में (महाभारत १२/१४/२१-२५), रामायण)। आसमें कु श अकार के िृक्ष (युकिलर्टस) बहुत हैं। ििष्णु कह्ळ ऄिग्न रूर् में र्ूजा होती है (ऄिग्न कोण में है)। ऄिग्न कोण में होने से आसे ऄिग्निीर् भी कहा गया है (िायु र्ुराण ऄ. ४०)। यहां चक्रिगह्ऱर (र्ूिप तट का ऄधप िृर्त्ाकार र्िपत) तथा स्िणप खानें हैं। (३) कु श िीर्-ऄफ्रह्ळका में कु श भरा हुअ है ििशेषतः सबसे बिी मरुभूिम सहारा तथा दिक्षण के नमीिबया मरुभूिम में। िमस्र तथा आिथओिर्या को कु श कहते थे। (४) शाल्मिल िीर्-यह ऄफ्रह्ळका का दिक्षण र्ूिप भाग तथा िनकटिर्त्ी बिे िीर् हैं। मलगासी िीर् को र्ुराणों मे हह्ऱरण िीर् कहा गया है (मृगव्याध नक्षत्र तथा आस िीर् का दिक्षणी ऄक्षांश समान है)। (५) क्रौञ्च िीर्-महाभारत (१२/१४/२१-२५, १६/२५) में आसे मेरु के र्िश्चम कहा है। बृहत् संिहता तथा रामायण आसे ईर्त्र बताते हैं। यह ईर्त्र ऄमेह्ऱरका है िजसमें क्रौञ्च र्िपत (राकह्ळ र्िपत) तथा िीर् दोनों ईिते र्क्षी के अकार के हैं। (६) ्लक्ष िीर्-यह यूरोर् है। दिक्षणी भाग ्लक्ष िृक्षों से भरा है। ईर्त्र भाग में बफीला समुि है, ऄतः आसे िराह, मत्स्य र्ुराण में गोमेद िीर् कहा है। (७) र्ुष्कर िीर्-यह दिक्षण ऄमेह्ऱरका है जो र्ुष्कर (ईज्जैन से १२० र्िश्चम ३४० ईर्त्र ऄक्षांश में बुखारा) के ििर्रीत ह्लदशा में है। आसको ईर्त्र-दिक्षण ह्लदशा में एण्डीज र्िपत २ भागों में ििभािजत करता है। र्िश्चमी भाग सूखा है (संसार का सबसे शुष्क क्षेत्र िचली कह्ळ ऄकटामा मरुभूिम) तथा र्ूिी भाग में सबसे बिा जल भण्डार अमेजन घाटी में है, ऄतः यह रसातल है। एण्डीज कह्ळ ईर्त्री शाखा ऄधप-िृर्त् है िजसे मानस र्िपत कहा है, ईसका र्ुत्र (शाखा) महाििट है। र्ूिप ईर्त्र भाग ऄधप िृर्त्ाकार र्िपत माला से िघरा अमेजन नदी का सबसे बिा जल भण्डार है। र्ुराण के ४ के न्ि नगर र्ुराणों में ४ मुख्य नगर मानिचत्र के के न्ि हैं जो र्रस्र्र ९०० देशान्तर दूरी र्र हैं-के न्ि में ०० देशान्तर र्र आन्ि कह्ळ िस्िौकसारा, सोम कह्ळ ििभािरी ९०० ऄंश र्ूि,प िरुण कह्ळ सुखा १८०० र्ूिप (या र्िश्चम), यम कह्ळ संयमनी। यह्लद संयमनी 128
को यमन कह्ळ राजधानी सना (४४०१२’ र्ूिप) मानें, तो िस्िौकसारा नगरी मोलुका समुि के र्ूिप मनोकिारी नगर (१३४०५’ र्ूिप) होगा। िरुण कह्ळ सुखा नगरी ब्राजील का साओर्ालो (४६०३९’ र्िश्चम, राजधानी) या बेलेम (४८०३०’ र्िश्चम) के र्ूिप का समुि तट होगा। सोम कह्ळ ििभािरी कनाडा के ईर्त्र र्िश्चम तट र्र व्हाआट हौसप नगर (१३५०३’ र्िश्चम) होगा। यह्लद आन्ि को भारत कह्ळ ऄमरािती (महाराष्ट्र) मानें तो यह प्रायः ईज्जैन के ही िनकट है। और सूयप िसद्धान्त के नगरों के ही र्ास ये नगर होंगे। ििष्णु र्ुराण (२/८)-मानसोर्त्रशैलस्य र्ूिपतो िासिी र्ुरी। दिक्षणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां िारुणस्य च। ईर्त्रे ण च सोमस्य तासां नामािन मे शृणु॥८॥ िस्िौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा। र्ुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च ििभािरी।९। शक्रादीनां र्ुरे ितष्ठन् स्र्ृशत्येष र्ुरत्रयम्। ििकोणौ िौ ििकोणस्थस्त्रीन् कोणान्िे र्ुरे तथा।॥१६॥ ईह्लदतो िद्धपमानािभरामध्याह्नार्त्र्न् रििः। ततः र्रं ह्रसन्तीिभगोिभरस्तं िनयच्छित॥१७॥ एिं र्ुष्करमध्येन यदा याित ह्लदिाकरः। ह्ऴत्रशद् भागं तु मेह्लदन्याः तदा मौूह्सतकह्ळ गितः।२६॥ सूयो िादशिभः शैघ्र्यान्मुूतवदिप क्षणायने। त्रयोदशाद्धपमृक्षाणामह्ना तु चरित ििज। मुूतवस्तािदृक्षािण नक्तमिादशैश्चरन्॥३४॥ मत्स्य र्ुराण ऄध्याय १२४-मेरोः प्राच्यां ह्लदशायां तु मानसोर्त्रमूधपिन॥२०॥ िस्िौकसारा माहेन्िी र्ुण्या हेमर्ह्ऱरष्कृ ता। दिक्षणेन र्ुनमेरोमापनसस्य तु र्ृष्ठतः॥२१॥ िैिस्ितो िनिसित यमः संयमने र्ुरे। प्रतीच्यां तु र्ुनमेरोमापनसस्य तु मूधपिन॥२२॥ सुखा नाम र्ुरी रम्या िरुणस्यािर् धीमतः। ह्लदश्युर्त्रस्यां मेरोस्तु मानसस्यैि मूधपिन॥२३॥ तुल्या महेन्िर्ुयापिर् सोमस्यािर् ििभािरी। िैिस्िते संयमने ईद्यन् सूयपः प्रदृश्यते। सुखायामधपरात्रस्तु ििभाियापस्तमेित च॥२८॥ िैिस्िते संयमने मध्याह्ने तु रिियपदा। सुखायामश्च िारुण्यामुिर्त्ष्ठन् स तु दृश्यते॥२९॥ ििभाियापमधपरात्रं माहेन्यामस्तमेि च। सुखायामथ िारुण्यां मध्याह्ने तु रिियपदा॥३०॥ ििभाियां सोमर्ुयापमुिर्त्ष्ठित ििभािसुः। महेन्िस्यामराित्यामुद्गच्छित ह्लदिाकरः॥३१॥ सुखायामथ िारुण्यां मध्याह्ने तु रिियपदा। स शीघ्रमेि र्येित भानुरालातचक्रित्॥३२॥ र्ुराने नगर स्िायम्भुि मनु के काल में थे। सूयप िसद्धान्त में िैिस्ित मनु के काल के नगरों का स्थान ह्लदया है। ईस समय ििषुित् रे खा र्र िस्थत लंका को शून्य देशान्तर मानते थे। बाद में यह समुि में डू ब गया। ईसी देशान्तर र्र ईज्जैन (७५०४३’ र्ूिप) को के न्ि माना गया। लंका का समय ििश्व का के न्िीय समय मानते थे, ऄतः यहां के राजा को कु बेर (कु = र्ृथ्िी, बेर = समय) कहते थे। ईससे ९०० र्ूिप यम कोह्ऱट र्र्त्न था। यम िीर् सबसे दिक्षण (यम दिक्षण का स्िामी) ऄण्टाकप ह्ऱटका के जुिे हुये (यमल = जोिा) भूखण्ड हैं। आसके िनकट का जोिा क्षे त्र न्यूजीलैण्ड यमकोह्ऱट िीर् है। आसका दिक्षण र्िश्चमी तट यमकोह्ऱटर्र्त्न है जो ईज्जैन से ९०० र्ूिप है। ९०० र्िश्चम में रोमकर्र्त्न है जो र्ुनः समुि तट र्र होना चािहये (र्र्त्न = बन्दरगाह, िनिनिध = समुि, िानर =समुि र्र्त्नों के स्िामी)। यह मोरक्को के र्िश्चम में रबात (रब = सूयप) या ईसके िनकट प्राचीन हरकु लस स्तम्भ (के तुमाल) हो सकता है। िगनी का कोनाक्रह्ळ भी प्रायः िहीं है (कोणाकप = सूयप क्षेत्र)। ईज्जैन से १८०० र्ूिप में िसद्धर्ुर था जहां र्ूिप ह्लदशा कह्ळ सीमा का िचह्न देने के िलये ब्रह्मा ने िार (िर्रािमड) बनिाया था (रामायण)। ईज्जियनी लङ्कायाः सिन्निहता योर्त्रे ण समसूत्रे। तन्मध्याह्नो युगर्त् ििषमो ह्लदिसो ििषुितोऽन्यः। (िराहिमिहर, र्ञ्चिसद्धािन्तका, १३/१७) स्िमेरु स्थलमध्ये नरको बडिामुखं च जलमध्ये। ऄमरमरा मन्यन्ते र्रस्र्रमधः िस्थतान् िनयतान् ॥१२॥ ईदयो यो लङ्काया सोऽस्तमयः सिितुरेि िसद्धर्ुरे। मध्याह्नो यिकोट्डां रोमकििषयेऽधपरात्रं स्यात् ॥१३॥ स्थलजलमध्य लङ्का भूकक्षाया भिेच्चतुभापगे। ईज्जियनी लङ्कायाः तच्चतुरंशे समोर्त्रतः॥१४॥ (अयपभटीय ४/१२-१४) भूिृर्त्र्ादे र्ूिपस्यां यमकोटीित ििश्रुता। भिाश्विषे नगरी स्िणपप्राकारतोरणा॥३८॥ याम्यायां भारते िषे लङ्का तिन् महार्ुरी। र्िश्चमे के तुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकह्ळह्सतता॥३९॥ 129
ईदक् िसद्धर्ुरी नाम कु रुिषे प्रकह्ळह्सतता (४०) भूिृर्त्र्ादिििरास्ताश्चान्योन्यं प्रितिष्ठता (४१) तासामुर्ह्ऱरगो याित ििषुिस्थो ह्लदिाकरः। न तासु ििषुिच्छाया नाक्षस्योन्नितह्ऱरष्यते ॥४२॥ (सूयप िसद्धान्त १२/३८-४२) यल्लङ्कोज्जियनीर्ुरोर्ह्ऱर कु रुक्षेत्राह्लददेशान् स्र्ृशत्। सूत्रं मेरुगतं सा मध्यरे खा भुिः॥ िनरक्षदेशात् िक्षितषोडशांशे भिेदिन्ती गिणतेन यस्मात् (िसद्धान्त िशरोमिण, गोलाध्याय, मध्यगित िासना, २४ ) िाल्मीह्लक रामायण ह्लकिष्कन्धा काण्ड, ऄध्याय ४०यत्निन्तो यििीर्ं सप्तराज्योर्शोिभतम्। सुिणपरू्यकिीर्ं सुिणापकरमिण्डतम्॥३०। ततः समुििीर्ांश्च सुभीमान् ििु महपथ।।३६॥ स्िादूदस्योर्त्रे तीरे योजनािन त्रयोदश। जातरूर्िशलो नाम सुमहान् कनकप्रभः॥५०॥ ित्रिशराः काञ्चनः के तुमालस्तस्य महात्मनः॥५३॥र्ूिपस्यां ह्लदिश िनमापणं कृ तं तत् ित्रदशेश्वरै ः॥५४॥ र्ूिपमेतत् कृ तं िारं र्ृिथव्या भुिनस्य च। सूयपस्योदयनं चैि र्ूिाप ह्येषा ह्लदगुच्यते ॥६४॥ यहां यि िीर् (जािा) के स्िणप सुमेरु का ईल्लेख है िजसे आन्ि ने बनिाया था। आसकह्ळ चोटी ८०६’२८.८"दिक्षण, ११२०५५’१२,०" र्ूिप है। मेरु र्िपत-यह १ लाख योजन का है जो स्र्ितः १००० योजन कह्ळ र्ृथ्िी र्र नहीं हो सकता है। गीता में भी भगिान ने ऄर्ने को स्थािरों में िहमालय तथा र्िपतों में मेरु कहा है। ऄतः यह िहमालय जैसा र्िपत नहीं है। मेरु कइ प्रकार के हैं(१) िहरण्यगभप मेरु-िेद के ऄनुसार िहरण्यगभप से सृिि हुइ थी। ऄथिप िेद में आसे स्कम्भ (स्तम्भ = जगत् का अधार) या प्रथम ईत्र्न्न होने से ज्येष्ठ ब्रह्म कहा है। र्ुराणों में ििश्व का ईल्ब (गभप-नाल कहा है। िहरण्यगभपः समितपताग्रे भूतस्य जातः र्ितरे क असीत्। स दाधार र्ृिथिीमुत द्यां कस्मै देिाय हििषा ििधेम॥ यं क्रन्दसी ऄितश्चस्कभाने िभयसाने रोदसी ऄह्ियेथाम्। यस्यासौ र्न्था रजसो ििमानः कस्मै देिाय हििषा ििधेम॥३॥ यस्य द्यौरुिी र्ृिथिी च मही यस्याद ईिपऽन्तह्ऱरक्षम्। यस्यासौ सूरो ििततो मिहत्िा कस्मै देिाय हििषा ििधेम॥ यस्य ििश्वे िहमिन्तो मिहत्िा समुिे यस्य रसािमदाहुः। आमाश्च प्रह्लदशो यस्य बाू कस्मै देिाय हििषा ििधेम॥ (ऊक् १०/१२१/१,४-६, ऄथिप ४/२/३-५, ७) सिापधार सूक्त, ज्येष्ठब्रह्म सूक्त (ऄथिप १०/७-८) कू मप र्ुराण (१/४)-एक काल समुत्र्न्नं जल बुद्बुदिच्च तत्। ििशेषेभ्योऽण्डमभित् बृहत् तदुदके शयम्॥३६॥ तिस्मन् कायपस्य करणं संिसिद्धः र्रमेिष्ठनः। प्राकृ तेऽण्डे िििृर्त्ः स क्षेत्रज्ञो ब्रह्मसंिज्ञतः॥३७॥ स िै शरीरी प्रथमः स िै र्ुरुष ईच्यते। अह्लदकर्त्ाप स भूतानां ब्रह्माग्रे समितपत॥३८॥ यमाहुः र्ुरुषं हंसं प्रधानात् र्रतः िस्थतम्। िहरण्यगभं किर्लं छन्दोमूर्वत सनातनम्॥३९॥ मेरुरुल्बमभूत् तस्य जरायुश्चािर् र्िपताः। गभोदकं समुिाश्च तस्यास र्रमात्मनः॥४०॥ ब्रह्माण्ड र्ुराण (१/१/३) अह्लदकर्त्ाप स भूतानां ब्रह्माग्रे समिह्सर्त्नाम्॥२५॥ िहरण्यगभपः सोऽण्डेऽिस्मन्प्रादुभूपतश्चतुमुपखः। सगे च प्रितसगे च क्षेत्रज्ञो ब्रह्म संिमतः॥२६॥ करणैः सह र्ृच्छन्ते प्रत्याहारै स्त्यजिन्त च। भजन्ते च र्ुनदेहांस्ते समाहार सिन्धसु॥२७॥ िहरण्मयस्तु यो मेरुस्तस्योद्धतुपमह प ात्मनः। गतोदकं सम्बुदास्तु हरे युश्चािर् र्ञ्चताः॥२८॥ यिस्मन्नण्ड आमे लोकाः सप्त िै सम्प्रितिष्ठताः। र्ृिथिी सप्तिभिीर्ः समुिैः सह सप्तिभः॥२९॥ (क) स्ियम्भू मण्डल- १०११ ब्रह्माण्डों का समूह है। ब्रह्माण्डों के बीच अकषपण, तेज का अदान-प्रदान ही मेरु या ईल्ब है। (ख) कू मप मेरु-यह हमारे ब्रह्माण्ड का िनमापण क्षेत्र होने से कू मप (कमप करने िाला), या तेज रूर् न्यूह्ऱरनो अभामण्डल होने से गोलोक है। आसका शङ्कु (भ्रमण ऄक्ष) ही मेरु है। शङ्कु भित्यह्नो धृत्यै यिा ऄधृतिँ शङ्कु ना तर्द्ाधार। (ताण्य महाब्राह्मण ११/१०/११) तद् (शङ्कु साम) ई सीदन्तीयिमत्याहुः॥१२॥ सप्तर्दा िै तेषां (छन्दसां) र्राध्याप शक्वरी। (शतर्थ ब्राह्मण ३/९/२/१७) 130
यह्लदमािँल्लोकान् प्रजार्ितः सृष्ट्िेदं सिपमशक्नोद्यह्लददं ह्लकञ्च तच्छक्वयोऽभिंस्तच्छक्वरीणां शक्वरीत्िम्॥ (ऐतरे य ब्राह्मण ५/७) स यत् कू मो नाम। एतिै रूर्ं कृ त्िा प्रजार्त्ः प्रजा ऄसृजत यदसृजताकरोर्त्द्यदकरोर्त्स्मात् कू मपः कश्यर्ो िै कू मपस्तस्मादाहुः सिापः प्रजाः काश्य्य आित। (शतर्थ ब्राह्मण ७/५/१/५) मानेन तस्य कू मपस्य कथयािम प्रयत्नतः। शङ्कोः शतसहस्रािण योजनािन िर्ुः िस्थतम्॥ (नरर्ित जयचयाप, स्िरोदय, कू मप चक्र) (ग) र्रमेष्ठी मेरु-ब्रह्माण्ड का घूणपन ऄक्ष १ लाख प्रकाश िषप (योजन) का मेरु है। यह अकाश का िशिह्ऴलग है। िशि र्ुराण, ििद्येश्वर संिहता, ऄध्याय ५-िनष्कलस्तम्भरूर्ेण स्िरूर्ं समदशपयत्॥२८॥ ऄध्याय ७-महानलस्तम्भििभीषणाकृ ितबपभूि तन्मध्यतले स िनष्कलः॥१२॥ ऄतीिन्ियिमदं स्तम्भमिग्नरूर्ं ह्लकमुित्थतम्। ऄस्योध्िपमिर् चाधश्च अियोलपक्ष्यमेि िह॥१४॥ अियोह्समश्रयोस्तत्र कायपमेकं न सम्भिेत्। आत्युक्त्िा सूकरतनुह्सिष्णुस्तस्याह्लदमीियिान्॥१६॥ तथा ब्रह्माहं सतनुस्तदन्तं िीिक्षतुं ययौ। िभत्त्िा र्ातालिनलयं गत्िा दूरतरं हह्ऱरः॥१७॥ (२) सौर मेरु-(क) नाक स्िगप या मेरु-सौर मण्डल का घूणपन ऄक्ष। आसका उर्री ििन्दु या ह्लदशा नाक स्िगप है। आस ििन्दु के चारों तरफ र्ृथ्िी का ऄक्ष २४० कोण र्र घूम रहा है। यह तारामण्डल िशशुमार कह्ळिे (सूंस) जैसा होने के कारण िशशुमार चक्र कहा गया है। तम् (त्रयह्ऴस्त्रशं स्तोमं) ई नाक आत्याहुनप िह प्रजार्ितः कस्मै च नाकम् । (ताण्य महाब्राह्मण १०/१/१८) ििश्वा रूर्ािण प्रित मुञ्चते कििः ग्रासािीद् भिं ििर्दे चतुष्र्दे। िि नाकमख्यत् सििता िरे ण्योऽनु प्रयाणमुषसो िि राजित॥ (िाजसनेयी संिहता १२/३) स्िगो िै लोको नाकः (शतर्थ ब्राह्मण ६/३/३/१४, ६/७/२/४) नागिीथ्युर्त्रं यच्च सप्तह्सषभ्यश्च दिक्षणम्। ईर्त्रः सिितुः र्न्था देियानश्च स स्मृतः। (ििष्णु र्ुराण २/८/९०) उध्िोर्त्रमृिषभ्यस्तु ध्रुिो यत्र व्यििस्थतः। एतििष्णुर्दं ह्लदव्यं तृतीयं व्योिम्न भासुरम्॥९८॥ तारामयं भगितः िशशुमाराकृ ित प्रभोः। ह्लदिि रूर्ं हरे यपर्त्ु तस्य र्ुच्छे िस्थतो ध्रुिः॥(२/९/१) सैष भ्रमन् भ्रामयित चन्िाह्लदत्याह्लदकान् ग्रहान्। भ्रमन्तमनु तं यािन्त नक्षत्रािण च चक्रित्॥२॥ सूयापचन्िमसौ तारा नक्षत्रािण ग्रहैः सह।िातानीकमयैबपन्हैध्रुपिे बद्धािन तािन िै॥३॥ िशशुमाराकृ ित प्रोक्तं यिूर्ं ज्योितषां ह्लदिि। नारायणोऽयनं धाम्नां तस्याधारः स्ियं हृह्लद॥४॥ ईर्त्ानर्ादर्ुत्रस्तु तमाराध्य जगत्र्ितम्। स तारा िशशुमारस्य ध्रुिः र्ुच्छे व्यििस्थतः॥५॥ अधारः िशशुमारस्य सिापध्यक्षो जनादपनः। ध्रुिस्य िशशुमारस्तु ध्रुिे भानुव्यपििस्थतः॥६। (ख) र्ृथ्िी ऄक्ष-यह र्ृथ्िी के अकषपण क्षेत्र (अकाश का जम्बू िीर्) तक ईसका भ्रमण ऄक्ष है, जो १ लाख योजन का है िजसमें १००० योजन र्ृथ्िी में है जो ईसके व्यास कह्ळ मार् है (जैन ग्रन्थ लोकप्रकाश (१८/१५-१६)। र्ुराणों के ऄनुसार मेरु का अकार यही है र्र १६०००योजन र्ृथ्िी में है। आस व्यास के क्षेत्र में र्ृथ्िी कह्ळ र्ह्ऱरक्रमा करने िाला ईर्ग्रह ईसी गित से २४ घण्टे में र्ह्ऱरक्रमा करे गा (Geo synchronous orbit)। (३) भू मेरु-(क) र्ृथ्िी का भ्रमण ऄक्ष-ईर्त्री ध्रुि प्रदेश सुमेरु या के िल मेरु है-यह जल भाग में है। दिक्षणी ध्रुि प्रदेष स्थल भाग र्र है िजसे ऄनन्त िीर् कहा गया है। दोनों क्षेत्रों में ६ मास का ह्लदन या ईतनी बिी रात होती है। (ख) भूर्ृष्ठ के के न्ि-(१) प्राङ् मेरु (र्ामीर)-यह ब्रह्मा का र्ुष्कर है जो ईज्जैन से १ मुूतप (१२०) र्िश्चम है। िेदाङ्ग ज्योितष के ऄनुसार यहां १६ घण्टे तक का ह्लदन होता था, ऄतः यह ३४० ईर्त्र ऄक्षांश र्र है। यहां से ४ ह्लदशाओं में महामागप जाते थे, ऄतः ब्रह्मा को चतुमुपख कहा गया। आसके ४ ह्लदशाओं में ४ प्रकार कह्ळ िलिर्यां प्रचिलत हुईं। (२) ऄर्रमेरु (र्ेरु)-यह र्ामीर के ििर्रीत ह्लदशा में है। यहां (कु जको) से भी ४ ह्लदशाओं में महामागप जाते थे। आसके िनकट ऄमरु मेरु (१६०१२’५१.६२" दिक्षण, ६९०३०’२१.२८" र्िश्चम) है िजसका िििचत्र मिन्दर स्िगपिार या देि-िार कहा जाता है। यहां के देिता मेरु तथा मु हैं जो िशि-र्ािपती के समान िमले हुये हैं। यह ७ मीटर उंचा तथा ईतना ही चौिा मनुष्य मूह्सत (ऄद्धपनारीश्वर) है। यह टीटीकाका झील के िनकट र्ुनो नगर से ३५ ह्लकमी. दूर र्िपतों में िछर्ा है। (३) मध्य मेरु-यह ििषुि 131
रे खा र्र ऄफ्रह्ळका के के न्या में है जहां ह्लकिलमन्जारो कह्ळ चोटी तथा ईसके िनकट का िजला अज भी मेरु कहा जाता है। ह्लकिलमन्जारो चोटी ३०४’३३" दिक्षण, ३७०२१’१२" र्ूिप, के न्या चोटी ००९’००" दिक्षण, ३७०१८’००" र्ूिप तथा मेरु नगर ०००३’ ईर्त्र ३७०३९’ र्ूिप है। मध्य तथा ईर्त्रमेरु िजले हैं, मार िजला है। यहां के िनिासी ऄमेरु तथा ईनकह्ळ भाषा ह्लकिमरु है। यहां का िन क्षेत्र मेरु राष्ट्रीय ईद्यान है। ईर्त्र तान्जािनया में भी ऄरुमेरु िजले में मेरु गांि हैजहां मेरु जाित के लोग हैं। आनको बण्टू भाषा में िामेरु भी कहते हैं। ऄरुशा के िनकट मेरु एक ज्िालामुखी र्िपत है (३०१४’ दिक्षण, ३६०४५’ र्ूिप)। (४) जल मेरु-मध्य मेरु के ििर्रीत यह प्रशान्त महा सागर में है, जो ििश्व में िषाप कह्ळ ईत्र्िर्त् का के न्ि है। आसके िनकट ह्लफजी के र्ास मेरु जलमागप १७९०५४’ र्ूिप, १६०३३’ दिक्षण है। (ग) िीर् मेरु-हर महािीर् का के न्ि एक मेरु था। जम्बू िीर् का मेरु आलािृर्त् िषप में कहा गया है। जैन हह्ऱरिंश र्ुराण (र्ञ्चम सगप)-र्ूिापर्रौ महामेरोिौ मेरू भितोऽस्य च। आष्िाकारौ ििभक्तारौ र्िपतौ दिक्षणोर्त्रौ॥४९४॥ ऄशीितश्च सहस्रािण चत्िाह्ऱर च समुच्ियः। चतुणापमिर् मेरूणां र्रयोिीर्योभपिेत्॥५१३॥ (धातकह्ळ खण्ड, र्ुष्कर िीर्) र्ुष्कह्ऱरण्यः िशलाकू ट प्रासादाश्चैत्य चूिलकाः। समानाः र्ञ्चमेरूर्ां व्यासादिगाहनोच्ियैः॥५३०॥ तत्त्िाथप िृिर्त्, तृतीय ऄध्याय-तन्मध्ये मेरुनािभिृपर्त्ो योजनशतसहस्रििष्कम्भो जम्बूिीर्ः॥९॥ कू मप र्ुराण (१/४३)-जम्बूिीर्ः समस्तानां िीर्ानां मध्यतः शुभः। तस्य मध्ये महामेरुह्सिश्रुतः कनकप्रभः॥६॥ चतुरशीित साहस्रो योजनैस्तस्य चोच्ियः। प्रिििः षोडषाधस्ताद् िाह्ऴत्रशन्मूह्सर्ध्न ििस्तृतः॥७॥ मूले षोडषसाहस्रो ििस्तारस्तस्य सिपतः। भूर्द्मस्यास्य शैलोऽसौ कह्सणकात्िेन संिस्थतः॥८॥ ऄिग्न र्ुराण, ऄध्याय १०७-आलािृते मेरुमध्यं रम्ये नीलाचलािश्रतम्॥६॥ भिाश्वाय च भिाश्वं के तुमालाय र्िश्चमम्॥७॥ मेरोः िप्रयव्रतः र्ुत्रानिभिषच्य ययौ िनम्। (८) ऄिग्न र्ुराण, ऄध्याय १०८-जम्बूिीर्ो िीर्मध्ये तन्मध्ये मेरुरुिच्ितः। चतुरशीितसाहस्रो भूियष्ठः षोडशाह्लिराट् ॥३॥ िाह्ऴत्रशन् मूह्सर्ध्न ििस्तारात् षोडशाधः सहस्रिान्। भूयस्तस्यास्य शैलोऽसौ कह्सणकाकार संिस्थतः॥४॥ जम्बूनदी रसेनास्यािस्त्िदं जाम्बूनदं र्रम्। भिाश्वः र्ूिपतो मेरोः के तुमालस्तु र्िश्चमे॥१४। तयोमपध्यगतो मेरुः कह्सणकाकार संिस्थतः। भारताः के तुमालाश्च भिाश्वाः कु रिस्तथा॥२२॥ (घ) स्थानीय के न्ि -मानिचत्र बनाने के िलये हर क्षेत्र में एक मेरु था। कइ नाम ऄभी भी मेरु नाम से ििख्यात हैं(१) िहमालय कह्ळ मेरु चोटी प्रायः ईज्जैन कह्ळ देशान्तर रे खा र्र है-३००५२’५" ईर्त्र, ७९०१’५६" र्ूिप। लङ्कातः खरनगरं िसतोरुगेहं र्ाणाटो िमिसतर्ुरी तथा तर्णी। ईर्त्ुङ्गिस्सतिरनामधेयशैलो लक्ष्मीित्र्ुरमिर् िात्स्यगुल्मसंज्ञम्॥१॥ ििख्याता िननगरी तथा ह्यिन्ती स्थानेशो मुह्लदतजनस्तथा च मेरुः। ऄध्िाख्यः करणिििधस्तु मधमानानेतेषु प्रितिसतां न ििद्यते सः॥२॥ (भास्कर-२, महाभास्करीय २/१-२) लङ्काकु मारी तु ततस्तु काञ्ची मानातमश्वेतर्ुरी त्िथोदक् । श्वेतोऽचलोऽस्मादिर् िात्स्यगुल्मं र्ूः स्यादिन्ती त्िनु गगपराटम्॥१॥ अश्रमर्र्त्नमालिनगरे र्ट्टिशिमेि रोिहतकम्। स्थाण्िीश्वरस्तु िहमिान् मेरुलेखाध्िकमप नास्त्येषाम्॥२॥ (िटेश्वर, िटेश्वर िसद्धान्त १/८/१-२) (२) जािा का सुमेरु र्िपत ८०६’ दिक्षण, १२००३५’ र्ूिप। यह स्िणप सुमेरु था जहां आन्ि ने स्तम्भ बनाया था। िाल्मीह्लक रामायण ह्लकिष्कन्धा काण्ड, ऄध्याय ४०यत्निन्तो यििीर्ं सप्तराज्योर्शोिभतम्। सुिणपरू्यकिीर्ं सुिणापकरमिण्डतम्॥३०। ततः समुििीर्ांश्च सुभीमान् ििु महपथ।।३६॥ स्िादूदस्योर्त्रे तीरे योजनािन त्रयोदश। जातरूर्िशलो नाम सुमहान् कनकप्रभः॥५०॥ ित्रिशराः काञ्चनः के तुमालस्तस्य महात्मनः॥५३॥र्ूिपस्यां ह्लदिश िनमापणं कृ तं तत् ित्रदशेश्वरै ः॥५४॥
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(३) झारखण्ड में हजारीबाग िजले में मेरु २४०१’४६" ईर्त्र, ८५०२७’२६" र्ूिप। यह समुि मन्थन (खिनज िनष्कासन) कह्ळ मथानी में प्रयुक्त मन्दार र्िपत (ह्ऴसहभूिम से भागलर्ुर तक) का के न्ि है। प्रायः प्राचीन ककप रे खा र्र होने से यह क्षेत्र ककप खण्ड या झारखण्ड कहा जाता था। (४) फ्रांस के ओआसे िजले में मेरु ४९०१४’ ईर्त्र, २०८’ र्ूिप-ईज्जैन से ७३०४५’ या प्रायः १२ दण्ड र्िश्चम। (५) मलय िीर् (मलयेिसया) के क्लंग िजले में मेरु नगर ३०८’ ईर्त्र, १०१०२७’ र्ूिप। (६) र्िश्चम अस्रेिलया के जेराल्डटन के िनकट मेरु २८०४८’११" दिक्षण, ११४०४१’१०" र्ूिप। (७) थाइलैण्ड (स्याम) कह्ळ राजधानी बैंगकाक का फ्रामेरु मिन्दर १३०४५’ ईर्त्र, १०००३५’ र्ूिप। (८) चीन का सुमेरु र्िपत ३६००१’ ईर्त्र, १०६०१५’ र्ूिप का लाल र्त्थरों का रं ग है जैसा र्ुराणों में र्ूिी मेरु का िह्सणत है। आसके िनकट ििशाल खिनज भण्डार है-कोयला ९३ कोह्ऱट टन, ताम्र ऄयस्क १ कोह्ऱट टन, फास्फे ट १.३९ लाख टन, िज्सम ३ कोह्ऱट टन, क्वाट्जप २ कोह्ऱट टन, चूना र्त्थर १३ कोह्ऱट टन, ग्लौबर लिण २० कोह्ऱट टन, डोलोमाआट ६ कोह्ऱट टन, स्िणप १ कोह्ऱट टन। िनकट में ििशाल मूह्सर्त्यां र्िपत काटकर बनाइ गयी हैं िजनको ग्रोटो कहते हैं। (४) कृ ित्रम मेरु-(क) शंकु मेरु-शंकु िारा ऄक्षांश, देशान्तर, ह्लदशा ह्लक गणना होती है। आसकह्ळ उंचाइ १२ ऄंगल ु (कोइ भी मान) होती है िजसे १२ ऄंगल ु का िशिह्ऴलग भी कहा गया है। कु तुब मीनार भी ऐसा ही मेरु है। यह चन्ि कह्ळ ईर्त्रतम िस्थित र्र तथा ककप रे खा र्र लम्ब है-प्रायः ५० दिक्षण झुका है। आस के ऄक्ष तथा सतह के बीच का कोण िही है जो ह्लदल्ली के स्र्ि और मध्यम ऄक्षांश के बीच है। शंकु छाया मध्याह्न में सबसे छोटी होती है, ईसके समान काल र्ूिप तथा बाद में यह प्रायः बराबर होती है। छायाग्र र्थ कु तुर् (कु ्र्ी) जैसा होता है ऄतः मध्याह्न मुूतप कु तुर् मुूर्त्प है। ईसके दोनों तरफ कह्ळ समान लम्बी छाया के बीच कह्ळ ह्लदशा ईर्त्र ह्लदशा है। आसे मीन (दो िृर्त् चार् के बीच) िारा िनकालते हैं, ऄतः यह िििध कु तुर्-मीन या कु तुब-मीनार है। ईर्त्र ह्लदशा िनदेश करने िाली चुम्बकह्ळय सूइ को भी मत्स्य कहते थे िजसका फारसी नाम कु तुबनुमा है। िशि र्ुराण, ििद्येश्वर संिहता, ऄध्याय ११मण्डलं चतुरस्रं िा ित्रकोणमथिा तथा। खट्िाङ्गिन् मध्य सूक्ष्मं िलङ्गर्ीठं महाफलम्॥६॥ प्रथमं मृिच्छलाह्लदभ्यो िलङ्गं लोहाह्लदिभः कृ तम्। येन िलङ्गं तेन र्ीठं स्थािरे िह िििशष्यते॥७॥ िलङ्गं र्ीठं चरे त्िेकं िलङ्गं बाणकृ तं ििना। िलङ्गप्रमाणं कतॄण प ां िादशाङ्गुलमुर्त्मम्॥८॥ (ख) भिन मेरु-यह एक प्रकारका भिन होता है, िजसमें चतुष्कोण शंकु अकार कह्ळ छत होती है। श्रीमिाल्मीह्लकयरामायणे– ह्लकिष्कन्धाकाण्ड- सगपः३३ह्ऴिध्य मेरु िगह्ऱर प्रख्यैः प्रासादैः नैक भूिमिभः । ददशप िगह्ऱर नद्यः च ििमलाः तत्र राघिः ॥४-३३-८॥ श्रीमिाल्मीह्लकयरामायणे सुन्दरकाण्डे निमः सगपः ॥५-९॥ मेरु मन्दर संकाशैरुिल्लखििह्ऱरिाम्बरम् । कू टागारै ः शुभाकारै ः सिपतः समलङ्कृ तम् ॥५-९-१४॥ ऄयोध्याकाण्डे ित्रसप्तिततमः सगपःतं िह िनत्यं महाराजो बलिन्तं महाबलः । ईर्ािश्रतोऽभूद ् धमापत्मा मेरुमेरु िनं यथा ॥२-७३-१५॥ (ग) मेरु नगर-नगर िनमापण के िलये भी के न्िीय भाग उंचा होना चािहये िजससे ईसका र्ानी बाहर िनकल सके । चतुष्कोण मेरु जैसा ढलान होने र्र यह मेरु कहा जाता है। (घ) मेरु र्द-सिोच्च स्थान र्र का व्यिक्त मेरु या मीर है। (ङ) मेरुदण्ड-यह शरीर का के न्िीय ऄक्ष है। (च) मेरु रत्न-माला का के न्िीय रत्न मेरु है। (छ) श्रीयन्त्र कह्ळ मूह्सत भी मेरु है। 133
भारतीय र्ञ्चाङ्ग (१) स्िायम्भुि मनु काल-स्िायम्भुि मनु काल में सम्भितः अज के ज्योितषीय युग नहीं थे। यह व्यिस्था िैिस्ित मनु के काल से अरम्भ हुयी ऄतः ईनसे सत्ययुग का अरम्भ हुअ। यह्लद ब्रह्मा से अरम्भ होता तो ब्रह्मा अद्य त्रेता में नहीं, सत्य युग कॆ अरम्भ में होते। ऄथिा सत्ययुग र्हले अरम्भ हो गया, र्र सभ्यता का ििकास काल त्रेता कहा गया। ब्रह्मा कह्ळ युग व्यिस्था में युग र्ाद समान काल के थे जैसा ऐतरे य ब्राह्मण के ४ िषीय गोर्द युग में या स्िायम्भुि र्रम्र्रा के अयपभट का युग है। िषप का अरम्भ ऄिभिजत् नक्षत्र से होता था, िजसे बाद में काह्सर्त्के य ने धिनष्ठा नक्षत्र से अरम्भ ह्लकया। काह्सर्त्के य काल में (१५८०० इ.र्ू.) यह िषाप काल था। स्िायम्भुि मनु काल में यह ईर्त्रायण का अरम्भ था। ह्लकन्तु दोनों व्यिस्थाओं में माघ मास से ही िषप का अरम्भ होता था। मासों का नाम र्ूह्सणमा के ह्लदन चन्िमा के नक्षत्र से था, जो अज भी चल रहा है। मास का अरम्भ दोनों प्रकार से था-ऄमािास्या से या र्ूह्सणमा से। यह ऄयन गित के ऄन्तर के कारण बदलता होगा जैसा ििक्रमाह्लदत्य ने महाभारत के ३००० िषप बाद शुक्ल र्क्ष के बदले कृ ष्ण र्क्ष से मासारम्भ कर ह्लदया। ह्लदन का अरम्भ भी कइ प्रकार से था जैसा अज है। कइ बार िलखा है ह्लक िषप कह्ळ प्रथम राित्र कब थी। कइ प्रकार के िषप अरम्भ-शतं जीि शरदो िधपमानः शतं हेमन्तांछतमुिसन्तान्॥ (ऊक १०/१६१/४, ऄथिप २०/९६/९) एष ह संित्सरस्य प्रथमा राित्रयाप फाल्गुनी र्ूणपमासी॥ (शतर्थ ब्राह्मण ६/२/२/१८)-राित्र. फाल्गुन, र्ूणपमासी से िषप का अरम्भ। फाल्गुन्यां र्ौणपमास्यां चातुमापस्यािन प्रयुञ्जीत। मुखं िा एतत् संित्सरस्य यत् फाल्गुनी र्ौणपमासी। (गोर्थ ब्राह्मण ६/१९) ऄमािास्यया मासान्संर्ाद्याहरुत्सृजिन्त ऄमािास्या िह मासान् संर्श्यित र्ौणपमास्या मासान्संर्ाद्यहरुत्सृजिन्त र्ौणपमास्या िह मासान् संर्श्यित। (तैिर्त्रीय संिहता ७/५/६/१) ब्रह्मा के काल में सौर ऊतु िषप कह्ळ भी गणना थी। आसमें सूयप कह्ळ ईर्त्रायण-दिक्षणायन गितयों के योग से िषप होता था। ििषुि के ईर्त्र तथा दिक्षण ३-३ िीिथयों में सूयप १-१ मास रहता था। ििशुि के ईर्त्र तथा दिक्षन में १२, २०, २४ ऄंश के ऄक्षांश िृर्त्ों से ये िीिथयां बनती थीं। ३४० ईर्त्र ऄक्षांश का ह्लदनमान सूयप कह्ळ आन रे खाओं र्र िस्थित के ऄनुसार ८ से १६ घण्टा तक होगा। ऄतः दिक्षण से आन िृर्त्ों को गायत्री (६ ४ ऄक्षर) से जगती छन्द (१२ ४ ऄक्षर) तक का नाम ह्लदया गया। यह नीचे के िचत्र से स्र्ि है। आसकह्ळ चचाप ऊग्िेद (१/१६४/१-३, १२, १३, १/११५/३, ७/५३/२, १०/१३०/४), ऄथिप िेद (८/५/१९-२०), िायु र्ुराण, ऄध्याय २, ब्रह्माण्ड र्ुराण ऄ. (१/२२), ििष्णु र्ुराण (ऄ. २/८-१०) अह्लद में है। आनके अधार र्र र्ं. मधुसूदन ओझा ने अिरणिाद में आसकह्ळ व्याख्या कह्ळ है (श्लोक १२३-१३२)। बाआिबल के आिथओिर्यन संस्करण में आनोक कह्ळ र्ुस्तक के ऄध्याय ४ में भी यही िणपन है।
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छन्दों कह्ळ ऄक्षर संख्या-गायत्री ६ x ४, ईिष्णक् ७ x ४, ऄनुिुर्् ८ x ४, बृहती ९ x ४, र्ंिक्त १० x ४, ित्रिु र्् ११ x ४, जगती १२ x ४ (२) ध्रुि र्ञ्चाङ्ग-ध्रुि को स्िायम्भुि मनु का र्ौत्र कहा गया है, ह्लकन्तु ईनमें कु छ ऄिधक ऄन्तर होगा। भागित, ििष्णु र्ुराणों के ऄनुसार ध्रुि को र्रम र्द िमला तथा ईनके चारों तरफ सप्तह्सष भ्रमण से काल गणना शुरु हुइ। ईस काल से ८१०० िषप का ध्रुि संित्सर शुरु हुअ िजसका तीसरा चक्र ३०७६ इ.र्ू. में र्ूणप हुअ। ध्रुि काल ३ x ८१०० + ३०७६ = २७,३७६ इ.र्ू हुअ। कुं िरलाल जैन ने ऄर्ूणप िंशािली के अधार र्र र्ृथु तक कह्ळ काल गणना कह्ळ है। संित्सरों के ऄनुसार आसके २ अधार हो सकतेह-ैं स्िायम्भुि से िैिस्ित मनु तक के काल को ६ भाग में बांटने र्र १-१ मन्िन्तर का काल अयेगा। यह प्रायः १५,२००/६ = २५३४ िषप होगा। यह सप्तह्सष ित्सर के िनकट है, ऄतः २७०० िषप का सप्तह्सष चक्र तथा ईसका ३ गुणा ध्रुि िषप लेना ऄिधक ईिचत है। ध्रुि काल के िणपन में प्रायः २७०० िषप का लघु-मन्िन्तर तथा ८१०० िषप का कल्र् हो सकता है। १९२७६ इ.र्ू. में क्रौञ्च िीर् का प्रभुत्ि था िजसर्र बाद में काह्सर्त्के य ने अक्रमण ह्लकया। (३) कश्यर्-१७५०० इ.र्ू. में देि-ऄसुरों कह्ळ सभ्यता अरम्भ हुइ। तथा राजा र्ृथु काल में र्िपतीय क्षेत्रों को समतल बना कर खेती, नगर िनमापण अह्लद हुये। खिनजों का दोहन हुअ। आन कालों में नया युग अरम्भ हुअ र्र ईनका र्ञ्चाङ्ग स्र्ि नहीं है। (४) काह्सर्त्के य र्ञ्चाङ्ग-र्ृथ्िी के ईर्त्र ध्रुि कह्ळ ह्लदशा ऄिभिजत् से हट गयी थी, ऄतः १५,८०० इ.र्ू. में काह्सर्त्के य ने बह्मा कह्ळ सलाह से धिनष्ठा से िषप अरम्भ ह्लकया जो िेदाङ्ग ज्योितष में चलता है। ऊग् ज्योितष (३२, ५,६) याजुष ज्योितष (५-७) माघशुक्ल प्रर्न्नस्य र्ौषकृ ष्ण समािर्नः। युगस्य र्ञ्चिषपस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥५॥ स्िराक्रमेते सोमाकौ यदा साकं सिासिौ। स्यार्त्दाह्लद युगं माघः तर्ः शुक्लोऽयनं ह्युदक् ॥६॥ प्रर्द्येते श्रििष्ठादौ सूयापचन्िमसािुदक् । सार्ापधे दिक्षणाकप स्तु माघश्रिणयोः सदा॥७॥ यह माघ से अरं भ िषप ब्रह्मा के समय से था, जब सूयप का प्रिेश ऄिभिजत् नक्षत्र में होता था। स्िायम्भुि मनु काल में ऄिभिजत् (श्रिण-धिनष्ठा का मध्य श्रििष्ठा) से ईर्त्रायण होता था, यह २९१०२ इसा र्ूिप में था। प्रायः १६००० इसा र्ूिप में ऄिभिजत् नक्षत्र से ईर्त्री ध्रुि दूर हो गया िजसे ईसका र्तन कहा गया है। तब आन्ि ने काह्सर्त्के य से कहा ह्लक ब्रह्मा से ििमशप कर काल िनणपय करें 135
महाभारत, िन र्िप (२३०/८-१०)ऄिभिजत् स्र्धपमाना तु रोिहण्या ऄनुजा स्िसा। आच्छन्ती ज्येष्ठतां देिी तर्स्तप्तुं िनं गता॥८॥ तत्र मूढोऽिस्म भिं ते नक्षत्रं गगनाच्युतम्। कालं ित्िमं र्रं स्कन्द ब्रह्मणा सह िचन्तय॥९॥ धिनष्ठाह्लदस्तदा कालो ब्रह्मणा र्ह्ऱरकिल्र्तः। रोिहणी ह्यभित् र्ूिपमेिं संख्या समाभित्॥१०॥ ईस काल में धिनष्ठा में सूयप के प्रिेश के समय िषाप का अरम्भ होता था, जब दिक्षणायन अरम्भ होता था। काह्सर्त्के य के र्ूिप ऄसुरों का प्रभुत्ि था, ऄतः दिक्षणायन को ऄसुरों का ह्लदन कहा गया हैसूयप िसद्धान्त, ऄध्याय १-मासैिापदशिभिपषं ह्लदव्यं तदह ईच्यते॥१३॥ सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं ििर्यपयात्। षट् षििसङ्गुणं ह्लदव्यं िषपमासुरमेि च॥१४॥ (५) िििस्िान् र्ञ्चाङ्ग-यह िैिस्ित मनु के िर्ता थे ऄतः आनका भी काल १३९०२ इ.र्ू. माना जा सकता है, िजसके बाद १२००० िषप का ऄिसह्सर्णी-ईत्सह्सर्णी चक्र तथा चैत्र शुक्ल से िषप अरम्भ हुये। आसके बाद सूयप िसद्धान्त के कइ संशोधन हुये। मयासुर का संशोधन जल प्रलय के बाद सत्ययुग समािप्त के ऄल्र् (१२१ िषप) बाद रोमकर्र्त्न में हुअ। सूयप िसद्धान्त प्रथम ऄध्याय-ऄल्र्ाििशिे तु कृ ते मयो नाम महासुरः। रहस्यं र्रमं र्ुण्यं िजज्ञासुज्ञापनमुर्त्मम्॥२॥ िेदाङ्गमग्र्यिखलं ज्योितषां गितकारणम्। अराधयिन्ििस्िन्तं तर्स्तेर्े सुदष्ु करम्॥३॥ तोिषतस्तर्सा तेन प्रीतस्तस्मै िराह्सथने। ग्रहाणां चह्ऱरतं प्रादान्मयाय सििता स्ियम्॥४॥ तस्मात् त्िं स्िां र्ुरीं गच्छ तत्र ज्ञानम् ददािम ते। रोमके नगरे ब्रह्मशार्ान् म्लेच्छाितार धृक्॥ (र्ूना, अनन्दाश्रम प्रित) शृण्िैकमनाः र्ूिं यदुक्तं ज्ञानमुर्त्मम्। युगे युगे महषीणां स्ियमेि िििस्िता॥८॥ शास्त्रमाद्यं तदेिेदं यत्र्ूिं प्राह भास्करः। युगानां र्ह्ऱरितेन कालभेदोऽत्र के िलम्॥९॥ निम श्लोक कह्ळ गूढ़ाथप-प्रकािशका टीका में रङ्गनाथ जी ने िलखा है-तथा च कालिशेन ग्रहचारे ह्लकिञ्चिैलक्ष्यण्यं भितीित युगान्तरे तर्त्दनन्तरं ग्रहचारे षु प्रसाध्य तत्कालिस्थत लोकव्यिहाराथं शास्त्रान्तरिमि कृ र्ालु रुक्तिािनिभनान्त शास्त्राणां िैयथ्यपम्। एिञ्च मया ितपमान युगीय सूयोक्त शास्त्र िसद्धग्रहचारमङ्गीकृ त्य सूयोक्त शास्त्रिसद्धं ग्रहचारं च प्रयोजनाभािादुर्ेक्ष्य तदुक्तमेित्यां प्रत्य्र्ििश्यत आित भािः। एिञ्च युग मध्येऽ्यिान्तर काले ग्रहचारे ष्िन्तर दशपने तर्त्त्काले तदन्तरं ऄसाध्य ग्रन्थास्तकाल ितपमानािभयुक्ताः कु िपिन्त। तह्लददमन्तरं र्ूिप ग्रन्थे िीजिमत्यामनिन्त। र्ूिपग्रन्थानां लुप्तत्िात् सूय्यपह्सष संिादोऽर्ीदानीं न दृष्यत आित। तदप्रिसिद्धरागम प्रामाण्याच्च नाशंक्या। सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं ििर्यपयात्। षट् षििसंगुणं ह्लदव्यं िषपमासुरमेि च॥१४॥ तद्द्वादशसहस्रािण चतुयुपगमुदाहृतम्। सूयापब्दसंख्यया ििित्रसागरै रयुताहतैः॥१५॥ सन्ध्यासन्ध्यांशसिहतं ििज्ञेयं तच्चतुयुपगम्। कृ तादीनां व्यिस्थेयं धमपर्ादव्यिस्थया॥१६॥ युगस्य दशमो भागः चतुिस्त्रद्व्य़ेक संगुणः। क्रमात्कृ तयुगादीनां षष्ठांऽशः सन्ध्ययोः स्िकः॥१७॥ युगानां सप्तितस्सैका मन्िन्तरिमहोच्यते। कृ ताब्दसङ्ख्या तस्यान्ते सिन्धः प्रोक्तो जल्लिः॥१८॥ (क) ज्योितष का ज्ञान िििस्िान् ने समय समय र्र महह्सषयों को ह्लदया था। (श्लोक ८) यहां प्रत्येक युग के िलये ऄलग-ऄलग ज्ञान देने कह्ळ बात है। ऄतः प्रत्येक युग के िलये ऄलग गणना र्द्धित होगी, जो ऄगले श्लोक ९ में भी स्र्ि है। यहां युग का क्या मान होगा यह ििचारणीय है। सूयप िसद्धान्त में १२००० ह्लदव्य िषों के युग के ऄनुसार ग्रहगित कह्ळ गणना है, जहां ह्लदव्य िषप = ३६० िषप (श्लोक १४-१५) । िजस युग में गणना मे संशोधन करना है, िह कोइ छोटा युग है। एक सम्भािना है ह्लक आस युग में ह्लदव्य िषप का ऄथप सौर िषप है, िजस चक्र में बीज संस्कार कह्ळ चचाप ब्रह्मगुप्त तथा भास्कर-२ ने कह्ळ हैखाभ्रखाकव (१२०००) हृताः कल्र्याताः समाः शेषकं भागहारात् र्ृथक् र्ातयेत्। यर्त्योरल्र्कं तद् ििशत्या (२००) भजेिल्लिप्तकाद्यं तत् ित्रिभः सायकै ः (५)॥ र्ञ्च र्ञ्चभूिमः (१५) करा (२) भ्यां हतं भानुचन्िेज्यशुक्रेन्दुतुङ्गेष्िृणम्। आन्दुना (१) दस्रबाणैः (५२) करा (२)भ्यां कृ तभौमसौम्येन्दुर्ातार्ककषु स्िं क्रमात्। (िसद्धान्त िशरोमिण, भूर्ह्ऱरिध-७,८)
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स्िोर्ज्ञ भाष्य-ऄत्रोर्लिब्धरे ि िासना। यिषप सहस्रषट्कं यािुर्चयस्ततोऽर्चय आत्यत्रागम एि प्रमाणं नान्यत् कारणं िक्तुं शक्यत आत्यथपः। ब्रह्मगुप्त-खखखाकप (१२०००) हृताब्देभ्यो गतगम्याल्र्ाः खशून्ययमल (२००) हृताः। लब्धं ित्र (३) सायकं (५) हतं कलािभरूनौ सदाऽके न्दू ॥६०॥ शिशित् जीिे ििहतं चन्िोच्चे ितिथ (१५) हतं तु िसतशीघ्रे। िीषु (५२) हतं च बुधोच्चे िि (२) कु (१) िेद हतं च र्ात कु ज शिनषु॥६१॥ (ब्राह्मस्फु ट िसद्धान्त, सुधाकर िििेदी संस्करण, मध्यमािधकार) (ख) यह अद्य िसद्धान्त है। आसके र्ूिप ब्रह्मा का िर्तामह िसद्धान्त था, िह ब्रह्मा के काल में था ह्लकन्तु अकाश के सूयप कह्ळ गित र्र ही अधाह्ऱरत था, या िजसने आस िसद्धान्त कह्ळ व्याख्या कह्ळ ईसे ईस युग का सूयप माना गया, भास्कर =सूय,प िराहिमिहर (िमिहर =सूय)प अह्लद। यह र्ूिपिती िर्तामह िसद्धान्त के ििरुद्ध नहीं है, ईसी कह्ळ र्रम्र्रा में है, ऄतः आसे अद्य कहा गया है। (ग) श्लोक २ में कहा है ह्लक सत्ययुग में ऄल्र् काल बाकह्ळ था। र्र श्लोक २३ में सत्ययुग के ऄन्त तक गणना दी गयी है। आसका सम्भािित ऄथप है ह्लक सत्ययुग से कु छ र्ूिप मय ऄसुर ने यह िसद्धान्त िनकाला र्र ईसका व्यिहार सत्ययुग कह्ळ समािप्त से हुअ। (घ) प्रित युग में महह्सषयों को ही सूयप ज्ञान देते थे, र्र आस बार मय ऄसुर को क्यों ज्ञान ह्लदया? महह्सष के िल भारत या देि जाित में ही नही, िरन् ऄसुरों में भी हो सकते हैं। प्रह्लाद तथा ििभीषण को भी र्रम भागित कहा गया है। ज्योितष में ििश्व के सभी भागों के स्थानों का िििरण है, जो र्रस्र्र ९०० ऄंश देशान्तर र्र हैं। यह भी ह्लदखाता है ह्लक र्ूरे ििश्व का सहयोग तथा मानिचत्र अिश्यक है िजसके िबना चन्ि तथा ऄन्य ग्रहों कह्ळ दूरी नहीं ज्ञात हो सकती। (ङ) र्ुराणों में ९०-९० ऄंश देशान्तर के ऄन्य स्थानों कह्ळ चचाप है, जो आससे र्ूिप काल का है। (च) श्लोक १८ में मन्िन्तर कह्ळ सिन्ध के बाद जल-्लि िलखा है। मय ऄसुर ने स्र्ितः सत्ययुग के ऄन्त में आसका प्रणयन ह्लकया िजसके र्ूिप सत्ययुग के अरम्भ में जल प्रलय हुअ था। अधुिनक भूगभप-शास्त्र के ऄनुसार प्रायः १०००० इसा र्ूिप में जल-प्रलय हुअ था, जो १०००-१५०० िषों तक था। (छ) सृिि िनमापण में श्लोक २४ के ऄनुसार ४७४०० ह्लदव्य िषप लगे। यह ऄन्य िसद्धान्त ग्रन्थों ब्राह्म-स्फु ट-िसद्धान्त या िसद्धान्त-िशरोमिण अह्लद में िह्सणत नहीं है। सम्भितः जल-प्रलय के अद गणना को ठीक करने के िलये मय ऄसुर िारा गिणत सूत्र के संशोधन के िलये है, िास्तििक सृिि िनमापण काल नहीं है। (ज) र्ूरे ििश्व में सिप-सम्मित से सूयप िसद्धान्त के मार् तथा गिणत िििधयां मानी जाती थीं। मय ऄसुर का संशोधन भी रोमक र्र्त्न में होने के बािजूद ििश्व में स्िीकृ त हुअ तथा भारत में ऄभी भी प्रचिलत है। आसके िलये ह्लकसी शिक्तशाली राज्य के नेतृत्ि में ििश्व सम्मेलन ऄर्ेिक्षत है। ििश्व मार् के ४ के न्ि लंका या ईज्जैन, ईससे ९० ऄंश दूरी र्िश्चम रोमकर्र्त्न, १८० ऄंश र्िश्चम या र्ूिप िसद्धर्ुर तथा ९० ऄंश र्ूिप यमकोह्ऱटर्र्त्न थे। जल-प्रलय के तुरत बाद भारत में सभ्यता का र्ुनः अरम्भ ऊषभदेि जी िारा हुअ, जो स्िायम्भुि मनु कह्ळ तरह अरम्भ कायप करने के कारण ईनके िंशज कहे गये हैं तथा जैन धमप के प्रथम तीथंकर हैं। िायु, मत्स्य, ब्रह्माण्ड अह्लद र्ुराणों में २८ व्यासों कह्ळ िगनती में स्िायम्भुि मनु प्रथम तथा ऊषभदेि ११िें कहे गये हैं। (झ) १ युग = १२००० िषप के बाद र्ुनः संशोधन कह्ळ अिश्यकता होगी। क्या र्ुनः सूयप का ऄितार होगा? रं गनाथ जी के ऄनुसार नहीं। संशोधन कर्त्ाप ही सूयप का ऄितार है।
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(६) आक्ष्िाकु काल से भी काल गणना अरम्भ हुइ थी। महाह्ऴलगम के ऄनुसार ईनका काल १-११-८५७६ इ.र्ू. चैत्र शुक्ल प्रितर्दा से हुअ। यह तंजाईर के मिन्दरों कह्ळ गणना के अधार र्र है। (७) र्रशुराम र्ञ्चाङ्ग-६१७७ इ.र्ू.-र्रशुराम के िनधन र्र कलम्ब (कोल्लम्) सम्ित्। र्रशुराम १९िें त्रेता में थे। यहां १ युग खण्ड ३६० िषों का है। त्रेता में १० खण्ड होंगे। प्रथम १० खण्ड िििस्िान् के र्ूिप बीत गये। ईनके बाद के त्रेता में ११िां खण्ड अरम्भ हुअ, तभी १० से ऄिधक खण्ड सम्भि हैं। दूसरा त्रेता ९१०२ इ.र्ू. में अरम्भ हुअ, ईसमें ८ त्रेता ९१०२ - ८ x ३६० = ६२२२ इ.र्ू. में बीते। ईससे ३६० िषों के भीतर र्रशुराम का काल है। सहस्र िषों को छोिने र्र ८२४ इ. में कोल्लम सम्ित् अरम्भ हुअ, ऄतः र्रशुराम काल ७०००-८२३ में होगा (० िषप नहीं िगना जाता है)। आसका ऄन्य प्रमाण है ह्लक मेगास्थनीज ने िसकन्दर से ६४५१ िषप ३ मास र्ूिप ऄथापत् ६७७७ इ.र्ू. ऄप्रैल मास में डायोिनसस का भारत अक्रमण िलखा है िजसमें र्ुराणों के ऄनुसार सूयपिंशी राजा बाहु मारा गया थ। ईससे १५ र्ीढ़ी बाद हरकु लस (ििष्णु-र्ृथ्िी को धरण करने िाला-र्ृिथिी त्िया धृता लोकाः, देिि त्िं ििष्णुना धृता) का जन्म हुअ। आस काल के ििष्णु ऄितार र्रशुराम थे। ईनका काल प्रायः ६०० िषप बाद अता है जो १५ र्ीढ़ी का काल है। मयासुर के ३०४४ िषप बाद ऊतु १.५ मास र्ीछे िखसक गया था ऄतः नये सम्ित् का प्रचलन हुअ। (८) किल के र्ञ्चाङ्ग-राम का जन्म ११-२-४४३३ इ.र्ू. में हुअ था र्र ईस काल के ह्लकसी र्ञ्चाङ्ग का ईल्लेख नहीं है। र्रशुराम के ३००० िषप बाद किलयुग अरम्भ में ही नये र्ञ्चाङ्ग कह्ळ अिश्यकता हुयी। युिधिष्ठर काल में ४ प्रकार के र्ञ्चाङ्ग हुये-(क) युिधिष्ठर शक-यह ईनके राज्यािभषेक के ह्लदन १७-१२-३१३९ इ.र्ू. से हुअ। ईसके ५ ह्लदन बाद ईर्त्रायण माघशुक्ल सप्तमी को हुअ। ऄतः ऄिभषेक प्रितर्दा या िितीया को था। (ख) किल सम्ित्-शासन के ३६ िषप से कु छ ऄिधक बीतने र्र १७-२-३१०२ इ.र्ू. ईज्जैन मध्यराित्र से किलयुग अरम्भ हुअ जब भगिान् कृ ष्ण का देहान्त हुअ। ईसके २ह्लदन २-२७-३० घं.िम.से. बाद २०-२-३१०२ इ.र्ू २-२७-३० घं.िम.से. से चैत्र शुक्ल प्रितर्दा अरम्भ हुअ। (ग) जयाभ्युदय शक-भगिान् कृ ष्ण के देहान्त के ६ मास ११ ह्लदन बाद २२-८-३१०२ इ.र्ू. को जब ििजय के बाद जय सम्ित्सर अरम्भ हुअ, तो युिधिष्ठर ने ऄभ्युदय के िलये सन्यास िलया। यह र्रीिक्षत शासन से अरम्भ होता है तथा जनमेजय ने आसी का प्रयोग ऄर्ने दान-र्त्रों में ह्लकया है। (घ) किल के २५ िषप बीतने र्र कश्मीर में युिधिष्ठर का देहान्त हुअ जब सप्तह्सष मघा से िनकले। ईस समय (३०७६ इ.र्ू. मेष संक्रािन्त) से लौह्लकक या सप्तह्सष सम्ित्सर अरम्भ हुअ जो कश्मीर में प्रचिलत था तथा राजतरिङ्गणी में प्रयुक्त है। (९) भटाब्द-अयपभट काल से के रल में भटाब्द प्रचिलत था। महाभारत काल में २ प्रकार के िसद्धान्त प्रचिलत थे। र्राशर मथ तथा अयप मत। यहां र्राशर मत र्राशर िारा िलिखत ििष्णुर्ुराण में है जो मैत्रेय ऊिष ने ईनको खण्ड १ तथा २ में कहा है। यह सूयप िसद्धान्त कह्ळ र्रम्र्रा में है, ऄतः ऊिष को मैत्रेय (िमत्र =सूय,प सौर िषप का प्रथम मास, ईर्त्रायण से) कहा गया है। िितीय मत अयप मत है जो स्िायम्भुि मनु कह्ळ र्रम्र्रा से था। आसकह्ळ र्रम्र्रा में किल के कु छ बाद (३६० िषप) अयपभट ने अयपभटीय िलखा। िििस्िान् या सूयप िर्ता हैं, ईनके र्ूिप के स्िायम्भुि मनु ब्रह्मा या िर्तामह हैं। अज भी अयप (ऄजा)का ऄथप र्टना के िनकट तथा ओिडशा अह्लद में िर्तामह होता है। (१०) जैन युिधिष्ठर शक-िजनििजय महाकाव्य का जैन युिधिष्ठर शक ५०४ युिधिष्ठर शक (२६३४ इ.र्ू.) में अरम्भ होता है। आसके ऄनुसार कु माह्ऱरल भट्ट का जन्म ५५७ इ.र्ू. (२०७७) क्रोधी सम्ित्सर (सौर मत) में तथा शंकराचायप का िनिापण ४७७ इ.र्ू. (२१५७) राक्षस सम्ित्सर में कहा हैऊिष(७)िापर (७)स्तथा र्ूण(प ०) मत्यापक्षौ (२) िाममेलनात्. एकह्ळकृ त्य लभेताङ्कख् क्रोधीस्यार्त्त्र ित्सरः॥ भट्टाचायप कु मारस्य कमपकाण्डैकिाह्लदनः। ज्ञेयः प्रादुभपिस्तिस्मन् िषे यौिधिष्ठरे शके ॥ ऊिष(७)बापण(५) तथा भूिम(१)मपत्यापक्षौ (२) िाममेलनात्, एकत्िेन लभेताङ्कस्तम्राक्षास्तत्र ित्सरः॥ (शंकर िनधन) 138
यह र्ाश्वपनाथ का संन्यास या िनधन काल है। ईनका संन्यास र्ूिप नाम युिधिष्ठर रहा होगा या िे िैसे ही धमपराज या तीथपङ्कर थे। भगिान् महािीर (जन्म ११-३-१९०२ इ.र्ू.) में र्ाश्वपनाथ का ही शक चल रहा था। युिधिष्ठर कह्ळ ८ िीं र्ीढ़ी में िनचक्षु के शासन में हिस्तनार्ुर डू ब गया था- यह सरस्िती नदी के सूखने का र्ह्ऱरणाम था। ईस समय १०० िषप कह्ळ ऄनािृिि कही गयी है जब दुह्सभक्ष रोकने के िलये शताक्षी या शाकम्भरी ऄितार हुअ। दुगाप-सप्तशती (११/४६-४९)भूयश्च शतिाह्सषक्यामनािृष्ट्डामनम्भिस। मुिनिभः संस्तुता भूमौ सम्भििष्याम्ययोिनजा॥४६॥ ततः शतेन नेत्राणां िनरीिक्षष्यािम यन्मुनीन्। कह्ळतपियष्यिन्त मनुजाः शताक्षीिमित मां ततः॥४७॥ ततोऽहमिखलं लोकमात्मदेहसमुििैः। भह्ऱरष्यािम सुराः शाकै रािृिःे प्राणधारकै ः॥४८॥ शाकम्भरीित ििख्याह्ऴत तदा यास्याम्यहं भुिि। तत्रैि च ििधष्यािम दुगपमाख्यं महासुरम्॥४९॥ ििष्णु र्ुराण (४/२१)-ऄतः र्रं भििष्यानहं भूर्ालान्कह्ळतपियष्यािम॥१॥ योऽयं साम्प्रतमिनीर्ितः र्रीिक्षर्त्स्यािर् जनमेजय-श्रुतसेनो-ग्रसेन-भीमसेनश्चत्िारः र्ुत्राः भििष्यिन्त॥२॥ जनमेजयस्यािर् शतानीको भििष्यित॥३॥ योऽसौ याज्ञिल्क्यािेदमधीत्य
कृ र्ादस्त्राण्यिा्य
ििषम-ििषय-ििरक्त-िचर्त्िृिर्त्श्च
शौनकोर्देशादात्म-ज्ञान-प्रिीणः
र्रं
िनिापणमिा्स्यित॥४॥ शतानीकादश्वमेधदर्त्ो भििता॥५॥ तस्माद्यिधसीमकृ ष्णः॥६॥ ऄिधसीमकृ ष्णािन्नचक्षुः॥७॥ यो गङ्गयार्हृते हिस्तनार्ुरे कौशाम्ब्यां िनित्स्यित॥८॥ ईसकह्ळ दो र्ीढ़ी बाद िाराणसी के राजर्ह्ऱरिार में र्ाश्वपनाथ जी का जन्म हुअ। दुह्सभक्ष में कइ िैज्ञािनक तथा ऄन्य शास्त्र नि हो गये। (११) िशशुनाग काल-र्ाल िबगण्डेट कह्ळ र्ुस्तक बमाप कह्ळ बौद्ध र्रम्र्रा में बुद्ध िनिापण से ऄजातशत्रु काल में एक नये िषप का अरम्भ कहा गया है (बमी में आत्यान = िनिापण)। आसके १४८ िषप र्ूिप ऄन्य िषप अरम्भ हुअ था िजसे बमी में कौजाद (िशशुनाग?) कहा है। बुद्ध िनिापण (२७-३-१८०७ इ.र्ू.) से १४८ िषप र्ूिप १९५४ इ.र्ू. में िशशुनाग का शासन समाप्त हुअ। (१२) नन्द शक-महार्द्मनन्द का ऄिभषेक सभी र्ुराणों का ििख्यात कालमान है। यह र्रीिक्षत जन्म के १५०० (१५०४) िषप बाद हुअ था। आसमें १५०० को र्ाह्सजटर ने १०५० कर ह्लदया िजससे किल अरम्भ को बाद का ह्लकया जा सके ।खारािेल िशलालेख में भी िलखा है ह्लक नन्द ऄिभषेक के ित्रिसुशत (८०३) िषप के बाद ईसके शासन के ४ िषप र्ूणप हुये जब ईसने प्राची नहर कह्ळ मरम्मत करायी। यह नन्द काल में बनी थी। यहां ’ित्रिसु शत’ को ’ित्रिषप शत’ कर आितहासकारों ने १०३ या ३००िषप अह्लद मनमाने ऄथप ह्लकये हैं। याित् र्रीिक्षतो जन्म याित् नन्दािभषेचनम् । ताित् िषप सहस्रं च ज्ञेयं र्ञ्चशतोर्त्रम् ॥ (ििष्णु र्ुराण, ४/२४/१०४) यहां र्ञ्चशतोर्त्रम् (१५००) को र्ञ्चाशतोर्त्रम् कर ह्लदया है। अयपभटीय (१/५)-काहो मनिो ढ, मनुयुगाः श्ख, गतास्ते च, मनुयुगाः ्ना च। कल्र्ादेयुपगर्ादा ग च, गुरु ह्लदिसाच्च, भारतात् र्ूिपम्॥ धूसीकाल (३१७९)-युतः शाकः कल्यब्द आित कह्ळह्सततः॥ (िाक्यकरण, १/२) गतिषापन्त कोलम्बिषापः तरळगा (३९२६) िस्थताः। कल्यब्दा धीस्थकाला (३१७९) ढ्याः शकाब्दा िा भििन्त ते॥ (र्ुतुमन सोमयाजी, करण र्द्धित) भागित र्ुराण (१२/२/३)-यिस्मन् कृ ष्णो ह्लदिं यातस्तिस्मन्नेि तदाहिन। प्रितर्न्नं किलयुगिमित प्राहुः र्ुराििदः॥ (१/१५/३७) यदा मुकुन्दो भगिािनमां महीं जहौ स्ितन्त्रा श्रिणीय सत्कथः। तदाहरे िा प्रितबुद्धचेतसामधमपहत े ुः किलरन्िितपत॥ लल्ल-िशष्यधीिृिद्धदतन्त्र(१/१२)-निाह्लिचन्िानलसंयुतोभिेच्छकिक्षतीशाब्दगणो गतः कलेः। ह्लदिाकरघ्नो गतमाससंयुतः कु ििह्निनघ्निस्तिथिभः समिन्ितः॥ भास्कर-२ (िसद्धान्त िशरोमिण १/२८)-याताः षण्मनिो युगािन भिमतान्यन्यद्युगािङ्घ्रत्रयं, 139
नन्दािीन्दुगुणा (१३७९) स्तथा शकनृर्स्यान्ते कलेिपत्सराः। (१३) शूिक शक-यह ७५६ इ.र्ू. में अरम्भ हुअ। जेम्स टाड ने सभी राजर्ूत राजाओं को ििदेशी शक मूल का िसद्ध करने के िलये ईनकह्ळ बहुत सी िंशाििलयां तथा ताम्रर्त्र अह्लद नि ह्लकये तथा राजस्थान कथा (Annals of Rajsthan) में ऄिग्निंशी राजाओं का काल थोिा बदल कर प्रायः ७२५ इ.र्ू. कर ह्लदया। काञ्चुयल्लायप भट्ट-ज्योितष दर्पण-र्त्रक २२ (ऄनूर् संस्कृ त लाआब्रेरी, ऄजमेर एम्.एस नं ४६७७)बाणािब्ध गुणदस्रोना (२३४५) शूिकाब्दा कलेगपताः॥७१॥ गुणािब्ध व्योम रामोना (३०४३) ििक्रमाब्दा कलेगत प ाः॥ आस समय ऄसुर (ऄसीह्ऱरया के नबोनासर अह्लद) अक्रमण को रोकने के िलये ४ प्रमुख राजिंशों का संघ अबू र्िपत र्र ििष्णु ऄितार बुद्ध कह्ळ प्रेरणा से बना। आन राजाओं को ऄग्रणी होने के कारण ऄिग्निंशी कहा गया-र्रमार, प्रितहार, चालुक्य तथा चाहमान। भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप (१/६)एतिस्मन्नेिकाले तु कान्यकु ब्जो ििजोर्त्मः। ऄबुपदं िशखरं प्रा्य ब्रह्महोममथाकरोत्॥४५॥ िेदमन्त्रप्रभािाच्च जाताश्चत्िाह्ऱर क्षित्रयाः। प्रमरस्सामिेदी च चर्हािनयपजुह्सिदः॥४६॥ ित्रिेदी च तथा शुक्लोऽथिाप स र्ह्ऱरहारकः॥४७॥ ऄिन्ते प्रमरो भूर्श्चतुयोजन ििस्तृता।।४९॥ प्रितसगप (१/७)-िचत्रकू टिगह्ऱरदेशे र्ह्ऱरहारो महीर्ितः। काह्ऴलजर र्ुरं रम्यमक्रोशायतनं स्मृतम्॥१॥ राजर्ुत्राख्यदेशे च चर्हािनमपहीर्ितः॥२॥ ऄजमेरर्ुरं रम्यं िििधशोभा समिन्ितम्॥३॥ शुक्लो नाम महीर्ालो गत अनतपमण्डले। िारकां नाम नगरीमध्यास्य सुिखनोऽभित्॥४॥ ४ राजाओं का संघ होने के कारण यह कृ त संित् भी कहा जाता है तथा आन्िाणीगुप्त को सम्मान के िलये शूिक कहा गयाशूि ४ जाितयों का सेिक है। (१४) चाहमान शक-ह्लदल्ली कॆ चाहमान राजा ने ६१२ इसा र्ूिप में ऄसीह्ऱरया कह्ळ राजधानी िननेिे को र्ूरी तरह ध्िस्त कर ह्लदया, िजसका ईल्लेख बाआिबल में कइ स्थानों र्र है। आसके निकर्त्ाप को िसन्धु र्ूिप के मधेस (मध्यदेश, ििन्ध्य तथा िहमालय के बीच) का शासक कहा गया है। http://bible.tmtm.com/wiki/NINEVEH_%28Jewish_Encyclopedia%29The Aryan Medes, who had attained to organized power east and northeast of Nineveh, repeatedly invaded Assyria proper, and in 607 succeeded in destroying the city Media-From BibleWiki (Redirected from Medes)-They appear to have been a branch of the Aryans, who came from the east bank of the Indus, … आस समय जो शक अरम्भ हुअ ईसका ईल्लेख िराहिमिहर कह्ळ बृहत् संिहता में है तथा कािलदास, ब्रह्मगुप्त ने भी आसी का र्ालन ह्लकया है। िराहिमिहर-बृहत् संिहता (१३/३)असन् मघासु मुनयः शासित र्ृथ्िीं युिधिष्ठरे नृर्तौ। षड् -ििक-र्ञ्च-िि (२५२६) युतः शककालस्तस्य राज्ञस्य॥ (१५) श्रीहषप शक (४५६ इसा र्ूिप)-आसका ईल्लेख ऄलबरूिन ने ह्लकया है। शूिक के बाद ३०० िषप तक मालिगण चलािजसे मेगस्थनीज ने ३०० िषों का गणराज्य कहा है। िलच्छिी तथा गुप्त राजाओं ने आसका प्रयोग ह्लकया है र्र आसे िनरक्षर आितहासकारों ने हषपिधपन (६०५-६४६ आस्िी) से जोि ह्लदया है। (१६) ििक्रम संित्-५७ इसा र्ूिप में ईज्जैन के र्रमार िंशी राजा ििक्रमाह्लदत्य (८२ इसा र्ूिप-१९ इस्िी) ने अरम्भ ह्लकया। ईनका राज्य (र्रोक्षतः) ऄरब तक था तथा जुिलऄस सीजर के राज्य में भी ईनके संित् के ही ऄनुसार सीजर के अदेश के ७ ह्लदन बाद ििक्रम िषप १० के र्ौष कृ ष्ण मास के साथ िषप का अरम्भ हुअ।
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History of the Calendar, by M.N. Saha and N. C. Lahiri (part C of the Report of The Calendar Reforms Committee under Prof. M. N. Saha with Sri N.C. Lahiri as secretary in November 1952Published by Council of Scientific & Industrial Research, Rafi Marg, New Delhi-110001, 1955, Second Edition 1992. Page, 168-last para-“Caesar wanted to start the new year on the 25th December, the winter solstice day. But people resisted that choice because a new moon was due on January 1, 45 BC. And some people considered that the new moon was lucky. Caesar had to go along with them in their desire to start the new reckoning on a traditional lunar landmark.” यहां िबना गणना के मान िलया गया है ह्लक िषप अरम्भ के ह्लदन शुक्ल र्क्ष का अरम्भ था, र्र िह ििक्रम सम्ित् के र्ौष मास का अरम्भ था। के िल ििक्रम िषप में ही चान्ि मास का अरम्भ कृ ष्ण र्क्ष से होता है. बाकह्ळ सभी शुक्ल र्क्ष से अरम्भ होते हैं। आसी ििक्रमाह्लदत्य के दरबार में कािलदास, िराहिमिहर अह्लद ९ रत्न ििख्यात थे। (१७) शािलिाहन शक-ििक्रमाह्लदत्य के देहान्त के बाद ५० िषप तक भारत ििदेशी अक्रमणों का िशकार रहा। तब ईनके र्ौत्र शािलिाहन ने ईनको र्रािजत कर िसन्धु के र्िश्चम भगा ह्लदया। ईनके काल में प्राकृ त भाषाओं का प्रयोग राजकायप में अरम्भ हुअ। आनके काल मॆ इसा मसीह ने कश्मीर में शरण िलया (हजरत बाल) । (१८) कलचुह्ऱर या चेह्लद शक (२४६ आसिी), (१९) िलभी भंग (३१९ इस्िी)-गुप्त राजाओं कह्ळ र्रिर्त्ी शाखा गुजरात के िलभी में शासन कर रही थी िजसका ऄन्त आस समय हुअ। िनरक्षर आितहासकार आसके १ िषप बाद गुप्त काल का अरम्भ कहते हैं। रामायण कह्ळ ितिथयां िाल्मीह्लक रामायण, बालकाण्ड सगप १८ में राम जन्म समय कह्ळ ग्रह िस्थित आस प्रकार दी हैततो यज्ञे समाप्ते तु ऊतूनां षट् समत्ययुः। ततश्च िादशे मासे चैत्रे नाििमके ितथौ॥८॥ नक्षत्रेऽह्लदितदैित्ये स्िोच्चसंस्थेषु र्ञ्चसु। ग्रहेषु ककप टे लग्ने िाक्र्ताििन्दुना सह॥९॥ प्रोद्यमाने जगन्नाथं सिपलोकनमस्कृ तम्। कौशल्याजनयद् रामं सिपलक्षण संयुतम्॥१०॥ = (र्ुत्र कामेिि= ऄश्वमेध) यज्ञ के ६ ऊतु बाद१२िें मास में चैत्र निमी ितिथ को र्ुनिपसु नक्षत्र (िजसका देिता ऄह्लदित है) में जन्म हुअ जब ५ ग्रह स्ि (स्थान) या ईच्च के थे। जब ककप लग्न, बृहस्र्ित और चन्ि का एक साथ ईदय हो रहा था, सभी लोकों से ििन्दत जगन्नाथ का भी ईदय हुअ तथा कौशल्या ने सभी लक्षणों से युक्त राम को जन्म ह्लदया। ऄगले ह्लदन र्ुष्य नक्षत्र, मीन लग्न में भरत का तथा ईसी ह्लदन ऄश्लेषा नक्षत्र में लक्ष्मण-शत्रुघ्न का जन्म हुअ जब सूयप ईच्च (१००) र्र थेर्ुष्यो जातस्तु भरतो मीनलग्ने प्रसन्नधीः। सार्े जातो तु सौिमत्री कु लीरे ऽभ्युह्लदते रिौ॥१५॥ ऄतः राम जन्म के समय सूयप ९० ऄंश र्र, चन्ि, गुरु, लग्न ९०००’१", तथा चैत्र निमी (सौर मास कह्ळ) थी। गुरु और सूयप प्रायः ईच्च र्र थे (आनका ईच्च १००, ९५० हैं), ऄन्य ५ ग्रह र्ूणप ईच्च के थे-मंगल २९८०, शुक्र ३५७०, शिन २०००। चन्ि का ईच्च ५८० है र्र ईसका स्थान ९०० ह्लदया है जो ईसका ऄर्ना स्थान है। है। बुध का ईच्च १६५० है र्र यह सूयप से २८० से ऄिधक दूर नहीं हो सकता। ऄतः बुध राहु-के तु कह्ळ गणना करनी होगी। राम कह्ळ ४७ र्ीढ़ी बाद बृहद्बल महाभारत में मारा गया। ऄतः राम का काल महाभारत (३१३८ इ.र्ू.) से प्रायः १३०० िषप र्ूिप होगा। ३५०१-४७०० इ.र्ू. के सभी िषों कह्ळ गणना करने र्र के िल ४४३३ इ.र्ू. में ही ऄयोध्या कह्ळ सूयोदय कालीन ितिथ निमी थी (चैत्र शुक्ल) जो ऄगले सूयोदय तक थी। आस गणना से राम का जन्म ११-२-४४३३ इ.र्ू., रिििार, १०-४७-४८ स्थानीय समय र्र हुअ।
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सूयोदय ५-३५-४८, सूयापस्त १८-२८-४८ था। ऄयनांश १९-५७-५४, प्रभि िषप था। ऄन्य ग्रह बुध २१०, राहु १२०४’४६"। श्री नरह्ऴसह राि कह्ळ र्ुस्तक- Date of Sri Rama, १९९०, १०२ माईण्ट रोड, मिास के ऄनुसार ऄन्य ितिथयां हैंजुिलयन ऄहगपण
इ.र्ू. ितिथ/िार
(१-१-४७१३ इ.र्ू. से)
िषप/मास,
ऄधपराित्र नक्षत्र
घटना
ऄधपराित्र ितिथ
१०२३११ ११-२-४४३३, रिि प्रभि, चैत्र शुक्ल ८.१९ र्ुनिपसु ८४.०७/र्ुष्य राम जन्म १०२३१२ १२-२-४४३३, सोम चैत्र शुक्ल ९.२
र्ुष्य ९७.२५/ऄश्लेषा-लक्ष्मण शत्रुघ्न का जन्म
१०२३२३ २३-२-४४३३ शुक्र चैत्र कृ ष्ण २०.३८ मूल २४२.१९ १२िें ह्लदन नामकरण संस्कार। १०६६८२ ३०-१-४४२१, बुध प्रमाथी, चैत्र ८.६७ अिाप ७८.११ राम का १३िां जन्मह्लदन, शिनशुक्र/राहु दशा। १०६६८९ -६-२-४४२१, बुद चैत्र १५.७८ हस्त १७०.१७ ििश्वािमत्र िारा राम-लक्ष्मण कह्ळ १० ह्लदन के िलये मांग। १०६६९० -७-२-४४२१, गुरु चैत्र १६.८० िचरा १८३.३४ कामाश्रम। १०६६९१ ८-२-४४२१, शुक्र चैत्र १७.८१ स्िाती १९६.५२ ताडका िन। १०६६९२ ९-२-४४२१ , शिन चैत्र १८.८३ ििशाखा २०९.७ िसद्धाश्रम। १०६६९३ १०-२-४४२१, रिि चैत्र १९.८५ ऄनुराधा २२.८७ यज्ञ रक्षा का अरम्भ। १०६६९८ १५-२-४४२१, शुक्र चैत्र २४.९२ श्रिण २८८.७५ यज्ञ के षष्ठ ह्लदन सुबाहु का िध, मारीच का र्लायन। १०६६९९ १६-२-४४२१, शिन चैत्र २५.९४ धिनष्ठा ३०१.९३ िमिथला के िलये प्रस्थान, ऄधपराित्र में चन्ि ईदय। १०६७०० १७-२-४४२१, रिि चैत्र २६.९६ शतिभषक् ३१५.११ सोन नद र्ार कर गंगा तट र्हुंचे। १०६७०१ १८-२-४४२१, सोम चैत्र २७.९७ र्ूिपभािर्द ३२८.२८ गंगा र्ारकर ििशाला र्हुंचे। १०६७०२ १९-२-४४२१, मंगल चैत्र २८.९९/ऄमािास्या ३०.०५ ईर्त्र भािर्द-गौतम अश्रम, ऄहल्या ईद्धार। १०६७०३ २०-२-४४२१, बुध, िैशाख ०.००४ रे िती ३५४.६४ जनक से धनुष ह्लदखाने का ऄनुरोध, धनुष भङ्ग। १०६७०४ २१-२-४४२१, गुरु िैशाख १.०१९ ऄिश्वनी ७.८१ जनक के दूत ऄयोध्या रिाना। १०६७०७ २४-२-४४२१, रिि िैशाख ४.०७ रोिहणी ४७.३४ दशरथ के र्ास दूत र्हुंचे। १०६७०८ २५-२-४४२१, सोम िैशाख ५.०८ मृगिशरा ६०.५१ दशरथ का िमिथला के िलये प्रस्थान। १०६७१२ १-३-४४२१, शुक्र िैशाख ९.१५ ऄश्लेषा ११३.२२ दशरथ िमिथला र्हुंच,े जनक से िमले। १०६७१३ २-३-४४२१, शिन िैशाख १०.१६ मघा १२६.४ जनक का १२ ह्लदिसीय यज्ञ मघा नक्षत्र में र्ूणप। १०६७१४ ३-३-४४२१, रिि िैशाख ११.१८ र्ूिापफाल्गुनी १३९.५८ गोदान अह्लद। १०६७१५ ४-३-४४२१, शुक्र िैशाख १२.२ ईर्त्रा फाल्गुनी १५२.७५ सीताराम िििाह १०६७१६ ५-३-४४२१, शुक्र िैशाख १३.२१ हस्त १६५.९३ ििश्वािमत्र का िहमालय प्रस्थान। १११०८१ १५-२-४४०९,शिन, खरिषप, चैत्र७.५९ र्ुनिपसु ८०.७३-श्रीराम का २५ िां जन्मह्लदन, युिराज का िनणपय। १११०८२ १६-२-४४०९, रिि, चैत्र ८.६१ र्ुष्य ९३.९१राज्यािभषेक के बदले िनिास, तमसा के ईर्त्र तट र्र राित्र। १११०८३ १७-२-४४०९, सोम चैत्र ९.६३ ऄश्लेषा १०७.०९ तमसा र्ार कर कोसल सीमा र्र। १११०८४ १८-२-४४०९, मंगल चैत्र १०.६४ मघा १२०.२६ गुह से िमलन। १११०८५ १९-२-४४०९, बुध चैत्र ११.६६ र्ूिापफाल्गुनी १३३.४४ गंगा नदी र्ार कर िनिासी िेश धारण।
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१११०८६ २०-२-४४०९, गुरु चैत्र १२.६८ ईर्त्रा फाल्गुनी १४६.६२ भरिाज अस्रम। १११०८७ २१-२-४४०९, शुक्र चैत्र १३.६९/र्ूह्सणमा७/२४ बजे से. हस्त १५९.७९-िचत्रकू ट के िलये प्रस्थान, यमुना तट। १११०८८ २२-२-४४०९, शिन चैत्र र्ूह्सणमा १४.७१ िचत्रा १७२.९७-िचत्रकू ट र्हुंचे। ििसष्ठ ने भरत के र्ास दूत भेजा। १११०८९ २३-२-४४०९ रिि चैत्र१५.७२-स्िाती १८६.१५भरत का दुःस्िप्न, दूत से खबर र्ाकर प्रस्थान, जम्बूप्रस्थ। १११०९० २४-२-४४०९, सोम चैत्र १६.७४-ििशाखा १९९.३२ भरत सिपतीथप र्हुंचे। १११०९१ २५-२-४४०९, मंगल चैत्र १७.७६-ऄनुराधा २१२.५-भरत सालिन में। १११०९२ २६-२-४४०९, बुध चैत्र १८.७७ ज्येष्ठा २२५.६७ ऄयोध्या कह्ळ तरफ। १११०९६ २-३-४४०९, रिि चैत्र २२.८३ श्रिण २७८.३८ -८िें ह्लदन सन्ध्या ऄयोध्या र्हुंचे, िर्ता कह्ळ मृत्यु का संिाद। १११०९७ २६-२-४४०९, बुध चैत्र २३.८५ धिनष्ठा २९१.५५ िर्ता का श्राद्ध। ११११०७ १३-३-४४०९ गुरु िैशाख ४.०१ मृगिशरा ६३.३२ र्ुण्याह िाचन। ११११०८ १४-३-४४०९ शुक्र िैशाख ५.०२ अिाप ७६.५ भरत िारा िर्ता का श्राद्ध र्ूणप। ११११०९ १५-३-४४०९ शिनिैशाख ६.०४ र्ुनिपसु ८९.६७ १३िीं ितिथ को सञ्चयन। १११११० १६-३-४४०९ रिि िैशाख ७.०६ र्ुष्य १०२.८५ भरत का राज्यािभषेक का प्रस्ताि ऄस्िीकार। ११११११ १७-३-४४०९ सोम िैशाख ८.०७ ऄश्लेषा ११६.०२ राम को बुलाने के िलये प्रस्थान। १११११२ १८-३-४४०९ मंगल िैशाख ९.०९ मघा १२९.२ सूयोदय मैत्र मुूर्त्प में गंगा र्ार भरिाज अश्रम में। १११११३ १९-३-४४०९ बुध िैशाख १०.११ र्ूिापफाल्गुनी १४२.३८ िचत्रकू ट में राम से िमलन। १११११४ २०-३-४४०९ गुरु िैशाख ११.१२ ईर्त्रा फाल्गुनी १५५.५५ राम कह्ळ र्ादुका के साथ भरत का प्रस्थान। १११११५ २१-३-४४०९ शुक्र,िैशाख१२.१४,हस्त १६८.७३,राक्षसों के भय से जनस्थान से अश्रमिािसयों का र्लायन। १११११६ २२-३-४४०९ शिन िैशाख १३.१५ िचत्रा १८१.९१ राम का िचत्रकू ट से प्रस्थान। १११११७ २३-३-४४०९ रिि िैशाख र्ूह्सणमा १४.१७ स्िाती १९५.०८ ऄित्र अश्रम सायंकाल चन्िोदय। १११११८ २४-३-४४०९ सोम िैशाख १५.१८ ििशाखा २०८.२६ ऊिषयों के ऄितिथ। १११११९ २५-३-४४०९ मंगल िैशाख १६.२ ऄनुराधा २२१.४३-ििराध िध, शरभङ्ग अश्रम, सुतीक्ष्ण। ११११२० २६-३-४४०९ बुध िैशाख १७.२२ ज्येष्ठा २३४.६१ िििभन्न ऊिषयों के अश्रम्ं में १० िषप तक िनिास। ११४७४२ २३-२-४३९९ शिन, ्लि-िषप,चैत्र ६.७९ र्ुनिपसु ७९.३८-३५िां जन्मह्लदन, िनिास का ११ िां िषप, ऄगस्त्य से िमलने चले। ११४७४३ २४-२-४३९९ रिि, चैत्र ७.८१ र्ुष्य ९२.५६ ऄगस्त्य के ऄनुज का अश्रम। ११४७४४ २५-२-४३९९ सोम, चैत्र ८.८२ ऄश्लेषा १०५.७४ ऄगस्त्य अश्रम, ब्रह्मास्त्र कह्ळ प्रािप्त। ११४७४५ २६-२-४३९९ मंगल, चैत्र ९.८४ मघा ११८.९१ र्ञ्चिटी मागप र्र जटायु से भेंट। ११५८१५ ३१-१-४३९६ सोम क्रोधी िषप, फाल्गुन १६.८५ िचत्रा १७७.६२ शूर्पणखा का अगमन, खर सेना से युद्ध। ११५८५५ २०-२-४३९६ रिि चैत्र ७.१६ र्ुनिपसु ८१.१४ राम का ३८िां जन्मह्लदन, सीता का हरण। ११६१०० १२-११-४३९६ शिन र्ौष ६.३८ र्ूिपभािर्द ३३२.८८ सीता कह्ळ खोज में सुग्रीि ने िानरों को भेजा। ११६१३० १२-१२-४३९६ सोम माघ ६.८५ ऄिश्वनी ८१.७ र्ूिप, र्िश्चम, ईर्त्र से िानर लौटे, हनुमान् महेन्ििगह्ऱर से लङ्का चले।
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११६१३८ २०-१२-४३९६ मंगल माघ १४.९७, र्ूह्सणमा १/१४ से, ऄश्लेषा ११३.५० सीता को हनुमान् ने राम का सन्देश ह्लदया। ११६१३९ २१-१२-४३९६ बुध माघ १५.९९ मघा १२६.७६ लङ्का दहन, सीता कह्ळ चूिामिण लेकर लौटे। ११६१४० २२-१२-४३९६ गुरु माघ १७.०१ र्ूिापफाल्गुनी १३९.३३ महेन्ििगह्ऱर र्र िार्स। ११६१४१ २३-१२-४३९६ शुक्र माघ १८.१५ ईर्त्रा फाल्गुनी १५३.११ राम को सीता का समाचार, ििजय मुूतप में प्रस्थान। ११६१५८ ९-१-४३९५ सोम, ििश्वािसु िषप, फाल्गुन ५.५, भरणी १७.११ समुि तट र्र महेन्ििगह्ऱर र्िपत र्हुंचे। ११६१५९ १०-१-४३९५ मंगल फाल्गुन ६.३१ कृ िर्त्का ३०.२८ ििभीषण का िनिापसन, राम कह्ळ शरण में, समुि से ििनय। ११६१६० ११-१-४३९५ बुध फाल्गुन ७.३२ रोिहणी ४३.४६ ईर्िास का िितीय ह्लदन। ११६१६१ १२-१-४३९५ गुरु फाल्गुन ८.३४ मृगिशरा ५६.६४ ईर्िास का तृतीय ह्लदन। ११६१६२ १३-१-४३९५ शुक्र फाल्गुन ९.३६ अिाप ६९.८१ राम का ऄिग्नबाण, नल नील िारा १४ योजन सेतु। ११६१६३ १४-१-४३९५ शिन फाल्गुन १०.३७ र्ुनिपसु ८२.९९ दूसरे ह्लदन २० योजन सेतु का िनमापण। ११६१६४ १५-१-४३९५ रिि फाल्गुन ११.३९ र्ुष्य ९६.१६ तीसरे ह्लदन २० योजन सेतु का िनमापण। ११६१६५ १६-१-४३९५ सोम फाल्गुन १२.४१ ऄश्लेषा १०९.३४ चौथे ह्लदन २० योजन सेतु का िनमापण। ११६१६६ १७-१-४३९५ मंगल फाल्गुन १३.४२ मघा१२२.५१ र्ांचिें ह्लदन २० योजन सेतु का िनमापण। ११६१६७ १८-१-४३९५ बुध फाल्गुन१४.४४र्ूिापफाल्गुनी१३५.६९-र्ुल र्ूण-प र्ार कर र्ूह्सणमा राित्र को सुबेल र्िपत र्र ११६१६८ १९-१-४३९५ गुरु फाल्गुन १५.४६ ईर्त्रा फाल्गुनी १४८.८७ ऄंगद को दूत भेजा, युद्ध अरम्भ। ११६१६९ २०-१-४३९५ शुक्र फाल्गुन १६.४८ हस्त १६२.०५-६ ह्लदनों का युद्ध। ११६१७४ २५-१-४३९५ बुध फाल्गुन २१.५६ ज्येष्ठा २२७.९२-आन्िजीत िारा लक्ष्मण कह्ळ मूछाप, हनुमान् िारा संजीिनी। ११६१७५ २६-१-४३९५ गुरु फाल्गुन २२.५७ मूल २४१.१-कु म्भ िनकु म्भ िध। ११६१७६ २७-१-४३९५ शुक्र फाल्गुन २३.५९ र्ूिापषाढ़ २५४.२८-राित्र में राम िारा मकराक्ष का िध। ११६१७७ २८-१-४३९५ शिन फाल्गुन २४.६ ईर्त्राषाढ़ २६७.४६-आन्िजीत िारा माया सीता का िध, लक्ष्मण से ३ ह्लदन युद्ध। ११६१८० ३१-१-४३९५ मंगल फाल्गुन २७.६५ शतिभषक् ३०८.९९-लक्ष्मण िारा मेघनाद िध। ११६१८१ १-२-४३९५ बुध फाल्गुन २८.६७ र्ूिपभािर्द ३२०.१६-सीता हत्या के बदले ऄगले ह्लदन प्रितर्दा को युद्ध। ११६१८२ २-२-४३९५ गुरु फाल्गुन २९.६८ ईर्त्रभािर्द/रे िती-३ ह्लदन राम रािण युद्ध, ऄगस्त्य िारा अह्लदत्य मन्त्र। ११६१८५ ३-२-४३९५ रिि चैत्र २.७३ कृ िर्त्का/रोिहणी-रािण िध, ईसका श्राद्ध। ११६१८६ ४-२-४३९५ सोम चैत्र ३.७४ -रोिहणी/मृगिशरा-ििभीषण का ऄिभषेक, सीता कह्ळ ऄिग्न र्रीक्षा। ११६१८७ ५-२-४३९५ मंगल चैत्र ४.७६ मृगिशरा/अिाप/र्ुनिपसु-र्ुष्र्क ििमान से ह्लकिष्कन्धा अगमन। ११६१८८ ६-२-४३९५ बुध चैत्र ५.७८ र्ुनिपसु/र्ुष्य-राम का राज्यािभषेक। १२७११८ २२-३४३६५ शिन- राम ने ब्रह्मलोक प्रस्थान ह्लकया। ऄन्य महार्ुरुषों कह्ळ ितिथयां
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िसद्धाथप बुद्ध-(१) जन्म िशशुनाग िनिापण-िषप ६८ (आसका अरम्भ २८-२-१९५५ इ.र्ू., रिििार), िैशाख शुक्ल १५, ३१३-१८८६ इ.र्ू., शुक्रिार, र्ूह्सणमा ५९ घटी२४ र्ल तक, ििशाखा नक्षत्र २४ घटी। (२) किर्लिस्तु के िलये प्रस्थान, ९६ िषप, २९-५-१८५९ इ.र्ू., रिििार, अषाढ़ र्ूह्सणमा सोमिार१६/४८ घटी तक, ईर्त्राषाढ ५० घटी से अरम्भ, सोमिार से एकान्तिास। (३) बुद्धत्ि प्रािप्त-१०३ िषप, ३-४-१८५१ इ.र्ू., बुधिार, िैशाख र्ूह्सणमा सूयोदय से ११ घटी र्ूिप तक, ििशाखा नक्षत्र १-८ घटी तक। (४) बुद्ध के िर्ता शुद्धोदन का देहान्त १०७ िषप, २५-६-१८४८ इ.र्ू., शिनिार, श्रािण र्ूह्सणमा २७ घटी से। (५) बुद्ध िनिापण-१४८ िषप, २७-३-१८०७ इ.र्ू., मंगलिार, िैशाख र्ूह्सणमा ३७-१२ घटी तक, ििशाखा नक्षत्र २६ को ५५-१२ घटी से २६ को १-१२ घटी तक। स्रोत-र्ं. कोटा िेङ्कटाचलम कह्ळ-बुद्ध, िमिलन्द, ऄिन्तयोक का काल तथा युग र्ुराण (१९५६), र्ृष्ठ ५६-५७, श्री राम साठे -बुद्ध कह्ळ ितिथ र्ृष्ठ १३६-१३७ (िही ईद्धरण)। गणना स्िामी कन्नु िर्ल्लै के र्ञ्चाङ्ग से कह्ळ गयी है। गौतम बुद्ध- सामान्यतः ४८३ इसा र्ूिप में िजस बुद्ध का िनिापण कहा जाता है, िह यही बुद्ध हैं िजनका काल किल कह्ळ २७ िीं शताब्दी (५०० इसा र्ूिप से अरम्भ) है। आन्होंने गौतम के न्याय दशपन के तकप िारा ऄन्य मतों का खण्डन ह्लकया तथा िैह्लदक मागप के ईन्मूलन के िलये तीथों में यन्त्र स्थािर्त ह्लकये। गौतम मागप के कारण आनको गौतम बुद्ध कहा गया, जो आनका मूल नाम भी हो सकता है। स्ियं िसद्धाथप बुद्ध ने कहा था ह्लक ईनका मागप १००० िषों तक चलेगा र्र मठों में िस्त्रयों के प्रिेश के बाद कहा ह्लक यह ५०० िषों तक ही चलेगा। अज कह्ळ धाह्समक संस्थाओं में भ्रिाचार ईनकह्ळ नजर में था। गौतम बुद्ध के काल में मुख्य धारा से िेष के कारण तथा िसद्धाथप िारा दृि दुराचारों के कारण आसका प्रचार शंकराचायप (५०९-४७६ इसा र्ूिप) में कम हो गया। चीन में भी आसी काल में कन्फ्युशस तथा लाओत्से ने सुधार ह्लकये। (भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप ३, ऄध्याय २१-सप्तह्ऴिशच्छते भूमौ कलौ सम्ित्सरे गते॥२१॥ शाक्यह्ऴसह गुरुगेयो बहु माया प्रितपकः॥३॥ स नाम्ना गौतमाचायो दैत्य र्क्षिििधपकः। सिपतीथेषु तेनैि यन्त्रािण स्थािर्तािन िै॥ ३१॥ ििष्णु ऄितार बुद्ध-२००० किल के कु छ बाद मगध (कह्ळकट) में ऄिजन ब्राह्मण के र्ुत्र रूर् में ईत्र्न्न हुये। दैत्यों का ििनाश आन्होंने ही ह्लकया, िसद्धाथप तथा गौतम मुख्यतः िेद मागप के ििनाश में तत्र्र थे। आसका मुख्य कारण था प्रायः ८०० इसा र्ूिप में ऄसीह्ऱरया में ऄसुर बिनर्ाल के नेतृत्ि में ऄसुर शिक्त का ईदय। ईसके प्रितकार के िलये अबू र्िपत र्र यज्ञ कर ४ शिक्तशाली राजाओं का संघ बना। ये राजा देश-रक्षा में ऄग्रणी या ऄग्री होने के कारण ऄिग्निंशी कहे गये-प्रमर (र्रमारसामिेदी ब्राह्मण), प्रितहार (र्ह्ऱरहार), चाहमान (चौहान), चालुक्य (शुक्ल यजुिेदी, सोलंकह्ळ, सालुंखे)। आस संघ के नेता होने के कारण ब्राह्मण आन्िाणीगुप्त को सम्मान के िलये शूिक ( ४ िणों या राअओं का समन्िय) कहा गया तथा आस समय अरम्भ मालि-गण-सम्ित् (७५६ इसा र्ूिप) को कृ त-सम्ित् कहा गया। व्यतीते ििसहस्राब्दे ह्लकिञ्चज्जाते भृगूर्त्म॥१९॥ऄिग्निारे ण प्रययौ स शुक्लोऽबुपद र्िपते। िजत्िा बौद्धान् ििजैः साधं ित्रिभरन्यैश्च बन्धुिभः॥२०॥(भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप, ३/३) बौद्धरूर्ः स्ियं जातः कलौ प्राप्ते भयानके । ऄिजनस्य ििजस्यैि सुतो भूत्िा जनादपनः॥२७॥ िेद धमप र्रान् ििप्रान् मोहयामास िीयपिान्।॥२८॥ षोडषे च कलौ प्राप्ते बभूिुयपज्ञिह्सजताः॥२९॥(भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप, ४/१२) ततः कलौ सम्प्रिृर्त्े सम्मोहाय सुरििषाम्। बुद्धो नाम्नािजनसुतः कह्ळकटेषु भििष्यित॥ (भागित र्ुराण १/३/२४) भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप (१/६)एतिस्मन्नेिकाले तु कान्यकु ब्जो ििजोर्त्मः। ऄबुपदं िशखरं प्रा्य ब्रह्महोममथाकरोत्॥४५॥ िेदमन्त्रप्रभािाच्च जाताश्चत्िाह्ऱर क्षित्रयाः। प्रमरस्सामिेदी च चर्हािनयपजुह्सिदः॥४६॥ ित्रिेदी च तथा शुक्लोऽथिाप स र्ह्ऱरहारकः॥४७॥ ऄिन्ते प्रमरो भूर्श्चतुयोजन ििस्तृता।।४९॥ 145
शंकराचायप-िचत्सुखाचायप का बृहत् शंकर ह्लदिग्िजयितष्ये (कलौ) प्रयात्यनल-शेििध-बाण-नेत्रे (२५९३) ऽब्दे नन्दने ह्लदनमणािुदगध्िभिज। राधे (िैशाखे) ऽह्लदतेरुडु (र्ुनिपसु नक्षत्रे) िििनगपत मङ्ग (धनु) लग्नेऽस्याूतिान् िशिगुरुः (िर्ता) स च शङ्करे ित॥ जन्म स्थान-के रल के र्ूणाप नदी तट र्र, १००४०’ ईर्त्र, ७६० र्ूिप। ४-४-५०९ इ.र्ू. मंगलिार, २२५२ बजे, प्राणर्द लग्न के ऄनुसार। सौर िषप का अरम्भ ९.५३४८ माचप ५०९ इ.र्ू. (९ माचप ईज्जैन मध्य सूयोदय ६ बजे के ०.५३४८ ह्लदन बाद), िैशाख शुक्ल १ का अरम्भ माचप २०.७६२३४ को। िैशाख शुक्ल र्ञ्चमी ३-४-५०९ इ.र्ू. ०९३४ बजे से, ४-४-५०९ इ.र्ू. ११३२ तक। र्ुनिपसु नक्षत्र ४-४-५०९ इ.र्ू. ०१३९ से ५-४-५०९, ०४०६ तक। ऄहगपण-सृिि ७,१४,४०,३२,४३,९६३ (रिििार=१), जुिलयन १-१-४७१३ से (मंगलिार =१) १५,३५,६०५, किल (गुरुिार =१)-९,४७,१४७। ४-४-५०९ इ.र्ू. को कालटी में सूयोदय ६-२७-३७ बजे भारतीय समय। २२५२ बजे-लग्न ८-२१०-२४’, प्राणर्द लग्न ८-२१०-२३’ , दशम भाि ५-२६०-४३’। ऄयनांश = -१००५८’९", सूयप िसद्धान्त से = -१६०५०’। ग्रह
मध्य(ऄंश)
स्र्ि
मन्दोच्च
सूयप
२३.६२
२५.३८
--
चन्ि
----
९०.६८
---
मंगल २७०.४८
३०५.१९ १३०.०२
बुध
१२८.६३
४४.३४
२२०.३९
गुरु
२४४.५३
२४७.४५
१७१.१८
शुक्र १७८.५१
६७.५३
७९.७८
शिन ३४६.४१
३४३.२२
राहु
३१.४७
----
२३६.६२ -----
श्रीकृ ष्ण-जन्म १९-७-३२२८ इ.र्ू., मथुरा (२७०२५’ ईर्त्र, ७७०४१’ र्ूिप) में मध्यराित्र। सूयप १३९० ४८’, चन्ि ४७०४२’, मंगल ९१००६’, बुध १५२०४८’, गुरु १४८०५४’, शुक्र १०२०५४’, शिन २२४०४२’, राहु १०६०२४’, लग्न ५००, ऄयनांश +५००४०’। कु छ ज्योितिषयों के काल (१) अयपभट-आनका काल महाभारत के कु छ बाद कहा गया है। आसका ऄथप ३६०० िषप बाद नहीं हो सकता। ईन्होंने महाभारत काल में प्रचिलत अयप (िर्तामह, स्िायम्भुि ब्रह्मा) का मत सुरिक्षत रखने के िलये अयपभटीय िलखा। यह्लद िह ३६०० किल में यह ग्रन्थ िलखते तो ईनको िशशुनाग, नन्द, शूिक, चाहमान, श्रीहषप, ििक्रम, शािलिाहन, कलचुह्ऱर तथा िलभी भङ्ग शकों का ज्ञान रहता तथा गणना के िलये ऄर्ने िनकटिर्त्ी शक का प्रयोग करते। आन्होंने ऄर्ना काल किल िषों में िलखा है, ईसके तुरत बाद कोइ नया शक अरम्भ नहीं हुअ था ऄतः के िल गुरु िषप के चक्रों कह्ळ गणना होती थी। ईनकह्ळ २३ िषप कह्ळ अयु में ६० िषों के ६ चक्र र्ूणप हुये। सुधाकर िििेदी ने थीबो साहब को प्रसन्न करने के िलये ६ चक्रों को ६० कर ह्लदया गया िजससे िह काशी संस्कृ त कालेज के प्राचायप बन गये। आसमें ऄंग्रेजों का ईर्द्ेश्य था ह्लक अयपभट का काल ग्रीक लेखकों के बाद ह्लकया जाय। ह्ऴर्गरी अह्लद ने सैकिों ऐसे लेख िलखे िजनमें यह ह्लदखाया गया ह्लक अयपभट कह्ळ 146
ज्या-सारणी िह्र्ाकप स कह्ळ नकल है, जबह्लक िह्र्ाकप स या ह्लकसी भी ग्रीक लेखक ने कोइ भी सारणी नहीं बनायी थी क्योंह्लक ईनकह्ळ संख्या र्द्धित में िभन्न संख्याओं कह्ळ गणना सम्भि नहीं थी-र्ूरा ग्रीक गिणत के िल तकप र्र अधाह्ऱरत है, गणना र्र नहीं। ’षष्ट्डब्दानां षिड्भयपदा’ को ’षष्ट्डब्दानां षिियपदा’ कर ह्लदया, र्र व्याकरण कह्ळ भूल रह गयी। गुणन ऄथप में तृतीया ििभिक्त होनी चािहये जैसा मूल श्लोक में था, प्रथमा ऄशुद्ध है। अयपभट ने ऄर्ना स्थान कु सुमर्ुर िलखा है जो ईनके काल के बाद १७४८ इ.र्ू. में िशशुनाग िंश के ईदािय ने बसाया था। आसका ऄथप है ह्लक कु सुमर्ुर र्हले से िशक्षा संस्थान के रूर् में था। यहां ििद्याथी को र्ुष्र् कहा गया है, र्ुष्र्िगह्ऱर या लिलत िगह्ऱर बौद्धकाल के ििद्यालय थे। अज भी ह्लकन्डरगाटेन का ऄथप यही है। कु सुमर्ुर का ऄनुिाद अज र्टना के र्िश्चम फु लिारीशरीफ नगर है, ईसके र्िश्चम खगोल नगर है जहां अयपभट कालीन खगोल िेधशाला थी। राजधानी बनने र्र राजभिन अह्लद के ऄलग ऄलग खण्ड बने िजनको र्टल (Sector) कहा जाता है, तब आसका नाम र्ाटिलर्ुत्र हुअ। मञ्जुल (मुञ्जाल) के लघुमानस में ईल्लेख है ह्लक िहां प्रकाशर्र्त्न (Lighthouse) था िजसका ऄर्भ्रंश र्टना हो गया। अयपभट-महािसद्धान्त-र्राशरमताध्याय (२) किलसंज्ञे युगर्ादे र्ाराशयं मतं प्रशस्तमतः। िक्ष्ये तदहं तन्मम मततुल्यं मध्यमान्यत्र॥१॥ एतित्सद्धान्तियमीषद्याते कलौ युगे जातम्। स्िस्थाने दृक् तुल्या ऄनेन खेटाः स्फु टाः कायापः॥२॥ श्री ििष्णुर्ुराण, प्रथम ऄंश, ऄध्याय १ॎ र्राशरं मुिनिरं कृ तर्ौिापिह्नकह्लक्रयाम्। मैत्रेयः र्ह्ऱरर्प्रच्छ प्रितर्त्यािभिाद्य च॥१॥ यन्मयं च जगद् ब्रह्मन्यतश्चैतश्चराचरम्। लीनमासीद्यथा यत्र लयमेतािन यत्र च॥५॥ यत् प्रमाणािन भूतािन देिादीनां च सम्भिम्। समुिर्िपतानां च संस्थानं च यथा भुिः॥६॥ सूयापदीनां च संस्थानं प्रमाणं मुिनसर्त्म। देिादीनां तथा िंशान्मनून्मन्िन्तरािण च॥७॥ कल्र्ान् कल्र्ििभागांश्च चातुयग ुप ििकिल्र्तान्। कल्र्ान्तस्य स्िरूर्ं च युगधमांश्च कृ त्स्नशः॥८॥ अयपभटीय, कालह्लक्रयार्ादमूल श्लोक-षष्ट्डब्दानां षिड्भयपदा व्यतीतास्त्रयश्च युगर्ादाः। त्र्यिधका ह्ऴिशितरब्दास्तदेह मम जन्मनोऽतीताः॥१०॥ र्ह्ऱरिह्सतत श्लोक- षष्ट्डब्दानां षिियपदा व्यतीतास्त्रयश्च युगर्ादाः। ….. अयपभटीय, गोलर्ाद-सदसज्ज्ञानसमुिात् समुद्धृतं ब्रह्मणः प्रसादेन। सज्ज्ञानोर्त्मरत्नं मया िनमग्नं स्िमितनािा॥४९॥ अयपभटीयं नाम्ना र्ूिं स्िायम्भुिं सदा िनत्यम्। सुकृतायुषोः प्रणाशं कु रुते प्रितकञ्चुकं योऽस्य॥५०॥ (२) िराहिमिहर-यह ििक्रमाह्लदत्य के एक निरत्न रूर् में प्रिसद्ध हैं तथा आन्होंने ऄर्नी जन्म ितिथ तथा ऄर्ने िारा प्रयुक्त सम्ित् दोनों का बहुत स्र्ि ईल्लेख ह्लकया है। र्र ईसमें दो भूलें हुयीं-सुधाकर िििेदी ने महािसद्धान्त कह्ळ भूिमका में युिधिष्ठर शक को ही महाभारत के ३६ िषप र्ूिप के बदले ६५३ िषप बाद कर ह्लदया। र्ं. कोटा िेङ्कटाचलम् ने युिधिष्ठर ऄिभषेक िषप के बदले ईनके िनधन िषप को युिधिष्ठर शक मान कर आस शक को इरान के काल्र्िनक डेह्ऱरयस शक (५५० इ.र्ू.) से िमला ह्लदया। डेह्ऱरयस का राज्य भारत के ह्लकसी भाग में नहीं था, र्िश्चम में ऄरब तक प्रसार था। डेह्ऱरयस का ऄिभषेक या िनधन कोइ भी आस काल में नहीं हुअ न डेह्ऱरयस या आरान के ह्लकसी राजा ने कोइ शक चलाया था। ऄलबरूनी के ऄनुसार िहां प्रित राजा के शासन काल से िषप गणना होती थी। आसके ऄितह्ऱरक्त भारत में युिधिष्ठर, किल, नन्द, शूिक, श्रीहषप अह्लद शक प्रचिलत थे, आरान के ऄज्ञात शक का प्रयोग करने का कोइ ऄिसर नहीं था। र्ञ्चिसद्धािन्तका -४२७ शक से गणना, िजस शक का अरम्भ ६१२ इ.र्ू. या युिधिष्ठर शक २५२६ में हुअ। ब्रह्मगुप्त के िर्ता िजष्णुगुप्त आनके समकालीन थे। ऄतः ब्रह्मगुप्त का ब्राह्म स्फु ट-िसद्धान्त ५५० शक (६१२-५५० = ६२ इ.र्ू.) में हुअ। आन दोनों के देहान्त के बहुत बाद ििक्रमाह्लदत्य के र्ौत्र शािलिाहन िारा ७८ इ. में शक अरम्भ हुअ िजसका प्रयोग ईनके िारा सम्भि नहीं है। ििक्रमाह्लदत्य काल में ही र्ुराणों का संशोधन बेताल भट्ट िारा हुअ। िजन स्थानों र्र ये सम्र्ादन कायप हुये ईनको ििशाला कहा गया (ईज्जैन, िैशाली)। आसके र्ूिप बदरी क्षेत्र में कृ ष्ण िैर्ायन ने ब्रह्म-सूत्र िलखा था, ऄतः ईसे भी ििशाल कहा गया
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था। शौनक को महाशाल कहा जाता था क्योंह्लक किल अरम्भ में ईन्होंने र्ुराणों का संशोधन ह्लकया था। ऄतः सूयप िसद्धान्त में मकर संक्रािन्त से ईर्त्रायण का अरम्भ है जैसे र्ुराणों में है। भििष्य र्ुराण, प्रितसगप (३/१)-एिं िार्रसन्ध्याया ऄन्ते सूतेन िह्सणतम्। सूयपचन्िान्ियाख्यानं तन्मया किथतं ति॥ प्रितसगप (२/२३/३५-३८)-ििशालायां र्ुनगपत्िा िैतालेन िििनह्समतम्। कथियष्यित सूतस्तिमितहाससमुच्चयम्॥ तन्मया किथतं सिं हृषीकोर्त्म र्ुण्यदम्। र्ुनह्सिक्रमभूर्ेन भििष्यित समाह्ियः॥ मेरौ मेषाह्लद चक्राधे देिाः र्श्यिन्त भास्करम्। सकृ देिोह्लदतं तिदसुराश्च तुलाह्लदगम्॥ (सूयप िसद्धान्त १२/६७) ििष्णु र्ुराण (२/८)-शरिसन्तयोमपध्ये ििषुिं तु ििभाव्यते। तुला मेषगते भानौ समराित्रह्लदनं तु तत्॥६७॥ ककप टाििस्थते भानौ दिक्षणायनमुच्यते। ईर्त्रायण्म्युक्तं मकरस्थे ह्लदिाकरे ॥६८॥ िराहिमिहर-कु तूहल मञ्जरी-स्ििस्त श्रीनृर् सूयपसूनुज-शके याते िि-िेदा-म्बर-त्रै (३०४२) मानाब्दिमते त्िनेहिस जये िषे िसन्ताह्लदके । चैत्रे श्वेतदले शुभे िसुितथािाह्लदत्यदासादभूद ् िेदाङ्गे िनर्ुणे िराहिमिहरो ििप्रो रिेराशीह्सभः॥ िराहिमिहर-बृहत् संिहता (१३/३)असन् मघासु मुनयः शासित र्ृथ्िीं युिधिष्ठरे नृर्तौ। षड् -ििक-र्ञ्च-िि (२५२६) युतः शककालस्तस्य राज्ञस्य॥ िराहिमिहर-बृहज्जातक, ऄध्याय २८-ईर्संहारअह्लदत्यदास तनयस्तदिाप्त बोधः कािर्त्थके सिितृलब्धिरप्रसादः। अििन्तको मुिनमतानिलोक्य सम्यग् घोरां िराहिमिहरो रुिचरां चकार॥९॥ ऄििन्तका में िनिास का महत्त्ि ििक्रमाह्लदत्य के काल में ही था। िराहिमिहर-बृहत् संिहता (३/१-२)-अश्लेषाद्धापर्द्िक्षणमुर्त्रमयनं रिेधपिनष्ठाद्यम्। नूनं कदािचदािसद्येनोक्तं र्ूिपशास्त्रेषु॥१॥ साम्प्रतमयनं सिितुः ककप टकाद्यं मृगाह्लदतश्चान्यत्। ईक्ताभािो ििकृ ितः प्रत्यक्षर्रीक्षणैव्यपिक्तः॥२॥ र्ञ्चिसद्धािन्तका, ऄध्याय ३ (र्ौिलश िसद्धान्त)ऄके न्दुयोगचक्रे िैधृतमुक्तं दशक्षप सिहते (तु) । यह्लद च(क्रं) व्यितर्ातो िेला मृग्या (युतैः भोगैः॥२०॥ अश्लेषाधापदासीद्यदा िनिृिर्त्ः ह्लकलोष्णह्लकरणस्य। युक्तमयनं तदाऽऽसीत् साम्प्रतमयनं र्ुनिपसुतः॥२१॥ र्ञ्चिसद्धािन्तका, ऄध्याय १-सप्तािश्विेद (४२७) संख्यं शककालमर्ास्य चैत्रशुक्लादौ। ऄधापस्तिमते भानौ यिनर्ुरे सौम्य ह्लदिसाद्यः॥८॥ = शक ४२७ चैत्र शुक्ल १ को जब सूयप का यिनर्ुर (रोमकर्र्त्न-ईज्जैन से ९० ऄंश र्िश्चम) में ऄधप ऄस्त (सूयप सन्ध्या से ईदय तक ऄस्त रहता है, ईसका मध्य ििन्दु मध्य राित्र होगा) हुअ, ईस ह्लदन सौम्य (सोम-र्ुत्र बुध) का था। रोमकर्र्त्न कह्ळ मध्य-राित्र ईज्जैन का सूयोदय होगा। श्री नरह्ऴसह राि के जगन्नाथ होरा से गणना करने र्र के िल िराहिमिहर िनर्कदि ६१२ इ.र्ू. का शक ही ठीक िनकलता है, ऄन्य काल्र्िनक शक नहीं(१) ६१२ इ.र्ू.- १८-२-१८५ इ.र्ू. में चैत्र शुक्ल१ का अरम्भ १८ ता. को १०-१०-२४ बजे हुअ। ह्लकन्तु ईज्जैन में सूयोदय ७-६-३९ बजे था, ऄतः १७-२-१८५ इ.र्ू. कह्ळ ितिथ ली जायेगी जो बुधिार है। (२) ५५० इ.र्ू.-र्िण्डत कोटा िेङ्कटाचलम् ने शक राजा का ऄथप इरान के प्रिसद्ध राजा डेह्ऱरऄस ह्लकया है, जो प्रायः आस काल में शासन कर रहा था। युिधिष्ठर शक का अरम्भ ३०७६ इ.र्ू. मानने र्र यह िषप अता है। तथािर् आसका कोइ अधार नहीं है-डेह्ऱरऄस का शासन ६७५-६२८ इ.र्ू. तक था, ईसने बेिबलोन र्र ऄिधकार ह्लकया था, भारत के ह्लकसी भाग र्र नहीं। ईसका कोइ भी शक इरान या बेिबलोन में भी प्रचिलत नहीं है क्योंह्लक ईसने कोइ शक अरम्भ ही नहीं ह्लकया था। शक का ऄथप शक जाित लेने के कारण ऐसी कल्र्नायें हुइ हैं। यह शक लेने र्र ४२७ िषप का अरम्भ ५-३-१२४ इ.र्ू. में होगा। चैत्र शुक्ल १ का अरम्भ ६-४४-२४ बजे, सूयोदय ६-५३-४४ बजे, ऄतः ४ माचप कह्ळ ितिथ गुरुिार।
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(३) ५७ इ.र्ू.-ििक्रम सम्ित्-स्र्ितः यह सम्ित् है, शक नहीं। र्र शक तथा सम्ित् का ऄथप नहीं जानने के कारण आसकह्ळ भी जांच कह्ळ जा रही है। ४२७ िषप का चैत्र शुक्ल १का अरम्भ ५-३-३७१ इ. को १-५६-३० बजे। ४ माचप गुरुिार को सूयोदय ६-५२-२० बजे। (४) ७८ इ.-शािलिाहन शक (क) ४२७ गम्य िषप-२०-२-५०५ रिििार, ८-०८-०८ से चैत्र शुक्ल १ अरम्भ, सूयोदय ७०-२२ बजे। ऄतः २१-२-५०५, सोमिार को िषप अरम्भ माना जायेगा। (ख) ४२७ गत िषप का चैत्र मास १३-३-५०६ को ५-०४ बजे अरम्भ। १२ ता. को सूयोदय ६-४४-१४, शुक्रिार। ऄतः िराहिमिहर का शक के िल ६१२ इ.र्ू. में ही ठीक है जो ईन्होंने स्ियं िलखा है। (३) ब्रह्मगुप्त काल- ब्रह्मगुप्त ने भी चाहमान शक का ही प्रयोग ह्लकया है िजसे िराहिमिहर ने ६१२ इ.र्ू. में अरम्भ बताया है। िह ऄर्ने तथा ऄन्य ग्रन्थों में भी िजष्णुगुप्त के र्ुत्र के रूर् में ही ििख्यात हैं। िजष्णुगुप्त के िर्ता ऄििन्तिमपन् (१०३३३ इ.र्ू.) के काल में ही ििक्रमाह्लदत्य ने र्शुर्ितनाथ में ऄर्ने सम्ित् का अरम्भ ह्लकया था। स्ियं िजष्णुगुप्त भी ऄल्र् समय (१ िषप से कम) के िलये नेर्ाल के राजा रहे। ऄिधकार से हटने के बाद िे ििक्रमाह्लदत्य के र्ास अ गये तथा िराहिमिहर, कािलदास-दोनों ने ईनको ऄर्ना समकालीन ज्योितषी बताया है। ब्रह्मगुप्त ने स्र्ि रूर् से ऄर्ना शक चार्िंश के ितलक का कहा है, िजसे र्ुराण में चर्हािन कहा गया है। यह ४ मुख्य राजिंशों में था िजनका संघ राजा शूिक कह्ळ ऄध्यक्षता में अबू र्िपत र्र ७५६ इ.र्ू. में बना था िजससे ऄसुर अक्रमण रोका जा सके । चर्हािन िंश के प्रमुख (चार्िंश-ितलक) ने ६१२ इ.र्ू. में ऄसीह्ऱरया कह्ळ राजधानी िननेिे को र्ूरी तरह ध्िस्त कर ह्लदया िजसका ईल्लेख बाआिबल में कइ स्थानों र्र है। आसी िलये आस ऄिसर का शक ििख्यात हुअ तथा आसका ििक्रमाह्लदत्य काल तक प्रचलन रहा। ब्राह्मस्फु टिसद्धान्त (२४/७-८) श्रीचार्िंशितलके श्रीव्याघ्रमुखे नृर्े शकनृर्ाणाम्। र्ञ्चाशत् संयक्त ु ै िपषपशतैः र्ञ्चिभरतीतैः॥ ब्राह्मः स्फु टिसद्धान्तः सज्जनगिणतज्ञगोलिित् प्रीत्यै। ह्ऴत्रशिषेन कृ तो िजष्णुसुतब्रह्मगुप्तन े ॥ भििष्य र्ुराण, प्रितसगप र्िप (१/६)एतिस्मन्नेिकाले तु कान्यकु ब्जो ििजोर्त्मः। ऄबुपदं िशखरं प्रा्य ब्रह्महोममथाकरोत्॥४५॥ िेदमन्त्रप्रभािाच्च जाताश्चत्िाह्ऱर क्षित्रयाः। प्रमरस्सामिेदी च चर्हािनयपजुह्सिदः॥४६॥ ित्रिेदी च तथा शुक्लोऽथिाप स र्ह्ऱरहारकः॥४७॥ ऄिन्ते प्रमरो भूर्श्चतुयोजन ििस्तृता।।४९॥ प्रितसगप (१/७)-िचत्रकू टिगह्ऱरदेशे र्ह्ऱरहारो महीर्ितः। काह्ऴलजर र्ुरं रम्यमक्रोशायतनं स्मृतम्॥१॥ राजर्ुत्राख्यदेशे च चर्हािनमपहीर्ितः॥२॥ ऄजमेरर्ुरं रम्यं िििधशोभा समिन्ितम्॥३॥ शुक्लो नाम महीर्ालो गत अनतपमण्डले। िारकां नाम नगरीमध्यास्य सुिखनोऽभित्॥४॥ ििष्णु (िजष्णु) गुप्तोऽिर् चैिं देि स्िामी िसद्धसेनश्च चक्रे | दोषश्चैषां जायते ऄिािह्ऱरिं िहत्िा नायुर्विशतेः स्याद् ऄधस्तात् || ७|| कािलदास-ज्योितह्सिदाभरण-ऄध्याय२२-ग्रन्थाध्यायिनरूर्णम्नृर्सभायां र्िण्डतिगाप-शङ् कु सुिाग्िररुिचमपिणरङ् गुदर्त्ो िजष्णुिस्त्रलोचनहरो घटखर्पराख्य। ऄन्येऽिर् सिन्त कियोऽमरह्ऴसहर्ूिाप यस्यैि ििक्रमनृर्स्य सभासदोऽमो ॥ᅠ२२.८ᅠ॥ ऄंशुिमपन् के कइ ऄिभलेख ईर्लब्ध हैं। िबना ह्लकसी प्रमाण के यह मान िलया गया है ह्लक ईनकह्ळ ितिथयां श्रीहषप शक (४५६ इ.र्ू.) में हैं तथा श्रीहषप को भी हषपिधपन (६०५-६४६ इस्िी) मान िलया गया है िजनकह्ळ ह्लकसी भी र्ुस्तक या जीिनी में हषपिद्धपन, बाणभट्ट या हुएनसांग िारा शक अरम्भ करने का कोइ ईल्लेख नहीं है। ऄंशुिमपन् के १३ ऄिभलेख आस िेबसाआट र्र ईर्लब्ध हैं, िजनकह्ळ ितिथयां दी जाती हैंhttp://indepigr.narod.ru/licchavi/content81.htm 149
(१) क्रमांक६९-सम्ित् ५३५ श्रािण शुक्ल ७-यह्लद आसे ४५६ इ.र्ू. के श्रीहषप शक में माना जाय तो आसका काल ७९ इस्िी होगा जो ईनके ३३ इ.र्ू. में देहान्त के बाद है तथा आस समय ७८ इ. का शािलिाहन शक अरम्भ हो चुका था। ऄतः चार् शक में यह ७७ इ.र्ू. का है जो ऄंशुिमपन् के शासन काल का है तथा ऄभी ििकम सम्ित् अरम्भ नहीं हुअ था। (२) क्रमांक ७६-सम्ित् २९, ज्येष्ठ शुक्ल १०-ऄचानक ऄंशुिमपन् का काल ५०० िषप र्ीछे नहीं जा सकता। ऄतः आसमें ििक्रम सम्ित् का प्रयोग है जो ५७ इ.र्ू. में अरम्भ हुअ। (३) क्रमांक ७७, सम्ित् ३०, ज्येष्ठ शुक्ल ६। (४) क्रमांक ७८, सम्ित् ३१, प्रथमा (मास का नाम लुप्त, र्र ऄगले लेख के ऄनुसार र्ौष होगा) र्ञ्चमी-आस िषप ऄिधक र्ौष मास था, ऄतः यह शुद्ध प्रथम शुक्ल र्क्ष कह्ळ ितिथ है। (५) क्रमांक ७९, सम्ित् ३१, िितीया र्ौष शुक्ल ऄिमी। (६) क्रमांक ८०, सम्ित् ३१, माघ शुक्ल १३। (७) क्रमांक ८१, सम्ित् ३२, अषाढ़ शुक्ल १३। (८) क्रमांक ८३, सम्ित् ३४, प्रथमा र्ौष शुक्ल २-ऄिधक मास का िषप। (९) क्रमांक ८४, सम्ित् ३६, अषाढ़ शुक्ल १२। (१०) क्रमांक ८५, सम्ित् ३७, फाल्गुन शुक्ल ५। (११) क्रमांक ८६, सम्ित् ३९, िैशाख शुक्ल १०। (१२) क्रमांक ८७, सम्ित् ४३, व्यतीर्ात-ज्येष्ठ कृ ष्ण (ितिथ लुप्त)। (१३) क्रमांक ८९, सम्ित् ४५, ज्येष्ठ शुक्ल (ितिथ लुप्त)। िजष्णुगुप्त के भी २ ऄिभलेख हैं, र्र ईनकह्ळ ितिथयां िमट गयीं हैं। ईनके कइ िसक्के िमले हैं िजनमॆं १ का िचत्र ह्लदया जाता है।http://en.wikipedia.org/wiki/Licchavi_(kingdom).
घोिे के उर्र ’श्री िजष्णुगुप्तस्य’ िलखा है। ऄतः ब्रह्मगुप्त ने ५५० शक ऄथापत् ६१२-५५० = ६२ इ.र्ू. में ब्राह्म-स्फु ट-िसद्धान्त िलखा जब ईनकह्ळ अयु ३० िषप थी। भारतीय सृिि ििज्ञान आसके र्ूिप अधुिनक सृिि ििज्ञान के मूल अधार जानना अिश्यक है। (१) आसका मूल अधार है-र्ूणप सृिि िसद्धान्त (PCP= Perfect Cosmological Principle)-हर िसद्धान्त के र्हले हम मान लेते हैं ह्लक ििश्व ३ प्रकार से सत्य (एक समान) है-हर स्थान र्र एक जैसा है (Homogenous), हर ह्लदशा में एक जैसा है (Isotropic), तथा हर समय एक जैसा है (Steady)। र्ूणप ििश्व को आसी कारण र्ुराणों मे सत्य लोक कहा गया है, क्योंह्लक यह ित्रसत्य है। ित्रसत्य के ऄन्य ऄथप भी हैं-न्याय दशपन के ३ प्रमाणों से िसद्ध-प्रत्यक्ष, ऄनुमान, शब्द। या नाम,
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रूर्, कमप से सत्य। या िनणपय के ३ प्रकार-सत्य (के न्ि सत्य), ऊत (सत्य का क्षेत्र), ऄनृत (ऄिस्तत्ि हीन)। जैन दशपन में ३ प्रकारों-ऄिस्त, नािस्त, स्यात्-को िमलाकर ७ प्रकार के सत्य कहे हैं। ३ तथा ७ सत्यों के रूर् में भगिान् कृ ष्ण कह्ळ स्तुित हैसत्यव्रतं सत्यर्रं ित्रसत्यं, सत्यस्य योह्ऴन िनिहतं च सत्ये। सत्यस्य सत्यं ऊत-सत्य नेत्रं, सत्यात्मकं त्िां शरणं प्रर्द्ये ॥ (भागित र्ुराण,१०/२/२६) मूल िेद ऄथिप का अरम्भ भी ित्र-सप्त से ही है-ये ित्रषप्ताः र्ह्ऱरयिन्त ििश्वाः। आसका सृिि क्रम के ऄनुसार ऄथप है ह्लक र्हले ७ लोक,ह्लफर ८ ह्लदव्य सृिि तथा ऄन्त में र्ृथ्िी र्र ६ प्रकार कह्ळ सृिि हुइ-ििश्व कह्ळ प्रितमा मनुष्य, िनजीि िमट्टी (मृत), ऄधप संज्ञक िृक्ष, तथा स्थल, जल, िायु के जीि। भगिान् कह्ळ सृिि आस क्रम ७८६ में हुइ ऄतः हम ऄर्ना काम भी ७८६ से अरम्भ करते हैं। यह ऄरब में प्रचिलत था जहां ऄथिाप को ब्रह्मा ने ब्रह्मििद्या र्ढ़ाइ। प्राचीन ऄरबी में आसका ऄक्षर कू ट था-िबिस्मल्ला। र्ुरुष सूक्त में आनको ७ र्ह्ऱरिध (लोक) तथा ित्रसप्त सिमधा कहा गया है-सप्तास्यासन् र्ह्ऱरधयः ित्रः सप्त सिमधः कृ ताः। (िा. यजु. ३१/१५) (२) ििश्व ह्लकसी भी स्तर र्र एक जैसा नहीं दीखता, ह्लफर कै से यह मान िलया ह्लक यह ३ प्रकार से सत्य है। १९३१ में जेम्स जीन्स ने ऄर्नी र्ुस्तक- Mysterious Universe में कहा ह्लक १००० ब्रह्माण्डों कह्ळ आकाइ लेने र्र यह एक समान होगा। र्र अज कह्ळ खोजों से लगता है ह्लक यह बिे से बिे स्तर र्र भी एक समान नहीं है। िस्तुतः ििििधता के कारण ही सृिि हुइ है-सो ऄकामयत्। बहुस्यां प्रजायेयेित। (तैिर्त्रीय ईर्िनषद् २/६/३) मूल रूर् एक जैसा था िजसे रस या अनन्द कहा गया है-यद् िै तत् सुकृतं रसो िै सः। रसं ह्येिाय लब्ध्िाऽऽनन्दी भिित। (तैिर्त्रीय ईर्िनषद् २/७/२)। िनह्समत ििश्व ह्लकसी भी रूर् में समरूर् नहीं है। ऄतः आस मान्यता र्र अधाह्ऱरत िसद्धान्त िास्तििक ििश्व कह्ळ व्याख्या नहीं कर सकते। (३) अधुिनक सृिि ििज्ञान के ह्लकसी भी िसद्धान्त कह्ळ प्रयोऄ िारा र्रीक्षा सम्भि नहीं है। ये मुख्यतः गिणतीय कल्र्नायें तथा सूत्र हैं िजनका भौितक रूर् स्र्ि नहीं है। (४) १९३१ में गोडेल के ऄर्ूणपता िसद्धान्त के ऄनुसार कोइ भी गिणतीय िसद्धान्त र्ूणप तथा तकप संगत-दोनों नहीं हो सकता। आसका ििस्तार कोहेन ने १९६१ में ह्लकया। ह्लकन्तु अआन्स्टाआन से अरम्भ कर कइ भौितक िैज्ञािनकों कह्ळ यह धुन रही ह्लक िे र्ूरे ििश्व का एकह्ळकृ त िसद्धान्त िनकालें। महह्सष महेश योगी ने भी िैह्लदक धारणा के ऄनुसार एकह्ळकृ त िसद्धान्त िनकाला। िे स्ियं भी भौितक ििज्ञानी थे। ह्लकन्तु एकह्ळकरण के नाम र्र २२ से ऄिधक िसद्धान्त प्रचिलत हो गये हैं। आनमें से कोइ भी िसद्धान्त िास्तििक ििश्व कह्ळ व्याख्या नहीं कर रहा है। आसके ििर्रीत िेदों में कहीं भी ििरोधाभास नहीं है। भौितक घटनाओं के ऄनुसार भाषायें बनी हैं। ह्लकन्तु िेद में अकाश तथा अन्तह्ऱरक ििश्व का भी आनसे सम्बन्ध ह्लदखाया गया है, ऄतः शब्दों के ऄथप का ििस्तार अिधदैििक तथा अध्याित्मक ििश्वों के िलये करना र्िता है। िेद िाक्यों का यह्लद ईनके ििश्व के ऄनुसार ऄथप करें तो कहीं भी सन्देह नहीं होगा। (५) ििश्व ह्लकतने अयामों का है आसमें सन्देह है। ला्लास के नीहाह्ऱरका िसद्धान्त में अकाश के ३ अयाम के ऄनुसार व्याख्या है। अआन्स्टाआन ने काल को एक अयाम मान कर अकाश-काल के ४ अयामों के ऄनुसार सार्ेक्षिाद का िसद्धान्त ह्लदया, िजसके २ रूर् हैं-ििशेष िसद्धान्त में गित या समय का ििा के ऄनुसार र्ह्ऱरितपन है। सामान्य िसद्धान्त में गुरुत्िाकषपण कह्ळ व्याख्या है। ईसके र्ूिप मैक ने ििश्व के कइ रूर्ों के बारे में िसद्धान्त तथा कल्र्नायें कह्ष। मैक्सिेल तथा ििलाडप िगब्स ने उष्मा-गितकह्ळ के ऄनुसार ििश्व िनमापण कह्ळ व्याख्या कह्ळ। अआन्स्टाआन के सामान्य िसद्धान्त के ऄनुसार ििश्व सदा फै लना चािहये। आस िनष्कषप को बदलने के िलये अआन्स्टाआन ने समीकरण में एक काल्र्िनक िस्थर रािश जोि दी। बाद में डी-िसटर तथा फ्रह्ळडमैन ने िबना िस्थर रािश के समीकरणों का हल िनकाला तथा ३ प्रकार के फै लने िाले ििश्व कह्ळ व्याख्या कह्ळ। बाद में ५, ६, ९, १०, ११ अयामों के िसद्धान्त िनकले। (६) अज ५ प्रकार कह्ळ ह्ऴस्रग (रस्सी) िथओरी तथा एक एम्-ह्ऴस्रग िथओरी (M-string theory) भी है। ये सभी १० अयाम का ििश्व मानते हैं तथा ििश्व का मूल १०-३५ मीटर का ह्ऴस्रग मानते हैं जो ्लांक के क्वाण्टम मेकािनक्स के ऄनुसार 151
लम्बाइ कह्ळ सबसे छोटी मार् है। आसमें अयामों का क्या ऄथप है यह स्र्ि नहीं है, न आनसे ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, अह्लद कह्ळ व्याख्या हो सकती है। (७) सलाम, िीनबगप अह्लद ने एक मूल बल से ४ प्रकार के बलों का ििभाजन समझाया तथा र्रमाणु कणों का िनमापण अह्लद के कु छ तत्त्िों कह्ळ व्याख्या कह्ळ। (८) काल सम्बन्धी २ अयाम हैं, र्र दूसरे काल का रूर् स्र्ि नहीं है। कु छ अयाम ऄनन्त, कु छ सीिमत हैं। िैह्लदक ििज्ञान-अधुिनक सृिि-ििज्ञान कह्ळ सीमाओं के र्ह्ऱरचय के बाद हम िैह्लदक ििज्ञान समझ सकते हैं। ििश्व के मूल स्रोत या चेतना के रूर् में ब्रह्म एक है, र्र ईसका यह रूर् र्रात्र्र है तथा िणपन से र्रे है। िनह्समत ििश्व में ििििधता है ऄतः आस का िणपन हो सकता है। र्र यह िणपन एक नहीं हो सकता। हम ज्यािमित में अकारों का िणपन करते हैं, र्र कोइ भी िास्तििक िर्ण्ड ज्यािमितक अकार का नहीं है। ग्रह, तारा को हम गोलाकार कहते हैं, र्र कोइ भी र्ूणप गोल नहीं है। ग्रह कक्षा को हम िृर्त्ाकार मानते हैं, र्र िह र्ूणप िृर्त् नहीं हैं। ईसमें दीघपिृर्त् या िनकटिर्त्ी ग्रहों के अकषपण के कारण संशोधन करना र्िता है। सभी िर्ण्ड एक सीमा के भीतर हैं, र्र गिणत के समीकरण अकाश के सभी ििन्दुओं र्र कु छ मान रखते हैं। हम ऄर्नी प्रशंसा के िलये कहते हैं ह्लक िेद में एक ही िसद्धान्त है। र्र ईसमें ििििधता के कइ कारण हैं(१) कइ ििर्रीत र्दाथप या प्रह्लक्रया हैं-ऄिग्न-सोम, र्ुरुष-प्रकृ ित, रस-बल, सञ्चर-प्रितसञ्चर, जीि-अत्मा, ब्रह्म-माया, िशिशिक्त अह्लद। (२) ििश्व ३ गुणों के कारण िनह्समत हुअ है। ईनका िमलन २३ = ८ प्रकार से हो सकता है जो ८ प्रकृ ित हैं, ऄतः िेदान्त दशपन के ८ प्रकार िणपन हो सकते हैं यद्यिर् यह िििभन्न ऊिषयों के मन्त्रों में एकत्ि का िणपन करता है। आसकह्ळ ८ व्याख्यायें हैं-(क) शंकर, (ख) िनम्बाकप , (ग) रामानुज, (घ) मध्ि, (ङ) िल्लभ, (च) ऄिभनिगुप्त, (छ) चैतन्य, (ज) तन्त्रागम। (३) २ तथा ३ के ििभाजन के कारण २ x ३ = ६ दशपन तथा ६ दशप िाक् (िलिर्) हैं। (४) हर िलिर् के कारण ऄलग ऄलग भाषायें हैं। ह्लकसी भी भाषा में शब्दों का प्रसंग ऄनुसार ऄथप बदलता है तथा ईनके नये ऄथप बनते रहते हैं। िक्ता तथा श्रोता का ज्ञान तथा धारणा ऄलग ऄलग और ऄिनिश्चत होती हैं। ऄतः एक ही िनिश्चत तथ्य न तो हो सकता है न िह िणपनीय है। (५) िेद में ही कइ प्रकार के ग्रन्थ हैं-(क) संिहता= मन्त्रों का संग्रह, (ख) ब्राह्मण = व्याख्या भाग, िजसमें ब्राह्मण, अरण्यक (प्रयोग) ईर्िनषद् (िसद्धान्त) हैं। (ग) र्ुराण १८ प्रकार के , (घ) अगम अह्लद। (६) ४ प्रकार कह्ळ संिहता-ऊक् , यजुः, साम, ऄथिप। (७) ४ प्रकार के र्ुरुष-क्षर, ऄक्षर, ऄव्यय, र्रात्र्र। (८) नासदीय सूक्त में १० प्रकार के सृिि िाद हैं तथािर् िह कहता है ह्लक ििश्व का मूल रूर् और िनमापण िििध ऄिनिश्चत तथा ऄनुमािनत है। आसके ऄितह्ऱरक्त मधुसूदन ओझा ने िेद में २ और िसद्धान्तों का िणपन ह्लकया है-ििज्ञानिाद, आितिृर्त्िाद। (९) सूयप िसद्धान्त का ही सृिि िणपन ४ िसद्धान्तों का समन्िय है-र्ुरुष-सूक्त, र्ाञ्चरात्र, भागित र्ुराण तथा सांख्य दशपन। गोडेल के ऄर्ूणपता िसद्धान्त से भी स्र्ि है ह्लक कोइ भी एक िसद्धान्त र्ूरी व्याख्या नहीं कर सकता। ऄतः कम से कम २ िसद्धान्तों का समन्िय अिश्यक है(१) र्ुरुष िसद्धान्त में छोटे तथा बिे ििश्वों का क्रम िह्सणत है। (२) श्री िसद्धान्त में अकाश क्षेत्र के १० अयामों का िणपन है, र्र यािन्त्रक ििश्व के िलये ५ अयाम र्यापप्त हैं िजनका भौितक ििज्ञान में िणपन है। चेतना के ५ और स्तर हैं िजनके िलये ६-१० अयाम हैं। (३) यज्ञ िसद्धान्त रचना या रूर् र्ह्ऱरितपन का ििज्ञान है। यह स्र्ि नहीं है ह्लक यह स्ितन्त्र है या र्ुरुष-श्री िसद्धान्तों से िसद्ध हो सकता है। र्ुरुष िसद्धान्त
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र्ुरुष िह है जो र्ुर में िनिास करे । जो र्ुर का ऄिधष्ठान (अधार या मिहमा) है ईसे दीघप स्िर के साथ र्ूरुष कहा गया है। र्ुर कोइ भी रचना है जो ह्लकसी छन्द (सीमा) के भीतर हो। सम्र्ूणप ििश्व तथा ईसका स्रोत भी र्ुरुष है। मनुष्य भी एक र्ुरुष है जो ििश्व कह्ळ प्रितमा कइ ऄथों में है। मनुष्य के मिस्तष्क में ईतने ही कोिषका (१०११) हैं िजतना ब्रह्माण्ड में तारों कह्ळ संख्या, या सम्र्ूणप ििश्व में ब्रह्माण्डों कह्ळ संख्या। ईन सभी रचनाओं को ििश्व कहते हैं जो र्ूणप, स्ितन्त्र, तथा एक के न्ि से िनयिन्त्रत हों। मनुष्य से बिे अकार के ििश्व क्रमशः १०७ गुणा बिे हैंमनुष्य-र्ृिथिी-सौरमण्डल-ब्रह्माण्ड-र्ूणप ििश्व= ५ स्तर मनुष्य से छोटे ५ ििश्व क्रमशः १०५ भाग छोटे हैं(१) किलल (cell), (२) जीि (atom), (३) कु ण्डिलनी (nucleus), (४) जगत् कण (particles) (५) देि-दानि (creative, inert energy-different types of quarks), (६) िर्तर (prototype), (७) ऊिष (string)। ऄतः मनुष्य के िन्ित ििश्व २ प्रकार के हैं-बिे ििश्व ५ हैं, र्रस्र्र ऄनुर्ात ७ हैं। छोटे ििश्व ७ हैं, ऄनुर्ात ५। ये ऄनुर्ात १० के घात में हैं, ऄतः ििश्व १० अयाम का है। अयामों का िसद्धान्त श्री िसद्धान्त है िजसकह्ळ ऄलग से व्याख्या है। कोइ भी अधुिनक सृिि िसद्धान्त बिे या छोटे ििश्वों के अकार के बीच सम्बन्ध नहीं बताता है। िे के िल औसत िस्थितयों कह्ळ चचाप करते हैं। छोटे ििश्वों में भी के िल र्रमाणु नािभ तक का ही अकार मार्ा जाताहै। ईससे छोटे आलेक्रोन, प्रोटोन अह्लद कण हैं, र्र ईनका अकार िस्थर नहीं है, गित या ईजाप के ऄनुसार ईनके तरं ग कह्ळ लम्बाइ कही जाती है। ईन तरं गों से ही ईनके अकार का ऄनुमान होता है ऄतः ईससे छोटे अकार के कण नहीं मार् सकते हैं, िे हमारे मार्दण्ड से भी छोटे हैं। र्रमाणु के १०० से ऄिधक प्रकार के कण हैं-िजनको ३ प्रकार का कहा गया है-चर (Lepton = हल्के गितशील), स्थाणु (Baryon = भारी) ऄनुर्ूिपशः (Meson = दो कणों को जोिने िाले)। जगत् (गितशील) कण से छोटे देि-दानि हैं। ईनमें के िल देिों से सृिि हुइ है, दानिों से नहीं। सौरमण्डल के ३३ क्षेत्रों (धाम) के प्राण रूर् ३३ देि हैं। प्रितक्षेत्र में ३ प्रकार के ऄसुर हैं-िृत्र (अिरण), बल (अिरक शिक्त), नमुिच (फे न, अिरण का सिन्ध स्थान)। ऄतः ऄसुर ९९ प्रकार के हैं। के िल देिों से ही सृिि हुइ, दानिों से नहीं। ऄतः मूल र्ुरुष का के िल १/४ भाग ही ििश्व के रूर् में िनह्समत हुअ, बाकह्ळ ३/४ ऄर्ह्ऱरिह्सतत (ऄमृत) है। िर्तर देि-दानिों के र्ूिप का स्तर है जो िनमापण ह्लक्रया का ऄस्थायी रूर् (Prototype) है। यह अधुिनक क्वाकप जैसा है। सबसे छोटा ऊिष है िजसका अकार १०-३५ मीटर है। अधुिनक क्वाण्टम यािन्त्रकह्ळ में भी आसे सबसे छोटी लम्बाइ के रूर् में ्लांक दूरी (Planck length) कहा गया है। ऊिष ऄसत् (ऄदृश्य) प्राण हैं जो श्रम तथा तर् से खींचते हैं, ऄतः ईनको ऊिष (रस्सी) कहा गया है। यही सूक्ष्म ऊिष सभी ह्ऴस्रग िसद्धान्तों का अधार है। बिे ििश्वों में चन्ि मण्डल को भी एक ििश्व माना गया है जो र्ृथ्िी के जीिन िनमापण में सहायक है। ऄतः मनुष्य से बिे ५, मनुष्य ६ठा, तथा छोटे ििश्व ७ = कु ल १३ हैं। ऄतः ज्योितष में १३ संख्या के िलये ििश्व का प्रयोग हुअ है। ििश्व र्ूणप दृश्य रचना है। जगत् ईसके भीतर कह्ळ ऄदृश्य ह्लक्रया है। जगत् के १४ स्तर हैं िजनको १४ भूत-सगप कहा गया है। ८ सत्त्ि-ििशाल ऄथापत् अकाश कह्ळ ह्लदव्य सृिि हैं-७ लोकों के औसत प्राण-स्तर, तथा एक प्राण (र्रोरजा = रज या लोकों से र्रे , ब्रह्म) सभी लोकों में समान। मनुष्य बीच में ितयपक् कहा गया है। तमोििशाल र्ृथ्िी के ऄन्य ५ प्रकार के जीि हैं-३ स्थल-जल-िायु के जीि, सुप्त-संज्ञक िृक्ष, लुप्त-संज्ञक िमट्टी (मृत्, मृदा)। श्री िसद्धान्त र्ुरुष िसद्धान्त में ििश्व-अकारों के ऄनुर्ात से ही स्र्ि है ह्लक ििश्व के १० अयाम हैं। आनके ऄनुसार १० महाििद्या, िसखों के १० गुरु, बाआिबल के १० ईर्देश हैं तथा दश (१०) से सम्बिन्धत शब्द दशा (िस्थित), ह्लदशा (अशा) हैं। १० अयामों के िलये १० प्रकार कह्ळ शािन्त कामना कह्ळ जाती हैकइ प्रकार से १० अयामों कह्ळ व्याख्या है153
(३) प्रकृ ित के ३ गुणों का१० प्रकार से िमलन। गुणों को संकेत के िलये स, र, त (सत्ि, रज, तम) िलखने र्र ये रूर् हैं-स, र, त, सर, सत, रत, रस (स गौण), तस, तर, सरत। (२) प्रकृ ित कह्ळ ५ तन्मात्रा (भौितक ििज्ञान के ५ मूल मार्दण्ड)। ये २ प्रकार के हैं-दृश्य या गणनीय (गणेश) तथा ऄदृश्य, भाि या रसयुक्त (सरस्िती)। (३) ििष्णु के ३ र्द ३ प्रकार के (क) र्द या क्रम से मार्दण्ड कह्ळ गित, (ख) चक्रम-अकाश क्षेत्र का सीमा-र्ृष्ठ, (ग) ििक्रम = मिहमा, ३ प्रकार का साम, ित्रसामा, (घ) मूल स्रोत रस या अनन्द। आदं ििष्णुह्सिचक्रमे त्रेधा िनदधे र्दम् । (ऊक् १/२२/१७) तििष्णोः र्रमं र्दं सदा र्श्यिन्त सूरयः। (ऊक् १/२२/२०) कालात् स्रििन्त भूतािन कालाद् िृह्ऴद्ध प्रयािन्त च। काले चास्तं िनयच्छिन्त कालो मूह्सर्त्रमूह्सर्त्मान्॥ अयामों के नाम हैं(१) ० अयाम ििन्दु रूर् अकाश-िचत् अकाश। ह्लकसी भी िचदाकाश में कु छ र्दाथप ऄनुभि योग्य है-िह सत् है। मूल र्दाथप अनन्द ऄनुभि से र्रे है। ब्रह्म के प्रत्येक ििन्दु र्र आस रूर् को सत्-िचत्-अनन्द कहते हैं। (२) १ अयाम-र्द, रे खा है िजसकह्ळ मार् ७ प्रकार के योजनों में है या सूक्ष्म ििश्वों के ७ प्रकार के ऄन्य मार्। (३) २ अयाम-र्ृष्ठ, सतह। (४) ३ अयाम-स्तोम, अयतन, अयु। (५) ४ अयाम-र्दाथप, ऄन्न, स्थूल ब्रह्म, आस रूर् में ब्रह्मा चतुमख ुप हैं। ऄशीित छन्द में मार्। (६) ५ अयाम-काल जो र्ह्ऱरितपन का अभास है। कोइ भी अभास या ज्ञान िशि रूर् है, ऄतः िशि को महाकाल कहते हैं, जो ५ मुख के हैं। काल के ३ रूर् िह्सणत हैं-िनत्य (सदा क्षरण, मृत्यु), जन्य (यज्ञ चक्र कह्ळ मार्), ऄक्षय (५ प्रकारके संरक्षण िसद्धान्त)। र्रात्र्र िणपन से र्रे है। (७) ६ अयाम-चेतना जो चयन कर सके । चयन कर्त्ाप ििष्णु है। प्रत्येक ििश्व का अिरण या बाह्य-रूर् माया है, ईनकह्ळ िचित या िमलन योगमाया या ििष्णु माया है। प्रत्येक चेतना ह्लक्रया तथा ईसका र्ूणप क्षेत्र या िचित देिी का रूर् हैया देिी सिपभूतेषु ििष्णुमायेित शिब्दता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नमः।(१४-१६) या देिी सिपभूतेषु चेतनेत्यिभधीयते, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नमः। (१७-१९) िचित रूर्ेण या कृ त्स्नमेतद् व्या्य िस्थता जगत्, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नमः। (७८-८०) (दुगाप सप्तशती, ऄध्याय ५) यज्ञो िै ििष्णुः स देिेभ्य आमां ििक्राह्ऴन्त ििचक्रमे यैषािमयं ििक्रािन्तः आदमेि प्रथमेन र्देन र्स्र्ार ऄथेदं ऄन्तह्ऱरक्षं िितीये न ह्लदिम्, ईर्त्मेन एतां एिैष एतस्मै ििष्णुः यज्ञो ििक्राह्ऴन्त ििक्रमते॥ (शतर्थ ब्राह्मण १/१/२/१३) होता भोक्ता हििमपन्त्रो यज्ञो ििष्णुः प्रजार्ितः। सिं किश्चत् प्रभुः साक्षी योऽमुिष्मन् भाित मण्डले॥ (मैत्रायणी अरण्यक ६/१४,१६) (८) ७ अयाम-ऊिष ह्लकसी भी २ िर्ण्डों के बीच का सम्बन्ध है जो ७ प्रकार का है-शरीर में ४ प्रकार के मूल बल हैं, समरूर्ता २ र्क्ष हैं, तथा स्रोत या र्ह्ऱरणाम (कारण-कायप) मुख, र्ुच्छ है। ऄसद् िा आदमग्र असीत्।तदाहुः-ह्शक तदसदासीत् आित। ऊषयो िाि तेऽग्र्ऽसदासीत्। तदाहुः-के ते ऊषय आती। प्राणा िा ऊषयः। ते यत् र्ुरा ऄस्मात् सिपस्माद् आदिमच्छन्तः श्रमेण तर्सा ऄह्ऱरषन् तस्माद् ऊषयः॥१॥ स यो ऄयं मध्ये प्राणः-एष एिेन्िः। तानेष प्राणान् मध्यत आिन्ियेण ऐन्ध। यद् ऐन्ध तस्माद् आन्धः। आन्धो ह िै तिमन्ि आत्याचक्षते र्रोऽक्षम्। र्रोऽक्षकामा िह देिाः। त आद्धाः सप्त नाना र्ुरुषान् ऄसृजन्त॥२॥ ते ऄब्रुिन्- न िा आत्थं सन्तः शक्ष्यामः प्रजनियतुम्, आमान् 154
सप्त र्ुरुषान्। एकं र्ुरुषं करिाम आित। त एतान् सप्त र्ुरुषानेकं र्ुरुषम् ऄकु िपन्। यद् उध्िं नाभेः तौ िौ समौब्जन्। यद् ऄिाङ् नाभेः तौ िौ। र्क्षः र्ुरुषः र्क्षः र्ुरुषः प्रितष्ठा एक असीत्॥३॥ ऄथ यैतष े ां सप्तानां र्ुरुषाणां श्रीः, यो रस असीत् तमूध्िं समुदौहन्-तदस्य िशरोऽभित्। यिच्ियंसमुदौहन् तस्मात् िशरः। तिस्मन् एतिस्मन् प्राणा ऄश्रयन्त। तस्माद् एि एतत् िशरः। ऄथ यत् प्राणा ऄश्रयन्त तस्मादु प्राणा िश्रयः। ऄथ यत् सिपिस्मन् ऄश्रयन्त तस्मादु सरीतम्॥४॥ (शतर्थ ब्राह्मण ६/१/१) (९) ८ अयाम-नाग-िृत्र, ऄिह अह्लद-यह ह्लकसी भी िर्ण्ड को गोलाकार रूर् में सीिमत करता है। िृत्रो ह िा आदं सिं िृत्िा िशष्ये ... तस्माद् िृत्रो नाम। (शतर्थ ब्राह्मण १/१/३/४) (१०) ९ अयाम-रन्ध्र-नन्द, िछि अह्लद। यह ह्लकसी ििन्दु र्र र्दाथप या ईजाप कह्ळ कमी है िजसको र्ूणप करने के िलये गित, ह्लक्रया होती है। निो निो भिित जायमानोऽह्ना के तुरूर्ं मामेत्यग्रम्। (ऊक् १०/८५/१९) (११) १० अयाम-रस या अनन्द-यह शून्य अयाम जैसा है। मूल तत्ि सिपव्यार्ी मूल स्रोत र्दाथप रस है िजसे र्ाने से अनन्द होता है। यािन्त्रक ििश्व कह्ळ व्याख्या के िलये ५ अयाम र्यापप्त हैं िजनका भौितक ििज्ञान में व्यिहार होता है। भौितक ििज्ञान में ही ईष्मागितकह्ळ के िितीय िसद्धान्त में कहा है ह्लक कोइ भी िनजीि संहित हर ह्लक्रया में ऄिधक ऄव्यििस्थत हो जाती है। ऄथापत् व्यिस्था या िचित करने िाला तत्ि जीि या चेतना है। चेतना के ५ रूर् (यािन्त्रक को िमलाकर ६) ऄितह्ऱरक्त ५ अयाम हैं। यच्चेतयमाना ऄर्श्यंस्तस्मािच्चतयः। (शतर्थ ब्राह्मण ६/२/२/९) तद्यत् र्ञ्च िचतीिश्चनोित एतािभरे िैनं तर्त्नूिभिश्चनोित यिच्चनोित तस्मािच्चतयः। (शतर्थ ब्राह्मण ६/१/२/२७) प्रजार्ितिव िचत्र्ितः। (शतर्थ ब्राह्मण ३/१/३/२२) आनके ऄनुरूर् ६ दशप या दशप िाक् (िलिर्) हैं। ५ से १० अयाम तक दशपन के िजतने तत्ि हैं, ईसके ऄनुरूर् िलिर् में ईतने ही ऄक्षर हैं५ अयाम-सांख्य दशपन के ५२ तत्ि-रोमन िलिर् में ५२ िणप। ६ अयाम-शैि दशपन के ६२ तत्ि, लैह्ऱटन, रूसी, तिमल, गुरुमुखी में ६२ िणप। ७ अयाम-७२ मरुत्, देिनागरी के ७२ िणप। ८ अयाम-ब्रह्म कह्ळ ८२ कला, ब्राह्मी िलिर् में ६३ या ६४ िणप। ९ अयाम-िेद कह्ळ ििज्ञान िाक् में (८+९)२ िणप-३६ x ३ स्िर, ३६ x ५ व्यञ्जन, १ ॎ। १० अयाम-व्योम (ितब्बत ) से र्रे चीन, जार्ान में १०३ से १०४ िणप। यह ििभाजन ऊग्िेद (१/१६४/२५) में है-गौरीह्सममाय सिललािन तक्षत्येकर्दी सा ििर्दी चतुष्र्दी ऄिार्दी निर्दी सा बुभूिुषी सहस्राक्षरा र्रमे व्योमन् ॥ प्रादेशमात्रो िै गभो ििष्णुः। (शतर्थ ब्राह्मण ६/५/२/८, ६/६/२/१२, ७/५/१/१४) यज्ञ िसद्धान्त (१) यज्ञ का ऄथप-यज्ञ का ऄथप है चक्रह्ळय क्रम में ईर्योगी िनमापण। ईर्योगी का ऄथप है ह्लक ऄक्षर र्ुरुष कह्ळ ह्लक्रया चलती रहे। िैशेिषक दशपन के ऄनुसार कोइ नया िनमापण नहीं होता, के िल ऄणुओं का नये प्रकार से िमलन होता है। अकाश में िनमापण के ५ र्िप (स्तर) कहे गये हैं-(१) स्िायम्भुि मण्डल (र्ूणप ििश्व, स्ियं िनह्समत), (२) ब्रह्माण्ड-आसका कू मप चक्र या गोलोक में िनमापण। र्ूणप ब्रह्म का एक ऄण्ड, सबसे बिी रचना (आिक = ईंट) होने से र्रमेष्ठी या र्रम गुहा, मध्य में घूमता चक्र अकाशगंगा। (३) सौर मण्डल, (४) चान्ि मण्डल (चन्ि कक्षा के अकार का गोल, (५) भूमण्डल।
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र्दाथप के तत्त्िों के रूर् में िनमापण का क्रम है-ऊिष, िर्तर, देि-दानि, जगत् कण, कु ण्डिलनी, जीि, किलल, मनुष्य। यहां ऊिष,िर्तर-ये २ ऄसत् प्राण हैं, ईसके बाद ६ठी िचित मनुष्य है। या अकाश के ५ र्िों के बाद मनुष्य ६ठी िचित है। आित तु र्ञ्चम्याहुतािार्ः र्ुरुष िचसो भििन्त (छान्दोग्य ईर्िनषद् ५/९/१) कोइ भी िनह्समत िस्तु क्षय होते होते ऄन्ततः नि हो जाती है, ऄतः सीमा बद्ध (छन्द) िस्तु को क्षर या िृक्ष के र्र्त्े जैसा कहा गया है। ह्लकन्तु िनमापण का क्रम चलता रहता है। संकल्र्-प्रकल्र्-कमप-फल-नयी आच्छा-संकल्र् अह्लद का ऄनन्त चक्र चलता रहता है। यह ऄव्यय र्ुरुष या ऄििनाशी ऄश्वत्थ कहा गया है। (२) र्ाङ्क्त यज्ञ-अकाश के ५ र्िों के समान मनुष्य के भी ५ दैिनक कमप हैं। ब्रह्म के कर्त्ाप रूर् (करतार) के िसख धमप में प्रतीक रूर् ५ ककार हैं। रुियामल में ५ दैिनक ईर्ासना का िणपन है, जो आस्लाम के ५ नमाज कह्ळ तरह है। ह्लदन-रात के ५ सिन्ध हैं, सूयप का ईदय, ऄस्त, मध्याह्न, मध्य राित्र। एक यज्ञ ऄििभक्त ब्रह्म के िलये िमलाकर कु ल ५ होते हैं। गृहस्थों के िलये ित्रकाल सन्ध्या है, मध्य राित्र में सभी सोये रहते हैं, ईसे छोि कर। मनुस्मृित (३/७०) में दैिनक ५ महायज्ञ हैं१. ब्रह्म यज्ञ=ऄध्ययन। २. िर्तृ यज्ञ= िर्तर ऄथापत् ऄर्नी ईत्र्िर्त् के स्रोतों का ऊण लौटाना। ३. दैि यज्ञ=बाह्य तथा अन्तह्ऱरक प्राणों को सशक्त करना। ४. भूत यज्ञ-िनकट के प्राणी, मनुष्य तथा र्शु कह्ळ देखभाल जो हमारे सहायक हैं। ५. नृयज्ञ-ऄितिथ सत्कार। तैिर्त्रीय ईर्िनषद् में ५-५ यज्ञ कहे गये हैं। ब्रह्म सूत्र में आसे र्ञ्चीकरण कहा गया है। ३ अिधभौितक िगों र्र ३ अध्याित्मक िगप िनभपर हैंऄिधभूत-१. र्ृथ्िी, ऄन्तह्ऱरक्ष, द्यौ, ह्लदशा, ऄिान्तर ह्लदशा। २. ऄिग्न, िायु, अह्लदत्य, चन्ि, नक्षत्र। ३. अर््, ओषिध, िनस्र्ित, अकाश, अत्मा। ऄध्यात्म-४. प्राण, ऄर्ान, व्यान, ईदान, समान। ५. चक्षु, श्रोत्र,मन, िाक् , प्राण। ६. चमप, मांस, स्नायु, ऄिस्थ, मज्जा। ऐतरे य ब्राह्मण (१/५) में ऄन्य प्रकार से ५ यज्ञ कहे गये हैंऄन्न र्ंिक्त-१. र्ाक यज्ञ (गुह्य)-र्दाथों का अन्तह्ऱरक र्ह्ऱरितपन दीखता नहीं है। २. आिि-तात्कािलक आच्छा र्ूह्सर्त् के िलये। ३. र्शु-साधन रूर् प्राणी या िस्तु, ४ सोम-फै ला र्दाथप, २ से ४ तक िितान (= ििस्तार या प्रसार) यज्ञ कहे गये हैं। आन्हें सुत्या-एक के बाद एक का क्रम कहा जाता है। ५. ऄिग्न चयन-िर्ण्डों को ऄर्ने ईिचत स्थान र्र रखना। आसे िचत्या (िचित, प्रारूर् करने िाला) कहा गया है। हिि र्ंिक्त-१. धन, २. करम्भ, ३. र्ह्ऱरिार्, ४. र्ुरोडाश, ५. र्यस्य। ऄक्षर र्ंिक्त-१. सु = अनन्द, २. मत् = मन, ३. र्त् = ििज्ञान, ४. िक् = िाक् , दे = प्राज्ञ। नराशंस र्ंिक्त (ईिच्छि र्दाथप का ईर्योग)-(१) प्रातः सिन- २ नराशंस, (२) माध्यिन्दन सिन-२ नराशंस, (३) सायं सिन-१ नराशंस = कु ल ५ नराशंस। 156
सिन र्ंिक्त-१. ईर्िसथ र्शु (ऄिग्नसोमीय र्शु), २. प्रातः सिन, ३. माध्यिन्दन सिन, ४. सायं सिन, ५. ऄनुबन्ध्य र्शु (मैत्रािरुण िारा िनयिन्त्रत) आन िगों का अधार है-१. ईर्लब्ध र्शु, ईर्भोग कह्ळ िििध, ३. आच्छा कह्ळ र्ूह्सर्त्, ४. िनमापण का ईर्भोग या ईर्योग, ५. मनुष्य तथा साधनों का ईर्योग का समय। (३) प्राकृ ितक यज्ञ-प्रकृ ित के िनरन्तर चलने िाले यज्ञ ५ प्रकार के हैं१. र्ाक यज्ञ, २. हिियपज्ञ, ३. महायज्ञ, ४. ऄितयज्ञ, ५. िशरोयज्ञ। १. र्ाकयज्ञ ७ प्रकार के हैं-१. ऄिका, २. ऄन्ििका, ३. र्ािपण श्राद्ध, ४. श्राििण, ५. अग्रहायणी, ६. चैत्री, ७. अश्वयुजी। २. हिियपज्ञ १३ प्रकार के हैं१. आिि यज्ञ-७ २. र्शुबन्ध-४, ३. िर्त्र्य यज्ञ-२ १. ऄग्न्याधान, १. िनगूढ़ १. िर्त्र्य यज्ञ २. ऄिग्नहोत्र २. ऄिग्नषोमीय २. महा िर्त्र्य यज्ञ ३. दशपर्ण ू पमास ३. सौत्रामिण
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४. चातुमापस ४. चयनीय ५. अग्रयण ६. आष्ट्डायन ७. काम्येिि
४ ऄितयज्ञ१. मेधयज्ञ (राजह्सष के िलये)-१. ऄश्वमेध, २. गोमेध, ३. र्ुरुषमेध, ४. सिपमेध। २. राजसूय (राजा के िलये) ३. िाजर्ेय (ब्राह्मण का) ४. ऄिग्नचयन (ब्रह्मह्सष के िलये) ५. िशरोयज्ञ-१. धमपयाग, २. प्रिग्यप याग, ३. सम्राड् याग, ४. महािीरोर्ासन। 157
(४) १८ यज्ञ-मुण्डकोर्िनषद् में आनको १८ दुबल प नाि कहा गया है्लिा ह्येते ऄदृढा यज्ञरूर्ा ऄिादशोक्तमिरं येषु कमप। (मुण्डकोर्िनषद् १/२/७) १७ यज्ञों का िनदेश ४, ४, ५, २, २ ऄक्षरों के शब्दों से ह्लकया गया है। १८िां यज्ञ सिप-यज्ञ हैचतुह्सभश्च चतुह्सभश्च िाभ्यां र्ञ्चिभरे ि च। ूयते च र्ुनिापभ्यां तस्मै यज्ञात्मने नमः॥ ओश्रािय ऄस्तुश्रौषट्
ये यजामहे
यज
िौषट्
१,२,३,४ ५,६,७,८ ९,१०,११,१२,१२,१३ १४,१५ १६,१७ ओश्रािय-आित िै देिाः र्ुरो िातं ससृिजरे । ऄस्तु श्रौषट् -आित ऄभ्रािण सम्लाियन्। यज-आित ििद्युतम्। येयजामहे-आित स्तनियत्नु। िषट्कारे णैि प्रािषपन्। (शतर्थ ब्राह्मण १/५/२/१८) देिताओं ने र्ुरिा हिा को ईत्र्न्न करने के िलये कह्-ऄस्तु श्रौषट् । बादलों को लाने के िलये कहा-ऄस्तुश्रौषट् । िबजली कह्ळ चमक के िलये कहा-यज। ईनकह्ळ गिगिाहट के िलये कहा-ये यजामहे। िषाप कह्ळ बून्दों के िगरने के िलये कहा-िौषट् । आनमें प्रथम तथा ऄिन्तम का काशी क्षेत्र में प्रचलन है। कृ िष मुख्य यज्ञ है तथा ईसका मुख्य क्षेत्र िैह्लदक युग में काशी, िमिथला थे। गीता में भी यज्ञ चक्र का िणपन कृ िष के सम्बन्ध में ही है। र्ुरिा हिा बहने र्र ईससे धान कह्ळ भूसी ऄलग करते हैं-ईसे ओसाि (= ओश्रािय) कहते हैं। िषाप ६ ऊतुओं में प्रमुख है तथा ईसी से िषप अरम्भ होता था (िमिथला में ऄभी भी)। सूयप कह्ळ िाक् ६ भाग में है, िजसे िौषट् (= िाक् िै षट् , िषट्कार-शतर्थ ब्राह्मण १/७/२/२१) कहते हैं। ईसी के समान र्ृथ्िी र्र भी ६ ऊतुयें हैं, िजनमें िषाप मुख्य या प्रथम होने से िौषट् है। यज्ञ के ५ भाग हैं, ईसी प्रकार मन्त्र के ५ भाग हैं जो िषाप के ५ लक्षण बताते हैं। ये यज्ञ अकाश के १७ क्षेत्रों के यज्ञ के प्रितरूर् हैं। अकाश के स्तोम (अयतन) ईसकह्ळ ित्रज्या कह्ळ मार् (ऄहगपण) के ऄनुसार हैं७ र्ृष्ठ्य (सतह) स्तोम-३, १५, १७, २१, २७, ३३। ७ ज्योितस्तोम-ऄिग्न, ऄत्यिग्न, ईक्थ्य, ऄितरात्र, िाजर्ेय, अप्तोयापम। ३ छन्दोमा स्तोम- २४ (गायत्र), ४४ (ित्रिु र्)् , ४८ (जागत) महाव्रत-२५ स्तोम। सिप यज्ञ-सिप स्तोम। गीता के यज्ञ-गीता (३/१०-१६) में यज्ञ तथा आसके चक्र कह्ळ र्ह्ऱरभाषा है तथा (४/२४-३२) में कइ प्रकार के यज्ञों का िणपन है िजनकह्ळ चचाप र्हले कह्ळ जा चुकह्ळ है। (५) र्दाथों का िमलन-र्ं. मधुसूदन ओझा के संशय तदुच्छे दिाद के यज्ञैकसत्योर्िनषद् ऄध्याय में र्दाथों के िमलन के अधार र्र ४ प्रकार का ििभाजन ह्लकया है। आस दृिि से यज्ञ कह्ळ र्ह्ऱरभाषा है एक का दूसरे में लय होना। ४ प्रकार के सम्बन्ध हैं१. ब्रह्म-कमप यज्ञ-ब्रह्म का कमप में लय या अहुित ब्रह्मा का ह्लदन है तथा कमप कह्ळ ब्रह्म में अहुित ब्रह्मा कह्ळ राित्र है। २. जीि इश्वर यज्ञ-तत् सृष्ट्िा तदेि ऄनुप्राििशत् (तैिर्त्रीय ईर्िनषद् २/१) ३. प्राण यज्ञ-ये ३ प्रकार के हैं-(क) मन प्राण, (ख) मन-िाक् , (ग) प्राण-िाक् । शिक्त के ऄनुसार प्राण ४ स्तर के हैं-र्रोरजा, अग्नेय, सौम्य, अ्य। ह्लक्रया के ऄनुसार ७ प्रकार के हैं जो मुण्डकोर्िनषद् (१/२/४, २/१/८) के ऄनुसार ऄिग्न कह्ळ ७ िनगलने िाली िजह्िा से बने हैं। ईगलने (ऄह्सच) के िलये भी ७ िजह्िा हैं-कु ल १४ (मनु) िजह्िा हैं-ऄिग्निजह्िा मनिः (ऊक् १/८९/७)। ह्लक्रयात्मक ऄंगों के कारण प्राण को सुर्णप कहा गया है, जो रस-रूर् समुि में प्रिेश कर भूिम, जीिों कह्ळ सृिि करता है। सृिि क्षेत्र (भूिम) माता है, रिचत र्दाथप र्ुत्र है। दोनों एक दूसरे का र्ालन करते हैं (गीता ३/१०-र्रस्र्रं भाियन्तः)। यह प्राण-िाक् यज्ञ है158
एकः सुर्णपः स समुिमािििेश स आदं भुिनं िि चिे। तं र्ाके न मनसार्श्यमिन्ततस्तं माता रे िळ्ह स ई रे िळ्ह मातरम्॥ (ऊक् १०/११४/४) मन िाक् यज्ञ का क्रम तैिर्त्रीय ईर्िनषद् (२/१) में है-मन-अकाश-िायु-ऄिग्न-ऄर््-र्ृिथिी। लय क्रम में ये क्रमशः ऄर्ने स्रोतों में लीन होते हैं। मन में कोइ कमप नहीं है, ईसकह्ळ प्राण में अहुित से कमप होता है। समािध में कमप का मन में लय होता है। लीन िव्य ऄन्न है, िजसमें लय होता है िह ऄन्नाद है। ऄन्न-ऄन्नाद यज्ञ का सामिेद में ईल्लेख हैऄहमिस्म प्रजा ऊतस्य र्ूिप देिभ्े यो ऄमृतस्य नाम। यो मां ददाित स आदेिमािदहमन्नमन्नमदन्तमिद्म॥५९४॥ ज्ञान ह्लक्रया यज्ञ का क्रम ईदयनाचायप ने न्याय कु सुमाञ्जिल में कहा हैज्ञानजन्या भिेह्लदच्छा आच्छाजन्या कृ ितभपिेत्। कृ ितजन्यं भिेत्कमप तदेतत् कृ तमुच्यते॥ ऄथप ह्लक्रया कह्ळ र्रस्र्र अहुित यज्ञ है, यहां आिन्ियों का ििषय ऄथप कहा है। भौितक यज्ञों का क्रम-एक यज्ञ के अधार र्र दूसरा यज्ञ चलता है, यही यज्ञ िारा यज्ञ का यजन है (र्ुरुष सूक्त, १६)। शरीर के भीतर यज्ञों का क्रम है-स्थूल भोजन -रस(िि)-ऄसृक् (िि में ठोस कण)-मांस-मेद-ऄिस्थ-मज्जा (ऄिस्थ का भीतरी भाग)-शुक्र-ओजस्। आन स्तरों र्र मल हैं-मल, िर्र्त्, कान के मल अह्लद, र्सीना, के श-नख, ग्रिन्थ-स्राि, सन्तित। अिधभौितक यज्ञों का क्रम प्रायः आस प्रकार हैकृ िष-िितरण-तेल अह्लद ईद्योग-घर में र्काना, भोजन-र्ाचन। कृ िष िषाप र्र अधाह्ऱरत है, ऄतः आस क्रम में दैिहक-दैििक-भौितक सभी यज्ञ अते हैं। िषाप दैििक, कृ िष भौितक, र्ह्ऱरश्रम, भोजन दैिहक है। र्रस्र्र सम्बन्ध होने के कारण देि-मनुष्यों का र्रस्र्र यजन कहा गया है (गीता ३/११)। सभी ईद्योग कच्चे माल र्र अधाह्ऱरत हैं। आनका ईत्र्ादन, र्ह्ऱरिहन, ििक्रय अह्लद यज्ञों के क्रम हैं। गुरु-िशष्य क्रम में िशक्षा का प्रसार ििस्तार ज्ञान यज्ञ का चक्र है। यह भौितक अध्याित्मक दोनों है। आसका प्रतीक िट-िृक्ष है, िजसकह्ळ शाखा जमीन से लगकर नया िृक्ष बनती है, आसी प्रकार गुरु िशष्य को ज्ञान देकर ऄर्ने जैसा मनुष्य बनाता है (दिक्षणामूह्सर्त् स्तोत्र)। (६) ऄश्वमेध यज्ञ के रूर्-अकाश में गित का कारण ऄश्व है जैसे र्ृथ्िी र्र ऄश्व गािी खींचता है। सौर मण्डल के भीतर सूयप रिश्मयों कह्ळ ७ प्रकार कह्ळ ह्लक्रया होती हैं, िजनको सूयप कह्ळ ७ रिश्म या ऄश्व कहा गया है। आनके ईद्धरण (यजु १५/१५) कू मप (४३/२-८) अह्लद से ह्लदये जा चुके हैं। ह्लकरणों से िनमापण ह्लक्रया बुध कक्षा से अरम्भ होती है-ह्लकरण का िह तेज ििश्वकमाप है। शुक्र ऄिधक तेजस्िी है-ईससे प्रभािित ह्लकरण ििश्वश्रिा है। र्ृथ्िी के र्ास सम-शीतोष्ण क्षेत्र है ऄतः यहां कह्ळ ह्लकरण सुषुम्ना है। यहां सूयप (ऄक्ष = नयन) से ईठा तेज (ऄिङ्गरा) अकषपण िारा अकाशगंगा से अये र्दाथप (भृग)ु से िमलकर सृिि करता है जैसे माता के गभप में रज-िीयप के संयोग से सन्तान का जन्म होता है। ऄथ नयन समुत्थं ज्योितरत्रेह्ऱरिद्यौः सुरसह्ऱरह्लदि तेजो ििह्निनष्ठ्यूतमैशम्। नरर्ितकु लभूत्यै गभपमाधर्त् राज्ञी गुरुिभरिभिनिििं लोकर्ालानुभािैः॥ (रघुिंश २/७५) मंगल तथा बृहस्र्ित के र्ास ह्लकरण क्रमशः िस्थर हो जाती हैं-संयद् िसु, ऄिापग् िसु। शिन के र्ास के िल स्िर रह जाता है (व्यञ्जन= ऄञ्जन समान रं ग बनाना)। ईसके बाद हह्ऱरके श (सामान्य प्रकाश) है। र्ृथ्िी के िायुमण्डल में जो हिायें, ििशेषतः समुिी िायु चलती है, िह भी ऄश्व है। आस ऄश्व से समुि में जहाज चलते थे। कु छ जहाज ऄर्नी शिक्त से चलते थे। जो िायु से शिक्त कह्ळ याचना करते थे (र्ाल िारा) ईनको याचक (Yatch) कहते थे। महाराष्ट्र, ओििशा में यह नाििकों कह्ळ ईर्ािध थी। िजस क्षेत्र में समुिी िायु = ऄश्व मन्द हो जाते हैं, ईसे भिाश्व-िषप कहते थे, जो भारत के ९०० ऄंश र्ूिप था। 159
यह मुख्यतः प्र्महासागर क्षेत्र था, शान्त िायु के कारण आसे प्रशान्त महासागर (Pacific ocean) कहते हैं। ईसके िनकट का स्थल भाग (जार्ान = र्ञ्चजन िीर्,= ५ िीर्ों का समूह) या कोह्ऱरया प्रायः ४०० ईर्त्र ऄक्षांश र्र हैं िजनको अज भी भिाश्व = हौसप लैह्ऱटच्युड (Horse latitude) कहते हैं। भौितक ऄश्वमेध यज्ञ शासन में यातायात, सञ्चार कह्ळ बाधायें दूर करना है। आसी ऄथप में कथाओं में कहते हैं ह्लक र्ूरे देश में घोिा छोिते थे जो िनबापध रूर् से घूमता था। िस्तुतः यह प्रत्येक राजा का कर्त्पव्य है, र्र कु छ ही ििख्यात राजाओं ने ऄश्वमेध ह्लकया। आसके २ मुख्य ऄथप हैं-र्ूरे भारत िषप र्र दीघपकािलक शासन िजसे चक्रिर्त्ी राजा कहते थे। दूसरा यह ह्लक एक शासन होने र्र भी मार्-तौल, मुिा अह्लद कह्ळ एक व्यिस्था, राजमागप, स्थानीय करों में कमी अह्लद कह्ळ व्यिस्था नहीं हो र्ाती है। रामायण में भौितक ऄश्वमेध के ऄितह्ऱरक्त अध्याित्मक ऄश्वमेध कह्ळ भी चचाप है। राजा दशरथ का र्ुत्रकामेिि यज्ञ भी ऄश्वमेध कहा गया है। शरीर में प्राण का प्रिाह भी ऄश्व है, िजससे शरीर कह्ळ ह्लक्रयायें चलती हैं। दशरथ कह्ळ अयु राम जन्म के सम्य प्रायः ६७ िषप थी तथा कौशल्या, सुिमत्रा भी र्ुत्र जन्म कह्ळ ऄिस्था र्ार कर चुकह्ळ थीं। जब ििश्वािमत्र रामलक्ष्मण को मांगने अये थे, तो दशरथ ने कहा ह्लक ईनकह्ळ अयु ६०,००० िषप हो चुकह्ळ है। यहां नीलकण्ठ के मत से ऄहोरात्र के २ िषप हैं, ह्लदन तथा राित्र दोनों को १-१ िषप माना गयाहै। ऄतः ६०,००० ऄहो-रात्र िषप = ६००००/७२० = ८२ सौर िषप।ईसके १५ िषप र्ूिप राम जन्म के समय दशरथ ६७ िषप के थे। ऄतः र्ुत्र जन्म के िलये दशरथ तथा ईनकह्ळ र्ित्नयों में प्राण का सञ्चार जरूरी था। ऄश्व के िििभन्न ऄथों में प्रयोग-(१) गितशील ऄिग्न या िििान्-प्र नूनं जातिेदसम् ऄश्वं िहनोत। िािजनम् आदं नो बह्सहरासदे। (ऊक् १०/१८८/१) (२) िीयप-िीयं िा ऄश्वः-(शतर्थ ब्राह्मण २/१/४/२३) (३) िज्रो ऄश्वः। (शतर्थ ब्राह्मण १३/१/२/९)-मेघ का ििद्युत् या सौर मण्डल में सूयप कह्ळ ह्लकरण आन्ि का िज्र हैं। (४) आन्िो ऄश्वः। (कौषीतह्लक ब्राह्मण १५/४)-आन्ि राजा रूर् में देश चलाता है, ह्लकरण रूर् में जीिन। (५) अत्मा-ब्रह्मन्नश्वं भन्त्सयािम देिभ्यः प्रजार्तये (िाज. यजु. २२/४, मैत्रायणी सं. ३/१२/१, शतर्थ ब्राह्मण १३/१/२/४) (६) कमेिन्िय-गोिभरश्विभिपसुिभन्यृपिः। (ऊक् १०/१०८/७) (७) सौर शिक्त-सौयो िा ऄश्वः। (गोर्थ ब्राह्मण ईर्त्र ३/१९) (८) र्शु ऄश्व-ऄश्वो मनुष्यान् (ऄिहत्) (शतर्थ ब्राह्मण १०/६/४/१) (९) िरुण, जल या प्रजार्ित के ऄश्रु से ईत्र्न्न-प्राजार्त्यो िा ऄश्वः। (शतर्थ ब्राह्मण ६/५/३/९) िारुणो िा ऄश्वः। (शतर्थ ब्राह्मण ७/५/२/१८) प्रजार्तेः ऄिक्ष ऄश्वयत्। तत् र्रार्तत् ततो ऄश्वः समभित्यद् ऄश्वयत् तद् ऄश्वस्य ऄश्वत्िम्। (शतर्थ ब्राह्मण १३/३/१/१) (१०) ऄश्वमेध यज्ञ से राष्ट्र या व्यिक्त दोनों कह्ळ शिक्त बढ़ती है-श्रीिव राष्ट्रमश्वमेधः। (शतर्थ ब्राह्मण १३/२/९/२, तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/९/७/१) प्राणार्ानौ िा एतौ देिानाम्। यदकापश्वमेधौ। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/९/२१/३) एष (ऄश्वमेधः) िै ब्रह्मिचपसी नाम यज्ञः। एष िै तेजस्िी नाम यज्ञः। एष िै ऄितव्यािध नाम यज्ञः। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण ३/९/१९/३)
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आञ्जन कह्ळ शिक्त कह्ळ मार् भी ऄश्वशिक्त (Horse power) में कह्ळ जाती है। प्राचीन काल में भी ऐसा प्रयोग लगता हैघटोत्कच के रथ में १००० ऄश्व होने का यही ऄथप है, ह्लकसी रथ में आतने घोिे नहीं लगाये जा सकते। आसी प्रकार ऄजुपन, आन्ि, रािण के ह्लदव्य रथ हिा में ईिते थे-सामान्य ऄश्व नहीं ईि सकता है। राजसूय यज्ञ-अकास में लोकों को रज कहते हैं। ईनके िनमापण तथा र्ालन कह्ळ ह्लक्रया राजसूय यज्ञ है। सूय= िनमापण या जन्म। आमे िै लोका रजांिस। (िाज. यजु. ११/६, शतर्थ ब्राह्मण ६/७/३/१०) सोमो िैष्णिो राजेत्याह। (शतर्थ ब्राह्मण १३/४/३/८) यो राजसूयः स िरुण सिः। (शतर्थ ब्राह्मण ५/३/४/१२, तैिर्त्रीय ब्राह्मण २/७/६/१) तस्माद् राजसूयेन आजानः सिं अयुः एित। (तैिर्त्रीय ब्राह्मण १/७/७/५) िरुण के जल(ब्रह्माण्ड के अकास में फै ला र्दाथप) से सौर मण्डल कह्ळ सृिि हुइ। माता के गभप में शरीर का ििकास भी जल से िघरकर होता है। जन्म के बाद शरीर में जलीय प्रिाह (रक्त सञ्चार, र्ाचन अह्लद) िारा शरीर का ििकास या र्ालन होता है। राज्य का र्ालन प्रजा से कर लेकर होता है। धन का मुक्त प्रिाह भी िि (जल) कह्ळ तरह है ऄतः ईसे िव्य (Liquidity of currency) कहते हैं। (७) िाजर्ेय यज्ञ-िाज भी एक प्रकार का सोम है। िाजीकरण का ऄथप शरीर कह्ळ शिक्त बढ़ाना है। ऄतः शरीर का रोग दूर कर िििभन्न प्रकार के व्यायामों से ईसकह्ळ शिक्त बढ़ाना िाजर्ेय यज्ञ है। राज्य कह्ळ शिक्त बढ़ाने के िलये लोगों कह्ळ िशक्षा, सैन्य शिक्त, ईत्र्ादन अह्लद ईर्ाय हैं। १२०० इ. में र्ुरी में जगन्नाथ मिन्दर का िनमापण भी िाजर्ेय यज्ञ कहा गया है। ईस समय २ बार भीषण चक्रिात अये थे। मिन्दर के िल ओिडशा ही नहीं र्ूरे भारत को एक सूत्र में बान्ध कर ईसे शिक्तशाली बनाने का माध्यम था जब ऄिधकांश भारत र्राधीन हो चुका था। सभी भारतीयों कह्ळ अशा का के न्ि होने से ओिडशा राजा को ९ कोह्ऱट का ऄिधर्ित कहा जाता था। (८) र्ुरुष सूक्त में सृिि क्रम-१. र्ूरुष (३ र्ाद ऄमृत या मूल रस +१ र्ाद िनह्समत ििश्व) २. ििश्व िनमापण के १००० स्रोत, प्रकार, र्ह्ऱरणाम (सहस्र शीषप, ऄक्ष, र्ाद) ३. ििराट् र्ुरुष-दृश्य रचनायें-ब्रह्माण्ड,नक्षत्र, ग्रह। ४. ऄिधर्ूरुष-ििराट् रूर् का ऄिधष्ठान-ईनकह्ळ ह्लक्रया, गित। ५. ग्राम्य, ऄरण्य र्शु-अकाश में िििभन्न प्रकार कह्ळ शिक्तयां। ग्राम्य = साथ िमलकर रहना। अरण्य = एक दूसरे से स्र्धाप। ६. ४० प्रकार के ४-४ िणप, िेद। ७. सप्त र्ह्ऱरिध या लोक संस्था। ८ . तीन प्रकार कह्ळ सप्त सिमधा। ९. यज्ञ का ईर्ादान, ह्लक्रया, फल। १०. यज्ञों का समन्िय। र्ाञ्चरात्र दशपन का क्रम-१. िासुदेि (िास स्थान)-अकाश। २. संकषपण -िर्ण्डों का र्रस्र्र अकषपण। ३. प्रद्युम्न-िर्ण्ड के घनीभूत होने से तारा िारा तेज का ििह्लकरण िजससे जीिन ह्लक्रया अरम्भ। ४. ऄिनरुद्ध-ऄनन्त प्रकार के जीिन रूर्। 161
सांख्य दशपन-१. र्ुरुष+ प्रकृ ित। २. महत् तत्त्ि-र्दाथों का िमलन, संहित। ३. ऄहंकार-ह्लकसी िर्ण्ड कह्ळ एकरूर्ता। ४. तन्मात्रा-मार् के ५ प्रकार। ५. मन ६. ज्ञानेिन्िय ७. कमेिन्िय ८. चेतन ह्लक्रया ९. र्ुनः नयी सृिि (कु मार सगप)।
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